हिंदी उपन्यास साहित्य की परंपरा में प्रेमचंद जी का स्थान
प्रेमचंद जी के साहित्यिक सृजन का पठन करते हुए पिछली बार हमने जाना कि प्रेमचंद जी के समय की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवम धार्मिक परिस्थियाँ क्या थी और उसमे प्रेमचंद जी का क्या योगदान था. आइये आज जानते हैं हिंदी उपन्यास साहित्य की परंपरा में प्रेमचंद जी का क्या स्थान था और आधुनिक उपन्यास साहित्य पर उनका प्रभाव कहाँ तक पड़ा...
हिंदी उपन्यासों का आविर्भाव उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तराद्ध में हुआ. कथा कहानी की परंपरा का सम्बन्ध वेद, पुराण से जोड़ना या अन्य धार्मिक साहित्य से जोड़ना तर्क संगत नहीं है. वह सर्वथा आधुनिक युग की देन है और उसके लिए हिंदी उपन्यास साहित्य पश्चिम का ऋणी है.
पूर्व प्रेमचंद काल की स्थिति भी कुछ विशेष अच्छी न थी. परिवार में सबसे बड़ा व्यक्ति धन कमाए और सारे परिवार का पालन-पोषण करे - यह भावना समाप्त हो गयी थी. नारियों की स्थिति तो और भी दयनीय थी. उनकी आर्थिक परतंत्रता भीषण रूप धारण कर चुकी थी. उन्हें सामाजिक स्वतंत्रता भी न प्राप्त थी, राजनीतिक स्वतंत्रता तो दूर की बात थी. प्रेम और विवाह की स्वतंत्रता न प्राप्त होने के कारण सामाजिक रूढ़ियों को तोडना प्रायः असंभव हो गया था. बाल विवाह बराबर छिपे तौर पर अब भी होते जा रहे थे. वेश्यावृति भी बढती जा रही थी. विधवा विवाह को भी मान्यता प्राप्त नहीं थी. जिस प्रगतिशीलता की नितांत आवश्यकता थी, समाज उससे लगभग अपरिचित था.
ऐसी परिस्थितियों में हिंदी उपन्यास का जन्म हुआ. इन समस्याओं के समाधान और समाज में प्रगतिशीलता लाने का उत्तरदायित्व प्रारम्भिक उपन्यासकारों ने लिया, साथ ही उपन्यासों के माध्यम से पाठकों तक ऐसी भावनाओं का सम्प्रेषण किया, जिसमे उनके जीवन के प्रति गरिमा का अनुभव हो, उनके खंडित होने वाले विश्वास, छिन्न-भिन्न होने वाली आस्थाओं को आधार प्राप्त हो, चरित्र निर्माण हो, वेश्यागमन हो, मद्यपान एवं जुए का अंत हो, समाज में दृढ़ता आये एवं उसकी प्रगति हो तथा धर्म की रक्षा हो. यह आवश्यक था कि उपन्यासकार जीवन की इन समस्याओं को अपनी कृतियों से चित्रित करें और गौरवपूर्ण जीवन के निर्माण पर बल दें. यद्यपि इस युग में उपन्यास साहित्य अधिक प्रगति नहीं कर पाया, फिर भी लाला श्रीनिवास दास, श्रद्धा राम फिल्लोरी, बालकृष्ण भट्ट, गोपालराम गहमरी, मेहता लज्जाराम शर्मा आदि ने किन्हीं सीमाओं तक अपने उपन्यासों में जीवन की समस्याओं की ओर ध्यान दिया, पर या तो वे चलते चलते इन प्रसंगों को स्पर्श करने के बराबर था, अथवा उपदेशक बन कर शिक्षा देने की प्रक्रिया मात्र थी. इस प्रारम्भिक काल में उपन्यासों का मानव जीवन के साथ कोई विशेष सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सका. पर जो प्रयत्न हुए, उनमे उस अकुलाहट और बेबसी का आभास हमें मिलता है, जो आगे चल कर प्रेमचंद जी द्वारा क्रियाशील ढंग से अधिक कलात्मकता से प्रकट हुआ.
वास्तव में उस समय नाटकों के अतिरिक्त केवल उपन्यास लेखन ही ऐसा साधन था, जिसके द्वारा समाज के दोषों को दूर करने का प्रयत्न किया गया. नैतिकता के विकास का प्रयत्न इन्हीं के माध्यम से किया गया. उपन्यासों के माध्यम से ही सामाजिक चरित्र को ऊंचा उठाने का प्रयत्न हुआ. अनेक उपन्यास लेखक ऐसे थे जिनमे युगीन समस्याओं को उपन्यासों में उठाने और उनका समाधान प्रस्तुत करने की व्यग्रता थी. 'भाग्यवती' , सौ अजान एक सुजान, नूतन ब्रह्मचारी, परीक्षा गुरु आदि इसी प्रकार के उपन्यास थे . इन लेखकों ने अपनी कृतियों में समाज के पतन की ओर ध्यान दिया. घरेलु जीवन से सम्बन्ध रखने वाले गृहस्थ जीवन के उपन्यासों की भी रचना की गयी.
प्रेमचंद के आगमन के समय भारतीय जीवन बहुत ही दयनीय था. लोगों में अजीब सी निराशा व्याप्त थी. आर्य समाज आन्दोलन इस काल में सामाजिक परिस्थिति में सुधार लाकर प्रगतिशीलता लाने में संलग्न था. यह तो निश्चित था कि भारतवासी जहाँ थे , वहां न रहना चाहकर आगे बढ़ने के लिए उत्सुक थे. भारत की ज्यों ज्यों आर्थिक स्थिति शोचनीय होने लगी, सम्मिलित कुटुम्ब प्रथा भी त्यों त्यों विच्छिन्न होने लगी. जाति प्रथा भी क्षीण होने लगी थी. बाल विवाह की प्रथा भी समाप्त होती जा रही थी. सुधारवादी आन्दोलनों एवं पाश्चात्य शिक्षा के बढ़ते प्रभाव के कारण भारत का सामाजिक ढांचा हिलने लगा था.
इस युग में प्रेमचंद जी ने साहित्य के क्षेत्र में पर्दापण किया था और उन्होंने उपन्यासों को एक नयी दिशा प्रदान की. कल्पना लोक से निकल कर उसे यथार्थ की कठोर भूमि पर ला खड़ा कर प्रेमचंद जी ने हिंदी उपन्यासों को प्रगति की ओर मोड़ा. स्वयं प्रेमचंद जी ही ने अपने सभी उपन्यासों में इस युग की सभी समस्याओं का चित्रण कर उनका समाधान प्रस्तुत किया है. शोषक और शोषित वर्ग के परस्पर संघर्ष, पूँजीवाद के दमन-चक्र, नये धर्म का स्वरुप और प्रगतिशील समाज की रचना के सुझावों से उनके उपन्यास भरे पड़े हैं.
नारी जीवन की अनेक समस्याओं के साथ सामाजिक कुरीतियों और धार्मिक पाखंडों की ओर प्रसाद ने अपने उपन्यासों में लोगों का ध्यान आकर्षित कर उन्हें उचित निर्देशन प्रदान करने का प्रयास किया. इस युग में लगता था कि नारी समस्या, उसकी प्रगति और सामाजिक संघर्ष में उसे उचित स्थान देने की ओर ही उपन्यासकारों का विशेष ध्यान रहा. भगवती प्रसाद बाजपेयी, प्रताप नारायण श्रीवास्तव, चतुरसेन शास्त्री, चण्डीप्रसाद हृदयेश, वृन्दावन लाल वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला',राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह, ठाकुर श्रीनाथ और पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' आदि सभी उपन्यासकारों की कृतियों में नारी जीवन के मार्मिक प्रसंग नारियों की प्रगतिशीलता के लिए जोरदार दलीलें, उनके पिछड़े होने पर तीखे व्यंग्य और उसकी समस्याओं के समाधान का अपना आदर्शवादी ढंग सभी कुछ मिल जाता है. इस प्रकार प्रेमचंद जी के नेतृत्व में इस युग में प्रायः सभी उपन्यासकारों ने युग की समस्याओं को पिछले युग की भाँती अवहेलना की दृष्टि से नहीं देखा, बल्कि उन्हें हृदयंगम कर, चेतना की कसौटी पर कपडछान कर और मंजी तार्किक शक्ति से उपस्थित कर उनका समाधान भी अपने अपने ढंग से प्रस्तुत किया.
इस प्रकार हिंदी उपन्यास साहित्य को वास्तविक रूप देने का श्रेय प्रेमचंद जी को है. हिंदी उपन्यासों की पहले से कोई परंपरा न थी. उन्होंने ही परंपरा का निर्माण किया और स्वयं एक उल्लेखनीय स्थान के अधिकारी बने. प्रेमचंद जी ने जीवन की यथार्थता को उपन्यास साहित्य में अधिक व्यापक बना दिया है. नीति के साथ कला का संबंध स्थापित किया है, इसके अतिरिक्त व्यक्ति की संवेदनाओं का, विवशताओं का विश्लेषण भी किया है. उनकी आर्थिक विशेषताओं का अनुशीलन किया है. और उनमे समाधान के लिए समाज की विकृत व्यवस्थाओं पर कुठाराघात किया है. उनके प्रति पीड़ित व्यक्ति के मन में प्रतिक्रिया भी उत्पन्न की है. जिन सामाजिक व्यवस्थाओं ने व्यक्ति के जीवन को पंगु, असमर्थ, शक्तिहीन बना रखा है उनके दोषों का अध्ययन करके उनको अपने उपन्यासों के माध्यम से पीड़ित जनता के सम्मुख प्रस्तुत किया है. व्यक्ति की असहाय अवस्था का निदान करते हुए उन्होंने सामयिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक परिस्थियों का अन्वेषण - विश्लेषण किया है. समाज के माध्यम से बाह्य उपकरणों की सहायता से व्यक्ति की दुर्दशा का, करुणाजनक स्थिति का पर्यालोचन किया है. उसे परिवार में, बिरादरी में, गाँव में, नगर में, आंदोलनों में, सभाओं-उत्सवो में, सत्याग्रहों में विचारना, नाना प्रकार के क्रिया-कलापों को करना चित्रित किया है, जिससे कि पाठक व्यक्ति की समस्याओं का परिचय प्राप्त कर सके.
एक आलोचक ने ठीक ही लिखा है कि यदि चंद से लेकर प्रेमचंद तक हिंदी साहित्य की प्रवृतियों, विषयवस्तु और रूपविधानों, साहित्य के आलंबनों और उपकारों का विस्तृत अध्ययन किया जाय तो प्रेमचंद जी का कृतित्व कई बातों में असाधारण और क्रन्तिकारी प्रतीत होगा.
तुलसी और सूर के काव्यों में जो लोक जीवन की छाया मिलती भी है, तो वह सामंती आदर्शों को उभार कर सामने लाने के लिए श्रृंगारिक उपकरण के रूप में या चमत्कार पैदा करने वाली विरोधी पृष्ठभूमि के रूप में. किन्तु प्रेमचंद जी ने युग जीवन से प्रेरणा लेकर सामान्य जनता और किसानों के देहाती जीवन को अपने साहित्य का आलंबन बनाया, उन्होंने भारत की अस्सी प्रतिशत जनता की मूक वाणी को अपनी रचनाओं में मुखरित किया. हिंदी साहित्य के क्षेत्र में यह एकदम नया क्रन्तिकारी कदम था.
प्रेमचंद की परंपरा आज भी उतने ही सशक्त रूप में जीवित है. यशपाल, विष्णु प्रभाकर, उपेन्द्रनाथ अश्क, रांगेय राघव आदि इन्ही की देन हैं.
बहुत बढ़िया लेखन अनामिका जी....
जवाब देंहटाएंआभार इस ज्ञानवर्धक पोस्ट के लिए
अनु
आ.मनोज जी
जवाब देंहटाएंआपका भी शुक्रिया.
सादर
अनु
हिंदी उपन्यास को यथार्थ के धरातल पर खड़े करने वाले मुंशी प्रेमचंद ही थे,इससे पूर्व उपन्यास जगत में तिलस्म,ऐय्यारी,उपदेशात्मकता,नीति-उपदेश और किस्सागोई प्रमुख थे। लेकिन प्रेमचंद जी ने तत्कालीन समाज की सही तस्वीर प्रस्तुत करने में अपनी रचनात्मकता का उपयोग किया और उपन्यास को कल्पना लोक से उतार कर यथार्जथ की जमीन पर ला खड़ा।
जवाब देंहटाएंप्रारम्भिक काल में उपन्याओं का मानव जीवन के साथ कोई विशेष सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सका.
जवाब देंहटाएंउपन्याओं का अर्थ समझ नहीं आया ... शायद उपन्यास शब्द हो सकता है ...
ज्ञानवर्धक लेख
उत्कृष्ट प्रस्तुति शुक्रवार के चर्चा मंच पर ।।
जवाब देंहटाएंआइये पाठक गण स्वागत है ।।
लिंक किये गए किसी भी पोस्ट की समालोचना लिखिए ।
यह समालोचना सम्बंधित पोस्ट की लिंक पर लगा दी जाएगी 11 AM पर ।।
मेहनत से तैयार की गयी ...सार्थक और सार्गर्भित प्रस्तुति ..!!
जवाब देंहटाएंबहुत आभार अनामिका जी एवम मनोज जी ...!!
इसीलिए तो प्रेमचन्द को उपन्याससम्राट कहा जाता है।
जवाब देंहटाएंसंग्रहणीय आलेख है .आभार
जवाब देंहटाएंयुगानुरूप विश्लेषण करती प्रस्तुति समसामयिक सन्दर्भों के आलोक में .
जवाब देंहटाएंBahut mehnatse likhtee hain aap! Maine to sab chhod rakha hai! Eeshwar aapkee lekhan kshamata aisee hee bayee rakhe.
जवाब देंहटाएंवेश्यागमन हो,....क्या प्रेमचंद जी वास्तव में ऐसा चाहते थे.
जवाब देंहटाएंबढ़िया आलेख।
जवाब देंहटाएंप्रेमचंद के लेखन पर तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक परिवेश का कितना प्रभाव पड़ा इसकी विवेचना बहुत सशक्त तरीके से आपने की है ! निर्मला उनका बहुत ही बढ़िया उपन्यास है जो आपकी आलोचना की कसौटी पर खरा उतरता है ! साभार !
जवाब देंहटाएंइस 31 तारीख को मना रहे है प्रेमचंद का जन्मदिन
जवाब देंहटाएंला रहे हैं सुंदर सार्गर्भित आलेख भी साथ साथ
इस कड़ी में अनामिका जी का बहुत सार्थक आलेख लाये हैं मनोज जी आज !!
प्रेमचंद का लेखन आज के परिप्रेक्ष्य में भी उतना ही प्रभावशाली है जितना तब था.जीवन की जिन विसंगितियों का उन्होंने स्वयं अनुभव किया उन्हें अपने उपन्यासों में चित्रित किया.इतने ईमानदार लेखक हिन्दी साहित्य में बहुत विरल हैं.उनसे साक्षात कराने के लिये आभार !
जवाब देंहटाएंप्रेमचंद जी का कृतित्व कई बातों में असाधारण और क्रन्तिकारी प्रतीत होगा.....बहुत सही कहा है, प्रेमचन्द ने समाज परिवर्तन में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. सार्थक पोस्ट !
जवाब देंहटाएंवाकई बहुत ही अच्छा लिखा है आपने संग्रहणीय आलेख वैसे भी प्रेमचंद मेरे सबसे पसदीदा लेखकों में से हैं उनके विषय में यहाँ इतनी जानकारी देने के लिए आभार...
जवाब देंहटाएंबहुत ही सारगर्भित और विश्लेषणात्मक आलेख...
जवाब देंहटाएंखरगोश का संगीत राग रागेश्री पर आधारित
जवाब देंहटाएंहै जो कि खमाज थाट का सांध्यकालीन राग है,
स्वरों में कोमल निशाद और बाकी स्वर शुद्ध लगते हैं, पंचम इसमें वर्जित है, पर हमने इसमें अंत में पंचम का प्रयोग भी किया है,
जिससे इसमें राग बागेश्री भी झलकता है.
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हमारी फिल्म का संगीत वेद
नायेर ने दिया है.
.. वेद जी को अपने संगीत कि प्रेरणा जंगल में चिड़ियों
कि चहचाहट से मिलती है..
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