सुधी जनों को अनामिका का सादर नमन! आइये जानते हैं दिनकर जी जैसे साहित्यकार के कान कैसे जनता के हृदय की बात सुन लेते हैं.
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१. देवता हैं नहीं २. नाचो हे, नाचो, नटवर ३. बालिका से वधू ४. तूफ़ान ५. अनल - किरीट ६. कवि की मृत्यु ७. दिगम्बरी 8. ओ द्विधाग्रस्त शार्दूल, बोल ! 9.दिल्ली 10. विपथगा 11. हिमालय
दिनकरजी जीवन दर्पण भाग - १२
दिनकर जी लिखते हैं.....
मधुर जीवन हुआ कुछ प्राण ! जब से
लगा धोने व्यथा का भार हूँ मैं,
रुदन अनमोल धन कवि का, इसीसे
पिरोता आंसुओं का हार हूँ मैं.
राष्ट्रीय कवि के रूप में प्रसिद्धि दिनकरजी को रेणुका से ही प्राप्त हो गयी थी. हुंकार से उस प्रसिद्धि को प्रसार और व्यापक स्वीकृति-मात्र प्राप्त हुई. हुंकार की कविताओं से यह भी स्पष्ट हो गया कि छायावाद का पलायन भाव हिंदी के छायावाद्दोतर कवियों को पसंद नहीं था; कम से कम दिनकरजी ने तो यह स्पष्ट कर दिया था कि कलाकार कहलाने के लिए यदि मात्र कल्पना में भटकना वांछनीय हो तो मुझे यह सुयश नहीं चाहिए. इससे अच्छा काम तो यह है कि कवि चारण और वैतालिक बन जाए.
अमृत-गीत तुम रचो कलानिधि !
बुनो कल्पना की जाली,
तिमिर-ज्योति की समर भूमि का
मैं चारण, मैं वैताली !
(हुंकार)
जहाँ तक शुद्ध क्रांतिकारी भावनाओं का प्रश्न है, हुंकार की कितनी ही पंक्तियाँ ऐसी हैं जिनके भीतर तत्कालीन युवकों की अदम्य उमंग और वीरता के भाव अत्यंत ओजस्वी रूप में प्रकट हुए हैं :
हटो व्योम के मेघ पंथ से,
स्वर्ग लूटने हम आते हैं,
दूध ! दूध ! ओ वत्स ! तुम्हारा
दूध खोजने हम जाते हैं.
(हाहाकार)
स्वाधीनता की प्राप्ति और समाज से वैषम्य हटाकर सबके लिए सुख खोजने की जो उमंग उस समय देशवासियों के हृदय में लहर ले रही थी, उसका पूरा विस्फोट इस कविता में आ गया है.
सन 1942 के बहुत पूर्व ही दिनकरजी के भीतर यह विश्वास उत्पन्न हो गया था कि क्रांति अब समीप आ गयी है और देश में विस्फोट होने ही वाला है. और उनका यह विश्वास उनकी उस समय की अनेक कविताओं में प्रकट हुआ था. ये सभी कवितायें यह पक्का प्रमाण उपस्थित करती हैं कि कवि के कान सीधे जनता के हृदय से लगे हुए थे और वातावरण में जो गर्मी भरती जा रही थी उसे वह क्षण-क्षण समझ रहा था.
दिशा गूंजी, बिखरता व्योम में उल्लास लाया,
नये युग-देव का नूतन कटक, लो, पास आया !
पहन द्रोही कवच रण में युगों के मौन बोले,
ध्वजा पर चढ़ अनागत धर्म का हुंकार बोला !
नये युग की भवानी, आ गयी बेला प्रलय की,
दिगम्बरी ! बोल अम्बर में किरण का तार बोला !
(दिगम्बरी)
अब की अगस्त्य की बारी है, पापों के पारावार ! सजग,
बैठे 'विसूबियस' के मुख पर भोले अबोध संसार, सजग,
रेशों का रक्त कृशानु हुआ, ओ जुल्मी की तलवार, सजग,
दुनिया के नीरो, सावधान, दुनिया के पापी जार, सजग !
जाने किस दिन फुंकार उठे, पददलित कालसर्पों के फन !
(विपथगा)
ले अंगडाई, उठ, हिले धरा,
कर निज विराट स्वर में निनाद,
तू शैलराज, हुंकार भरे,
फट जाए कुहा, भागे प्रमाद !
तू मौन त्याग कर सिंघनाद ,
रे तापी, आज तप का न काल,
नवयुग-शंख-ध्वनि जगा रही,
तू जाग, जाग , मेरे विशाल !
(हिमालय )
ओ मदहोश, बुरा फल है शूरों के शोणित पीने का,
देना होगा तुम्हें एक दिन गिन-गिन मोल पसीने का !
कल होगा इन्साफ यहाँ किसने क्या किस्मत पायी है,
अभी नींद से जाग रहा युग, यह पहली अंगडाई है !
(अनल किरीट)
फिर डंके पर चोट पड़ी है,
मौत चुनौती लिए खड़ी है,
लिखने चली आग, अम्बर पर कौन लिखायेगा निज नाम ?
(प्रगति )
हुंकार के बाद जब रसवंती निकली, प्रगतिवादी साहित्य के पक्षपाती दिनकरजी से निराश होने लगे. उन्हें लगा मानो दिनकर भी थककर बौद्धिक हस्तिदंत की मीनार में लौट रहे हैं. पर रसवंती और द्वन्द गीत की छाया में किंचित विश्राम लेकर दिनकर फिर क्रांतिकारी काव्य की ओर लौट पड़े.
कुरुक्षेत्र का प्रकाशन रसवंती और द्वन्द गीत के प्रकाशन के बहुत बाद हुआ. जब कुरुक्षेत्र निकला, कट्टर गांधीवादी उस काव्य से विक्षुब्ध हो गए क्योंकि उसमे हिंसा का आंशिक समर्थन किया गया था. उस समय छिपे छिपे यह कानाफूसी भी चलती रही कि दिनकर अब उन लोगों के कवि हैं, जो गांधी जी की अहिंसा में सच्चे मन से विश्वास नहीं करते. पर गांधीजी को छोड़कर अहिंसा में सच्चे मन से विश्वास और करता कौन था ? सबके सब उसे निः शस्त्रिकृत राष्ट्र की नीति भर मानते थे. यह स्थिति सन १९४१ में ही स्पष्ट हो चुकी थी जब कांग्रेस ने यह प्रस्ताव किया था की अंग्रेज भारत को स्वराज्य दे दें, तो भारत मित्र-राष्ट्रों के वास्ते युद्ध करने को तैयार है. इसी प्रस्ताव के कारण गांधीजी ने कांग्रेस से इस्तीफ़ा दे दिया.
दिनकरजी के हिंसा-अहिंसा सम्बन्धी विचार कुरुक्षेत्र में आकर नहीं बदले. आरम्भ से ही वे यह सोचते आ रहे थे की अन्याय का प्रतिकार यदि अहिंसा से संभव न हो, तो हिंसा का आश्रय लेना पाप नहीं है. भारत का पतन राक्षसी गुणों के कारण नहीं प्रत्युत कोमलता, वैराग्य-साधना और कथित देव गुणों के कारण हुआ, इस सत्य की अनुभूति उस समय प्राय समस्त शिक्षित समाज को हो रही थी और दिनकरजी आरम्भ से ही इस अनुभूति की कविता बनाकर देश का हृदय हिलाते आ रहे थे. हिमालय नामक कविता में उन्होंने कहा था -
रे रोक युधिष्ठर को न यहाँ,
जाने दे उनको स्वर्ग धीर !
पर, फिर हमें गांडीव-गदा
लौटा दे अर्जुन-भीम वीर !
फिर हुंकार में तो उन्होंने स्पष्ट ही गांधीजी के अहिंसा-उपदेश से अपनी असहमति प्रकट की थी. उस संग्रह की एक कविता में 'शास्ता' शब्द आया है. यह नाम बुद्ध को नहीं, प्रत्युत गांधीजी को ही सांकेतिक करता है.
ऊब गया हूँ देख चतुर्दिक अपने
अजा धर्म का ग्लानी-विहीन प्रवर्तन ;
युग-सत्तम सबुद्ध पुनः कहता है,
ताप कलुष है, शिखा बुझा दो मन की !
मैं मनुष्य हूँ, दहन धरम है मेरा,
मृत्ति-साथ अग्निस्फुलिंग है मुझमे !
तुम कहते हो, 'शिखा बुझा दो,' लेकिन.
आग बुझी तो पौरुष शेष रहेगा ?
(कल्पना की दिशा, हुंकार )
और हिंसा का यह समर्थन क्यूँ ? सिर्फ इसलिए की हमारे चारों ओर हिंसक घूम रहे हैं. जो दर्शन कुरुक्षेत्र में पल्लवित हुआ, उसका बीज हुंकार में ही गिरा था.
तृणाहार कर सिंह भले ही फूले,
परमोज्जवल देवत्व-प्राप्ति के मद में,
पर हिंसों के बीच भोगना होगा,
नख-रद के क्षय का अभिशाप उसे ही !
(कल्पना की दिशा, हुंकार )
कुरुक्षेत्र में आकर यही भाव सुस्पष्टता से लिखा गया -
त्याग,तप,करुणा, क्षमा से भीगकर
व्यक्ति का मन तो बलि होता, मगर
हिंस पशु जब घेर लेते हैं उसे,
काम आता है बलिष्ठ शरीर ही.
तथा
कौन केवल आत्मबल से जूझकर
जीत सकता देह का संग्राम है
पाशविकता खडग जब लेती उठा,
आत्मबल का एक बस चलता नहीं.
क्रमशः
लीजिये प्रस्तुत है दिनकर जी की ओजपूर्ण 'हाहाकार' रचना -
हाहाकार
दिव की ज्वलित शिखा सी उड़ तुम जब से लिपट गयी जीवन में,
तृषावंत मैं घूम रहा कविते ! तब से व्याकुल त्रिभुवन में !
उर में दाह, कंठ में ज्वाला, सम्मुख यह प्रभु का मरुथल है,
जहाँ पथिक जल की झांकी में एक बूँद के लिए विकल है.
घर, घर देखा धुआं पर, सुना, विश्व में आग लगी है,
'जल ही जल' जन-जन रटता है, कंठ-कंठ में प्यास जगी है.
सूख गया रस श्याम गगन का एक घुन विष जग का पीकर,
ऊपर ही ऊपर जल जाते सृष्टि-ताप से पावस सीकर !
मनुज वंश के अश्रु-योग से जिस दिन हुआ सिन्धु-जल खारा,
गिरी ने चीर लिया निज उर, मैं ललक पड़ा लाख जल की धारा.
पर विस्मित रह गया, लगी पीने जब वही मुझे सुधी खोकर,
कहती- 'गिरी को फाड़ चली हूँ मैं भी बड़ी विपासित होकर'.
यह वैषम्य नियति का मुझपर, किस्मत बढ़ी धन्य उन कवि की,
जिनके हित कविते ! बनतीं तुम झांकी नग्न अनावृत छवि की .
दुखी विश्व से दूर जिन्हें लेकर आकाश कुसुम के वन में,
खेल रहीं तुम अलस जलद सी किसी दिव्य नंदन-कानन में.
भूषन-वासन जहाँ कुसुमों के, कहीं कुलिस का नाम नहीं है.
दिन-भर सुमन-हार-गुम्फन को छोड़ दूसरा काम नहीं है.
वही धन्य, जिनको लेकर तुम बसीं कल्पना के शतदल पर,
जिनका स्वप्न तोड़ पाती है मिटटी नहीं चरण-ताल बजकर !
मेरी भी यह चाह विलासिनी ! सुन्दरता को शीश झुकाऊं,
जिधर-जिधर मधुमयी बसी हो, उधर वसंतानिल बन जाऊं !
एक चाह कवि की यह देखूं, छिपकर कभी पहुँच मालिनी तट,
किस प्रकार चलती मुनिबाला यौवनवती लिए कटी पर घाट !
.........
शोणित से रंग रही शुभ्र पट संस्कृति निठुर लिए करवालें,
जला रही निज सिंहपौर पर दलित-दीन की अस्थि मशालें.
घूम रही सभ्यता दानवे, 'शांति ! शांति !' करती भूतल में,
पूछे कोई, भिगो रही वह क्यों अपने विष दन्त गरल में.
टांक रही हो सुई चरम पर, शांत रहें हम, तनिक न डोलें,
यही शान्ति, गर्दन कटती हो, पर हम अपनी जीभ न खोलें ?
बोले कुछ मत क्षुधित, रोटियां श्वान छीन खाएं यदि कर से,
यही शांति, जब वे आयें, हम निकल जाएँ चुपके निज घर से ?
चूस रहे हों दनुज रक्त, पर, हों मत दलित प्रबुद्ध कुमारी !
हो न कहीं प्रतिकार पाप का, शांति या कि यह युद्ध कुमारी !
जेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है,
छाते कभी संग बैलों का , ऐसा कोई याम नहीं है.
मुख में जीभ, शक्ति भुज में, जीवन में सुख का नाम नहीं है,
वसन कहाँ ? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है.
बैलों के ये बंधू वर्ष भर, क्या जाने, कैसे जीते हैं ?
बंधी जीभ, आँखे विषष्ण, गम खा, शायद आंसू पीते हैं.
पर, शिशु का क्या हाल, सीख पाया न अभी जो आंसू पीना ?
चूस-चूस सुखा स्तन माँ का सो जाता रो-विलप नगीना.
विवश देखती माँ, अंचल से नन्ही जान तड़प उड़ जाती,
अपना रक्त पिला देती यदि फटती आज वज्र की छाती.
कब्र-कब्र में अबुध बालकों की भूखी हड्डी रोती है,
'दूध-दूध !' की कदम कदम पर सारी रात सदा होती है.
'दूध-दूध !' ओ वत्स ! मंदिरों में बहरे पाषाण यहाँ हैं,
'दूध-दूध !' तारे, बोलो, इन बच्चों के भगवान् कहाँ हैं ?
'दूध-दूध !' दुनिया सोती है, लाऊं दूध कहाँ, किस घर से ?
'दूध-दूध !' हे देव गगन के ! कुछ बूँदें टपका अम्बर से !
'दूध-दूध !' गंगा तू ही अपने पानी को दूध बना दे,
'दूध-दूध !' उफ़ ! है कोई, भूखे मुर्दों को जरा मना दे ?
'दूध-दूध !' फिर 'दूध !' अरे क्या याद दुख की खो न सकोगे ?
'दूध-दूध !' मरकर भी क्या टीम बिना दूध के सो न सकोगे ?
वे भी यहीं, दूध से जो अपने श्वानों को नहलाते हैं.
वे बच्चे भी यही, कब्र में 'दूध-दूध !' जो चिल्लाते हैं.
बेक़सूर, नन्हे देवों का शाप विश्व पर पड़ा हिमालय !
हिला चाहता मूल सृष्टि का, देख रहा क्या खड़ा हिमालय ?
'दूध-दूध !' फिर सदा कब्र की, आज दूध लाना ही होगा,
जहाँ दूध के घड़े मिलें, उस मंजिल पर जाना ही होगा !
जय मानव की धरा साक्षिणी ! जाय विशाल अम्बर की जय हो !
जय गिरिराज ! विन्ध्यगिरी, जय-जय ! हिंदमहासागर की जय हो !
हटो व्योम के मेघ ! पंथ से, स्वर्ग लूटने हम आते हैं,
'दूध, दूध ! ...' ओ वत्स ! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं !
हुंकार (१९३७)
बहुत सार्थक प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंदिनकर जी को नमन!
इसी प्रस्ताव के कारण गांधीजी ने कांग्रेस से इस्तीफ़ा दे दिया.
जवाब देंहटाएंजहाँ तक मुझे मालूम है गांधी जी ने कांग्रेस से कभी स्तीफ़ा नहीं दिया ... यह मेरे लिए नयी जानकारी है ...
अच्छी प्रस्तुति
दिनकर जी की चुनी हुई कवितायें पढ़ने को मिल रही हैं -आपका आभार !
जवाब देंहटाएंघर, घर देखा धुआं पर, सुना, विश्व में आग लगी है,
जवाब देंहटाएं'जल ही जल' जन-जन रटता है, कंठ-कंठ में प्यास जगी है.
एक महान रचनाकार की महान रचना से रू-ब-रू कराने के लिए शुक्रिया।
sundar ! dinkar ji padhwane ke liye aabhar !
जवाब देंहटाएंदिनकर जी की रचनाओं को पढवाने के लिये आभार
जवाब देंहटाएंदिनकर जी के काव्य निर्झर का आनद ले रहा हूँ ... बहुत ही अनुपम रचनाएँ हैं ...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आपका ...
दिनकर जी की अद्भुत अनुपम रचनाओं को पुन: पढ़ने का सुअवसर आप उपलब्ध करा रही हैं ! आपका बहुत-बहुत धन्यवाद अनामिका जी ! बहुत आनंद आ रहा है !
जवाब देंहटाएंफिर से चर्चा मंच पर, रविकर का उत्साह |
जवाब देंहटाएंसाजे सुन्दर लिंक सब, बैठ ताकता राह ||
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शुक्रवारीय चर्चा मंच ।
आज अचानक इंटरनेट का कनेक्सन खतम हो जाने के काऱण आपके पोस्ट पर कुछ कमेंट न दे सका । अभी आपका पोस्ट पढ़ा एवं जिस रूप में आपने रामधारी सिंह दिनकर जी को प्रस्तुत किया है। बहुत ही अच्छा लगा । इनको पढ़ना बहुत बड़ी बात होती है,इसलिए कि इनकी प्रत्येक रचनाएं पाठकों के साथ जुड़ जाती हैं, चाहे वह "नील कुसुम" हो,"हुंकार" हो या "रसवंती"। यह पोस्ट मुझे बहुत प्रिय है । आशा है आप भविष्य में भी इसी तरह उनके बारें में जानकारियां प्रदान करती रहेंगी । धन्यवाद सहित ।
जवाब देंहटाएंकौन केवल आत्मबल से जूझकर
जवाब देंहटाएंजीत सकता देह का संग्राम है
पाशविकता खडग जब लेती उठा,
आत्मबल का एक बस चलता नहीं.
दिनकर जी के जीवन के अन्तरंग पक्ष से आपने बारहा परिचित करवाया है कृतित्व से भी .शुक्रिया .
दिनकर की हर रचना प्रेरित करती है..
जवाब देंहटाएंdad deti hoon ....apke sankalan ko is tarah bayan karne ke lie
जवाब देंहटाएंMaaf karen....kharab tabiyat ke aapko padh nahee payi samayse!Sahity me Dinkar ji ka sthan amar hai!
जवाब देंहटाएंcan anyone explain these lines. ..कौन केवल आत्मबल से जूझकर, जीत सकता देह का संग्राम है,पाशविकता खड्ग जो लेती उठा, आत्मबल का एक वश चलता नहीं।
जवाब देंहटाएंknowledgeinhindiii.blogspot.com
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