गिरता रुपया : देश की खोखली अर्थव्यवस्था की ओर इशारा
सबसे पहले बता दूं कि मैं कोई अर्थशास्त्री नहीं हूं और जो कोई अपना घर चला लेता है वह अर्थशास्त्री ही है. जहाँ तक देश की अर्थव्यवस्था का सवाल है, हाल ही में जिस तरह डालर के मुकाबले रुपया तेज़ी से गिरा है, यह कोई आर्थिक घटना मात्र नहीं है बल्कि देश की खोखली हो चुकी अर्थव्यवस्था की ओर इशारा कर रहा है.
आम बोलचाल की भाषा में समझे तो डालर के मुकाबले रुपये के भाव का गिरने का कारण है आयात और निर्यात में अंतर. तकनीकी भाषा में इसे करेंट अकाउंट घाटा कहते हैं. करेंट अकाउंट का तात्पर्य है व्यापार संतुलन अर्थात कुल निर्यात में से कुल आयात जिसमे उत्पाद और सेवा शामिल हैं को घटाकर प्राप्त आंकड़ा और जिस अर्थव्यवस्था का व्यापार संतुलन सकारात्मक होता है वह सबल और आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था मानी जाती है.
बार बार यह जोर देकर कहा जाता है कि देश चौतरफा प्रगति कर रहा है लेकिन सच बात यह है कि यह प्रगति उधार की है.
चौंकाने वाला तथ्य यह है कि आज़ादी के बाद जब देश विषम परिस्थितियों में था तब भी हमारा व्यापार संतुलन सकारात्मक था और यह स्थिति कमोवेश सत्तर के दशक तक बनी हुई थी. सत्तर के दशक में करेंट अकाउंट घाटा नहीं था बल्कि यह १ बिलियन डालर सकारात्मक था, वहीँ २०११ में यह घाटा सकल घरेलू उत्पाद का ४% से अधिक हो कर १९ बिलियन यूएस डालर से अधिक पहुच गया है. ऐसे में दुनिया का विश्वास हमारी अर्थव्यवस्था पर डगमगाना बहुत सामान्य है.
फरवरी २०१२ में डालर का मूल्य लगभग ४८ रुपया था लेकिन अचानक क्या हो गया कि इसमें लगभग १६% की गिरावट आ गई और यह ५६ रूपये से अधिक पहुच गया. इसका सबसे बड़ा कारण है भारत का करेंट अकाउंट घाटा जो कि जी ड़ी पी का ४% से अधिक हो गया है, जिसकी भरपाई मुश्किल होती है. ताज्जुब की बात यह है कि जिस देश के प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री अर्थशास्त्री हो और पिछले दस वर्षो से देश की कमान उनके हाथ में हो . वहां इस घाटे को कम करने के कोई उपाय नहीं किये जा रहे. आम तौर पर जीडीपी का २.५% तक व्यापारिक घाटा सुरक्षित माना जाता है क्योंकि इसकी भरपाई आकस्मिक स्थिति में ऍफ़ आई आई, एन आर आई डिपोजिट से पूरी की जा सकती है लेकिन अभी देश एक तरह से कंगाली के ज्वालामुखी पर खड़ा है.
देश में ८०% से अधिक पेट्रोलियम उत्पादों का आयात हो रहा है, साथ ही ऊर्जा के अन्य श्रोतों जैसे कोयले का आयत भी किया जा रहा है. कुछ समय से सोने के आयात में भी काफी मुद्रा की जरुरत हो रही है. इनके आयात पर ना कोई नियंत्रण है न कोई ठोस नीति, फिर रूपये के स्वास्थ्य पर इनका असर पड़ना स्वाभाविक है. फिर भी वर्तमान अवस्था के लिए हमारी नीतियां जिम्मेदार हैं जब भारतीय रुपये को नब्बे के दशक के मध्य में एक्सचेंज रेट तंत्र में लाया गया. आर्थिक उदारीकरण की दिशा में यह प्रमुख कदम माना गया था लेकिन इस से व्यापर असंतुलन वाली अपनी अर्थव्यवस्था की मुद्रा को ट्रेडिंग में डाल दिया गया जिससे रुपये पर विश्व के किसी में कोने में होने वाली आर्थिक घटना का प्रभाव पड़ने लगा. थोड़ी सी स्मृति पर जोर डालेंगे तो पायेंगे कि जैसे ही रुपया एक्सचेज रेट तंत्र में आया वैसे ही एशियाई बाज़ार में संकट आया और रुपया अचानक से डालर के मुकाबले तेज़ी से गिरा था. कुछ ऐसा ही अब हुआ है जब यूरो ज़ोन में अर्थव्यवस्था गंभीर संकट में है, यूरो देशों से निवेश वापिस जा रहा है, एक के बाद एक घोटालो के कारण कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियों को जारी नोटिस के कारण, देश की साख घटी है, अपना देश चारो ओर से आर्थिक दलदल में है.
वित्त मंत्री और आर बी आई किसी तरह के नीतिगत कदम उठाने में असमर्थ हैं. सबसे आसान था पेट्रोलियम उत्पादों का दाम बढ़ाना, जो किया जा चुका है, जबकि कच्चे तेल के दाम में हुई कमी के वावजूद देश में पेट्रोल के दाम बढ़ाना, कतई भी तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता है. आज परिस्थियाँ पहले से अधिक गंभीर हैं. हमारा व्यापर घाटा लगातार बढ़ रहा है. सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धिदर में कमी आई है. हमारे पारंपरिक आर्थिक आधार जैसे कृषि में नकारात्मक वृद्धि है. ऐसे में यदि अर्थव्यवस्था में अनुशासन नहीं आता है, आयात पर लगाम नहीं लगते हैं तो आने वाला समय हमारी अर्थव्यवस्था के लिए और भी संकटप्रद होगा. रुपये के मोल का गिरना केवल रुपये का गिरना भर नहीं है. यह बता रहा है कि कमजोर पड़ रहे हैं हमारी अर्थव्यवस्था के स्तम्भ.
कोरिया जैसे देश हर चीज़ के लिए केवल आयात पर निर्भर हैं किन्तु उनका निर्यात, आयात से अधिक होता है, जिसका कारण है आयातित वस्तुओं में value addition. हमारे यहां Value Attrition ही अधिक है, दूसरी ओर भारत जैसे देश का आयात निर्यात से अधिक इसलिए है क्योंकि हमारी घरेलू खपत बढ़ रही है, आंतरिक क्रयशक्ति में वृद्धि के कारण. रूपये में गिरावट के दूसरे भी कई बाह्य कारण हैं जैसे :- आयातक देशों में गिरती अर्थव्यस्थाएं, विकसित देशों की पूँजी आवश्यकताओं के चलते पूँजी का उन देशों को पलायन, देश में पेट्रोल की बढ़ती मांग के चलते बढ़ते मूल्य पर ख़रीद, ब्रड़े पैमाने पर free convertibility के चलते विदेशी मुद्रा का पलायन, अंतर्राष्ट्रिय मुद्रा बाज़ार में उथल पुथल इत्यादि. घरेलू कारण मैं जानबूझ कर नहीं लिख रहा.
जवाब देंहटाएंIn last five years the goverment has spent all the foreign exchange reserves .
जवाब देंहटाएंIts hosted common wealth games , for that they had to pay in dollars all the service charges , buying of equipments , buying of machines and what not .
Besides that all the govt employees who go abroad on pretext of survey spend the dollars
we had surplus dollar till 3 years back and we were in a position to give loan to Europe against gold reserves aand today our coffers are empty .
Its sheer wastage of foriegn exchange that is creating this problem
Also in export the big importers have been allowed to open their offices in india and most of them now export the goods in their name and pay the manufacturer in rupee .This way there is no incoming dollars
Also when we buy products of companies like lg, samsung , and many others we promote their trade and not ours they grow and companies like onida , videocon etc dont
man reasons but primary wasting foriegn exchange
मन खिन्न है। क्या कहें।
जवाब देंहटाएंअरे इन लोगो को इशारा समझ कहाँ आता है ... वैसे भी जब तक इन का अर्थशास्त्र इन की खुद की आर्थिक जरूरतों को पूरा करता रहेगा ... "बस ठीक है ... कोशिश जारी है ... स्थिति तनावपूर्ण किन्तु नियंत्रण मे है..."
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - दुनिया मे रहना है तो ध्यान धरो प्यारे ... ब्लॉग बुलेटिन
jab tak ye ghotala sarkar gaddi par aaseen rahegi ye aayaat badhta rahega...niryaat ghatTa rahega....chahe hamare anaaj k godaamo me anaaj rakhne ki jagah n ho, barish me beh jaye, sad jaye, jarurat n ho fir bhi use doosre desho me bechne k liye business meetings nahi ho sakti kyuki pani se bhare matke me chhed bahut hain.....aur ham aam janta sirf doosron ko dosh dekar apni jimmedari puri kar leti hai.
जवाब देंहटाएंअर्थशास्त्री प्रधान मंत्री के राज में ये हाल हैं ।
जवाब देंहटाएंइन दिनों पेट्रोल कम्पनियां ही देश को चला रहीं हैं .बदरा को भी हम भूले नहीं लेकिन वहां टिपण्णी लिंक खुला ही नहीं . एक हमारा बदरा था… और एक। हा… हा… हा… हा….!
जवाब देंहटाएंवित्त मंत्री और आर बी आई किसी तरह के नीतिगत कदम उठाने में असमर्थ हैं. सबसे आसान था पेट्रोलियम उत्पादों का दाम बढ़ाना, जो किया जा चुका है, जबकि कच्चे तेल के दाम में हुई कमी के वावजूद देश में पेट्रोल के दाम बढ़ाना, कतई भी तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता है. आज परिस्थियाँ पहले से अधिक गंभीर हैं. हमारा व्यापर घाटा लगातार बढ़ रहा है. सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धिदर में कमी आई है. हमारे पारंपरिक आर्थिक आधार जैसे कृषि में नकारात्मक वृद्धि है. ऐसे में यदि अर्थव्यवस्था में अनुशासन नहीं आता है, आयात पर लगाम नहीं लगते हैं तो आने वाला समय हमारी अर्थव्यवस्था के लिए और भी संकटप्रद होगा. रुपये के मोल का गिरना केवल रुपये का गिरना भर नहीं है. यह बता रहा है कि कमजोर पड़ रहे हैं हमारी अर्थव्यवस्था के स्तम्भ.
जवाब देंहटाएंप्रस्तुतकर्ता मनोज कुमार पर 5:45 am
इन दिनों पेट्रोल कम्पनियां ही देश को चला रहीं हैं .बदरा को भी हम भूले नहीं लेकिन वहां टिपण्णी लिंक खुला ही नहीं . एक हमारा बदरा था… और एक। हा… हा… हा… हा….! आश्त्री
अर्थ मन्त्र और अर्थ शास्त्री 'अनर्थ ' हो गए हैं वेस्तिजीयल ओरगन से .एपेंडिक्स से .