प्रेमचंद जी के उपन्यासों में
पात्रों का चरित्र चित्रण और पात्र योजना
अनामिका
आदरणीय पाठक गण पिछली बार मैंने प्रेमचंद जी के उपन्यास लेखन पर लिखा था कि प्रेमचंद जी ने युग जीवन से प्रेरणा लेकर सामान्य जनता और किसानों के देहाती जीवन को अपने साहित्य का आलंबन बनाया, उन्होंने भारत की अस्सी प्रतिशत जनता की मूक वाणी को अपने उपन्यासों में मुखरित किया. आज मैं इसी विषय को विस्तार देते हुए कुछ ऐसे तथ्य आप के साथ सांझा करुँगी कि कैसे प्रेमचंद जी अपने उपन्यासों में पात्रों का चरित्र चित्रण, उनकी वास्तविकता, पात्रों की संख्या और पात्रों की व्यक्तिगत या सामाजिक विशेषताओं को मुखरित करते थे और कैसे ये पात्र अपने समाज और वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं...
इस महीने की 31 तारीख को प्रेमचन्द जी का जन्मदिन है और यह पूरा मास हम “राजभाषा हिंदी” ब्लॉग टीम की तरफ़ से प्रेमचन्द जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के ऊपर कुछ पोस्ट ला रहे हैं। इसी कड़ी में आज प्रस्तुत है अनामिका की रचना।
उपन्यासों में पात्रों एवं चरित्र चित्रण का अत्यधिक महत्त्व होता है. वे हमारे सामने जीवन का वास्तविक यथार्थ रूप प्रस्तुत करते हैं. कई उपन्यासों के प्रारंभ में प्रायः लिखा होता है कि इसके पात्र पूर्णतया कल्पित हैं. लेकिन यह सत्य नहीं एक भ्रमपूर्ण कथन होता है. उसकी सत्यता की सीमा मात्र यहीं तक सीमित होती है कि पाठक उन विशेषताओं और प्रवृतियों से संपन्न व्यक्ति को जानता है, पर उसके परिचित का वह नाम नहीं है. उपन्यासकार मानव जीवन ही जीता है, कोई दैवी जीवन नहीं. हमारे मध्य ही वह रहता है. हमारी जीवनगत विषमताओं एवं दुरुहताओं से उसका भी साक्षात्कार होता है और उसकी कटुता का पान उसे भी करना पड़ता है. उपन्यासकार आत्माभिव्यक्ति करता हुआ कुछ शब्दजाल बुन देता है, उसे नाम देता है, उसमे प्राण संचारित करता है, स्त्री-पुरुष का भेद प्रदान करता है. जैसे ईश्वर मानव सृष्टि की रचना करता है वैसे ही उपन्यासकार अपने उपन्यास की. फर्क इतना है कि ईश्वर ऐसे भी ना जाने कितने व्यक्तियों का निर्माण करता है जो बिलकुल भी दिलचस्प नहीं होते, लेकिन उपन्यासकार इसके विपरीत दिलचस्प पात्रों का सृजन करता है और उनका उपन्यास संसार में महत्वपूर्ण स्थान होता है. अगर उपन्यासकार अनावश्यक पात्रों का भी निर्माण करता है तो उसका उपन्यास असफल हो जाता है.
वास्तव में उपन्यास रचना किसी निश्चित उद्देश्य को सामने रखकर होती है. केवल मनोरंजन या कल्पनालोक का निर्माण करना ही उपन्यासकार का दायित्व नहीं है. आज उसका दायित्व सत्य का अन्वेषण करना, मूल्य निर्माण और दिशा निर्देशन का भी है. अपने अनुभवों को भी पाठकों तक पहुंचाना उसका उद्देश्य होता है. इन पात्रों का वास्तविक होना आवश्यक है, क्यूंकि तभी उपन्यासकार का उद्देश्य भी सफल होता है. यही कारण है कि प्रेमचंद जी के निर्मला, धनिया, होरी, गोबर आदि पात्र हमारे अत्यंत निकट प्रतीत होते हैं. उनमे वास्तविकता और जीवन के प्रति सच्चाई है. संघर्ष के प्रति ईमानदारी है और सबसे बड़ी बात यथार्थता है. पर इसके ठीक विपरीत जैनेन्द्र कुमार की कट्टो, कल्याणी और सुनीता का आकर्षक व्यक्तित्व होते हुए भी वे यथार्थ प्रतीत नहीं होते हैं.
अब दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न यह आता है कि उपन्यासों में पात्रों की संख्या दो,तीन या चार कितनी हो ? इसका उत्तर उपन्यास के कथानक एवं उपन्यासकार के व्यक्तित्व से संबंधित है. यदि उपन्यासकार बहिर्मुखी व्यक्तित्व का है तो स्वाभाविक है उसका दायरा भी व्यापक होगा, मित्रों की संख्या अधिक होगी. इसके विपरीत अंतर्मुखी व्यक्तित्व वाले उपन्यासकार की सीमायें सीमित होंगी. प्रेमचंद जी का व्यक्तित्व भी बहुर्मुखी था. वे सामाजिक प्राणी थे और उनके मित्रों तथा परिचितों की संख्या अपार थी. इन्होने जीवन की व्यापकतम सीमाओं और युगीन समस्याओं के बहुविधीय पक्षों को अपने उपन्यासों में चित्रित करने का प्रयत्न किया है. स्वाभाविक है उनका यह उद्देश्य दो चार पात्रों से नहीं, बल्कि अनेक पात्रों को रखने से ही पूर्ण हो सकता था. पात्रों की संख्या, अनिवार्यता और उनका सफल निर्वाह होना भी आवश्यक है.
कई बार उपन्यासकार स्वाभाविक चारित्रिक विकास की ओर पूर्ण रूप से ध्यान नहीं दे पाता अतः या तो पात्रों की बीच में हत्या कर देनी पड़ती है या उनकी असामयिक मृत्यु हो जाती है, या वे बीच से ही गायब हो जाते है, फिर अंत तक उनका पता ही नहीं चलता और पाठक उन्हें खोजते ही रह जाते हैं. प्रेमचंद जी के उपन्यासों में भी ऐसा बहुत हुआ है. आदर्शवाद को उभारने के लिए ही यथार्थ जीवन से पात्रों को चुनने के बावजूद प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में संयोग तत्वों को इतना अधिक महत्त्व दिया है कि प्रायः उनके पात्र अस्वाभाविक, अयथार्थ अथवा यांत्रिक से प्रतीत होने लगते हैं. निर्मला उपन्यास में मुंशी उदयभानु लाल अपनी पत्नी से झगडा करके इसीलिए घर से बाहर निकलते हैं ताकि मतई रास्ते में उन्हें मार डाले और घर की स्वाभाविक आर्थिक विषमताओं के कारण निर्मला का अनमेल विवाह हो. रंगभूमि में सोफिया का माँ से झगड कर घर से बाहर निकलना इसलिए होता है ताकि वह अग्निकांड देखे और विनयसिंह के समीप आये. गबन के रामनाथ को चुंगिघर में नौकरी मिलना, जहाँ से वो पैसे उड़ा सके. और तो और कंगन बनवाने के लिए रतन का उसे छह सौ रूपए देना, ठीक छह सौ जिससे रामनाथ के जीवन में संघर्ष उत्पन्न हो सके. वरदान में कमलाचरण का ट्रेन से कूद कर मरना, प्रतिज्ञा में बसंत कुमार का गंगा में डूब कर मरना ताकि पूर्णा विधवा हो सके, सेवासदन में कृष्णचन्द्र का डूब कर मरना, ताकि विषमताओं के कारण सुमन का अनमेल विवाह गजाधर से हो सके, प्रेमाश्रम में गायत्री, मनोहर और ज्ञानशंकर की आत्महत्याएं और कायाकल्प में शंखधर की मृत्यु , उसके पिता की आत्महत्या, रंगभूमि में ही सूरदास की मृत्यु, सेवासदन में गजाधर का साधू बन जाना और समय समय पर उपस्थित होकर फिर गायब हो जाना आदि ऐसे ही उदाहरण हैं. वस्तुतः प्रेमचंद जी ऐसा या तो भावुकता के वशीभूत होकर करते हैं, या पात्रों की गति न संभाल पाने के कारण ही उन्हें मार देना पड़ता है.
कई बार उपन्यासकार स्वाभाविक चारित्रिक विकास की ओर पूर्ण रूप से ध्यान नहीं दे पाता अतः या तो पात्रों की बीच में हत्या कर देनी पड़ती है या उनकी असामयिक मृत्यु हो जाती है, या वे बीच से ही गायब हो जाते है, फिर अंत तक उनका पता ही नहीं चलता और पाठक उन्हें खोजते ही रह जाते हैं. प्रेमचंद जी के उपन्यासों में भी ऐसा बहुत हुआ है. आदर्शवाद को उभारने के लिए ही यथार्थ जीवन से पात्रों को चुनने के बावजूद प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में संयोग तत्वों को इतना अधिक महत्त्व दिया है कि प्रायः उनके पात्र अस्वाभाविक, अयथार्थ अथवा यांत्रिक से प्रतीत होने लगते हैं. निर्मला उपन्यास में मुंशी उदयभानु लाल अपनी पत्नी से झगडा करके इसीलिए घर से बाहर निकलते हैं ताकि मतई रास्ते में उन्हें मार डाले और घर की स्वाभाविक आर्थिक विषमताओं के कारण निर्मला का अनमेल विवाह हो. रंगभूमि में सोफिया का माँ से झगड कर घर से बाहर निकलना इसलिए होता है ताकि वह अग्निकांड देखे और विनयसिंह के समीप आये. गबन के रामनाथ को चुंगिघर में नौकरी मिलना, जहाँ से वो पैसे उड़ा सके. और तो और कंगन बनवाने के लिए रतन का उसे छह सौ रूपए देना, ठीक छह सौ जिससे रामनाथ के जीवन में संघर्ष उत्पन्न हो सके. वरदान में कमलाचरण का ट्रेन से कूद कर मरना, प्रतिज्ञा में बसंत कुमार का गंगा में डूब कर मरना ताकि पूर्णा विधवा हो सके, सेवासदन में कृष्णचन्द्र का डूब कर मरना, ताकि विषमताओं के कारण सुमन का अनमेल विवाह गजाधर से हो सके, प्रेमाश्रम में गायत्री, मनोहर और ज्ञानशंकर की आत्महत्याएं और कायाकल्प में शंखधर की मृत्यु , उसके पिता की आत्महत्या, रंगभूमि में ही सूरदास की मृत्यु, सेवासदन में गजाधर का साधू बन जाना और समय समय पर उपस्थित होकर फिर गायब हो जाना आदि ऐसे ही उदाहरण हैं. वस्तुतः प्रेमचंद जी ऐसा या तो भावुकता के वशीभूत होकर करते हैं, या पात्रों की गति न संभाल पाने के कारण ही उन्हें मार देना पड़ता है.
प्रेमचंद जी के अधिकांश पात्रों पर दोष लगाया जाता है कि वे टाइप पात्र या स्थिर पात्र हैं. स्थिर पात्र ऐसे होते हैं जिन पर जीवन के सुख-दुख, करुणा, उल्लास, विषम अथवा अनुकूल का कोई प्रभाव नहीं पड़ता. ये पात्र वास्तव में किसी न किसी वर्ग के प्रतिनिधि बन कर आते हैं. उपन्यासकार उस वर्ग की सारी प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार के पात्र में भर देता है. गोदान का होरी स्वयं अपने में कोई पात्र नहीं है. वह एक टाइप है. वह भारत के उन असंख्य सीधे-सादे, धर्म में गहन आस्था रखने वाले एवं नैतिकता का विशिष्ट मूल्यांकन करने वाले कृषकों का प्रतिनिधि है जो जीवन भर संघर्षरत रहते हैं, जिन्हें परिस्थितियों की विषमता सदैव पराजित करती है और अंत में उनकी अत्यधिक सज्जनता एवं आदर्शवादिता ही उन्हें ले डूबती है. ऐसे पात्र स्वयं नहीं बदलते, उनके सम्बन्ध में हमारी धारणा बदलती है. ऐसे पात्रों के बार बार परिचय देने की आवश्यकता नहीं होती ये पाठकों की चेतना में स्मरणीय रहते हैं. गोदान का होरी भी कितनी भी विषम परिस्थितियों के आगे कभी झुका नहीं चाहे टूट कर बिखर गया और इसी कारण पाठकों के लिए बराबर स्मरणीय रहा.
प्रश्न यह भी उठता है कि क्या प्रेमचंद के पात्रों में अपनी व्यक्तिगत विशेषताएं नहीं है. क्या सुमन, निर्मला, मंसाराम, जालपा, होरी, धनिया, गोबर, झुनियाँ आदि वैयक्तिता से रहित हैं. सबल व्यक्तित्व के पात्रों के अध्ययन से हम एक भावलोक में अपने आपको खोकर उनसे तादातम्य पाते हैं तो प्रेमचंद जी के पात्रों को यथार्थ रूप में देखकर उनसे सीधा संबंध स्थापित करते हैं. निर्मला में लेखक ने निर्मला और मंसाराम के आंतरिक द्वन्द का चित्रण करते हुए मनोव्यापारों का थोड़ा अध्ययन किया था, परन्तु इस कार्य को किसी अन्य उपन्यास में वो आगे नहीं बढ़ा पाए. संक्षेप में कहा जा सकता है कि प्रेमचंद जी के पात्र अपने वर्ग के प्रतिनिधि भी हैं, और काफी हद तक व्यक्तिगत विशेषताओं से युक्त भी. होरी के समबन्ध में अगर दावा करें कि मैंने एक मौलिक पात्र की सृष्टि की है तो होरी हडबडा कर उठ बैठेगा और चिल्ला उठेगा, 'सृष्टि आपने ख़ाक की है, मैं तो स्वयंभू हूँ,आपने मेरा चित्र मात्र उतारा है. प्रेमचंद जी के पात्रों का सम्बन्ध बाह्य जीवन से अधिक रहा है और उनका संघर्ष युग और समाज के सन्दर्भ में ही उभरता है. उनके मानसिक द्वंदों या आंतरिक संघर्ष को प्रेमचंद जी ने विशेष महत्त्व नहीं दिया जिससे वे वैयक्तिक बन पाते. प्रेमचंद जी की प्रखर सामाजिक चेतना और सामाजिक दायित्व के निर्वाह की भावना ने भी पात्रों में वैयक्तिकता नहीं आने दी.
राजभाषा हिंदी के माध्यम से प्रेमचंद जी और उनके साहित्य को बखूबी समझा .......हर पोस्ट पढ़ी और अभिभूत हुई.....
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया मनोज जी,अनामिका जी और संगीता दी...
सादर
अनु
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हटाएंराजभाषा हिंदी के माध्यम से प्रेमचंद जी और उनके साहित्य को बखूबी समझा .......हर पोस्ट पढ़ी और अभिभूत हुई.....
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया मनोज जी,अनामिका जी और संगीता दी...
सादर
अनु
BAHUT ACCHE SE VARNAN KIYA HAI ....
जवाब देंहटाएंवाह अनामिकाजी , बहुत ही सुन्दर, व्यापक एवं विस्तृत जानकारी दी है आपने प्रेमचंद जी के पात्रों को लेकर .....बहुत ही सुन्दर विश्लेषण .
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति ...आभार
जवाब देंहटाएंPremchandji ko dobara padhnahi hoga.
जवाब देंहटाएंमुंशी प्रेमचंद की चाहे कहानियाँ हों या कोई उपन्यास सबका ताना बाना समाज के बीच में रहने वाले लोगों के जीवन से बुना है ..... उन्होने अपने लेखन से सामाजिक चेतना जगाने का प्रयास किया है ...किसी व्यक्ति विशेष की कहानी न हो कर परिस्थितियों पर आधारित कहानी का सृजन किया है ...किसानों की दुर्दशा , स्त्रियों की समाज में स्थिति सब पर व्यापक दृष्टि डाली है .... सच तो यह है कि उनके उपन्यास और कहानियाँ आज भी प्रासंगिक हैं ।
जवाब देंहटाएंप्रेमचंद पात्रों को सीधे-समाज से चुनते हैं और उनके बाह्य क्रिया-कलाप अंकित करते हैं। बाह्य क्रिया-व्यापारों,व्यवहारों से वे समाज की तस्वीर अंकित करते हैं;निश्चित ही ऐसे में उन पात्रों की व्यक्तिगत मनोभूमि और आंतरिक द्वंद्व,संघर्ष तथा मन की भीतरी पर्ते नहीं खुलती। प्रेमचंद के उपन्यास,कहानियां इन अर्थों में यथार्थवादी हैं कि वे समाज में व्यक्तियों के व्यवहार को उनकी सामाजिक स्थिति के अनुरूप यथार्थ की धरती पर सृजित कर देते हैं। दूसरी और इला चंद्र जोशी,जैनेन्द्र कुमार,अज्ञेय आदि अपने उपन्यासों में व्यक्ति के मन की आंतरिक स्थिति,उसके मन में चल रहे द्वंद्व,संघर्ष,पीड़ा आदि को अंकित करते हैं,जिससे व्यक्ति के बाह्य व्यवहार,क्रिया-कलाप प्रभावित होते हैं। ये उपन्यास व्यक्ति के मनोविश्लेषण पर आधारित हैं और प्राय: मैं शैली में लिखे गए हैं।
जवाब देंहटाएंप्रेमचंद की पात्र योजना को समझने में यह लेख काफी हद तक मदद करता है। धन्यवाद।
प्रेमचंद का व्यक्तित्व साधारण और व्यावहारिक था। साथ ही उनके जीवन के आदर्श भी प्रत्यक्ष और सुनिश्चित थे। अतएव उन्होंने व्यावहारिक धरातल पर ही आदर्शवाद की प्रतिष्ठा की है। उनका आदर्शवाद रोमानी आदर्शवाद नहीं है, व्यावहारिक आदर्शवाद है। उन्होंने बहुत विस्तृत क्षेत्र का चित्रण किया है। निम्न और मध्यम श्रेणी के पात्रों के चित्रण में उन्हें सफलता मिली। यथार्थ और आदर्श के चित्रण के समन्वय से इस चित्रण में एक स्वाभाविकता है। उनका मानना था कि यथार्थवाद हमारी आंखें खोल देता है तो आदर्शवाद ऊंचा उठाकर किसी मनोरम स्थान पर पहुंचा देता है। किसी देवता की कामना करना मुमकिन है लेकिन उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करना मुश्किल है। यथार्थ और आदर्श के समन्वय से उन्होंने अपने पात्रों में सच्ची प्राण-प्रतिष्ठा की। मानवीय दुर्बलता उनके पात्रों में मिलती है। लेकिन ऐसी दुर्बलताएं ही मनुष्य को मनुष्य बनाती है। अन्यथा निर्दोष चरित्र तो देवताओं में ही मिल सकता है। साहित्य में होरी, धनिया और गोबर जैसे 'सर्वहारा' पात्रों को स्थान दिलाने का श्रेय भी प्रेमचंद को ही है। पुरातन काल से चले आ रहे आदर्श साहित्य को प्रगतिवाद का यथार्थ मुँह चिढाने लगा था। प्रेमचंद ने प्रगतिवादी साहित्य को नयी दिशा दी --आदर्शोन्मुख यथार्थवाद।
जवाब देंहटाएंप्रेमचंद की कहानियाँ समाज की असली कहानियाँ थीं उनके पात्र भी आसपास के ही होते थे.और वे आज भी उतने ही प्रासांगिक हैं.
जवाब देंहटाएंअच्छी विस्तृत व्याख्या के लिए बधाई स्वीकारें.
प्रेम चंद के साहित्य का बारीकी से अध्यन किया है आपने ... विस्तृत व्याख्या की है उनके पात्र चयन और कहानियों की पृष्ठभूमि की ... प्रभावी विश्लेषण ...
जवाब देंहटाएंप्रेमचंद के उपन्यासों के सभी पात्र हमने अपने आमने सामने खड़े देखे हैं वह चाहे होरी हो, निर्मला हो या गोबर और धनिया हों ! इनको देखते पढ़ते जीते उम्र के कई सोपान चढ़े हैं इसीलिये उनका साहित्य इतना जीवंत और प्राणवान प्रतीत होता है ! आपने जो इतनी बढ़िया श्रंखला आरम्भ की है उसके लिए आपका व राजभाषा हिन्दी का बहुत-बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत विस्तृत विश्लेषण..आपके श्रम को नमन..सार्थक पोस्ट !उनके कई उपन्यास मैंने पढ़े हैं पर इस तरह कभी सोचा नहीं..
जवाब देंहटाएंशुक्रिया इस बेःत्रीन प्रस्तुति और भारत के इस गोर्की की याद में श्रद्धांजलि स्वरूप ,पुष्पांजली रूप कुछ पोस्ट लाने का .जयंती मुबारक इस महान कथाकार की .
जवाब देंहटाएं'इतिहासों में तारीखों और घटनाओँ के सिवा कुछ सच नहीं होता और उपन्यासों में तारीख और घटनाओं को छोड़ कर सब सच होता है'-यह उक्ति प्रेमचंद के उपन्यासों पर बख़ूबी लागू होती है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आनामिका जी १
प्रेमचंद के जीवन और उनके पात्रों पर बहुत बढ़िया आलेख है यह... उनके पात्र हम में से होते थे... कई कालजयी पात्र अब भी लमही के इर्द गिर्द मौजूद हैं.... पूरे माह कई संग्रहनीय पोस्ट आये हैं इस ब्लॉग पर...
जवाब देंहटाएंप्रिय अनामिकाजी यह बहुत अच्छा है.हम जैसे लोगों को यह लाभदायक होगा,आप मुझे अजनबी,फिर मिलें क्योंकि हम आम आदमी हैना
जवाब देंहटाएंOkkkk
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