मंगलवार, 30 अगस्त 2011

यथार्थवादी और समस्या नाटक का विकास

नाटक साहित्य-13

यथार्थवादी और समस्या नाटक का विकास

बीसवीं शताब्दी का दूसरा दशक समाप्त होते-होते सामाजिक जीवन के यथार्थ को लक्ष्यकर सामाजिक नाटक लिखे जाने लगे। इसमें इब्सन के ढर्रे के सामाजिक नाटक या समस्या नाटक की शैली का अनुकरण किया गया। ऐसे नाटक को यथार्थमूलक या समस्यामूलक नाट्क भी कह सकते हैं। इनके कथानक सामाजिक और तात्कालिक समस्याओं पर आधारित होते थे।

सामाजिक मसले ऐसे होते हैं, हम आए दिन उन पर तर्क-वितर्क करते रहते हैं। समस्या नाटकों में भी इन्हीं तर्क-वितर्क पर पात्रों के माध्यम से बल दिया जाता है। जहां एक ओर परम्परागत रूढ़िवादी मूल्य-व्यवस्था का समर्थन करते हैं वहीं दूसरी ओर नई पीढ़ी उन मूल्यों का विरोध। यह टकराहट इन नाटकों का केन्द्र बिन्दु होता है। इस टकराहट से पारिवारिक और सामाजिक जीवन में तनाव उत्पन्न होता है। उन तनावपूर्ण अवस्थाओं का यथातथ्य रूप समस्या नाटकों में प्रकट होता है। ऐसे नाटकों का मूल स्वर सामाजिक कुरीतियों की प्रस्तुति है। इस तरह की प्रस्तुति में परम्परा का तिरस्कार मिलता है।

बीसवीं शताब्दी के दूसरे-तीसरे दशक में कई ऐसे प्रहसन और व्यंग्य पर आधारित सामाजिक नाटक लिखे गए जिनमें यथार्थ परक जीवन-चित्रण का आभास मिलता है। लेकिन इनमें इन रूढ़ियों के तोड़ने का वैसा प्रबल आग्रह नहीं है जैसा कि बाद के दिनों में प्रस्तुत समस्या-मूलक नाटकों में प्रकट हुआ।

लक्ष्मी नारायण मिश्र

लक्ष्मी नारायण मिश्र ने एक समस्या नाटक लिखा था, “मुक्ति का रहस्य”। इसकी भूमिका में उन्होंने सामाजिक या समस्या नाटकों के शिल्प और संवेदना के स्वरूप पर विस्तार से चर्चा की है। ऐसे नाटकों में समसामयिक प्रश्नों की जहां तक संभव हो तथ्य पर आधारित अभिव्यक्ति की जाती है। इस तरह की अभिव्यक्ति में नाटककार की बौद्धिक सोच की ईमानदारी बहुत महत्व रखती है। इन्होंने ‘अशोक’ (1927), ‘संन्यासी (1929), ‘मुक्ति का रहस्य’ (1932), ‘राक्षस का मंदिर’ (1932), ‘राजयोग’ (1934), ‘सिंदूर की होली’ (1934), ‘आधी रात’ (1934), आदि नाटकों की रचना की।

प्रसाद जी से भिन्न मार्ग पर चलकर उन्होंने हिंदी नाटक साहित्य को नया मोड़ दिया। ‘संन्यासी’ की भूमिका में उन्होंने लिखा है, “इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ने का काम इस युग के साहित्य में वांछनीय नहीं है।” ‘संन्यासी’ नाटक के साथ हिंदी-नाटक के विषय और शिल्प दोनों में बदलाव आया। उनके सभी नाटक तीन अंकों के हैं। अंकों का विभाजन दृश्यों में नहीं किया गया है। उनके नाटकों के शिल्पविधान पर अंगरेज़ी के यथार्थवादी नाटकों का प्रभाव पड़ा प्रतीत होता है।

‘संन्यासी’ से ‘आधी रात’ तक अपने सभी नाटकों में उन्होंने सामाजिक समस्याओं को आधार बनाया है। उन्होंने विशेष रूप से नारी की स्थिति और उसकी समस्याओं को अपने दृष्टिकोण से चित्रित किया। शिक्षा के प्रसार, स्वातंत्र्य आन्दोलन और नवीन जीवन दर्शन के कारण आधुनिक नारी का ऐसा रूप सामने आया, जिससे हमारा समाज अब तक अपरिचित था। प्रेम और विवाह, प्रणय और दाम्पत्य, काम और नैतिकता विषयक अनेक समस्याएं सहसा उपस्थित हो गईं। मिश्र जी ने इन समस्याओं को उठाते समय सामाजिक वैषम्य की पृष्ठभूमि में नारी और पुरुष के संबंधों का चित्रण किया। समस्याओं के समाधान के लिए उन्होंने बुद्धिवादी दृष्टिकोण का आग्रह रखा। हालाकि उनके नाटकों की नारियां अपने काम-संबंधों में पर्याप्त स्वतंत्रता बरतती हैं और इस कारण उनका चरित्र पहली दृष्टि में भारतीय मान्यताओं के प्रतिकूल दीख पड़ता है, पर गहराई में जाकर देखने से विदित होता है कि उनकी जीवन-दृष्टि मूलतः भारतीय है। ‘मुक्ति का रहस्य’ में पश्चिम के उन्मुक्त प्रेम पर भारतीय दांपत्य-विधान की विजय और ‘सिंदूर की होली’ में विधवा विवाह और नारी-उद्धार के प्रति मनोरमा के दृष्टिकोण से इस कथन की पुष्टि होती है।

अंबिकादत्त त्रिपाठी (सीय-स्वयंवर), रामचरित उपाध्याय (देवी द्रौपदी), रामनरेश त्रिपाठी (सुभद्रा), गंगाप्रसाद अरोड़ा (सावित्री-सत्यवान), गौरीशंकर प्रसाद (अजामिलचरित), वियोगी हरि (छद्मयोगिनी), बेचन शर्मा ‘उग्र’ (महात्मा ईसा) आदि इस काल के कुछ ऐसे नाटककारों के नाम हैं जिन्होंने अपने प्रहसनों और व्यंग्य प्रधान सामाजिक नाटकों में उस समय के समाज की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक-धार्मिक बुराइयों को सामने लाने का प्रयास किया। हालाकि वे सुधार की भावना से प्रेरित थे, लेकिन उनमें रूढ़ियों के प्रति विद्रोह का स्वर प्रमुख नहीं था।

मिश्र बंधुओं द्वारा लिखा हुआ नाटक “नेत्रोन्मीलन” (1915), प्रेमचन्द का “संग्राम” (1922), राजा लक्ष्मण सिंह का “ग़ुलामी का नशा” (1922) आदि प्रहसनों में यथार्थवादी दृष्टि का अधिक विकसित रूप मिलता है, फिर भी उनकी वस्तु निरूपण शैली प्रहसनात्मक ही है। हास्य रस इन रचनाओं के केन्द्रीत लक्ष्य हैं। वैचारिकता को केन्द्र विषय बनाकर ये नाटक नहीं रचे गए।

8 टिप्‍पणियां:

  1. श्री मनोज कुमार जी,
    यह अकाट्य सत्य है कि भारत में नाट्य-विधा की नींव अंग्रेजी नाटकों के आधार पर ही पड़ी थी । यह बात जिगर है कि नाटककारों ने इस विधा को अपने-अपने बौद्धिक स्तर पर तदयुगीन समस्याओ को केंद्रित कर अपने नाटकों को लिखा । समस्यामूलक नाटकों के लिखने की पृष्ठभूनि में नाटककार समाज के साथ तादाम्य स्थापित कर नाटकों में नूतन समस्याओ को तरजीह देता था । उस समय समाज में कुछ लोग पुरातनपंथी विचारों से प्रभावित होने के कारण इसका विरोध करना शुरू कर दिए पर कुछ लोग ऐसे भी निकले जो नाटककारों के नाटकों के साथ सहानुभूति भी रखे एवं उन पुरातनपंथी लोगों के विचारों का विरोध भी किए । इन य़थार्थवादी नाटकों ने समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं शोषित और पीड़ित जनमानस के अतर्मन में समाज की व्यवस्थाओ के प्रति बढ़ते दंश को अदभाषित करने की शैली एवं अंदाज को सही परिप्रेक्ष्य में वरीयता दी जिसके कारण इन नाटकों के वर्चस्व को नकारा नही जा सका । अशिक्षित जनता के मध्य इन नाटकों का व्यापक प्रभाव पड़ा । लक्ष्मीनारायण मिश्र का नाटक 'संयासी' अपने समय का बहुच्रर्चित नाटक रहा है । इस बार का पोस्ट बहुत ही ज्ञानपरक लगा । इस विधा पर आपके पोस्ट का मुझे बेसब्री से इंतजार रहता है ।

    सादर।

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  2. दुर्भाग्य है कि आज नाटक को हिंदी ने मूल धारा से अलग करके देख रहा है... इस कारण से इस विधा पर विस्तार से चर्चा नहीं हो पा रही... रंग मंच से भी स्वयं को अलग कर लिए है... आपका यह आलेख नई जानकारियां दे रहा है... बहुत सुन्दर...

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  3. नहीं पढ़ी हमने इतनी सुन्दर रचना ,भाव विभोर करती ,मनमोर को नचाती ,मुस्काती ,भाषिक सौन्दर्य और प्रतिमान बिखेरती ,इठलाती अल्हड सी किसी गाँव की पगडण्डी पर ,कुए की मैंड पे खड़ी चकली चलाती ....
    आपकी ब्लोगिया हाजिरी के लिए आभार .
    नाटकों का इतिहास समस्या मूलक नाटकों के कथ्य को उजागर करती एक महत्वपूर्ण पोस्ट .अच्छी सेवा कर रहें हैं आप आईदा आने वाले शोध छात्रों के लिए बहु -उपयोगी .
    सोमवार, २९ अगस्त २०११
    क्या यही है संसद की सर्वोच्चता ?
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    Monday, August 29, 2011
    विशेषधिकार की बात करने वालों से दो टूक .

    http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/

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  4. प्रेमसरोवर जी की बातों से सहमत.
    ईद की बधाई और शुभकामनायें....

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  5. मनोज भाई!!
    इतना बारीक और गहन अध्ययन मैंने किया ही नहीं.. यह श्रृंखला भी मुझे अपने बौनेपन का एहसास कराती है!!

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  6. आपकी इस श्रृंखला से नाटक विधा के महत्त्व का पता चला .. कभी विस्तृत रूप में इस विषय पर नहीं पढ़ा था ..साधुवाद

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