प्रस्तुत संदर्भ जब विजय के पश्चात युधिष्ठिर सभी बंधु- बंधवों की मृत्यु से विचलित हो कहते हैं कि यह राजकाज छोड़ वो वन चले जाएंगे उस समय पितामह भीष्म उन्हें समझाते हैं ----
नृपति चाहिए जो कि उन्हें
पशुओं की भांति चराए
रखे अनय से दूर , नीति - नय
पग - पग पर सिखलाये ।
नृप चाहिए नरों को , जो
समझे उनकी नादानी
रहे छींटता पल - पल
पारस्परिक कलह पर पानी ।
नृप चाहिए , नहीं तो आपस
में वे खूब लड़ेंगे
एक दूसरे के शोणित में
लड़ कर डूब मरेंगे ।
राजतंत्र द्योतक है नर की
मलिन निहीन प्रकृति का
मानवता की ग्लानि और
कुत्सित कलंक संस्कृति का ।
आया था यह प्रगति रोकने
को केवल दुर्गुण की
नहीं बांधने को सीमा
उन्मुक्त पुरुष के गुण की ।
सो देखो, अब दिशा विचारों
की भी निर्धारित है
राज - नियम से परे कर्म क्या ,
चिंतन भी वारित है ।
कृष्ण हों कि हों विदुर , नियोजित
सब पर एक नियम है
सब के मन , वच और कर्म पर
अनुशासन का क्रम है ।
इनकी भी यदि क्रिया रही
अनुकूल नहीं सत्ता के
तो ये भी तृणवत नगण्य हैं
सम्मुख राज प्रथा के ।
जो कुछ है , उसका रक्षण ही
ध्येय एक शासन का ;
नयी भूमि की ओर न बह
सकता प्रवाह जीवन का ।
कहीं रूढ़ि - विपरीत बात
कोई न बोल सकता है
नया धर्म का भेद मुक्त
हो कर न खोल सकता है ।
ग्रीवा पर दु : शील तंत्र को
शिला भयानक धारे
घूम रहा है मनुज जगत में
अपना रूप बिसारे ।
अपना बस रख सका नहीं
अविचल वह अपने मन पर ,
अत: बिताया एक खड्गधर
प्रहरी निज जीवन पर ।
और आज प्रहरी न देता
उसे न हिलने- डुलने
रूढ़ि बंध से परे मनुज का
रूप निराला खुलने ।
किन्तु , स्वयं नर ने कु कृत्य से
संभव किया इसे है ,
आपस में लड़ - झगड़ उसी से
आदर दिया इसे है ।
जब तक स्वार्थ - शैल मानव के
मन का चूर न होगा
तब तक नर-समाज से असिधर
प्रहरी दूर न होगा ।
नर है विकृत अत: , नरपति
चाहिए धर्म- ध्वज- धारी
राजतंत्र है हेय , इसीसे
राज धर्म है भारी ।
धर्मराज , सन्यास खोजना
कायरता है मन की
है सच्चा मनुजत्व ग्रंथियां
सुलझाना जीवन की ।
दुर्लभ नहीं मनुज के हित ,
निज वैयक्तिक सुख पाना
किन्तु कठिन है कोटि - कोटि
मनुजों को सुखी बनाना ।
एक पंथ है , छोड़ जगत को
अपने में रम जाओ ,
खोजो अपनी मुक्ति और
निज को ही सुखी बनाओ ।
अपर पंथ है , औरों को भी
निज - विवेक बल दे कर ,
पहुँचो स्वर्ग - लोक में जग से
साथ बहुत को ले कर ।
जिस तप से तुम चाह रहे
पाना केवल निज सुख को
कर सकता है दूर वही तप
अमित नरों के दुख को ।
निज तप रखो चुरा निज हित ,
बोलो क्या न्याय यही है ?
क्या समष्टि - हित मोक्ष दान का
उचित उपाय यही है ?
निज को ही देखो न युधिष्ठिर !
देखो निखिल भुवन को
स्ववत शांति - सुख की ईहा में
निरत , व्यग्र जन जन को ।
सार्थक प्रयास ....
जवाब देंहटाएंबहुत आभार संगीता दी ...!!
आज भी क्षुब्ध है एक कुरुक्षेत्र -समादृत कवि की कालजयी रचना
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार |
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति ||
बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंजब तक स्वार्थ - शैल मानव के
जवाब देंहटाएंमन का चूर न होगा
तब तक नर-समाज से असिधर
प्रहरी दूर न होगा ।
वाह ....बहुत सुन्दर.
नृप चाहिए , नहीं तो आपस
जवाब देंहटाएंमें वे खूब लड़ेंगे
एक दूसरे के शोणित में
लड़ कर डूब मरेंगे ।
अंततोगत्वा यही होता आया है।
vichaarneey post. sarthak prayas.
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