सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

कुरुक्षेत्र ..चतुर्थ सर्ग … ( भाग- ६ ) रामधारी सिंह ‘दिनकर'


शूरधर्म है अभय दहकते
                        अंगारों पर चलना
शूरधर्म है शाणित  असि पर
                धर कर चरण मचलना |

शूरधर्म कहते हैं छाती तान
                          तीर खाने को
शूरधर्म कहते हँस कर
                  हालाहल पी जाने को |

आग हथेली पर सुलगा कर
                     सिर का हविष्  चढाना
शूरधर्म है जग को अनुपम
                    बलि का पाठ पढ़ाना |

सबसे बड़ा धर्म है नर का
                      सदा प्रज्वलित रहना
दाहक शक्ति समेट स्पर्श भी
                   नहीं किसी का सहना |

बुझा बुद्धि का दीप वीरवर
                       आँख मूँद चलते हैं
उछल वेदिका पर चढ जाते
                       और स्वयं बलते हैं |

बात पूछने को विवेक से
                           जभी वीरता जाती
पी जाती अपमान पतित हो
                          अपना तेज गंवाती |

सच है बुद्धि-कलश में जल है
                     शीतल सुधा तरल है
पर ,भूलो मत , कुसमय में
                 हो जाता वही गरल है |

सदा नहीं मानापमान की
                   बुद्धि उचित सुधि लेती
करती बहुत विचार , अग्नि की
                      शिखा बुझा है देती |

उसने ही दी बुझा तुम्हारे
                           पौरुष की चिंगारी
जली न आँख देख कर खिंचती
                       द्रुपद- सुता की साड़ी |

बाँध उसी ने मुझे द्विधा से
                        बना दिया कायर था
जगूँ-जगूँ जब तक , तब तक तो
                       निकल चुका अवसर था |

यौवन चलता सदा गर्व से
                         सिर ताने , शर खींचे
झुकने लगता किन्तु क्षीण बल
                             वे विवेक के नीचे |

यौवन के उच्छल प्रवाह को
                         देख मौन , मन मारे
सहमी हुई बुद्धि रहती है
                       निश्छल खड़ी  किनारे |

डरती है , बह जाए नहीं
                     तिनके - सी इस धारा में
प्लावन - भीत स्वयं छिपती
                     फिरती अपनी कारा मे

हिम-विमुक्त , निर्विघ्न , तपस्या
                        पर खिलता यौवन है
नयी दीप्ति, नूतन सौरभ से
                       रहता भरा भुवन है ||
 
क्रमश:



प्रथम सर्ग --        भाग - १ / भाग -२ 
द्वितीय  सर्ग  ---  भाग -- १ / भाग -- २ / भाग -- ३ 
तृतीय सर्ग  ---    भाग -- १ /भाग -२ 
चतुर्थ सर्ग ---- भाग -१    / भाग -२  / भाग - ३ /भाग -४ /भाग - ५ .

13 टिप्‍पणियां:

  1. अंग-अंग में ऊर्जा देने वाली ... दिनकर जी बिहार की माती के लाल है

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  2. यह अमर कृति मैंने कभी पढ़ी ही नहीं थी। आपके साथ पढ़ते जा रहा हूं।

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  3. maine ik bar padhi thi vidhyarthi jivn me dubara mauka mil rha hai dhanyavad sangeeta jee.

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  4. अभी हाल ही में मेरे आठ वर्षीया बेटे ने 'चाँद का कुरता ' नमक बड़ी प्यारी कविता 'दिनकर ' जी की स्कूल में सुनायी ..
    kalamdaan.blogspot.in

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  5. सच है बुद्धि-कलश में जल है
    शीतल सुधा तरल है
    पर ,भूलो मत , कुसमय में
    हो जाता वही गरल है |

    सदा नहीं मानापमान की
    बुद्धि उचित सुधि लेती
    करती बहुत विचार , अग्नि की
    शिखा बुझा है देती
    गज़ब गज़ब गज़ब ..

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  6. यौवन के उच्छल प्रवाह को
    देख मौन , मन मारे
    सहमी हुई बुद्धि रहती है
    निश्छल खड़ी किनारे |

    अदभुद...
    आभार संगीता जी..

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  7. दिनकर जी की यह कृति साहित्य जगत के लिए अनमोल धरोहर है । मेरा यह अनुभव है कि इसे जितनी बार पढ़ा जाए एक नए व्याख्या का स़ृजन सा होने लगता है । कुरूक्षेत्र में उल्लिखित शब्द केवल पुस्तकों तक सीमित न रह कर जीवन के सत्य से परिचय करा जाते हैं । मैं इसे रोज पढ़ता हूं पर ये बात जिगर है कि समयाभाव के कारण इस पर अपनी कुछ प्रतिक्रिया नही दे पाता हूँ । यह पोस्ट आपके सोच का द्योतक है । समय इजाजत दे तो मेरे पोस्ट पर आकर मुझे भी प्रोत्साहित करें । धन्यवाद ।

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  8. शुरधर्म हैं अभय ढकते अंगारों पर चलना शुरधर्म हैं शांति आसी पर धर कर चरण मंचलना अर्थ

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