नहीं टूटती तुझ पर सब के
साथ विपद यह भारी ,
जाग मूढ़ , आगे के हित
अब भी तो कर तैयारी ।
और , जगा , सचमुच मनुष्य
पछतावे से घबरा कर ,
लगा जोड़ने अपना धन
औरों की आँख बचा कर ।
चला एक नर जिधर , उधर ही
चले सभी नर - नारी ,
होने लगी आत्मरक्षा की
अलग - अलग तैयारी ।
लोभ - नागिनी ने विष फूंका ,
शुरू हो गयी चोरी ,
लूट , मार , शोषण , प्रहार
छीना - झपटी, बरजोरी ।
छिन्न - भिन्न हो गयी शृंखला
नर - समाज की सारी ,
लगी डूबने कोलाहल के
बीच महि बेचारी ।
तब आयी तलवार शमित
करने को जगद्दहन को
सीमा में बांधने मनुज की
नयी लोभ नागिन को ।
और खड्गधर पुरुष विक्रमी
शासक बना मनुज का
दण्ड- नीति - धारी त्रासक
नर- तन में छिपे दनुज का ।
तज समष्टि को व्यष्टि चली थी
निज को सुखी बनाने ,
गिरि गहन दासत्व - गर्त के
बीच स्वयं अनजाने ।
नर से नर का सहज प्रेम
उठ जाता नहीं भुवन से ,
छल करने में सकुचाता यदि
मनुज कहीं परिजन से ।
रहता यदि विश्वास एक में
अचल दूसरे नर का
निज सुख चिंतन में न भूलता
वह यदि ध्यान अपर का ।
रहता याद उसे यदि , वह कुछ
और नहीं है , नर है
विज्ञ वंशधर मनु का , पशु -
पक्षी से योनि इतर है ।
तो न मानता कभी मनुज
निज सुख गौरव खोने में ,
किसी राजसत्ता के सम्मुख
विनत दास होने में ।
सह न सका जो सहज - सुकोमल
स्नेह सूत्र का बंधन ,
दण्ड - नीति के कुलिश - पाश में
अब है बद्ध वही जन ।
दे न सका नर को नर जो
सुख - भाग प्रीति से , नय से
आज दे रहा वही भाग वह
राज - खड्ड के भय से ।
अवहेला कर सत्य- न्याय के
शीतल उद्दगारों की
समझ रहा नर आज भली विध
भाषा तलवारों की ।
इससे बढ़ कर मनुज - वंश का
और पतन क्या होगा ?
मानवीय गौरव का बोलो
और हनन क्या होगा ?
नर - समाज को एक खड्डधर
नृपति चाहिए भारी ,
डरा करें जिससे मनुष्य
अत्याचारी , अविचारी ।
नृपति चाहिए , क्योंकि परस्पर
मनुज लड़ा करते हैं
खड्ड चाहिए , क्योंकि न्याय से
वे न स्वयं डरते हैं ।
सुन्दर रचना। बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया एवं बहुत ही सार्थक रचना...दिनकर जी की इस उत्कृष्ट रचना को यहाँ पड़वाने के लिए आभार...
जवाब देंहटाएंसुन्दर..
जवाब देंहटाएंनर - समाज को एक खड्डधर
जवाब देंहटाएंनृपति चाहिए भारी ,
डरा करें जिससे मनुष्य
अत्याचारी , अविचारी ।
परिस्थितियां कुछ ऐसी हैं, कि आज इसकी बहुत ज़रूरत महसूस हो रही है।