कहानी ऐसे बनी-१४
मान घटे जहँ नित्यहि जाय
हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।
रूपांतर :: मनोज कुमार
नमस्कार मित्रों! आज बात करते हैं खखोरने काका की।
बीते वैशाख काका का ब्याह हुआ था। तिरहुत का गाँव है, सिरिपट्टी। हम लोग बारात गए थे। लड़की वालोम ने बहुत मान-दान किया था। दही-जलेबी की तो नदी बहा दी थी। मरजाद और भात-खई भी खूब जोरदार हुआ था। जलवासा के सामने वाले पोखर से ही बड़ी-बड़ी रोहू मछली छनवा कर भोज के लिए बनवाई गए थी और उसकी उसकी लहसुनिया सुगंध अभी तक नाक में तैर रही है। खैर दो दिनों बाद बारात विदा हुई लेकिन काका को ससुराल वाले नहीं आने दिए ।
पूरे सवा महीना पर काका गाँव लौटे थे। काका जवान तो पहले ही थे। अब तो चेहरा और भी लाल टस्स लग रहा था। एक सींक मार दें तो खून ऐसे फ़ेंक दे जैसे करेह नदी बाँध टूटने पर पानी फेंकती है। लाल धोती, सिल्क का कुर्ता और पैर में चमरौंधा जूता पहिने काका मच-मच करते आगे चले आ रहे थे। पीछे एक खवास बड़ी-सी पेटी माथे पर उठाए हुए था। काकी नहीं थी। साल भर पर द्विरागमन होगा तब आयेंगी। काका हर चार कदम पर पीली घड़ी देखना नहीं भूलते थे। और गर्दन वाली चेन को पता नहीं कितनी बार ठीक कर चुके थे। चेन-घड़ी संभालते-संभालते ही काका घर पहुँच गए। मर्द-औरतें बच्चे-बूढे सब का हुजूम उमड़ आया था काका को देखने।
गीत-नाद के बाद काका द्वार पर गए। प्रणाम-पाती हुआ। “ऐसा लगता है मानों सासुराल में दूध में सिन्दूर मिला कर नहला दिया है, लाल तो बाबू ऐसे ही लगते हैं...” पुर्णियां वाली काकी मजाक करने लगी।
तर से उच्चैठ वाले बुआ ने मोर्चा थाम लिया, "ऐ दुल्हिन ! अपने नैहर वाली कोशी का किनारा ना समझो। खखोरन की ससुराल है! धन्य दरभंगा, दोहरी अंगा!! मिथिला से अधिक पाहुन का मान-सम्मान और कहीं होता है!!!”
दही में सही लगाते हुए खखोरन काका बोले, "एकदम ठीक कहती हो बुआ। भौजी क्या समझेंगी। हम तो अघा गए खाते-खाते। गरम-कचौरी, नरम कचौरी, खोया, मछली और कवाब खा खा के पेट जवाब दे दिया। इतना मान हुआ कि दो-चार दिन धोतिए में ही मैदान हो गया। लेकिन देसी घी में नहा कर और बासमती चावल का राज-भोग खा कर पूरा शरीर दुगुना होय गया है। बहुत दिलदार हैं सिरिपट्टी वाले। भगवान ऐसी ससुराल भैया को भी देते।"
भौजी भुनभुनाते हुए चली गयी और हमलोग हंसने लगे।
महीना भी नहीं गता था, हम एकदिन ताश खेलने के लिए काका को खोजने गए तो पता चला कि 'अरे... वो तो पिछले सप्ताह से ही ससुराल में हैं। पता नहीं कब आयेंगे।'
पुर्णियां वाली काकी से कुशल-समाचार बतियाने लगे। तभी उधर से साइकिल की घंटी बजी। हमने पलट कए देखा, "अरे खखोरन काका ! आप आ गए ससुराल से?"
'हाँ आ गया।' काका झुंझलाते हुए बोले। साईकिल पटके और दालान पर बैठ कर बतियाये लगे। पुर्णियां वाली काकी पूछी, "लाल बौआ ! बहुत जल्दी चले आये। इस बार सास-ससुर रोके नहीं क्या ?"
काका बोले, "रोके तो बहुत। लेकिन हम बोले कि हम किसी कीमत पर नहीं रुकेंगे।"
खों...खों... ओह्हों... खोह्हों..... खांसते हुए खखोरन काका पुर्णियां वाली काकी से बोले, "भौजी ! जरा तुलसी पत्ता के काढ़ा बना के लाना... दो-चार दिन महुआ दही खा लिए, और बाहर शीत में सो गए सो खांसी हो गया है।“
काकी मजाक में ही बोली, "हाँ बौआ ! काहे नहीं..... ससुराल का मजा तो महुआ दही में ही है।" और उठ कर काढ़ा बनाने चली गयी।
कुछ दिन काढ़ा पीते बीता फिर खांसी नरम हुआ। काका को फिर से सासुराल का मान-दान याद आने लगा। रविवार को सुबह-सवेरे केश-दाढी छंटाये और नहा-धो कर सायकिल जोत दिए, पूर्व की तरफ़। दोपहर में उन्हीं के दालान पर ताश-पार्टी जमी। काका नहीं थे लेकिन हर कोई काका की ही चर्चा कर रहा था। रमेसर झा बोले कि 'खखोरन नहीं कि उसकी ससुराल नहीं'।
नथुनी दस बोला, “ऐसा मत कहिये पंडित जी ! सच में खखोरन बाबू की ससुराल में बेजोड़ मान-दान होता है।“
रामजी बाबा रंग का गुलाम फेंकते हुए खिसिया कर बोले, "धुर्र बुरबक ! ससुराल है तो मान-दान तो होगा ही। इसका मतलब क्या रोज चला जाएगा... ?"
खेल अभी चल ही रहा था कि साईकिल टन-टनाते काका आ धमके। दरवाजे पर एक तरफ साईकिल पटका। धम्म से दालान में आ कर बैठ गए। एक हाथ से पेट पकड़ कर लगे कराहने, "भौजी, एक लोटा पानी भेजना.... अआह.... रे मन्गरुआ..... अरे जा कर जरा वैद्य जी को बुला लाओ।”
काका बेदम होने लगे। झट-पट में मदन डाक्टर बुलाये गए। नाड़ी देखा, फिर जीभ। फिर बोले, “कुर्ता हटाओ।“
गर्दन मे लटकी हुई मशीन निकली। उसका टोंटी कान में घुसाया और मशीन काका के पेट पर सटा-सटा कर उसके अन्दर की आवाज़ सुनने लगे। काका, 'अआह... उह.... यहीं दुखता है डाक्टर साहेब.... हाँ इधर ही।“
“हूँ!” डाक्टर साहब चश्मा को ज़रा नाक पर सरकाते हुए बोले, “घबराने की कोई बात नहीं है। हम आला लगा कर चेक कर लिए हैं। पेट-वेट ठीक है। लगता है कुछ उल्टा-सीधा खा लिए होंगे, उसी से दर्द हो रहा है। ये लो पुर्जा लिख दिए हैं। एक पचनौल की गोली है, एक वायु-विकार का और एक एंटीबायोटिक है।“ डाक्टर साहब पुर्जा थमा कर दसटकिया जेब में रखे और चल दिए।
डाक्टर जाने के बाद हम पूछे, “काका आप तो ससुराल गए रहे। वहाँ क्या खा लिए कि पेट में इतना दर्द हो गया?”
दर्द से कराहते हुए काका बोले, “किस्मत खराब हो तो ससुराल क्या वैकुण्ठ में भी क्लेश है। क्या बताएं... ससुराल का मान-दान तो पता ही है। जैसे ही पहुंचे, हमरी सास जलपान के लिए बुला ली। फुलही थाली में भर कर दोबर चूरा रख दिहिस और गयी दही लाने सो आधा घंटा तक भीतर ही रह गयी। हम यहाँ इन्तज़ार कर रहे हैं, सासू जी दही लाने गयी है कि जमाने गयी है? .... काफ़ी देर बाद सास तो नहीं अन्दर से सरहज निकली। हमको चूरा पर हाथ फेरते हुए देख कर बोली, "पाहून ! क्या बताएं रात में दही जमाना ही भूल गए। लगता है सासु माँ बगल से दही लाने गयी हैं। तब तक आप भोग लगाइए न... आ ही जायेगी।’
हम भी ऐसे ढीठ कि बोले, 'कोई बात नहीं भौजी ! यह भी तो अपना ही घर है। दही नहीं जमा तो क्या हुआ ? दूध ही ले आईये।' अच्छा ठीक है कह कर भौजी अन्दर गयी तो वो भी आउट होकर जाने वाला क्रिकेट के बल्लेबाज की तरह अंदर ही रह गयी। हार के हम आवाज दिए तो छोटकी साली रस के प्याली भर के बोली, 'जीजाजी, देखिये न भाभी बहुत परेशान है। सीका पर से दूध उतार रही थी कि बरतने ही हाथ से छूट गया। पूरा दूध माटी में मिल गया।’
काका अपनी बात को जारी रखते हुए बोले, "एक भोर साईकिल हांक कर आये थे। भूख के मारे रहा नही जा रहा था। बोले कि कोई बात नहीं। ज़रा नमक-तेल और अंचार ही दे-देना।" ‘ठीक है’ कह कर कर साली अन्दर गयी तो हमरी नजर रसोई घर के दरवाज़े पर अटक गयी कि पाता नहीं अब कौन भदवा पड़ेगा। लेकिन साली दो मिनट में ही वापस आ गयी। चुटकी भर नमक रख दी थाली में। फिर बोली, 'जीजाजी तेल तीसी का है। कच्चा खाने में अच्छा नहीं लगेगा इसीलिये नहीं लाई और अंचार इतना खट्टा है कि दांत खट्टे हो जायेंगे इसीलिये ये हरी मिर्च लाई हूँ।’ इतना कह कर चार लौंगिया हरी मिर्च चूरा के ऊपर से रख दी।
काका कहे जा रहे थे, 'भूख ना माने बासी भात। वही मिर्च के साथ तीन पाव चूरा फांके और एक लोटा पानी पीकर दालान में आये ही थे कि पेट में ऐसी व्यथा शुरू हुई कि दो बार लोटा लेकर गाछी दौड़े। दर्द और बढता ही जा रहा था। वहाँ न कोई डाक्टर-वैद, ना कोई मरद-मानुस। सास-सरहज कोई एक बार भी बार हाल पूछने भी बाहर नहीं आयीं। हम सोचे कि इससे पहले कि हाल और बिगड़ जाए अपने घर लौट चलते हैं। भरी दोपहरी में हम चल दिए लेकिन किसी ने निकल कर रोका तक नहीं।' कहते-कहते काका की लाल-लाल आँखों से गोल-गोल आंसू ढलक पड़े।
तभी रामेसर झा चिल्लाए, "सुना रे निर्धनमा! ससुराल में बड़ा मान-दान होता है....??? ससुराल है एक दिना। दौड़-दौड़ कर जाएगा तो ऐसा ही मान-दान होगा..... !”
रामजी बाबा भी कहाँ पीछे रहने वाले थे। बोले, "ठीक कह रहे हैं पंडित जी। मान घटे जहँ नित्यहि जाय। ससुराल रहे चाहे समधियाना, हमेशा जाने वाले को क्या मान मिलेगा। जहाँ नित्य दिन जाइयेगा वहाँ सम्मान घटेगा ही। हां।"
कहने का मतलब समझे हजूर लोग ? अरे भाई ! कहीं भी बार-बार नहीं जाना चाहिए। और जाते हैं तो मान-सम्मान की परवाह नहीं कीजिये। पाहून-कुटुंब होते हैं एक-दो दिन के लिए। अब हमेशा जायेंगे तो सम्मान घटेगा ही। इसीलिये कहते हैं, "मान घटे जहाँ नित्यहि जाय"। तो कहानी ऐसे बनी। याद रहा तो ठीक है नहीं तो दुबारा ससुराल जाने से पहले इसे एक बार फिर पढ़ लीजिएगा। अभी हमको और्डर दीजिये ! राम-राम !!!