प्रस्तुत संदर्भ जब विजय के पश्चात युधिष्ठिर सभी बंधु- बांधवों की मृत्यु से विचलित हो कहते हैं कि यह राजकाज छोड़ वो वन चले जाएंगे उस समय पितामह भीष्म उन्हें समझाते हैं ---
मरुद्भित प्रति काल छिपाती
सजग , क्षीण - बल तप को
छाया में डूबती छोड़ कर
जीवन के आतप को ।
कर्म - लोक से दूर पलायन
कुंज बसा कर अपना
निरी कल्पना में देखा
करती अलभ्य का सपना ।
वह सपना , जिस पर अंकित
उंगली का दाग नहीं है ,
वह सपना , जिसमे ज्वलंत
जीवन की आग नहीं है ।
वह सपनों का देश कुसुम ही
कुसुम जहां खिलते हैं ,
उड़ती कहीं न धूल , न पथ में
कंटक ही मिलते हैं ।
कटु की नहीं , मात्र सत्ता है
जहां मधुर , कोमल की
लौह पिघल कर जहां रश्मि
बन जाता विधु - मण्डल की ।
जहां मानती हुक्म कल्पना
का जीवन धारा है
होता सब कुछ वही , जो कि
मानव - मन को प्यारा है ।
उस विरक्त से पूछो , मन से
वह जो देख रहा है ,
उस कल्पना जनित जग का
भू पर अस्तित्व कहाँ है ?
कहाँ वीथि है वह , सेवित है
जो केवल फूलों से
कहाँ पंथ वह , जिस पर छिलते
चरण नहीं शूलों से ?
कहाँ वाटिका वह , रहती जो
सतत प्रफुल्ल हरी है ?
व्योम खंड वह कहाँ ,
कर्म - रज जिसमें नहीं भरी है ?
वह तो भाग छिपा चिंतन में
पीठ फेर कर रण से ,
विदा हो गए , पर , क्या इससे
दाहक दुख भुवन से ?
और , कहें , क्या स्वयं उसे
कर्तव्य नहीं करना है ?
नहीं कमा कर सही , भीख से
क्या न उदर भरना है ?
कर्म भूमि है निखिल महीतल
जब तक नर की काया
तब तक है जीवन के अणु - अणु
में कर्तव्य समाया ।
क्रिया धर्म को छोड़ मनुज
कैसे निज सुख पाएगा ?
कर्म रहेगा साथ , भाग वह
जहां कहीं जाएगा ।
धर्मराज , कर्मठ मनुष्य का
पथ सन्यास नहीं है ,
नर जिस पर चलता , वह
मिट्टी है , आकाश नहीं है ।
ग्रहण कर रहे जिसे आज
तुम निर्वेदाकुल मन से
कर्म - न्यास वह तुम्हें दूर
ले जाएगा जीवन से ।
दीपक का निर्वाण बड़ा कुछ
श्रेय नहीं जीवन का ,
है सद्धर्म दीप्त रख उसको
हरना तिमिर भुवन का ।
भ्रमा रही तुमको विरक्ति जो ,
वह अस्वस्थ , अबल है ,
अकर्मण्यता की छाया , वह
निरे ज्ञान का छल है ।
बचो युधिष्ठिर , कहीं डुबो दे
तुम्हें न यह चिंतन में ,
निष्क्रियता का धूम भयानक
भर न जाये जीवन में ।
कर्म भूमि है निखिल महीतल
जवाब देंहटाएंजब तक नर की काया
तब तक है जीवन के अणु - अणु
में कर्तव्य समाया ।
ये बात ही तो समझने वाली है ………आभार
Abc
हटाएंक्रिया धर्म को छोड़ मनुज
जवाब देंहटाएंकैसे निज सुख पाएगा ?
कर्म रहेगा साथ , भाग वह
जहां कहीं जाएगा ।
कर्म ही जीवन की सार्थकता ही ..आभार !!
भ्रमा रही तुमको विरक्ति जो ,
जवाब देंहटाएंवह अस्वस्थ , अबल है ,
अकर्मण्यता की छाया , वह
निरे ज्ञान का छल है ।
बचो युधिष्ठिर , कहीं डुबो दे
तुम्हें न यह चिंतन में ,
निष्क्रियता का धूम भयानक
भर न जाये जीवन में ।
कितनी सार्थक पंक्तियाँ हैं.
Dil karta hai,padhtee chalee jaun..
जवाब देंहटाएंय़ह पोस्ट मुझे बहुत अच्छा लगता है। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंधर्मराज , कर्मठ मनुष्य का
जवाब देंहटाएंपथ सन्यास नहीं है ,
नर जिस पर चलता , वह
मिट्टी है , आकाश नहीं है ।
जीवन का सार यही है। धरती पर चलने पर फूल के साथ शूल भी मिलते ही रहेंगे।
दीपक का निर्वाण बड़ा कुछ
जवाब देंहटाएंश्रेय नहीं जीवन का ,
है सद्धर्म दीप्त रख उसको
हरना तिमिर भुवन का ।
isi se hame seekh leni chaahiye. aur apni nirashaakaleen me in panktiyon ko kanthast karna chaahiye.