जन्म --- 1398
निधन --- 1518
कबीरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय ।
जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय ॥ 181 ॥
गाँठि न थामहिं बाँध ही, नहिं नारी सो नेह ।
कह कबीर वा साधु की, हम चरनन की खेह ॥ 182 ॥
खेत न छोड़े सूरमा, जूझे को दल माँह ।
आशा जीवन मरण की, मन में राखे नाँह ॥ 183 ॥
चन्दन जैसा साधु है, सर्पहि सम संसार ।
वाके अंग लपटा रहे, मन मे नाहिं विकार ॥ 184 ॥
घी के तो दर्शन भले, खाना भला न तेल ।
दाना तो दुश्मन भला, मूरख का क्या मेल ॥ 185 ॥
गारी ही सो ऊपजे, कलह कष्ट और भींच ।
हारि चले सो साधु हैं, लागि चले तो नीच ॥ 186 ॥
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय ।
दुइ पाटन के बीच में, साबित बचा न कोय ॥ 187 ॥
जा पल दरसन साधु का, ता पल की बलिहारी ।
राम नाम रसना बसे, लीजै जनम सुधारि ॥ 188 ॥
जब लग भक्ति से काम है, तब लग निष्फल सेव ।
कह कबीर वह क्यों मिले, नि:कामा निज देव ॥ 189 ॥
जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है, बाँकू है तिरशूल ॥ 190 ॥
सार्थक प्रयास ....!!
जवाब देंहटाएंआभार संगीता दी.
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय ।
जवाब देंहटाएंदुइ पाटन के बीच में, साबित बचा न कोय ॥ bahut accha lga ....bahut accha prayas...
जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल ।
जवाब देंहटाएंतोकू फूल के फूल है, बाँकू है तिरशूल ॥
आज के समाज लिए इन कबीरदास जी की वाणी का महत्व काफ़ी बढ़ गया है।
हर में जीवन अर्थ निहित..
जवाब देंहटाएंजो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल ।
जवाब देंहटाएंतोकू फूल के फूल है, बाँकू है तिरशूल ॥
आभार आपका !
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय ।
जवाब देंहटाएंदुइ पाटन के बीच में, साबित बचा न कोय
कभी पुरानी नहीं पड़तीं ये सीख...
Kitna gahan lekhan tha Kabeer ka!
जवाब देंहटाएंजो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल ।
जवाब देंहटाएंतोकू फूल के फूल है, बाँकू है तिरशूल !!
kash log in bhaavnaao se poshit ho payen. sunder prayas.
घी के तो दर्शन भले, खाना भला न तेल ।
जवाब देंहटाएंदाना तो दुश्मन भला, मूरख का क्या मेल ॥ 185 ॥
विछोह की छटपटाहट फिर भी आस है ,मंजिल अब पास रे ,
जवाब देंहटाएंचलते ही रहना तू राही होना मत उदास रे ...
भाव बोध को बांधे आगे बढती है रचना .
मुझसे मिलना फिर आपका मिलना ,आप किसको नसीब होतें हैं .
घी के तो दर्शन भी भले हैं ,तेल का क्या खाना (भाई आजकल तो सब तेल ही खाते हैं परिष्कृत ).,दानिश मंद आदमी तो दुश्मन भी ,मूर्ख की मित्रता किस काम की .
घी के तो दर्शन भी भले हैं ,तेल का क्या खाना (भाई आजकल तो सब तेल ही खाते हैं परिष्कृत ).,दानिश मंद आदमी तो दुश्मन भी ,मूर्ख की मित्रता किस काम की .
जवाब देंहटाएंघी के तो दर्शन भी भले हैं ,तेल का क्या खाना (भाई आजकल तो सब तेल ही खाते हैं परिष्कृत ).,दानिश मंद आदमी तो दुश्मन भीअच्छा ,मूर्ख की मित्रता किस काम की .अच्छा संकलन है कबीर का .लोक अनुभव का नाम ही तो कबीर है .
जवाब देंहटाएंआज भी कबीर सार्थक है
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