सोमवार, 29 नवंबर 2010

विडम्बना ......

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अक्सर -
सुबह सड़क पर
नन्हें बच्चों को देखती हूँ ,
कुछ सजे - संवरे 
बस्ता उठाये
बस के इंतज़ार में
माँ का हाथ थामे हुए
स्कूल जाने के लिए 
उत्साहित से , प्यारे से ,
लगता है 
देश का भविष्य बनने को 
आतुर हैं ।


और कुछ नन्हे बच्चे 
नंगे पैर , नंगे बदन
आंखों में मायूसी लिए
चेहरे  पर उदासी लिए
एक बड़ा सा झोला थामें 
कचरे के डिब्बे के पास
चक्कर काटते हुए
कुछ बीनते हुए
कुछ चुनते हुए
एक दिन की 
रोटी के जुगाड़ के लिए
अपना भविष्य 
दांव पर लगाते हुए
हर पल व्याकुल हैं ,
आकुल हैं.

रविवार, 28 नवंबर 2010

कहानी ऐसे बनी-१४ :: मान घटे जहँ नित्यहि जाय

 
कहानी ऐसे बनी-१४
मान घटे जहँ नित्यहि जाय

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

रूपांतर :: मनोज कुमार

नमस्कार मित्रों! आज बात करते हैं खखोरने काका की।

बीते वैशाख काका का ब्याह हुआ था। तिरहुत का गाँव है, सिरिपट्टी। हम लोग बारात गए थे। लड़की वालोम ने बहुत मान-दान किया था। दही-जलेबी की तो नदी बहा दी थी। मरजाद और भात-खई भी खूब जोरदार हुआ था। जलवासा के सामने वाले पोखर से ही बड़ी-बड़ी रोहू मछली छनवा कर भोज के लिए बनवाई गए थी और उसकी उसकी लहसुनिया सुगंध अभी तक नाक में तैर रही है। खैर दो दिनों बाद बारात विदा हुई लेकिन काका को ससुराल वाले नहीं आने दिए ।

पूरे सवा महीना पर काका गाँव लौटे थे। काका जवान तो पहले ही थे। अब तो चेहरा और भी लाल टस्स लग रहा था। एक सींक मार दें तो खून ऐसे फ़ेंक दे जैसे करेह नदी बाँध टूटने पर पानी फेंकती है। लाल धोती, सिल्क का कुर्ता और पैर में चमरौंधा जूता पहिने काका मच-मच करते आगे चले आ रहे थे। पीछे एक खवास बड़ी-सी पेटी माथे पर उठाए हुए था। काकी नहीं थी। साल भर पर द्विरागमन होगा तब आयेंगी। काका हर चार कदम पर पीली घड़ी देखना नहीं भूलते थे। और गर्दन वाली चेन को पता नहीं कितनी बार ठीक कर चुके थे। चेन-घड़ी संभालते-संभालते ही काका घर पहुँच गए। मर्द-औरतें बच्चे-बूढे सब का हुजूम उमड़ आया था काका को देखने।

गीत-नाद के बाद काका द्वार पर गए। प्रणाम-पाती हुआ। “ऐसा लगता है मानों सासुराल में दूध में सिन्दूर मिला कर नहला दिया है, लाल तो बाबू ऐसे ही लगते हैं...” पुर्णियां वाली काकी मजाक करने लगी।

तर से उच्चैठ वाले बुआ ने मोर्चा थाम लिया, "ऐ दुल्हिन ! अपने नैहर वाली कोशी का किनारा ना समझो। खखोरन की ससुराल है! धन्य दरभंगा, दोहरी अंगा!! मिथिला से अधिक पाहुन का मान-सम्मान और कहीं होता है!!!”

दही में सही लगाते हुए खखोरन काका बोले, "एकदम ठीक कहती हो बुआ। भौजी क्या समझेंगी। हम तो अघा गए खाते-खाते। गरम-कचौरी, नरम कचौरी, खोया, मछली और कवाब खा खा के पेट जवाब दे दिया। इतना मान हुआ कि दो-चार दिन धोतिए में ही मैदान हो गया। लेकिन देसी घी में नहा कर और बासमती चावल का राज-भोग खा कर पूरा शरीर दुगुना होय गया है। बहुत दिलदार हैं सिरिपट्टी वाले। भगवान ऐसी ससुराल भैया को भी देते।"

भौजी भुनभुनाते हुए चली गयी और हमलोग हंसने लगे।

महीना भी नहीं गता था, हम एकदिन ताश खेलने के लिए काका को खोजने गए तो पता चला कि 'अरे... वो तो पिछले सप्ताह से ही ससुराल में हैं। पता नहीं कब आयेंगे।'

पुर्णियां वाली काकी से कुशल-समाचार बतियाने लगे। तभी उधर से साइकिल की घंटी बजी। हमने पलट कए देखा, "अरे खखोरन काका ! आप आ गए ससुराल से?"

'हाँ आ गया।' काका झुंझलाते हुए बोले। साईकिल पटके और दालान पर बैठ कर बतियाये लगे। पुर्णियां वाली काकी पूछी, "लाल बौआ ! बहुत जल्दी चले आये। इस बार सास-ससुर रोके नहीं क्या ?"

काका बोले, "रोके तो बहुत। लेकिन हम बोले कि हम किसी कीमत पर नहीं रुकेंगे।"

खों...खों... ओह्हों... खोह्हों..... खांसते हुए खखोरन काका पुर्णियां वाली काकी से बोले, "भौजी ! जरा तुलसी पत्ता के काढ़ा बना के लाना... दो-चार दिन महुआ दही खा लिए, और बाहर शीत में सो गए सो खांसी हो गया है।“

काकी मजाक में ही बोली, "हाँ बौआ ! काहे नहीं..... ससुराल का मजा तो महुआ दही में ही है।" और उठ कर काढ़ा बनाने चली गयी।

कुछ दिन काढ़ा पीते बीता फिर खांसी नरम हुआ। काका को फिर से सासुराल का मान-दान याद आने लगा। रविवार को सुबह-सवेरे केश-दाढी छंटाये और नहा-धो कर सायकिल जोत दिए, पूर्व की तरफ़। दोपहर में उन्हीं के दालान पर ताश-पार्टी जमी। काका नहीं थे लेकिन हर कोई काका की ही चर्चा कर रहा था। रमेसर झा बोले कि 'खखोरन नहीं कि उसकी ससुराल नहीं'।

नथुनी दस बोला, “ऐसा मत कहिये पंडित जी ! सच में खखोरन बाबू की ससुराल में बेजोड़ मान-दान होता है।“

रामजी बाबा रंग का गुलाम फेंकते हुए खिसिया कर बोले, "धुर्र बुरबक ! ससुराल है तो मान-दान तो होगा ही। इसका मतलब क्या रोज चला जाएगा... ?"

खेल अभी चल ही रहा था कि साईकिल टन-टनाते काका आ धमके। दरवाजे पर एक तरफ साईकिल पटका। धम्म से दालान में आ कर बैठ गए। एक हाथ से पेट पकड़ कर लगे कराहने, "भौजी, एक लोटा पानी भेजना.... अआह.... रे मन्गरुआ..... अरे जा कर जरा वैद्य जी को बुला लाओ।”

काका बेदम होने लगे। झट-पट में मदन डाक्टर बुलाये गए। नाड़ी देखा, फिर जीभ। फिर बोले, “कुर्ता हटाओ।“

गर्दन मे लटकी हुई मशीन निकली। उसका टोंटी कान में घुसाया और मशीन काका के पेट पर सटा-सटा कर उसके अन्दर की आवाज़ सुनने लगे। काका, 'अआह... उह.... यहीं दुखता है डाक्टर साहेब.... हाँ इधर ही।“

“हूँ!” डाक्टर साहब चश्मा को ज़रा नाक पर सरकाते हुए बोले, “घबराने की कोई बात नहीं है। हम आला लगा कर चेक कर लिए हैं। पेट-वेट ठीक है। लगता है कुछ उल्टा-सीधा खा लिए होंगे, उसी से दर्द हो रहा है। ये लो पुर्जा लिख दिए हैं। एक पचनौल की गोली है, एक वायु-विकार का और एक एंटीबायोटिक है।“ डाक्टर साहब पुर्जा थमा कर दसटकिया जेब में रखे और चल दिए।

डाक्टर जाने के बाद हम पूछे, “काका आप तो ससुराल गए रहे। वहाँ क्या खा लिए कि पेट में इतना दर्द हो गया?”

दर्द से कराहते हुए काका बोले, “किस्मत खराब हो तो ससुराल क्या वैकुण्ठ में भी क्लेश है। क्या बताएं... ससुराल का मान-दान तो पता ही है। जैसे ही पहुंचे, हमरी सास जलपान के लिए बुला ली। फुलही थाली में भर कर दोबर चूरा रख दिहिस और गयी दही लाने सो आधा घंटा तक भीतर ही रह गयी। हम यहाँ इन्तज़ार कर रहे हैं, सासू जी दही लाने गयी है कि जमाने गयी है? .... काफ़ी देर बाद सास तो नहीं अन्दर से सरहज निकली। हमको चूरा पर हाथ फेरते हुए देख कर बोली, "पाहून ! क्या बताएं रात में दही जमाना ही भूल गए। लगता है सासु माँ बगल से दही लाने गयी हैं। तब तक आप भोग लगाइए न... आ ही जायेगी।’

हम भी ऐसे ढीठ कि बोले, 'कोई बात नहीं भौजी ! यह भी तो अपना ही घर है। दही नहीं जमा तो क्या हुआ ? दूध ही ले आईये।' अच्छा ठीक है कह कर भौजी अन्दर गयी तो वो भी आउट होकर जाने वाला क्रिकेट के बल्लेबाज की तरह अंदर ही रह गयी। हार के हम आवाज दिए तो छोटकी साली रस के प्याली भर के बोली, 'जीजाजी, देखिये न भाभी बहुत परेशान है। सीका पर से दूध उतार रही थी कि बरतने ही हाथ से छूट गया। पूरा दूध माटी में मिल गया।’

काका अपनी बात को जारी रखते हुए बोले, "एक भोर साईकिल हांक कर आये थे। भूख के मारे रहा नही जा रहा था। बोले कि कोई बात नहीं। ज़रा नमक-तेल और अंचार ही दे-देना।" ‘ठीक है’ कह कर कर साली अन्दर गयी तो हमरी नजर रसोई घर के दरवाज़े पर अटक गयी कि पाता नहीं अब कौन भदवा पड़ेगा। लेकिन साली दो मिनट में ही वापस आ गयी। चुटकी भर नमक रख दी थाली में। फिर बोली, 'जीजाजी तेल तीसी का है। कच्चा खाने में अच्छा नहीं लगेगा इसीलिये नहीं लाई और अंचार इतना खट्टा है कि दांत खट्टे हो जायेंगे इसीलिये ये हरी मिर्च लाई हूँ।’ इतना कह कर चार लौंगिया हरी मिर्च चूरा के ऊपर से रख दी।

काका कहे जा रहे थे, 'भूख ना माने बासी भात। वही मिर्च के साथ तीन पाव चूरा फांके और एक लोटा पानी पीकर दालान में आये ही थे कि पेट में ऐसी व्यथा शुरू हुई कि दो बार लोटा लेकर गाछी दौड़े। दर्द और बढता ही जा रहा था। वहाँ न कोई डाक्टर-वैद, ना कोई मरद-मानुस। सास-सरहज कोई एक बार भी बार हाल पूछने भी बाहर नहीं आयीं। हम सोचे कि इससे पहले कि हाल और बिगड़ जाए अपने घर लौट चलते हैं। भरी दोपहरी में हम चल दिए लेकिन किसी ने निकल कर रोका तक नहीं।' कहते-कहते काका की लाल-लाल आँखों से गोल-गोल आंसू ढलक पड़े।

तभी रामेसर झा चिल्लाए, "सुना रे निर्धनमा! ससुराल में बड़ा मान-दान होता है....??? ससुराल है एक दिना। दौड़-दौड़ कर जाएगा तो ऐसा ही मान-दान होगा..... !”

रामजी बाबा भी कहाँ पीछे रहने वाले थे। बोले, "ठीक कह रहे हैं पंडित जी। मान घटे जहँ नित्यहि जाय। ससुराल रहे चाहे समधियाना, हमेशा जाने वाले को क्या मान मिलेगा। जहाँ नित्य दिन जाइयेगा वहाँ सम्मान घटेगा ही। हां।"

कहने का मतलब समझे हजूर लोग ? अरे भाई ! कहीं भी बार-बार नहीं जाना चाहिए। और जाते हैं तो मान-सम्मान की परवाह नहीं कीजिये। पाहून-कुटुंब होते हैं एक-दो दिन के लिए। अब हमेशा जायेंगे तो सम्मान घटेगा ही। इसीलिये कहते हैं, "मान घटे जहाँ नित्यहि जाय"। तो कहानी ऐसे बनी। याद रहा तो ठीक है नहीं तो दुबारा ससुराल जाने से पहले इसे एक बार फिर पढ़ लीजिएगा। अभी हमको और्डर दीजिये ! राम-राम !!!

शनिवार, 27 नवंबर 2010

पुस्तक चर्चा :: गांधी जी का “हिंद स्‍वराज”

पुस्तक चर्चा

गांधी जी का “हिंद स्‍वराज”

मनोज कुमार

सन् 1909 में गांधी जी ने हिंद स्‍वराज्‍य पुस्‍तक लिखी थी। उन्‍होंने यह पुस्‍तक इंग्‍लैंड से अफ्रीका लौटते हुए जहाज पर लिखी थी। जब उनका एक हाथ थक जाता था तो दूसरे हाथ से लिखने लगते थे। यह पुस्तक संवाद शैली में लिखी गई है। हिंसक साधनों में विश्‍वास रखने वाले कुछ भारतीय के साथ जो चर्चाएं हुई थी उसी को आधार बनाकर उन्‍होंने यह पुस्‍तक मूलरूप से गुजराती में लिखी थी। दिसंबर 1909 में ‘इंडियन ओपिनियन’ में गुजराती में यह पुस्तक प्रकाशित हुई। जनवरी १९१० में इसका पुस्तकाकार रूप प्रकाशित हुआ। बाद में इसका अंग्रेजी व हिंदी में अनुवाद हुआ।

माना तो यह जाता है कि गांधी जी को समझना आसान भी है और मुश्किल भी। हिंद स्‍वराज्‍य गांधीवाद को समझने की कुंजी है। गांधी जी उन दिनों जो कुछ भी कर रहे थे, वह इस छोटी सी किताब में बीजरूप में है। गांधी जी को ठीक से समझने के लिए इस किताब को बार बार पढ़ना चाहिए। दरअसल यह पाश्चात्य आधुनिक सभ्यता की समीक्षा है। साथ ही उसको स्वीकार करने पर प्रशनचिह्न भी है। इसमें भारतीय आत्मा को स्वराज, स्वदेशी, सत्याग्रह और सर्वोदय की सहायता से रेखांकित किया गया है।

इस पुस्‍तक की प्रस्‍तावना में गांधी जी लिखते हैं -

“जो विचार इस पुस्‍तक में रखे गए हें, वे मेरे हैं और मेरे नहीं भी हैं। वे मेरे हैं, क्‍योंकि उनके अनुसार आचरण करने की मुझे आशा है। वे मेरे अंतर में बस-से गए हैं। वे मेरे नहीं है, क्‍योंकि सिर्फ मैंने ही उन्‍हें सोचा हो, सो बात नहीं। ये विचार कुछ किताबों को पढ़ने के बाद बने हैं। दिल के भीतर मैं जो महसूस करता था, उसका इस किताब में समर्थन किया है।”

गांधी जी यह भी कहते हैं,

“यह पुस्तक सिर्फ़ देश की सेवा करने का और सत्य की खोज करने का और उसके मुताबिक बरतने का है। इसलिए अगर मेरे विचार ग़लत साबित हुए तो उन्हें पकड़ रखने का मेरा आग्रह नहीं है। अगर वे सत्य साबित हों तो तो दूसरे लोग ही उनके मुताबिक बरतें, ऐसा देश के भले के लिए साधारण तौर पर मेरी भावना होगी।”

इस पुस्तक में जिस विधा का उपयोग किया गया है वह प्रश्नोत्तरी का है। उन्होंने अपने को संपादक और पाठक के रूप में विभाजित किया। हरसंभव प्रश्न वे अपने-आप से पूछते हैं और उसका जवाब भी देते हैं। यह आत्म-संयम और संतुलन की एक कठिन प्रक्रिया है।

गांधी जी को लगता था कि हिंसा से हिंदुस्‍तान के दुःखों का इलाज संभव नहीं है। उन्‍हें आत्‍मरक्षा के लिए कोई अलग और ऊंचे प्रकार का शस्‍त्र काम में लाना चाहिए। गांधी जी ने दक्षिण अफ्रिका के सत्‍याग्रह का प्रयोग 1907 में ही शुरू कर दिया था। इसकी सफलता से उनका आत्‍मविश्‍वास बढ़ा था।

यह पुस्‍तक द्वेषधर्म की जगह प्रेमधर्म सिखाती है। हिंसा की जगह आत्‍मबलिदान में विश्‍वास रखती है। पशुबल से टक्‍कर लेने के लिए आत्‍मबल खड़ा करती है। उनका मानना था कि अगर हिंदुस्‍तान अहिंसा का पालन किताब में उल्लिखित भावना के अनुरूप करे तो एक ही दिन में स्‍वराज्‍य आ जाए। हिंदुस्‍तान अगर प्रेम के सिद्धांत को अपने धर्म के एक सक्रिय अंश के रूप में स्‍वीकार करे और उसे अपनी राजनीति में शामिल करे तो तो स्‍वराज स्‍वर्ग से हिंदुस्‍तान की धरती पर उतरेगा। लेकिन उन्हें इस बात का एहसास और दुख था कि ऐसा होना बहुत दूर की बात है।

इस पुस्तक में गांधी जी ने आध्यात्मिक नैतिकता की सहायता से हमारी अर्थनैतिक और सैनिक कमजोरी को शक्ति में बदल दिया। अहिंसा को हमारी सबसे बड़ी शक्ति बना दी। सत्याग्रह को अस्त्र में बदल दिया। सहनशीलता को सक्रियता में बदल दिया। इस प्रकार शक्तिहीन शक्तिशाली हो गया।

गांधी जी के स्‍वराज के लिए हिंदुस्‍तान न तब तैयार था न आज है। यह आवश्‍यक है कि उस बीज ग्रंथ का हम अध्‍ययन करें। सत्‍य और अहिंसा के सिद्धांतों के स्‍वीकार में अंत में क्‍या नतीजा आएगा, इसकी तस्‍वीर इस पुस्‍तक में है ।

मशीनी सभ्‍यता ने जिस तरह पृथ्वी के पर्यावरण को नष्‍ट किया है उसका परिणाम आज सामने है। आर्थिक साम्राज्‍यवाद ने विश्‍व में गैर बराबरी को और भी बढ़ाया है जिसके कारण विश्‍व में हिंसा का आतंकवाद बढ़ा है। ऐसी स्थिति में, हिंद स्‍वराज में जैसी सभ्‍यता व राज्‍य की कल्‍पना की गई है वह सम्‍पूर्ण विश्‍व के सामने विकल्‍प के रूप में है, जिसे आजमाया जाना चाहिए। ‘हिन्द स्वराज’ के द्वारा गांधी जी ने हमें आगाह किया है कि उपनिवेशी मानसिकता या मानसिक उपनिवेशीकरण हमारे लिए बहुत खतरनाक सिद्ध हो सकता है। उन्होंने हिन्द स्वराज के माध्यम से एक ‘भविष्यद्रष्टा’ की तरह पश्चिमी सभ्यता में निहित अशुभ प्रवृतियों का पर्दाफ़ाश किया।

‘हिन्द स्वराज’ में उन्होंने पाश्चात्य आधुनिकता का विरोध कर हमें यथार्थ को पहचानने का रास्ता दिखाया। ग्राम विकास इसके केन्द्र में है। वैकल्पिक टेक्नॉलोजी के साथ-साथ स्वदेशी और सर्वोदय को महत्व दिया सशक्तिकरण का मार्ग दिखाया। उनके इस मॉडेल के अनुसरण से एक नैतिक, आर्थिक, आध्यात्मिक और शक्तिशाली भारत का निर्माण संभव है।

गांधी जी मूलतः एक संवेदनशील व्यक्ति थे। वे अपने सिद्धांतों की कद्र करने वाले भी थे। उन्होंने पाश्चात्य सभ्यता को, परंपरागत भारत के समर्थक होने के बावजूद भी, अच्छी तरह पढा, समझा और फिर उसका विवेचनात्मक खंडन भी किया। उनके सामने यह बात स्पष्ट थी कि भारतीय-आधुनिकता सीमित होते हुए भी प्रभावी है। वर्तमान आर्थिक विश्वसंकट में गांधी जी की यह पुस्तक विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो उठी है। हालाकि कुछ खास वर्ग के लोग सोचते हैं कि गांधी जी देश को सौ वर्ष पीछे ले जाना चाहते हैं। लेकिन आज भारत हर संकट को पार कर खड़ा है। 1945 में गांधी जी के इस मत को कि देश का संचालन ‘हिंद स्वराज’ के माध्यम से हो, नेहरू जी ने ठुकरा दिया था। नेहरू जी का मानना था कि गांव स्वयं संस्कृतिविहीन और अंधियारे हैं, वे क्या विकास में सहयोग करेंगे। लेकिन आज भी हम पाते हैं की भारत रूपी ईमारत की नींव में गांव और छोटी आमदनी के लोग हैं। गांधी जी का ‘हिंद स्वराज’ इस वैश्वीकरण के दौर में भी तीसरी दुनिया के लिए साम्राज्यवादी सोच का विकल्प प्रस्तुत करता है।

गांधी जी ने अप्रैल १९१० में यह पुस्तक टॉल्सटॉय को समर्पित की तो उन्होंने जवाब में गांधी जी को लिखा था,

“मैंने तुम्हारी पुस्तक बहुत रुचि के साथ पढी। तुमने जो सत्याग्रह के सवाल पर चर्चा की है यह सवाल भारत के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं बल्कि पूरी मानवता के लिए महत्वपूर्ण है”।

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

शमशेर के काव्‍य में प्रकृति

शमशेर के काव्‍य में प्रकृति
मनोज कुमार
शमशेर बहादुर सिंह के अनुसार कलाकार जीवन के किसी जाहिरी रूप को अभिव्‍यक्‍त नहीं करता, वह उसके कलात्‍मक रूप को अभिव्‍यक्‍त करता है। उन्‍हें जहां एक ओर मनोवैज्ञानिक यर्थाथवादी कवि माना गया वहीं दूसरी ओर आत्‍मपरक कवि भी कहा गया है। इसका उचित कारण है। उनकी रचनाओं में सामाजिक विषयों का फैलाव नहीं है। जीवन के छोटे-छोटे सुख-दुख, विचार, मनःस्थितियां, उनकी कविताओं का विषय बनती है। लेकिन इन्‍हें वे उनके पूरे संदर्भों में देखकर चित्रित करते हैं।
प्रकृति के अलग-अलग रंग शमशेर पर गहरा प्रभाव डालते रहे हैं। वे प्रायः रंगों और गतियों में ही प्राकृतिक रूपों को ढलता हुआ देखते हैं।
"उदिता" की भूमिका में शमशेर लिखते हैं –
"शामों की झुरमुट में, जब पच्छिम के मैले होते हुए लाल पीले बैगनी रंग हर चीज को लपेट कर अपने गढे मिलेजुले धुंधलके में खोने से लगते हैं आपने क्‍या उस वक्त भी ध्‍यान दिया है कि कैसे हर चीज एक खामोश राग में डूबने लगती है.....?"
आसमान और रंग उनकी कविताओं में विशेष रूप से प्रस्‍तुत होते रहे हैं। “उदिता" में शाम के समय के बादलों का चित्रण ... क्‍या चित्रकारी ही है! शमशेर जिस सूक्ष्‍मता से बादल और उस के बीच से आ रही किरणों के रंगों को पहचाना है वह किसी और कवि की रचनाओं में नहीं मिलता।
बादल अक्‍टूबर के
हल्‍के रंगीन ऊदे
मद्धम मद्धम
रुकते-से आ जाते
इ त ने पास अपने।
लग रहा है मानो तटस्‍थ भाव से दृश्‍य का अंकन वो नहीं करते बल्कि उनका मन इन प्राकृतिक चित्रों में घुला मिला है। यह इस कदर है कि यह बताना कठिन है कि प्राकृतिक दृश्‍य उनके मन पर असर डाल रहे हैं या कवि का मन ही प्रकृति को अपनी कल्‍पना के रंग में निहार रहा है। रंग के साथ साथ गति का विवरण और शब्‍दों को तोड़कर गति को विलंबित कर देने से धीरे धीरे सरकते बादलों का अद्भुत चित्र मिलता है।
‌एक्‌-इक पत्ता साकत्‌
ठै रा, संध्‍या भा में
सु न ता - सा कुछ किस को
इ त ने पास अपने ।
या दों की द्वा भा एँ
बा दल के भा लों पर
चमकी-सी लय होने
धीरे-धीरे-धीरे
इ त ने पास अपने।
जैसे क्षितिज के नीचे जाते सूरज का मंद प्रकाश अचानक बादलों के ऊपर चमक उठता है, वैसे ही मन में यादें कौंध जाती है। फिर उसी प्रकाश की तरह लय भी हो जाती है।
यर्थाथ दर्शन का शमशेर का अपना नजरिया है। शमशेर की कविता पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि शाम के धुंधलके में जब सारी चीजें गुम होने लगती है, तब कभी-कभी वक्‍त के बहते हुए धारे में एक ठहराव सा आता महसूस होता है।
शमशेर ने प्रकृति के कुछ अत्‍यंत अछूते बिंब और उनसे जुड़ी हुई अपनी खास संवेदना के चित्र हिंदी कविता को दिए हैं। जैसे इस चांद को देखिए
संवलाती ललाई में लिपटा हुआ
काफी ऊपर
तीन चौथाई खामोश गोल सादा चांद
आगे चलकर यह चांद जब कवि मन में उतर जाता है तो बिम्‍ब देखिए...
रात में ढलती हुई तमतमाई-सी
लाजभरी शाम के
अंदर
वह सफेद मुख
किसी ख्‍याल के बुखार का
चांद अपना रूप छोड़कर कवि की संवेदना में बदल जाता है। और कवि तब अपनी मनःस्‍थिति के अंदर के साथ साथ एक रेखा चित्र खींचता है ...
बादलों में दीर्घ पश्चिम का
आकाश मलिनतम।
ढके पीले पांव
जा रही रूग्णा संध्‍या।
... ... ... ...
नील आभा विश्‍व की
हो रही प्रति पल तमस।
बीमार शाम का पीलापन रात के गहरे अंधेरे में तबदील हो रहा है। पर ऐसा लगता है मानो शाम की खिड़की खुली रह गई है। जैसे शाम बीत गई है, कवि का भाव भी बीत चुका है। वह इस खुली खिड़की से झांकता है
विगत संध्‍या की
रह गई है एक खिड़की खुली।
झांकता है विगत किसका भाव।
इस खुली खिड़की के कारण कवि के मन पर छाया अंधेरा उसे पूरी तरह ग्रसित नहीं कर पाया है और वह कहता है ...
बादलों के घने नीले केश
चपलतम आभूषणों से
भरे लहरते हैं
बायु-संग सब ओर
बादल कवि को अब आभूषणों से सजे नीले लहराते देश की तरह लग रहे हैं। यानि शाम जब रात में ढलने लगी तो कवि का मन रूग्‍न नहीं है। कविता की भाव-भूमि देखिए कि आरंभ में अवसाद के कारण जो स्थिरता थी वही अब गति में बदल गया लगता है।
शमशेर की प्रकृति पर लिखी कविताओं को शमशेर के मन में पढ़ना होता है। उसकी भंगिमाएं और उसकी संवेदनाओं का संबंध तभी समझ आएगा। आधुनिक हिंदी कविता में इस तरह की अभिव्‍यक्ति और कहीं नहीं मिलती। तभी तो उन्‍हें बिम्‍बों का कवि कहा गया है।
शमशेर के लिए प्रकृति सामाजिक जटिलताओं में पलायन के बाद की शरण-स्‍थली नहीं है। वह उन्‍हें समाज की ओर लौटा ले जाती है। दरअसल प्रकृति उन पर चारों ओर से हमला करके उनकी इंद्रियों को उत्तेजित कर देती है। वह उनकी मानवीय संवेदना का विस्‍तार बन जाती है।
उड़ते पंखों की परछाइयां
हल्‍के झाड़ से धूप को समेटने की
कोशिश हो जैसे।
धूप को समेटने की कोशिश व्‍यर्थ है। यह अगर सिर्फ़ बाहर फैला हो तो समेटी भी जा सके पर –
धूप मेरे अंदर भी
इसलिए तो
कह कर कवि यह जताता है कि धूप को अलग करना कठिन है। शमशेर की प्रकृति संवेदना को अलग से पकड़ना भी उतना ही कठिन है। क्‍योंकि यह उनकी मानवीय संवेदना के अंदर धंसी है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रकृति शमशेर के काव्‍य में यथार्थवादी ढंग से अंकित नहीं होती। अभिव्‍यक्‍त प्रकृति-चित्र में उनका मन इस कदर घुला-मिला रहता है कि यह बता पाना कठिन होता है कि प्राकृतिक दृश्‍य मन पर असर डाल रहा है या कवि मन ही प्रकृति को अपने ख्‍यालों के रंग से निहार रहा है।

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

नवगीत :: गीत मेरे अर्पित हैं

Sn Mishraइस श्रृंखला की पाचवीं कड़ी के रूप में आज प्रस्तुत है श्यामनारायण मिश्र जी की एक और रचना गीत मेरे अर्पित हैं। श्यामनारायण मिश्र जी के लिए काव्य लेखन क्षणिक आवेग या स्फुरण की प्रतिक्रिया नहीं रही, वे जन्मान्तरों और मन्वन्तरों पर आस्था रखने वाले परम्परा और अनुवांशिकता में पूर्ण विश्वास रखने वाले ग्रामीण थे। वे काव्य को सनातन और संस्कृति का प्रवक्ता मानते थे। उनका कहना था कि कविता समकालीन अवश्य हो पर उसे ऐतिहासिक स्वरूप से किसी न किसी तल पर जुड़ा भी होना चाहिए।



गीत मेरे अर्पित हैं

ख़ून की उबालों को,
क्रांति की मशालों को
गीत मेरे अर्पित हैं

तोतली जुबानों पर
दूनिया-पहाड़ों के
अंक जो चढाते हैं
तंग हुए हाथों से
आलोकित माथों से
ज्ञान जो लुटाते हैं,
विद्याधन वालों को,
फटे हुए हालों को
गीत मेरे अर्पित हैं।

खेत में, खदानों में
मिलों कारखानों में,
जोखिम जान के लिए,
पांजर भर गात नहीं
आतों भर भात नहीं,
सदियों से ओठ सिए
खाट के पुआलों को,
लेटे कंकालों को,
गीत मेरे अर्पित हैं।

खेतों की मेड़ों पर,
शीशम के पेड़ों पर,
बांधते मचानों को
माटी को पूज रहे,
माटी से जूझ रहे,
परिश्रमी किसानों को
स्वेद भरे भालों को
फावड़े-कुदालों को
गीत मेरे अर्पित हैं।

बुधवार, 24 नवंबर 2010

इतिहास :: "ये फसल इसलिए उगाता हूँ कि क्‍योंकि इन्‍हें खा नहीं सकता"-४

015मनोज कुमार

इतिहास :: "ये फसल इसलिए उगाता हूँ कि क्‍योंकि इन्‍हें खा नहीं सकता" –१

इतिहास :: "ये फसल इसलिए उगाता हूँ कि क्‍योंकि इन्‍हें खा नहीं सकता" –२
इतिहास :: "ये फसल इसलिए उगाता हूँ कि क्‍योंकि इन्‍हें खा नहीं सकता"-३

इस कृत्रिम व्‍यवस्‍था में जो चालाक व्‍यापारी थे या कर्ज देने वाले थे वे तो लाभ कमा ही लेते थे। क्‍योंकि बाजार में जिस भाव में बिकता था, वे चीजों को उससे कम मूल्‍य पर खरीदते थे। पर कमर तो टूटती थी असल में पैदा करने वाले की। फिर इस क्षेत्र में कोई निवेश करना चाहता नहीं था। थोड़ी बहुत जो भी निवेश होता था वह उत्‍पादकता बढ़ाने में पर्याप्‍त होता था। अक्‍सरहाँ ऐसा देखने में मिलता था कि यदि किसी कृषक ने थोड़ा बहुत धन संचय कर लिया तो वह व्‍यापारी, सूदखोरी या बड़े हद तक किसी दूसरे कृषकों के लगान पर बटाईदारी पर दे देना बेहतर समझता था बनिस्‍बत की खुद के द्वारा खेती करने को। परजीवियों की तरह अपने पूरे जोखिम को दूसरे के मत्थे मढ़ने में अपनी भलाई समझता था। वस्‍तुतः कैपिटलिस्‍ट फार्मिंग करना सबसे बड़ी मूर्खता थी उसके लिए।

कृषि का वाणिज्‍यीकरण अकसरहाँ एक वलात् प्रक्रिया हुआ करती थी। अधिकांश कृषक गरीब थे। उन्‍हें पैसों की आवश्‍यकता पड़ती थी। क्‍योंकि राजस्‍व की वसूली तो जमींदार छोड़ने से रहे। फिर लगान तो नकद ही देना होता था। लगान नकद चुकाने की व्‍यवस्‍था के कारण किसानों को अपना अनाज एवं कच्‍चा माल मंडियों में बेचना पड़ता था, जिसे कम्‍पनी के अधिकारी बिचौलियों के माध्‍यम से खरीद कर उनका निर्यात करते थे। इन दो बढ़ती हुई समस्‍याओं के बोझ के नीचे दबा कृषक समुदाय आह भी नहीं भर पाता था। मजबूर था वह कैश क्रॉप उगाने को!

एक ब्रिटिश कलक्‍टर एक बार कोयम्‍बतूर के इलाके से जा रहा था। उसने देखा कि पूरे कृषि क्षेत्र में कपास की पैदावार की बहुतायत है। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। चावल आदि की जगह ये फसल? उसने कारण जानना चाहा। तो एक कृषक सामने आया और उसने जो कहा वह कृषि के वाणिज्‍यीकरण का कटु यथार्थ था। उसने कहा,

हम कपास की खेती सिर्फ इसलिए करते हैं, क्‍योंकि इन्‍हें हम खा नहीं सकते।

इस कथन में उनकी वेदना निहित है। अपने और अपने परिवार की उदरपूर्ति कर या न कर पाए, पर कैसे लगान चुकाई जाए उसकी चिंता उसे सालती रहती थी। लगान तो कैश में ही चुकेगी। और कैश आएगा सिर्फ कैश क्रॉप की बिक्री से। अगर वह अन्‍न उगाता तो हो सकता था कि भूख से बिलबिलाते अपने परिवार एवं खुद की विवशता के आगे उन्‍हें बेचने के वजाए खा ही जाता। पर अब वे अपना पेट काट कर ऐसी फसल बो रहे थे जिससे राजस्‍व की मांग की पूर्ति तो कर सकते थे।

अतः वाणिज्यिक फसलों की तरफ़ उनका झुकाव अपनी इच्‍छा से नहीं था बल्कि राजस्‍व एवं लगान के दवाब के तहत था। ये शिफ्ट गरीबों के अनाज जवार, बाजड़ा या दाल से अलग था, कृत्रिम था, एवं विवशता से था। जहाँ एक ओर इन फसलों से व्‍यापारी वर्ग व कंपनी को लाभ हुआ, वहीं इसने किसान की गरीबी को और बढ़ाया। क्‍योंकि व्‍यापारी वर्ग खड़ी फसलों को सस्‍ते दामों पर खरीद लेते थे और किसान, अपनी तत्‍कालीन आवश्‍यकताओं की पूर्ति के लिए, अपनी फसल मंडी में न ले जाकर कटाई के समय खेत में ही बेच देते थे। हालांकि कुछ महीनों बाद, बेचारा वही फसल अपनी बिक्री की कीमत से अधिक कीमत देकर खरीदता था। यह उसकी तबाही को बढ़ाती ही थी। अगर किसान के पास धन होता तो वे थोड़ी देर प्रतीक्षा कर सकने की स्थिति में होते जिससे उन्‍हें अपनी फसल का अधिक मूल्‍य प्राप्‍त हो सकता था। लेकिन विवशता के जाल में फँसा कृषक फसल के समय ही सौदा करने को मजबूर था और फलतः उसे अपनी उपज से बहुत कम राशि प्राप्‍त होती थी। फिर इस शोषण के चक्रव्‍यूह में फँसा कृषक साहूकारों के चंगुल में बुरी तरह से फँसा ही रहता था। क्‍योंकि इन पैदावारों के लिए अधिक लागत की जरूरत पड़ती थी, यानी अधिक अग्रिम राशि, अधिक शोषण।

एक ध्‍यान देने वाली प्रमुख बात यह है कि भारत में कृषि के व्‍यवसायीकरण की प्रक्रिया, इंगलैंड की प्रक्रिया से सर्वथा भिन्‍न थी। इंगलैंड में बाजार के मूल्‍यों की वृद्धि के साथ साथ कृषि उत्‍पादन के मूल्‍यों की भी वृद्धि होती थी। इससे किसान की समृद्धि हुई, कृषि का विकास हुआ। कृषि क्षेत्र के अतिरेक ने जहाँ एक ओर औद्योगिक क्रांति को प्रोत्‍साहित किया, वहीं नई तकनीकों एवं वैज्ञानिक पद्धति के प्रयोग से कृषि क्षेत्र को भी प्रोत्‍साहन मिला। परंतु ऐसी स्थिति भारत में नहीं थी। भारत में तो कृषि का व्‍यवसायीकरण सम्राज्‍यवादी आवश्‍यकताओं को पूरा करने के लिए जबरदस्‍ती थोपा गया था। फलतः व्‍यवसायीकरण की इस प्रक्रिया ने कृषि अर्थव्‍यवस्‍था के अन्‍तरविरोधों को न सिर्फ दूर किया, बल्कि उसमें और तीव्रता ही लाई।

santhalsanthalkaiiलेकिन क्‍या कृषक वर्ग सदा चुप चाप इन शोषणों को सहन करते रहे? क्‍या वे इसे नीयति मान कर सदा चुप रहने वाले थे? ऐसी बात नहीं थी। इन दुःखों के बावजूद, यातायात में सुधार एवं एक नई अर्थव्‍यवस्‍था के विकास के कारण गांव और गांव, तथा शहर और गांव एक दूसरे के करीब आए। उनमें आपसी सहयोग की भावना का विकास हुआ। एक नई चेतना का प्रादुर्भाव हुआ। इस चेतना ने उन्‍हें शोषणकारियों के विरूद्ध अपने अधिकारों के लिए विद्रोह को उकसाया। कई इलाकों में किसानों ने, बटाइदारों ने, आर्थिक संकट बढ़ने के कारण लगान देने से इंकार कर दिया। इतिहास में कई उदाहरण हैं – बंगाल का बटाईदार विद्रोह, संथाल विद्रोह, मराठा किसानों का साहूकारों के खिलाफ बगावत, चंपारण में नील की खेतिहरों का विद्रोह, मोपला विद्रोह आदि। ये सभी विद्रोह प्रत्‍यक्ष या परोक्ष रूप से राष्ट्रीय स्‍वतंत्रता आंदोलन को मदद पहुँचा रहे थे। ब्रिटिश शोषणकारी नीति ने किसान को भाग्यवादिता से उबार कर उनमें परिस्थितियों का सामना करने की भावना पैदा की।

कृषि के क्षेत्र में ब्रिटिशों द्वारा व्‍यवसायीकरण की जो नीति अपनाई गई थी उसके कारण जो प्रतिविकास या घातक्रिया हुई उसमें यह महत्त्‍वूपर्ण नहीं है कि कृषकों को काफी संकटों या दुःखों का सामना करना पड़ा, बल्कि ध्‍यान देने वाली बात ये है कि उन्‍हें ये दुःख असत्‍व (कुछ भी नहीं) के लिए अकारण ही झेलना पड़ा। इन वाणिज्‍यीक फसलों की पैदरावार बढ़ाने के कारण खाद्यान्‍नों में कमी आना स्‍वाभाविक था। जिससे आए दिन अकाल पड़ने लगे। इन अकालों का दंश उन्‍हें भी झेलना पड़ा। कृषि के क्षेत्र में नाम मात्र का सुधार किया गया, जो अपर्याप्‍त था। अतः जब गहरे विश्‍लेषण में हम पैठते हैं तो पाते हैं कि यह वाणिज्‍यीकरण एक कृत्रिम ही नहीं बल्कि वलात् प्रक्रिया थी जिससे कृषि में बिना किसी वास्‍तविक विकास के विभेदीकरण हुआ। अंगरेजों ने भारतीय समाज के ढाँचे को तोड़ डाला और बिना किसी पुननिर्माण के पुरानी व्‍यवस्‍था को नष्‍ट-भ्रष्‍ट कर डाला। साथ ही अपनी पश्चिमी दुनियाँ के अनुरूप भौतिकवाद की नींव रखनी चाही।

----बस----

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

इतिहास :: "ये फसल इसलिए उगाता हूँ कि क्‍योंकि इन्‍हें खा नहीं सकता"-३

015मनोज कुमार

पिछले अंक

इतिहास :: "ये फसल इसलिए उगाता हूँ कि क्‍योंकि इन्‍हें खा नहीं सकता" –१

इतिहास :: "ये फसल इसलिए उगाता हूँ कि क्‍योंकि इन्‍हें खा नहीं सकता" -२

ब्रिटिश सरकार की वाणिज्‍यीकरण की नीति के तहत 1833 ई. में अंगरेजों को भारत में जमीन खरीदने तथा बगाल लगाने की अनुमति मिल गई। अंगरेजों ने बगान लगाकर उसमें काम करने वाले श्रमिकों की जो दुर्दशा की उसका वृतांत स्‍पष्‍ट करता है कि भारत को कृषि के वाणिज्‍यीकरण से कोई लाभ नहीं हुआ। बंगाल की प्रमुख पैदावार थी धान। अंगरेज यहाँ के किसानों को जबरन नील की खेती करने पर मजबूर करते थे, जबकि किसान अपनी बढि़या उपजाऊ जमीन पर धान उगाना चाहते थे। ज्‍यादातर नील उत्‍पादक यूरोपीय थे। इस क्षेत्र में नील उगाने वाले खेतिहरों पर उनका अत्‍याचार प्रबल था। इसके अलावा इस क्षेत्र के साहिब जमींदार अपने रैयतों से ऊंची दर पर नियत लगान वसूलते थे। नील की पैदावार में किसानों को मुनाफा भी काफी कम एवं अनिश्चित होता था तथा फसल के नष्‍ट हो जाने का खतरा भी बना ही रहता था। इससे भी महत्‍वपूर्ण बात यह है कि भारत से नील इंग्‍लैंड भेजा जाता था। जिन देशों को नील खरीदना होता था, वे अब भारत से न खरीद कर इंग्‍लैंड से खरीदते थे। इससे अंगरेजी पूँजीपतियों को काफी लाभ हुआ।

इसी तरह चाय बगान की खेती भी शुरू हुई। 1835 ई. में पहला चाय बगान लगाया गया। भारत में उत्‍पादित चाय लंदन में बेची जाती थी। चाय बगान में स्‍थानीय लोग काम करना नहीं चाहते थे। अतः दलालों के जरिये दूसरे क्षेत्रों से श्रमिकों को लालच देकर यहां काम करने के लिए लाया जाता था। फिर इनकी हालत गुलामों की तरह ही हो जाती थी। वे यहां से अपनी मर्जी से जा नहीं पाते थे। इन लोगों का शोषण किया जाता था जो स्‍पष्‍ट करता है कि वाणिज्‍यीकरण की प्रक्रिया से किसानों एवं मजदूरों की समृद्धि कतई नहीं हुई।

पूर्वी बंगाल में जूट की पैदावार होती थी। व्‍यापारिक हितों को ध्‍यान में रख कर सरकार द्वारा इन कृषि-उत्‍पादनों को बढ़ाने के लिए अग्रिम धन राशि भी दी जाती थी। यह ऋण के रूप में होता था। फसल पैदा होते ही सूद सहित मूल भी चुकाना उनकी मजबूरी होती थी। अकसरहाँ वे पूर्णरूपेण ऋण से मुक्‍त नहीं ही हो पाते थे। बल्कि ऊपर से उन्‍हें लगान भी कैश में देना होता था जिसके लिए भी कई बार ऋण लेना पड़ता था। इस तरह यह कुचक्र चलता रहता था।

उन्‍नीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक ब्रिटिश का सामुद्रिक एवं वैदेशिक व्‍यापार पर पूरा नियंत्रण था। अतः निर्यात से हाने वाले मुनाफे पर लगभग पूरा का पूरा कब्‍जा विदेशी कंपनियों को ही था। ये धन विदेश चले जाते थे। कुछ हिस्‍से भारतीय व्‍यापारियों एवं महाजनों तथा बिचौलियों के पल्‍ले भी पड़ता था। पर वह ऊंट के मुँह में जीरे के फोरन के बराबर होता था। किन्‍तु ऐसे चारा डाल कर ब्रिटिश यहां के जोतदारों एवं कृषकों को जुताई-बुआई के लिए अग्रिम राशि देते थे। ये निर्धन कृषक बुरी तरह ऐसे ऋणों पर आश्रित होते जा रहे थे, क्‍योंकि जमीन के किराए का बोझ बढ़ता जाता था। एक उदाहरण लें बिहार एवं यू.पी के चीनी मिल मालिक जमींदारों एवं महाजनों को ठेकेदार के रूप में नियुक्‍त करते थे। इनका काम होता था स्‍थानीय कृषकों से गन्ना संग्रह करना था मिल मालिकों को पहुँचाना। अब अपने इस काम में वे कृषकों को ऋण मुहैया कराते थे ताकि पैदावार अवाधित होती रहे। बस इस कुचक्र में भू स्‍वामियों एवं साहूकारों द्वारा गरीब, निरीह कृषकों का अविराम दोहन शोषण होता था।

किन्तु इस व्‍यवस्‍था से न तो भारतीय जमींदार वर्ग का फायदा हुआ और न ही कृषकों का। यह तो औपनिवेशिक शक्तियों के इरादे की पूर्ति में सहायक हुआ। उनका उद्देश्‍य था आर्थिक एवं कृषि अधिशेष को भारत से निकालना। हालांकि कहीं कहीं आधुनिक सिंचाई व्‍यवस्‍था, एवं अन्‍य उत्‍पादकता तकनीकी विकास तो हुए, जैसे दक्षिण का कपास क्षेत्र, आंध्र में गोदावरी कृष्णा एवं कावेरी का डेल्टा क्षेत्र, तथा तमिल नाडु एवं पंजाब के कई क्षेत्र, परंतु कृषि व्‍यवस्‍था को ऐसा बना दिया गया कि यह सब आधुनिकीकरण कृषकों के हित की रक्षा नहीं कर पाते थे। क्‍योंकि यहाँ की कृषि व्‍यवस्‍था दूर स्थित बाजार की मांगों पर पूरी तरह आश्रित थी। और इस मांग आपूर्ति के सिलसिले में बिचौलियों की महत्‍वपूर्ण भूमिका हुआ करती थी। जितने ज्‍यादा बिचौलिए, उतना ही ज्‍यादा कृषकों पर बोझ एवं मुनाफा कम। साथ ही बुरी तरह बदलते दरों की मार भी कृषकों को ही सहनी पड़ती थी। जैसे 1860 के दशक के शुरू में अमरिकी गृह युद्ध के कारण कपास के निर्यात की मांग काफी थी। अतः दक्‍कन के कापस क्षेत्र के कृषकों को काफी मुनाफा हो रहा था। वे काफी उत्‍साह से पैदावार कर रहे थे। पर 1864 में यह युद्ध खत्‍म हो गया और नतीजे के तौर पर कपास निर्यात में काफी मंदी आई और कीमतें हठात काफी नीचे आ गई। क्‍योंकि विश्‍व बाजार में उत्तर अमेरिका, अर्जेन्‍टीना एवं अस्‍ट्रेलिया से कच्‍चे कपास की भारी आपूर्ति होने लगी थी। कपास की कीमतों की गिरावट का किसानों पर बहुत बुरा असर पड़ा इसी दौरान 1867 ई. में सरकार ने भू राजस्व की दर में करीब .50% की वृद्धि कर दी बस क्‍या था भारी कर्ज के बोझ के नीचे दब गए बेचारे कृषक। उस पर से अकाल एवं कृषि दंगों ने सत्‍यानास कर डाला।

ज़ारी……  अगले अंक में समाप्य

सोमवार, 22 नवंबर 2010

इतिहास :: "ये फसल इसलिए उगाता हूँ कि क्‍योंकि इन्‍हें खा नहीं सकता" -२

इतिहास :: "ये फसल इसलिए उगाता हूँ कि क्‍योंकि इन्‍हें खा नहीं सकता" –१

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मनोज कुमार

पिछ्ले अंक से ज़ारी …..

एक निश्चित आय का स्‍त्रोत निर्धारित हो जाने के बावजूद भी अंग्रेजों की साम्राज्‍यवादी लालसा बढ़ती ही जा रही थी। लगातार भू-करों को बढ़ाते रहना राजनीतिक दृ‍ष्टि से बुद्धिमता पूर्ण नहीं था। 1813 के बाद भारत में व्‍यापारिक एकाधिकार समाप्‍त कर दिया गया और मुक्‍त व्‍यापार की नीति अपनाई गई। अंगरेजों ने भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था को इंग्‍लैंड की अर्थव्‍यवस्‍था के उपनिवेश के रूप में इस्‍तेमाल किया। शुरू में तो वे व्‍यापारियों की तरह यहाँ से धनादोहन कर रहे थे। भारतीय वस्‍तुओं को यहाँ से खरीद कर इंगलैंड एवं यूरोप के बाजार में बेचकर मुनाफा कमा रहे थे। पर इंग्‍लैंड में हुंए औद्योगिक क्रांति के उपरान्‍त इस पूरे व्‍यापार का पैटर्न ही बदल गया।

मुक्‍त व्‍यापारिक व्‍यवस्‍था ने भारत को इंगलैंड के वस्‍त्र एवं अन्‍य उद्योग धंघों के लिए कच्‍चे माल का स्रोत बना दिया। फलतः ब्रिटिश पूँजीपतियों के लिए भारत एक मंडी बन गया। चूँकि औद्योगिक क्रांति के परिणामस्‍वरूप ब्रिटेन में उद्योग काफी फल-फूल रहे थे अतः उसे सस्‍ते कच्‍चे माल की आवश्‍यकता थी एवं उसके लिए अंगरेजों को भारत सबसे अच्छी जगह दिखाई दिया। भारत उनके लिए कच्‍चे माल का उत्‍पादन करने वाला देश बना दिया गया। और उसी कच्‍चे माल से इंगलैंड में तैयार वस्‍तुएं फिर भारत में लाकर बेची जाती थी। यह हुई दोहरी मार। इस परिवर्तन के कारण हमें अब केवल उन्‍हीं वस्‍तुओं का उत्‍पादन करना पड़ता था जिनकी इंगलैंड की मिलों की आवश्‍यकता थी। भारत अब विश्‍व के बाजारों के लिए फसल उगाने लगा।

कहने को तो आधुनिकीकरण की ओर उठाया गया यह एक कदम था, लेकिन भारतीय कृषकों के पास अच्‍छी खेती करने के उपयुक्‍त साधनों का अभाव था। दूसरी बात थी, कर तो मुद्रा में देना था। इसलिए भी किसान को अब उन फसलों को उगाना मजबूरी हो गई थी जिसको बाजार में आसानी से खरीदा बेचा जा सके। पहले किसान वे चीजें उगाते थे जिसको वे खाते थे या जिनका गांवों में विनिमय हो जाता था। किन्‍तु अब वे उस तरह की फसल उगाने को मजबूर थे जो बाजार एवं ब्रिटिश की मांगो पर निर्धारित होता था। इस तरह उत्‍पादन के स्‍वरूप में मूलभूत परिवर्तन आया। फलस्‍वरूप न सिर्फ भारत के पारम्‍परिक हस्‍तशिल्‍प को जोरदार आघात लगा बल्कि कृषि के क्षेत्र में भी उल्‍लेखनीय परिवर्तन हुआ।

पारम्‍परिक कृषि को छोड़ कर कृषक चाय, कपास, गन्‍ने आदि की पैदावार कर रहे थे, ताकि उन्‍हें उसका बाजार आसानी से मिल सके। कृषि को बाजार व्‍यवस्‍था से जोड़ा गया। इस प्रक्रिया को "कृषि का वाणिज्‍यीकरण" कहा जाता है। अब किसान वे वस्‍तुएं उगाने लगे जिनका देशी और विदेशी बाजार के दृष्टिकोण से अधिक मूल्‍य था। जैसे बंगाल में जूट, पंजाब में गेहूँ पैदावार पर अधिक ध्‍यान दिया जाने लगा। चाय काफी, कपास, पटनसन, गन्‍ना, तम्‍बाकू, नील, रबर आदि कुछ ऐसी ही फसलें थीं। किसानों को इनका उत्‍पादन करने के लिए विवश किया गया, जिससे इंगलैंड के उद्योगों को कच्‍चा माल मिल सके। कृषि के वाणिज्‍यीकरण की इस प्रक्रिया को अंगरेजों द्वारा आधुनिकीकरण एवं वृद्धि एवं विकास की निशानी बताया जाता था। क्‍या यह सोच सही थी? क्‍या ये विकास था? क्या कृषक सही मायने में लाभदायक स्थिति में थे?

आइए विचार करें।

कृषि के वाणिज्‍यीकरण की सरल व्‍याख्‍या है कि जो अधिशेष है उसके लिए बाजार है। उन्‍हें वहां बेचकर आमदनी प्राप्‍त की जा सकती है। फलतः ग्रामीण इलाके की समृ‍द्धि होगी। अधिक अतिरेक अधिक आय। अगले चरण में कैपिटलिष्‍ट फार्मिंग का आना यानि उत्‍पादकता में वृद्धि। परन्‍तु यह प्रक्रिया इतनी सरल भी नहीं थी। बड़े शातिर एवं पक्‍के तरीके से भारतीय धन का शेषण करना ही अंगरेजों के मंशे थे। विभिन्‍न क्षेत्रों एवं विभिन्‍न समयों में इसकी पद्धति भी अलग अलग थी। वह फसल की प्रकृति पर निर्भर करती थी। जैसे चाय की खेती हमारे विदेशी शासक खुद किया करते थे। यदि  किसी ने उनकी इच्‍छा के विरूद्ध कुछ भी‍ आनाकानी की तो उनके साथ अमानवीय व्‍यवहार किया जाता था। कम पैसे देकर उनसे अधिक मजदूरी कराई जाती थी। उनका तो हर कीमत पर अधिक से अधिक मुनाफा कमाना ही उद्देश्‍य था। बिल्‍कुल दासता की प्रथा का नमूना था यह।

अगले अंक में ....... अभी ज़ारी है .......

रविवार, 21 नवंबर 2010

कहानी ऐसे बनी-१३ :: लंक जरे तब कूप खुनाबा

कहानी ऐसे बनी-१३

लंक जरे तब कूप खुनाबा

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

रूपांतर :: मनोज कुमार

हैलो जी ! पहचाने नहीं...? हा..हा..हा... वो क्या है कि आज हमरा स्टाइल थोड़ा बदल गया है जी ... । अब हमें भी ज़रा शहर की हवा लग गयी है। अब हम बात-बात पर खाली कहवात कहने वाले साधारण मानुष नहीं रहे.. । क्या बताएं.... अधिकांश समय तो गांव में ही रहे। लेकिन इस बार बड़ा दिन की छुट्टी मनाने आ गए बंगलूरू। इस शहर को कोई ऐसा-वैसा छुटभैय्या शहर नहीं समझिये। बहुत बड़ा शहर है... पटना से भी बड़ा...! समझिये कि बम्बई के जोड़ का ... ! हां.... इतना बड़ा-बड़ा मकान सब है कि क्या बताएं ? हमने तो जैसे ही स्टेशन से बाहर निकल कर एक मकान देखने के लिए गर्दन को घुमाया कि सिर पर की पगड़ी ही गिर गयी। इतनी स्पीड में गाड़ी सब चलती है कि आप तो देखते ही रह जाइएगा । वो तो हम थे जो कोई दिक्कत नहीं हुई। और दिक्कत हो भी तो क्यों... ? आपको न हम 'घर के जोगी जोगरा' लगते हैं लेकिन बंगलूरू में हमारी बहुत जान-पहचान है। ढेरों लोग पहचानते हैं।

बड़ा दिन यहाँ सब में क्या पता चलेगा...। आप लोग तो खाली नाम ही सुनते होइएगा... कभी बंगलूरू आइयेगा तब देखिएगा.. कैसा होता है बड़ा दिन... ! शहर-बाजार में इतनी भीड़-भार रहती है.... इतनी ही सजावट... और इतना बम-पटाखा छूटता है कि आपको दिवाली ही लगेगा । लेकिन इसमें 'शुभ दीपावली' नहीं बोलते हैं। पर्व के नाम पर भी खीचम-खींच किये रहते हैं। एक कहेगा 'मेरी क्रिसमस' तो दूसरा भी कहेगा 'मेरी क्रिसमस'। हमने कहा कि इसमें लड़ाई करने की क्या ज़रूरत है, 'न मेरी क्रिसमस... ना तेरी क्रिसमस... सबकी क्रिसमस'।

क्रिसमस के बहाने प्लान बना सिनेमा देखने का। क्या सिनेमा-हॉल सब है ... आप तो खाली लाइट-हाउस, जवाहर और अप्सरा का नाम सुने होंगे। यहाँ तो मल्टीप्लेक्स होता है। एक हॉल में चार-चार सिनेमा एक शो में चलता है। और हॉल के बाहर जो भीड़ देखिएगा तो लगेगा कि सोनपुर का मेला भी फेल है। और सिनेमा भी लगा हुआ था बड़ा बेजोर। अमीर खान का नया सिनेमा, "थ्री इडीअट्स"। बड़ा मजेदार सिनेमा है। एकदम समझिये कि खान भाई और उसका दोस्त लोग हिला के रख दिहिस है। आप सोच रहे होंगे कि अंग्रेजी फिलिम में हमें क्या समझ में आया होगा... ? अरे भाई ! सिनेमा का खाली नाम ही है अंग्रेजी में, बांक़ी पूरा सिनेमा तो हिंदी में ही है। हा..हा... हा... !!

इस सिनेमा में एक आमीर खान रहता है और दो है उसका दोस्त। तीनों बहुत बड़ा कमीना रहता है। लेकिन तीनों इंजीनियरिंग की पढाई करता है। उस इंजीनियरिंग कॉलेज का डायरेक्टर रहता है भारी खडूस। वह इन तीनों को देखना नहीं चाहता है। और आमीर खान ससुरा इतना बड़ा बदमाश है कि डायरेक्टर की छोटकी बेटी को ही पटा लेता है। एक बात है, ये तीनों लड़के ऊपर-झापर से ही शैतानी करते हैं लेकिन दिल के एकदम हीरा हैं, हीरा। और समझिये कि जरूरत पड़े तो किसी की मदद के लिए अपनी जान भी दे दें।

तो सिनेमा में क्या होता है कि  उसी डायरेक्टर की बड़ी बेटी को प्रसव होने वाला रहता है। एकदम आखिरी टाइम। लेकिन वर्षा कहे कि हम आज छोड़ेंगे ही नहीं। आसमान फार के जो मूसलाधार बरसने लगा कि रोड सब पर छाती भर पानी लग गया। और उसी में डायरेक्टर की लड़की को प्रसव पीड़ा शुरू हो गया। गाड़ी-घोड़ा कुछ नहीं। संयोग से डायरेक्टर की छोटी बेटी डाक्टरनी थी लेकिन वह भी साथ में नहीं थी। अब डायरेक्टर साहेब परेशान। तभी ये तीनों लड़के वहाँ पहुँच गए। वर्षा में उसको लेकर कहाँ जाए ? कॉलेज में ही उठा-पुठा कर ले आए। अब उसकी डाक्टरनी बहन फ़ोन और कप्यूटर पर बताने लगी... ऐसे करो। वैसे करो। इधर दबाओ। उधर से उठाओ। समझिये कि लड़का सब पढाई किहिस इंजीनियरिंग का और करने लगा डाक्टरी। सब कुछ किया लेकिन प्रसव नहीं हुआ। फिर उस डाक्टरनी ने कहा कि 'वेकुअम' देना पड़ेगा। अब आमीर खान पूछता है कि "ये वेकुअम क्या होता है जी ?" तब वो बोली कि 'यह ऐसा-ऐसा मशीन होता है ... बच्चा को बाहर खीचने का।' आमीर खान बोला, "धत्‌ तेरी के ! यह कौन सी बड़ी बात है ? हम तो इंजीनियरिंग का विद्यार्थिये हैं ही। यह मशीन तो हम तुरत ही बना देंगे।"

और ससुर लगा मशीन बनाने। ये लाओ, वो लाओ। और उधर वह बेचारी दर्द से अधमरी बेसुध छट-पटा रही है। हमें तो इतना गुस्सा आया कि क्या बताएं। उधर वो बेचारी प्रसव-पीड़ा से मर रही है और यह कमीना सब मशीन ही बना रहा है। इसी को कहते हैं कि "लंक जले तब कूप खुनाबा"। भोज के वक्त में कहीं दही जमाया जाता है ? लेकिन एक बात है। आमीर खान का दिमाग साला रॉकेट से भी फास्ट चलता था। और था पक्का इंजीनियर। झटपट मशीन बना कर तैयार कर दिया। इतना ही नहीं... ऐन मौक़े पर लाइन चला गया तो चट-पट में एक 'इनवर्टर' भी बना लिया। फिर उस बिचारी का प्रसव करवाया। तब जाकर सब का मन प्रसन्न हुआ।

लेकिन हम सोचने लगे कि वह तो आमीर खान पहिले से कुछ जोगार कर के रक्खा हुआ था तब ऐन मौका पर मशीन बना लिया। लेकिन बड़का पंडित रावण ब्रहमज्ञानी। सोचा कि बगल मे समुद्र है ही। पानी का काम चल ही जाएगा। काहे खा-म-खा सोना की लंका को खुदवा कर मिटटी निकलवाएँ। ससुर पूरा लंका में एक भी कुआं-तालाब नहीं खुदवाया। और जब हनुमान जी लंका में आग लगा दिए तो सब घड़ा-बाल्टी लेकर इधर-उधर दौड़ने लगा। सब घर द्वार धू-धू कर के जलने लगा तब जा कर रावण जल्दी-जल्दी कुआं खोदने का आर्डर दिया। जब तक कुआं खुदाए तब तक तो लंका-दहन हो चुका था। तभी से यह कहावत बनी कि "लंक जले तब कूप खुनाबा"। मतलब कि

जरूरत एकदम सिर पर सवार हो गया हो तो चले उसके समाधान का रास्ता खोजने।

ऐसा नहीं होना चाहिए। रास्ता पहिले खोज के रखिये नहीं तो जरूरत के समय 'ठन-ठन गोपाल' हो जाएगा। समझे !!! आप 'लंक जले तब कूप खुनाबे' नहीं जाइयेगा।

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पुराने लिंक

1. कहानी ऐसे बनी-१ :: नयन गए कैलाश !
2. कहानी ऐसे बनी- 2 : 'न राधा को नौ मन घी होगा... !'
3. कहानी ऐसे बनी – 3 "जिसका काम उसी को साजे ! कोई और करे तो डंडा बाजे !!"
4. कहानी ऐसे बनीं-४ :: जग जीत लियो रे मोरी कानी ! …
5. कहानी ऐसे बनी–५ :: छोड़ झार मुझे डूबन दे !
6. कहानी ऐसे बनी– 6 -"बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ?"
7. कहानी ऐसे बनी– 7 :: मरद उपजाए धान ! तो औरत बड़ी लच्छनमान !!
8. कहानी ऐसे बनी– 8 :: न कढी बना न बड़ी!
9. कहानी ऐसे बनी-९ :: गोनू झा मरे ! गाँव को पढ़े !
10. कहानी ऐसे बनी-१०::चच्चा के तन ई बधना देखा और बधना के तन चच्चा देखे थे।
  1. कहानी ऐसे बनी-११ :: मियाँ बीवी के झगड़ा ! 
कहानी ऐसे बनी-१२ :: बिना बुलाये कोहबर गए

शनिवार, 20 नवंबर 2010

लघु कथा - शॉर्ट - कट !

लघु कथा

शॉर्ट - कट !

My Photoरेखा श्रीवास्तव

पंडित जी श्राद्ध करवा रहे थे कि जजमान के बड़े भाई का नौकर आया और बोला,  "पंडित जी, साहब बुलाये है।"

"आवत हैं, इ श्राद्ध तो पूरा करवाय दें।"

पंडित जी आश्चर्य में ! ‘आज तक तो कभी बड़े भाई ने कथा वार्ता भी नहीं करी, आज अचानक कौन सो काम आय गयो!’ 

पंडित जी तो इनके पिताजी के ज़माने से पूजा पाठ करवा रहे हैं सो सब जानते हैं। छोटे भाई और बड़े भाई दोनों विरोधाभासी है। एक सरकारी मुलाजिम - गाड़ी बंगले वाला और अमीर घराने की पत्नी वाला।  दूसरा अपने काम धंधे वाला - साधारण रहन सहन , पढ़ी लिखी पत्नी लेकिन बड़े घर की नहीं। सास ससुर के साथ ही रही और उनका बुढ़ापा संवार दिया।  दोनों में कोई मेल नहीं!

पंडित जी पहुंचे तो साहब ऑफिस के लिए तैयार।

"क्या पंडित जी, अब आये हैं आप मुझे तो ऑफिस कि जल्दी है।"

"श्राद्ध छोड़ कर तो आ नईं  सकत थे, खाना छोड़ कें  आय गए।"

"मैं भी श्राद्ध करवाना चाहता हूँ, बतलाइए कि क्या करना होगा?"

"जजमान श्राद्ध करवाओ नहीं जात, खुदई करने पड़त है। फिर जा साल तो हो नहीं सकत काये कि आजई तुम्हारे पिताजी के तिथि हती। माताजी की नवमी को होत है।"

"कोई ऐसा रास्ता नहीं कि सब की एक साथ ही हो जाए।"

"हाँ, अमावस है , वामें सबई पुरखा शामिल होत हैं।"

"उसी दिन सबकी करवा लूँगा एक साथ।"

"लेकिन व तो उनके लाने होत है , जिन्हें अपने पुरखन के तिथि न मालूम होय।"

"अरे एक ही दिन में निबटा दीजिये, ऑफिस वाले टोकने लगे हैं कि साहब आपके घर में श्राद्ध नहीं होता है। कुछ तो दिखाने के लिए भी करना पड़ता है। वैसे मैं इन सब चीजों को नहीं मानता।"

"पुरखों में १५ दिन तर्पण भी करौ जात है , तब श्राद्ध होत है।"

"आप शॉर्ट कट बतलाइये, इतना समय मेरे पास  नहीं रहता है।"

"शॉर्ट कट ये का होत है?"

"देखिये मैं छोटे की तरह से सालों अम्मा बाबू को नहीं झेल साकता था इसी लिए उनको छोटे ने रखा। इतना मेरे पास समय नहीं है और न मेरी पत्नी के पास। इस लिए सिर्फ श्राद्ध करवाना है, वह भी इस लिए कि ऑफिस वालों का चक्कर है, थोड़ा बुरा लगता है कोई टोकता है तो।"

"सही है जजमान तुम तो वई काम कर रहे हौ जो बड़े जन कह गए --

                     जियत न दीनो कौर, मारे उठाये चौरा”।

"इसका मतलब?"

"कछु नईं जजमान, अब अगले साल करिओ तौ सबरे पितर प्रसन्न हो जैहें।"

"इसी को शॉर्ट कट कह रहा था, कि पितर भी खुश और काम भी जल्दी हो जाये. "

               अच्छा पंडित जी अब चलता हूँ. अगले साल बुलवा लूँगा.