महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद से जुड़े संस्मरण दिलचस्प हैं । कादंबिनी पत्रिका में वर्षों पहले ऐसा ही संस्मरण छ्पा था ... प्रस्तुत है वो संस्मरण -----
इस महीने की 31 तारीख को प्रेमचन्द जी का जन्मदिन है और यह पूरा मास हम “राजभाषा हिंदी” ब्लॉग टीम की तरफ़ से प्रेमचन्द जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के ऊपर कुछ पोस्ट ला रहे हैं। इसी कड़ी में आज प्रस्तुत है एक संस्मरण
लखनऊ में अक्सर प्रेमचंद जी से मिलने लोग जाते रहते थे । एक बार ऐसे ही कुछ लोग उनके साथ बैठे बातें कर रहे थे कि उसी समय एक पंडित जी हाथ में तेल भरा कटोरा लिए आए जिसमें शनिश्चर भगवान की मूर्ति आकंठ डूबी थी । वे प्रत्येक दरवाजे पर जाकर शनिश्चर भगवान के आगमन की सूचना दे कर लोगों से पैसे वसूल कर रहे थे । प्राय: प्रत्येक घर की स्त्रियाँ उनको कुछ न कुछ दे रही थीं . प्रेमचंद जी ने कुछ नहीं दिया तो गोष्ठी में शामिल एक सज्जन जो कट्टर आर्य समाजी थे उन्होने कहा " आपने शनिश्चर भगवान को कुछ अर्पित नहीं किया , कहीं वे खफा न हो जाएँ "।
प्रेमचंद जी बोले कि मेरा शनिश्चर भगवान क्या करेंगे ? आपको इसके संबंध में एक किस्सा सुनाता हूँ । एक सज्जन के ग्रह खराब थे । साढ़े साती शनिश्चर का प्रकोप था । लोगों ने उन्हें सलाह दी कि वे किसी पंडित से शांति का उपाय पता करें । वे एक पंडित जी के पास गए और अपनी सारी दुख - गाथा सुनाई । पंडित जी ने यह सोच कर कि अच्छा आसामी है कहा - इसमें तो काली वस्तु का दान लिखा है । गज - दान से आपका संकट टल जाएगा । उन्होंने कहा , अरे महाराज ! गज - दान तो मेरी सामर्थ्य के बाहर है , कुछ ऐसा बताइये जो मैं कर सकूँ । पंडित जी बोले - तो कौस्तुभ मणि , नीलम मणि - ऐसी ही किसी मणि का दान करो । वे इसके लिए भी तैयार नहीं हुये तो पंडित जी ने कहा कि एक भैंस दान कर दो । लेकिन भैंस देने के लिए भी यजमान राजी नहीं हुआ । पंडित जी ने तब कुछ सोच कर कहा कि एक बोरा उड़द दान कर दो ।संकट दूर हो जाएगा । लेकिन उसके लिए एक बोरा उड़द देना भी संभव नहीं था ।
पंडित जी ने कहा कि तब एक काली कंबली का प्रबंध करो । लेकिन काली कंबली भी आज - कल 15 -20 रुपये से कम में नहीं आती अत; उन्होने इससे भी इंकार कर दिया । पंडित जी का धैर्य टूट रहा था , लेकिन वो अपने यजमान को छोडना नहीं चाहते थे । इसलिए उन्होने कहा कि तो लोहे की एक छुरी का ही दान कर दो । लेकिन लोहे की छुरी मुफ्त में तो मिलती नहीं , उसमें भी डेढ़ -दो रुपये लगते ही हैं । यजमान ने उसके लिए भी अपनी असमर्थता प्रकट कर दी ।
पंडित जी झुँझला कर बोले तो थोड़ा कोयला ही लाओ और उसी का दान करो । यजमान उसके लिए भी तैयार नहीं हुआ । कोयले में भी कुछ पैसे तो लगेंगे ही ।
अब पंडितजी का धैर्य छूट गया । उन्होने खीज कर कहा तो फिर क्यों बेकार में इतना परेशान हो रहे हो ? जा कर आराम से अपने घर बैठो । जब तुम थोड़ा सा कोयला भी नहीं दे सकते तो तुम्हारा एक दो क्या सैकड़ों शनिश्चर भी कुछ नहीं बिगाड़ सकते ।
इतना कह कर प्रेमचंद जी बोले कि मेरी भी हालत उस आदमी जैसी ही है , मेरा भला शनिश्चर क्या बिगाड़ेंगे ?
कादंबिनी पत्रिका से साभार
:-)रोचक संस्मरण....
जवाब देंहटाएंऔर इसमें निहित संदेश भी लाजवाब...
आभार संगीता दी.
सादर
अनु
बहुत ही सटीक उत्तर।
जवाब देंहटाएंमुंशी प्रेमचंद पर यह सिलसिला बहुत रोचक लगा। इस तरह की प्रस्तुतियां हमें अपने साहित्यकारों के साथ जोड़ देती हैं। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब :-)
जवाब देंहटाएंसुंदर संस्मरण के साथ साथ एक अच्छी सीख ..
साभार !!
बहुत ख़ूब!
जवाब देंहटाएंआपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 30-07-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-956 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
बहुत ख़ूब!
जवाब देंहटाएंआपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 30-07-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-956 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
्बहुत खूब
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी प्रस्तुति ... आभार
जवाब देंहटाएंjab aap dwara prastut is kahani ko padha to anaayas hi hansi aa gayi. sach hai jiske pas khone ko kuchh nahi uska koi kya bigadega. bahut sunder sanchyan.
जवाब देंहटाएंaabhar.
खरगोश का संगीत राग रागेश्री पर आधारित है जो कि खमाज
जवाब देंहटाएंथाट का सांध्यकालीन राग है, स्वरों में कोमल निशाद और बाकी स्वर शुद्ध लगते हैं, पंचम इसमें वर्जित है,
पर हमने इसमें अंत में
पंचम का प्रयोग भी किया है,
जिससे इसमें राग बागेश्री भी झलकता है.
..
हमारी फिल्म का संगीत वेद नायेर ने दिया है.
.. वेद जी को अपने संगीत कि प्रेरणा जंगल में चिड़ियों कि चहचाहट से मिलती है.
..
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