प्रस्तुत संदर्भ जब विजय के पश्चात युधिष्ठिर सभी बंधु- बंधवों की मृत्यु से विचलित हो कहते हैं कि यह राजकाज छोड़ वो वन चले जाएंगे उस समय पितामह भीष्म उन्हें समझाते हैं ---
सोचेगा वह सदा , निखिल
अवनीतल ही नश्वर है ,
मिथ्या यह श्रम - भार , कुसुम ही
होता कहाँ अमर है ?
जग को छोड़ खोजता फिरता
अपनी एक अमरता ,
किन्तु , उसे भी अभी लील
जाती अजेय नश्वरता ।
पर, निर्विघ्न सरणि जग की
तब भी चलती रहती है
एक शिखा ले भार अपर का
जलती ही रहती है ।
झर जाते हैं कुसुम जीर्ण दल
नए फूल खिलते हैं
रुक जाते कुछ , दल में फिर
कुछ नए पथिक मिलते हैं ।
अकर्मण्य पंडित हो जाता
अमर नहीं रोने से
आयु न होती क्षीण किसी की
कर्म भार ढ़ोने से ।
इतना भेद अवश्य युधिष्ठिर !
दोनों में होता है ,
हँसता एक मृत्ति पर ,
नभ में एक खड़ा रोता है ।
एक सजाता है धरती का
अंचल फुल्ल कुसुम से ,
भरता भूतल में समृद्धि - सुषमा
अपने भुज बल से ।
पंक झेलता हुआ भूमि का
त्रिविध ताप को सहता
कभी खेलता हुआ ज्योति से
कभी तिमिर में बहता ।
गम अतल को फोड़ बहाता
धार मृत्ति के पय की
रस पीता, दुंदुभि बजाता
मानवता की जय की ।
होता विदा जगत से , जग को
कुछ रमणीय बना कर ,
साथ हुआ था जहां , वहाँ से
कुछ आगे पहुंचा कर ।
और दूसरा कर्महीन चिंतन
का लिए सहारा
अंबुधि में निर्यान खोजता
फिरता विफल किनारा ।
कर्मनिष्ठ नर की भिक्षा पर
सदा पालते तन को
अपने को निर्लिप्त , अधम
बतलाते निखिल भुवन को ।
कहता फिरता सदा , जहां तक
दृश्य वहाँ तक छल है
जो अदृश्य , जो अलभ , अगोचर
सत्य वही केवल है ।
मानों सचमुच ही मिथ्या हो
कर्मक्षेत्र यह काया
मानों , पुण्य - प्रताप मनुज के
सचमुच ही हों माया ।
मानों , कर्म छोड़ सचमुच ही
मनुज सुधर सकता हो ,
मानों , वह अम्बर पर तज कर
भूमि ठहर सकता हो ।
कलुष निहित , मानों सच ही हो
जन्म - लाभ लेने में
भुज से दुख का विषम भार
ईषल्लघु कर देने में ।
गंध , रूप , रस , शब्द , स्पर्श
मानों , सचमुच फाटक हों
रसना , त्वचा , घ्राण , दृग, श्रुति
ज्यों मित्र नहीं घातक हों ।
मुक्ति - पंथ खुलता हो ,मानों ,
सचमुच , आत्महनन से
मानों , सचमुच ही , जीवन हो
सुलभ नहीं जीवन से ।
sunder prayas. isko poorn roop se samajhne k liye to mujhe aapse lagta hai tution leni padegi. :-)
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