मंगलवार, 3 जुलाई 2012

प्रेमचन्द : संघर्षमय जीवन

प्रेमचन्द : संघर्षमय जीवन



इस महीने की 31 तारीख़ को प्रेमचन्द जी का जन्म दिन है। प्रेमचन्द जन्मदिवस के अवसर पर हम “राजभाषा हिंदी” ब्लॉग की टीम की ओर से यह पूरा मास उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर आधारित कुछ पोस्ट देने का प्रयास करेंगे।
 मनोज कुमार
आज हम उनके जीवन के बारे में कुछ बातें आपके समक्ष लेकर आए हैं। किसी भी साहित्यकार की रचना को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए उसके व्यक्तित्व और जीवन दृष्टि को जानना बहुत आवश्यक होता है। प्रेमचन्द जी का जीवन बहुत ही संघर्षमय था। उन्हें ख़ुद कुआं खोदकर पानी पीना पड़ा। यहां तक कि अपनी किताबों को छापने और अपने विचारों को आम पाठकों तक पहुंचाने के लिए उन्होंने प्रेस और प्रकाशन संस्था खोली। उनका जीवन सहज और सरल होने के साथ-साथ असाधारण था। उनके जीवन के बारे में उनकी ही पंक्तियों में कहा जाए तो सही होगा,
“मेरा जीवन सपाट, समतल मैदान है, जिसमें कहीं-कहीं गड्ढ़े तो हैं, पर टीलों, पर्वतों, घने जंगलों, गहरी घाटियों और खंडहरों का स्थान नहीं है। जो सज्जन पहाड़ों की सैर के शौकीन हैं उन्हें तो यहां निराशा ही होगी।”

वैचारिक संघर्ष और सामाजिक संदर्भों से अर्जित ठोस यथार्थ के धरातल पर सृजित कथा संसार में मानवीय अनुभव की विविधता को चित्रित करने वाले मुंशी प्रेमचंद का जन्म एक गरीब घराने में काशी से चार मील दूर बनारस के पास लमही नामक गाँव में 31 जुलाई 1880 को हुआ था। उनके बचपन का नाम नवाब और असली नाम श्री धनपतराय था। उनकी माता का नाम आनंदी देवी था। आठ वर्ष की अल्पायु में ही उन्हें मातृस्नेह से वंचित होना पड़ा। घर में सौतेली मां का आगमन हो गया। परिवार में फ़ारसी पढ़ने की परम्‍परा के कारण बचपन से फ़ारसी पढ़ने का शौक लग गया। हाई स्‍कूल की पढ़ाई के दौरान उनका विवाह हो गया और गृहस्‍थी का भार आ पड़ा  दुःख ने यहां ही उनका पीछा नहीं छोड़ा। सत्रह वर्ष की आयु में पिता का निधन हो गया। उनके पिता मुंशी अजायबलाल डाकखाने में डाकमुंशी थे।

नवाब की शिक्षा फ़ारसी से शुरू हुई थी। तेरह वर्ष की उम्र तक उन्हें हिन्दी बिल्कुल ही नहीं आती थी। जब गोरखपुर के मिशन स्कूल में पढ़ते थे तो एक स्थानीय बुकसेलर के यहां से लेकर उर्दू की कहानियों की पुस्तकें उपन्यास आदि पढ़ डाली। कथा की काल्पनिक दुनिया ने नवाब की वास्तविक दुनिया की कटुता को दूर करने का काम किया। यहां से आठवीं कक्षा पास करने के बाद उनका दाखिला बनारस के क्वीन्स कॉलेज में नवें दर्जे में हुआ। उस समय उनकी स्थिति ऐसी थी कि वे ख़ुद लिखते हैं, “पांव में जूते न थे। देह पर साबित कपड़े न थे। हेडमास्टर ने फ़ीस माफ़ कर दी थी।” विद्यार्थियों को ट्यूशन पढ़ा कर किसी तरह उन्होंने न सिर्फ़ अपनी रोज़ी-रोटी चलाई बल्कि एक साधारण छात्र के रूप में मैट्रिक भी पास किया।

15 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह कर दिया गया, जो दांपत्य जीवन में आ गए क्लेश के कारण सफल नहीं रहा। पत्नी को देखकर नवाब का दिल टूट गया। पत्नी कुरूप थी। स्वभाव की भी कटु। सास और बहू में आए दिन झगड़े होते रहते थे। क्षुब्ध होकर नवाब ने पत्नी से नाता तोड़ लिया। घर में यों ही बहुत गरीबी थी। ऊपर से सिर से पिता का साया हट जाने के कारण उनके सिर पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। ऐसी परिस्थिति में पढ़ाई-लिखाई से ज़्यादा रोटी कमाने की चिन्ता उनके सिर पर आ पड़ी। फिर भी अपने बल-बूते से पढ़े। बी.. किया। मैट्रिक पास करते-करते उनकी आर्थिक स्थिति यहां तक पहुंच चुकी थी कि अपना निर्वाह वे पुरानी पुस्तकें बेच कर भी नहीं कर सकते थे। 1898 में उन्होंने चुनार के एक मिशन स्कूल में मास्टरी शुरु की, तो पत्नी को साथ न ले गएवेतन प्रति माह अट्ठारह रुपए था। यह नौकरी करते हुए उन्होंने एफ. ए. और बी.ए. पास किया। एम.ए. भी करना चाहते थे, पर कर नहीं सके। शायद ऐसा सुयोग नहीं हुआ।

एक बार उनके स्कूल की टीम का गोरों की टीम से फुटबॉल मैच हो रहा था। इसमें उन्होंने अन्य छात्रों के साथ गोरों की पिटाई कर दी। इसकी क़ीमत उन्हें नौकरी गंवा कर चुकानी पड़ी। साल भर के भीतर 1900 में उन्हें बहराइच के ज़िला स्कूल में नौकरी मिल गई। फिर वहां से उनका तबादला प्रतापगढ़ हो गया। इसी बीच आर्य समाज आन्दोलन के प्रभाव में आकर उसके सदस्य भी बने। दो वर्ष की छुट्टी लेकर उन्होंने 1902 में इलाहाबाद के टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज में दाखिला लिया। 1904 में यहां से उत्तीर्ण हुए। 1905 में वे तबादला होकर कानपुर पहुंचे।

उन्हीं दिनों कानपुर से “ज़माना” नामक उर्दू पत्रिका निकलनी शुरू हुई थी। इसके संपादक मुंशी दयानारायण निगम थे। नवाब राय नाम से उन्होंने ‘ज़माना’ में कहानियां और साहित्यिक टिप्पणियां लिखना शुरू कर दिया। ज़माना’ में वे ‘रफ़्तारे ज़माना’ स्तंभ लिखते थे। आर्य समाज का प्रभाव तो था ही, वे हिन्दू समाज की समस्याओं पर भी लिखते रहे। इस तरह कानपुर में उनकी ज़िन्दगी ख़ुशगवार थी। उम्र उनकी पच्चीस से ऊपर की हो चली थी और विवाहित होकर भी वे दाम्पत्य जीवन से वंचित थे। उन्होंने दूसरा विवाह करने का निश्चय किया, पर किसी विधवा युवती से। 1906 में महाशिवरात्रि के दिन प्रेमचंद ने मुंशी देवी प्रसाद की बाल विधवा कन्या शिवरानी देवी से दूसरा विवाह कर लिया तथा उनके साथ सुखी दांपत्य जीवन जिए।

स्कूलों के सब-डिपुटी इंस्पेक्टर के रूप में जून 1909 में उनका तबादला हमीरपुर हो गया। यहीं पर एक ऐसी घटना हुई कि प्रेमचन्द का जन्म हुआ। उन्होंने 1901 मे उपन्यास लिखना शुरू किया। कहानी 1907 से लिखने लगे। उर्दू में नवाबराय नाम से लिखते थे। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों लिखी गई 1908 में उनकी कहानी सोज़े वतन प्रकाशित हुई थी। 1910 में यह कहानी ज़ब्त कर ली गई। सरकार को पता चल गया कि ‘सोज़े वतन’ के लेखक वास्तव में धनपत राय ही हैं। धनपत राय को तलब किया गया। किसी तरह नौकरी तो बच गई पर उनके लिखने पर पाबंदी लगा दी गई। इसके बाद वे अंग्रेज़ों के उत्पीड़न के कारण प्रेमचंद नाम से लिखने लगे। 

1914 में उनका तबादला बस्ती हो गया। उन दिनों पेचिश की बीमारी ने उन्हें ऐसा घेरा कि वे इससे जीवन भर जूझते रहे। कमज़ोर सेहत के कारण वे निरीक्षण का काम छोड़कर कम वेतन पर स्कूल में शिक्षक के रूप में आ गए। 1916 में उनका तबादला गोरखपुर हो गया। यहीं उर्दू में उन्होंने ‘बाज़ारे हुस्न’ की रचना की। उनका पहला कहानी संग्रह ‘सप्त सरोज’ और ‘बाज़ारे हुस्न’ का हिन्दी रूपान्तरण “सेवा सदन” इसी अवधि में प्रकाशित हुआ। थोड़े दिनों के बाद उन्होंने उर्दू में “गोशाए आफ़ियत” की रचना की जो बाद में हिन्दी में “प्रेमाश्रम” के नाम से प्रकाशित हुई।

सन 1921 में गोरखपुर में गांधी जी ने एक बड़ी सभा को संबोधित किया। गांधी जी ने सरकारी नौकरी से इस्तीफे का नारा दिया, तो प्रेमचंद ने गांधी जी के सत्याग्रह से प्रभावित हो, सरकारी नौकरी छोड़ दी। रोज़ी-रोटी चलाने के लिए उन्होंने कानपुर के मारवाड़ी स्कूल में काम किया। पर कुछ दिनों बाद ही त्‍यागपत्र देकर मर्यादा” (बनारस) पत्रिका का संपादन करने लगे। इसके बाद काशी विद्यापीठ में हेडमास्टर के पद पर नियुक्त हुए। पर इसमें भी उनका मन नहीं लगा। नौकरी छोड़कर उन्होने 1923 में बनारस में सरस्वती प्रेस की स्थापना की। प्रेस ठीक से नहीं चला। काफ़ी नुकसान हुआ। 1924 में वे गंगा पुस्तक माला के साहित्यिक सलाहकार के रूप में वे लखनऊ पहुंचे। 1925 में उन्होंने “चौगाने हस्ती” की रचना की। गंगा पुस्तक माला की नौकरी छोड़कर वे 1927 में “माधुरी” के संपादक के रूप में लखनऊ पहुंचे। 1930 में हंस का प्रकाशन शुरु किया। 

जून 1934 में वे अजन्ता सिनेटोन कम्पनी के प्रोपराइटर एम. भवनानी के निमन्त्रण पर मुम्बई पहुंचे। अप्रैल 1935 तक उस कंपनी में रहे। वही उन्होंने “गोदान” लिखना शुरू किया जिसे बनारस वापस आकर पूरा किया। अजन्ता सिनेटोन कम्पनी के बंद हो जाने पर वे वापस बनारस आ गए।

10 अप्रैल 1936 को प्रगतिशील लेखक संघ का प्रथम अधिवेशन हुआ, जिसकी अध्यक्षता प्रेमचन्द ने की। गोदान प्रकाशित हुआ। पर उनका स्वास्थ्य बिगड़ता गया। 8 अक्टूबर 1936 को जलोदर रोग से बनारस में उनका देहावसान हुआ

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम पाते हैं कि प्रेमचन्द जी का व्यक्तित्व औपनिवेशिक शासन के एक आम भारतीय आदमी का व्यक्तित्व है। उस काल के अन्य साधारण जनों से कुछ भी अलग नहीं है। श्री अमृत राय के शब्दों में कहें तो,
“नितांत साधारण वेशभूषा, उटंगी हुई धोती और साधारण कुर्ता, अचानक सामने पड़ जाने पर कोई विश्वास ही न करे कि ये हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक प्रेमचन्द हैं, साधारण जनसमूह के बीच आ पड़ने पर सबका हालचाल, नाम-गांव पूछने वाला, कोई हंसी की बात उठने पर ज़ोरदार ठहाका लगाने वाला, कभी-कभी बच्चों जैसी शरारत करने और मुस्कुराने वाला, नितांत साधारण, बंधी-टंकी दिनचर्या से जुड़ा, अपने को क़लम का मज़दूर मानने वाला यह आदमी हिन्दी का महान उपन्यासकार प्रेमचन्द था
***

15 टिप्‍पणियां:

  1. सार्थक प्रयास ...भावनात्मक लगाव है प्रेमचंद जी की कृतियों से ...
    शुभकामनायें मनोज जी.

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  2. मुंशी प्रेमचंद जी के बारे में दी गयी तथ्यपरक जानकारी बेहद प्रासंगिक है .....!

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  3. मुंशी प्रेम चंद जी के बारे में बढ़िया विवरण और जानकारी दी है ... आभार

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  4. कुआं खोद पीते रहे, जी ते लिखते लेख |
    प्रेम-चन्द आदर्श मम, खींची लम्बी रेख |
    खींची लम्बी रेख, जन्म का महिना पावन |
    प्रस्तुत करें मनोज, कई रचना मनभावन |
    मर्यादा सप्त-सरोज, हंस गोदान माधुरी |
    कर्मठ छप्पन साल, उम्र में सांस आखिरी ||

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    1. रविकए भाई जवाब नहीं आपका। पूरे लेख को इस कुंडली में शामिल कर लिया।

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  5. मनोज जी आपने धनपत राय के जीवन के बारे मे काफी अच्छी जानकारी दिया इसके लिए धन्यबाद

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  6. मुंशी प्रेमचंद के बारे में सार्थक जानकारी ...

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  7. हिन्ही कहानी के एक नए युग की शुरुआत करने वाले प्रेम चंद के बारे में बहुत अच्छी जानकारी दी है आपने ...
    शुक्रिया ...

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  8. मेरे प्रिय कहानीकार हैं ये. बहुत आभार एक अच्छी शुरुआत का.

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  9. प्रेमचंद जी के बारे में सार्थक जानकारी के लिये आभार

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  10. आदरणीय डॉ मनोज साहब , आपने इस कालजयी पुरुष को इस तहजीब के साथ संप्रेषित किया है ,जैसे लगता है स्वयं जिया है .....आपकी इस अद्वितीय रचनाकार के प्रति निष्ठां ,सम्मान को आदर ../ अग्रेतर इस साहित्य सम्राट को याद कर उसके सृजन की रायल्टी देना है ....आपका बहुत -२ आभार जी /

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  11. बहुत सुन्दर प्रस्तुति, कुछ अनछुए पहलुवों को भी उजागर किया .,बहुत सुन्दर , बढ़िया ..

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  12. बहुत सुंदर । पढ़कर याद आ गये प्रेमचंद जी भी।

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