काव्य प्रयोजन :: आधुनिक काल |
द्विवेदी युग |
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महादेवी वर्मा के अनुसार साहित्य का उद्देश्य है मानव करुणा का विस्तार। |
प्रगतिवाद ने रूढिवादिता का विरोध किया और मार्क्सवादी समाज-चिंतन को अपनाया।
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नयीकविता युग तथा समकालीन युग के विद्वानों, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, निर्मल वर्मा आदि, कवियों के मतानुसार साहित्य का प्रयोजन मानव-व्यक्तित्व का समग्र विकास, मानव-स्वाधीनता की रक्षा, मुक्त-चिंतन का विकास है। |
उपसंहार |
बुधवार, 20 अक्टूबर 2010
काव्य प्रयोजन :: आधुनिक काल
गुरुवार, 16 सितंबर 2010
अलाउद्दीन के शासनकाल में सस्ता भारत-१
अलाउद्दीन के शासनकाल में सस्ता भारत-१मनोज कुमार |
चौदहवीं शताब्दी में, दिल्ली सल्तनत का एक ऐसा शासक हुआ जिसने अपनी दृढ़ इच्छा-शक्ति एवं कठोर अनुशासन से यह साबित कर दिया कि, शासक चाहे तो किसी भी योजना या नीति का कार्यान्वयन असंभव नहीं है, चाहे वह समाज के प्रभावशाली वर्ग के हितों के विरूद्ध क्यों न हो? वह शासक था- अलाउद्दीन खिलजी, जिसने मध्यकालीन भारत में आम लोगों के हित के लिए उपयोगी वस्तुओं को न केवल सस्ती दरों पर मुहैया किया और न केवल बाजार को नियंत्रित किया बल्कि वस्तुओं के मूल्यों को भी नियत किया एवं उस मूल्य पर व्यापारियों द्वारा वस्तुओं का विक्रय भी सुनिश्चित किया। अलाउद्दीन खिलजी ने सन् 1296 ई. में अपने बूढ़े चाचा जलालुद्दीन खिलजी को धोखे से मरवाकर स्वयं को दिल्ली का शासक घोषित किया। उसका शासनकाल काफी महत्वपूर्ण था मध्यकालीन इतिहास में उसके कुछ सुधार पूर्णतः नवीन प्रयोग कहे जा सकते हैं।
सामायन्यतः यह माना जाता है कि अलाउद्दीन खिलजी द्वारा इस योजना को लागू करनें का मुख्य उद्देश्य सैनिकों की आवश्यकताओं की पूर्ति पर आधारित था। एक बड़ी सेना को अपेक्षाकृत कम खर्च पर कायम रखना इसका उद्देश्य था। अलाउद्दीन का शासनकाल सतत युद्ध का काल था इसके लिए एक वृहत् एवं मजबूत सेना की आवश्यकता थी। यह कहना उचित नहीं है कि अलाउद्दीन ने आर्थिक सुधार केवल सेना को ही ध्यान में रखकर किए थे। क्योंकि यह नीति सैन्य अभियान समाप्त होने के बाद भी चालू रखी गई। दूसरी बात यह है कि अलाउद्दीन द्वारा चौदहवीं शताब्दी के पहले दशक में दिया जाने वाला 234 टंका प्रतिवर्ष या 19.5 टंका प्रतिमाह कोई छोटी राशि नहीं थी। खासकर जब हम इसकी तुलना बाद के शासकों अकबर 240 रू. प्रतिवर्ष से करते हैं। अलाउद्दीन अकबर से 6 रू. कम एवं शाहजहां से 34 रू. प्रतिवर्ष अधिक देता था अतः हम यह कह नहीं सकते कि सैनिकों की तनख्वाह कम थी। जब बाद के दिनों में लगभग इसी वेतन से अकबर एवं शाहजहां के अधीन सेना संतुष्ट थी, तब अलाउद्दीन के समय यह राशि अल्प नहीं कही जा सकती। अतः इस ध्येय से मूल्य नियंत्रण आवश्यक नहीं था। दूसरी ध्यान देनेवाली बात यह है कि अलाउद्दीन ने न सिर्फ अनिवार्य उपयोगी वस्तुओं का मूल्य नियंत्रण किया था बल्कि रेशम आदि विलास वस्तुओं के मूल्य पर भी अंकुश लगाया था। फिर एक और बात यह है कि मूल्य नियंत्रण का लाभ सिर्फ सैनिकों के लिए ही नहीं था बल्कि पूरी आम जनता के हित में था। हर कोई बाजार से नियत दर पर सामान खरीद सकता था। अगर यह सिर्फ सैनिक के लिए होता तो इसकी व्याप्ति सीमित होती। अलाउद्दीन का उद्देश्य तो अपनी प्रजा को इस कल्याणकारी उपाय द्वारा मदद करना था। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि लोक हितकारी विचार से यह योजना बनायी गयी थी। इस विषय पर एक अधिक तार्किक पक्ष यह है कि यह योजना मुद्रास्फीति नियंत्रण के उद्देश्य से लागू की गई थी। युद्ध में विजयोपरांत दिल्ली के नागरिकों के बीच धन का प्रचुर वितरण होता था। जिसके कारण दिल्ली में सोने एवं चांदी के सिक्कों की मात्रा में तेजी से वृद्धि हो गई थी। परंतु वस्तुओं की आपूर्ति उस अनुपात में पर्याप्त न होने के कारण मूल्य वृद्धि होना लाजिमी था। ऐसी परिस्थिति में जब दिल्ली में मुद्रा का संचालन में अधिक होना, व्यापारिक गतिविधियों को बढ़ावा दे रहा था और व्यापारी कृत्रिम अभाव पैदा कर मूल्य वृद्धि करने को प्रवृत हो रहे थे। फलतः अलाउद्दीन को व्यापारी वर्ग के इस जोड़ तोड़ को रोकने के लिए मूल्य नियंत्रण योजना लागू करना आवश्यक हो गया था। अलाउद्दीन ने खाने, पहनने व जीवन की अन्य आवश्यक वस्तुओं के भाव नियत कर दिए। यहां तक कि गुलामों, नौकरों एवं दास-दासियों के भाव भी निश्चित थे। कुछ लोगों ने तो यहां तक कहा कि सस्ते में रोटी उपलबध कराकर अलाउद्दीन ने सफल शासन का जंतर प्राप्त कर लिया। अगर वह वस्तुओं के मूल्यों को नीचे लाता है तो उसे प्रसिद्धि मिल जाएगी एवं वह सफलतापूर्वक शासन कर पाएगा। एक तरफ उसने जहां अमीरों की कई सुविधाओं में कटौती की वहीं दूसरी ओर उन्हें विलास-वस्तुओं को कम कीमत पर मुहैया कराने का प्रबंध किया। अतः इस योजना का उद्देश्य एक व्यापक राजनीतिक हित साधन था। मूल्य नियंत्रण की आज्ञा केवल दिल्ली के लिए दी गई थी या पूरी सल्तनत के लिए, यह विवादास्पद प्रश्न है। कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि यह योजना सिर्फ दिल्ली शहर तक सीमित थी। अगर यह सिर्फ दिल्ली तक ही सीमित रही होती तो क्या सेनाओं के वेतन के लिए दुहरा मापदंड रखा गया था? संभवतया नहीं क्योंकि यदि यह योजना सिर्फ सेना के लिए थी तो सेना सिर्फ दिल्ली में ही नहीं रहती थी। और फिर अलग-अलग जगह रहनेवाली सेनाओं का वेतन अलग-अलग हो, यह व्यावहारिक प्रतीत नहीं होता। दूसरी बात यह है कि यदि सिर्फ दिल्ली में ही मूल्य नियंत्रण होता तो दूरदराज के व्यापारी दिल्ली में आकर कम मूल्य पर अपना सामान क्यों बेचते? वे उसे कहीं और बेच सकते थे जहां उन्हें अधिक मुनाफा मिलता। ऐसा भी कहीं उल्लेख नहीं मिलता कि दिल्ली में आकर व्यापार करने के लिए प्रशासन की तरफ से कोई बाध्यता थी। तो हम तार्किक रूप से यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि नियंत्रित बाजार सिर्फ दिल्ली में ही नहीं थे, बल्कि कुछ और बड़े केंद्रो में भी यह व्यवस्था थी। उन दिनों जब सरकारी मशीनरी इतनी संगठित नहीं थी, इस तरह की योजनाओं को सल्तनत के प्रत्येक शहर में लागू करना सहज नहीं था। यहां एक और ध्यान देनेवाली बात यह है कि इसका प्रमुख उद्देश्य मूल्य वृद्धि को नीचे लाना तथा मुद्रास्फीति पर नियंत्रण रखना था। सोने एवं चांदी के सिक्कों की बहुतायत के कारण सिर्फ दिल्ली या फिर कुछेक बड़े शहरों में मूलय नियंत्रण से बाहर जा रहा था। अतः इस योजना की आवश्यकता दिल्ली एवं कुछेक बड़े शहरों में ही पड़ी होगी, बाकी मूल्य नीचे ही रहे होंगे। (ज़ारी…) |
यह आलेख कांदंबिनी में प्रकाशित हुआ था| |