हर वृहस्पतिवार की तरह आज आप सभी पाठकों को सादर प्रणाम करते हुए अनामिका फिर हाज़िर है इस ब्रहस्पतिवार अपनी कथासरित्सागर का पिटारा लेकर...
साथियों अब तक हम कथासरित्सागर के नौ अंक पूर्ण पढ़ चुके हैं जिनमे हमने शिव-पार्वती जी की कथा, वररुचि की कथा पाटलिपुत्र (पटना)नगर की कथा,उपकोषा की बुद्धिमत्ता, योगनंद की कथा पढ़ी..और अब गुणाढ्य (माल्यवान) की कथा की अंतिम कड़ी पर हैं..
गुणाढ्य की कथा के पिछले भाग में हमने मनन किया कि शिव के गण और पुष्पदंत (वररुचि) के मित्र माल्यवान अपने इस जन्म की कथा काणभूति सुनाते हुए बता रहे हैं कि वह एक ब्राह्मण पुत्री श्रुतार्था के पुत्र गुणाढ्य हैं जो अब राजा सातवाहन के मंत्री हैं. राजा सातवाहन शीघ्र अति शीघ्र व्याकरण पंडित बनना चाहता है. गुणाढ्य और उनके साथी मंत्री शर्ववर्मा में राजा को शीघ्रता से व्याकरण पारंगत करने की शर्त लगती है जिसमे गुणाढ्य शर्त हार जाते हैं और अपने वचन के अनुसार तीनों भाषाएं (संस्कृत, प्राकृत और देशी भाषा ) त्याग विंध्यवासिनी के दर्शन के लिए चले जाते हैं.
विंध्यवासिनी में गुणाढ्य काणभूति से मिलते हैं और बताते हैं कि यहाँ उन्होंने पिशाच भाषा सीखी है. गुणाढ्य काणभूति से आग्रह करते हैं कि अब वो वररुचि से सुनी ब्रहत्कथा उसे सुनाये जिसे गुणाढ्य पैशाची भाषा में लिखेंगे और उनकी भी शाप मुक्ति हो पायेगी.
गुणाढ्य ने ब्रहत्कथा को सात वर्षों में सात लाख छंदों में अपने रक्त से पैशाची (प्राकृत) में लिखा. उस महाकथा को काणभूति ने सुना, देखा और वह भी शाप मुक्त हो गया.
अब आगे....
गुणाढ्य ने सोचा - देवी पार्वती ने मेरी शापमुक्ति का उपाय बताते हुए कहा था कि मुझे इस कथा का प्रचार करना होगा तो मैं इसके प्रचार के लिए क्या करूँ, इसे किसको अर्पित करूँ ?
गुणदेव और नंदी देव जो गुणाढ्य के शिष्य थे उन्होंने सुझाव दिया कि - इस महान काव्य को अर्पित करने के लिए राजा सातवाहन से बढ़ कर और दूसरा उचित पात्र कौन हो सकता है. जैसे वायु एक झोंके में फूल की सुगंध को दूर दूर तक फैला देती है, ऐसे ही वे इस कथा का प्रसार करेंगे.
गुणाढ्य को ये सुझाव पसंद आया. वह इस काव्य को लेकर अपने शिष्यों के साथ प्रतिष्ठानपुर चल दिए . नगर में पहुच कर गुणाढ्य बाहर एक बगीचे में रुक गए और शिष्यों को राजा के पास भेजा.
शिष्यों ने राजा सातवाहन को ब्रह्त्कथा की पुस्तक का बताते हुए कहा कि यह गुणाढ्य की कृति है.
राजा ने उस पुस्तक का वृतांत सुनक कर कहा - एक तो सात लाख शलोकों में इतना लम्बा यह पोथा है, तिस पर नीरस पिशाच भाषा में लिखा हुआ और लिखावट मनुष्य के रक्त से की गयी है.
धिक्कार है ऐसी कथा को.
दोनों शिष्य चुपचाप पुस्तक उठा कर गुणाढ्य के पास लौट आये और अपने गुरु को राजा के व्यवहार की बात जस की तस बता दी.
यह सब सुन कर गुणाढ्य बहुत खिन्न हुए . वह उस बगीचे के पास ही एक ऊँची चट्टान पर बैठ गए तथा चट्टान के नीचे उसने एक अग्निकुंड बनवाया. जब अग्निकुंड में आग दहकने लगी, तो गुणाढ्य ने अपनी ब्रह्त्कथा पढना प्रारम्भ किया. शिष्य आँखों में आंसू भर कर यह दृश्य देख रहे थे. गुणाढ्य आस-पास के वन में रहने वाले मृगों और पशु-पक्षियों को कथा सुनाते हुए एक एक पन्ना आग में झोंकने लगे . वह कथा सुनाते जाते और सुनाये हुए भाग के पन्ने एक एक कर जलाते जाते . वन के पशुओं और पक्षियों ने आहार त्याग दिया. वे गुणाढ्य के आस पास स्तब्ध हो कर आँखों में आंसू भर कर ब्रह्त्कथा सुनते रहे.
इस बीच राजा सातवाहन अस्वस्थ हो गए. वैद्यों ने परीक्षा करके बताया - सूखा मांस खाने से राजा को रोग लग गया है.
पाकशाला के रसोइयों को बुला कर डांटा गया, तो उन्होंने कहा - इसमें हमारा क्या दोष ? बहेलियों से जैसा मांस हमें मिलता है, वैसा हम पकाते हैं.
बहेलियों को बुला कर पूछा तो उन्होंने बताया - नगर के पास ही पहाड़ की चोटी पर एक ब्राह्मण बैठा हुआ है. वह पोथी का एक एक पन्ना पढता जाता है और आग में फैंकता जाता है. वन के सारे प्राणी इकट्ठे हो कर निराहार रह कर उसकी कथा को सुन रहे हैं. इसलिए उनका मांस ऐसा हो गया है.
राजा को इस बात का पता चला तो उसे बहुत कौतुहल हुआ. वह उस स्थान पर गया जहाँ गुणाढ्य अपनी कथा सुना रहे थे . इतने समय से वन में रहने के कारण गुणाढ्य की देह पर जटाएं बढ़ कर लटक आई थीं, मानो कुछ शेष बचे शाप के धुंए की लकीरों ने उन्हें घेर रखा हो. आंसू बहाते शांत बैठे पशु-पक्षियों के बीच गुणाढ्य कथा पढ़ रहे थे .. राजा ने उन्हें पहचाना, प्रणाम किया और सारा वृतांत पूछा.
यह जान कर कि गुणाढ्य वास्तव में शिव के गण माल्यवान का अवतार हैं, राजा उनके चरणों पर गिर पड़ा और शिव कथा मांगने लगा.
गुणाढ्य ने कहा - राजन, एक एक लाख श्लोकों के सात खण्डों वाले इस ग्रन्थ के छः लाख श्लोक मैं जला चुका हूँ. एक लाख श्लोकों का यह अंतिम सातवाँ खंड बचा है, जिसमे राजा नरवाहन की कथा है. इसे ले जाओ. यह कह कथा का शेष भाग गुणाढ्य ने राजा को सौंप दिया और राजा से विदा ली. अंत में योग से गुणाढ्य अपना देह त्याग कर शापमुक्त हो पूर्वपद को प्राप्त किये.
राजा सातवाहन ब्रह्त्कथा की बची हुई पोथी लेकर नगर आया. उसने गुणाढ्य के शिष्यों का मान-सम्मान कर उनकी सहायता से कथा का अपनी भाषा में अनुवाद कराया और इस कथापीठ की रचना की. फिर यह कथा प्रतिष्ठानपुर और उसके पश्चात सारे भूमंडल में प्रसिद्द होती चली गयी.
साथियों इसी के साथ अब मैं भी आपसे आज्ञा लेती हूँ. आशा करती हूँ आप सब भी इसे पढ़ कर आनंदित हुए होंगे.
नमस्कार !
इस सार्थक प्रविष्टि के लिए बधाई स्वीकार करें.
जवाब देंहटाएंअच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसार्थक लेखन... सुन्दर प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंकाव्य का प्रभाव कितना व्यापक होता है !
जवाब देंहटाएंआप ब्लॉगजगत को एक अनूठी कृति से रू-ब-रू कराने का काम कर रहीं हैं।
जवाब देंहटाएंइस सार्थक प्रविष्टि के लिए बधाई स्वीकार करें.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
सूचनार्थ!
बहुत बेहतरीन....
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
बहुत सुंदर प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंगुणाढ्य की बड़ी रोचक कथा सुनाई आपने अनामिका जी ! पौराणिक कथाओं के हमारे अल्प ज्ञान को आप अच्छा विस्तार दे रही हैं ! आभार आपका !
जवाब देंहटाएंBahut khoob!
जवाब देंहटाएंKharab tabiyat ke karan derse aayee hun!