सोमवार, 30 जनवरी 2012

कुरुक्षेत्र … चतुर्थ सर्ग … ( भाग – ४ ) रामधारी सिंह दिनकर



"धर्मराज , है याद व्यास का 
                  वह गंभीर वचन क्या ?
ऋषि का वह यज्ञान्त -काल का 
                 विकट  भविष्य कथन क्या  ?
जुटा जा रहा कुटिल ग्रहों का 
                      दुष्ट योग अम्बर में 
स्यात जगत पडने वाला है 
                       किसी महा संगर  में .
तेरह वर्ष रहेगी जग में 
                    शांति किसी विध छायी 
तब होगा विस्फोट, छिडेगी 
                    कोई कठिन लड़ाई .
होगा ध्वंस कराल, काल 
                       विप्लव का खेल रचेगा ,
प्रलय प्रकट होगा धरणी पर 
                          हा - हा कार मचेगा .
यह था वचन सिद्ध दृष्टा का 
                             नहीं निरी अटकल थी 
व्यास जानते थे वसुधा 
                         जा रही किधर पल-पल थी .
सब थे सुखी यज्ञ से , केवल 
                      मुनि का ह्रदय विकल था 
वही  जानते थे कि कुण्ड से 
                           निकला कौन अनल था .
भरी सभा के बीच उन्होंने 
                              सजग किया था सबको 
पग-पग पर संयम का शुभ
                              उपदेश दिया था सबको .
किन्तु अहम्म्य ,राग -दीप्त नर 
                           कब संयम करता है ?
कल आने वाली विपत्ति से 
                           आज कहाँ डरता है ?
बीत न पाया वर्ष काल का 
                                गर्जन पड़ा  सुनाई 
इन्द्रप्रस्थ पर घुमड़ विपद की
                             घटा अतर्कित छायी .
किसे ज्ञात था खेल-खेल में 
                              यह विनाश छायेगा ?
भारत का दुर्भाग्य द्यूत पर 
                               चढा हुआ आएगा ? 
कौन जानता था कि सुयोधन
                               की घृति यों छूटेगी ?
राजसूय के हवन- कुण्ड से 
                              विकट- वह्नि फूटेगी ?
तो भी है सच , धर्मराज !
                        यह ज्वाला नयी नहीं थी 
दुर्योधन के मन में वह 
                                वर्षों से खेल रही थी .
बिंधा चित्र-खग रंग भूमि में 
                           जिस दिन अर्जुन- शर से 
उसी दिवस जनमी दुरग्नि 
                               दुर्योधन के अन्तर से .
बनी हलाहल वही  वंश का 
                               लपटें लाख भवन की 
द्यूत-कपट शकुनी का वन-
                            यातना पांडु -नंदन की |


क्रमश:


पिछला भाग
प्रथम सर्ग --        भाग - १ / भाग -२ 
द्वितीय  सर्ग  ---  भाग -- १ / भाग -- २ / भाग -- ३ 
तृतीय सर्ग  ---    भाग -- १ /भाग -२
चतुर्थ सर्ग ---- भाग -१    / भाग -२  / भाग - ३ 

रविवार, 29 जनवरी 2012

प्रेरक प्रसंग-21 : हर काम भगवान की पूजा

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हर काम भगवान की पूजा

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प्रस्तुत कर्ता : मनोज कुमार

बात 1917 की है। साबरमती आश्रम अभी-अभी शुरू हुआ था। गांधी जी का देश में उन दिनों उतना नाम नहीं था। दक्षिण अफ़्रीका में सत्याग्रह का उनका प्रयोग सफल रहा था। दक्षिण अफ़्रीका से जब वे भारत लौटे तो उनके राजनीतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले ने सलाह दी कि पहले भारत को समझने के लिए सारा भारत घूमो। भारत के विभिन्न भागों में घूमकर उन्होंने साबरमती के तट पर आश्रम बनाकर साधना करना आरंभ किया था।

कभी-कभार वे अहमदाबाद के बाररूम चले जाते। वहां वकीलों और अन्य लोगों से मिलते, आश्रम की कुछ चर्चाएं किया करते। गांधी जी की ओर कोई खास ध्यान नहीं देता। धीरे-धीरे कुछ वकीलों में गांधी जी और उनके आश्रम के बारे में जानने की जिज्ञासा बढ़ती गई। गांधी जी के पास आश्रम में कुछ काम मांगने और करने की उनमें से कुछ की इच्छा हुई।

अन्य लोगों के साथ, एक दिन बापू आश्रम के काम में वयस्त थे। बापू तो कर्म योगी थे। खुद ही अपना सारा काम किया करते थे। गांधी जी और विनोबा भावे जी साथ-साथ एक ही चक्की पर बैठकर अनाज पीसते थे। स्वावलंबन के अनूठे मिसाल थे वे। लेकिन जिस दिन की घटना है उस दिन पिसाई नहीं, अनाज सफ़ाई चल रही थी। सफ़ाई हो जाने के बाद पिसाई होना था। गांधी जी, विनोबा जी और अन्य कई लोग अनाज साफ़ कर रहे थे।

जिन वकीलों की ऊपर चर्चा की गई है, उनमें से कुछ वकील लोग आश्रम आए। उनके बैठने के लिए खजूर की चटाई बिछाई गई। गांधी जी ने उन्हें आमंत्रित करते हुए कहा, “आइए-आइए, बैठिए।”

उनमें से एक वकील बोला, “हम बैठने नहीं आए हैं। हम आपके आश्रम का कुछ-न-कुछ काम करने के विचार से आए हैं।”

गांधी जी ने प्रसन्नता से कहा, “ठीक है। बड़ी ख़ुशी की बात है।” इतना कहकर दो-तीन थलियों में अनाज लेकर उन वकीलों के सामने रख दिया और बोले, “यह अनाज साफ़ कीजिए। और हां अच्छी तरह से साफ़ कीजिएगा।”

एक वकील चौंक कर बोला, “हम क्या यह ज्वार-बाजरा साफ़ करते बैठेंगे?”

गांधी जी बोले, “जी हां! इस समय तो यही कम चल रह है।”

क्या करते बेचारे? वे तो सफ़ेदपोश लोग थे। अनाज साफ़ करने लगे। कुछ देर बाद नमस्कार कर चले गए। फिर दुबारा आश्रम में कोई काम मांगने नहीं आए।

इस घटना में जो सबसे प्रमुख बात है वह यह कि गांधी जी की नज़रों में आज़ादी की लड़ाई लड़ना, छुआछूत का निवारण के लिए उपवास रखना जितना महत्व का काम था, उतने ही महत्व का काम था दाल-चावल बीनना भी। उन्होंने कभी ऐसा नहीं कहा कि यह तो औरतों के द्वारा किया जाने वाला तुच्छ काम है। उनका कहना था,

“सेवा का हर काम पवित्र काम है। हर काम में अपनी आत्मा उड़ेल दो। कर्म को ठीक से करना, यही परमेश्वर की पूजा है। यही मोक्ष है।”

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शनिवार, 28 जनवरी 2012

पुस्तक परिचय – 17 : परीक्षा-गुरू

पुस्तक परिचय – 17 : परीक्षा-गुरू

आभार दो वर्षों की इस यात्रा में साथ देने के लिए

आज वसंत पंचमी है। आज के ही दिन दो साल पहले हमने इस ब्लॉग की शुरुआत की थी। सोचा नहीं था कि इतनी दूर तक जा पाएंगे। जब-जब राजभाषा हिंदी ब्लॉग की बात करता हूं, अनूप जी की चर्चा आ ही जाती है। हमारे दफ़्तर आए थे। हमारे संगठन में राजभाषा के क्रियान्वन की भी जिम्मेदारी हम पर है। यह देख उन्होंने इस तरह के ब्लॉग को शुरु करने के लिए मुझे प्रेरित किया। तब नया-नया ब्लॉगिंग के फ़िल्ड में आया था। मुझे लगा अनूप शुक्ल कह रहे हैं, तो इसमें सक्रिय सहयोग भी उनका मिलेगा ही। मैं शुरू हो गया। पर कुछ ही दिनों में लगा कि यह तो चने के झाड़ पर चढ़ा दिया गया हूं मैं। ख़ैर जब कारवां चला तो साथी भी मिलते गए और इसी का नतीज़ा है कि आज यह ब्लॉग दो साल पूरा कर तीसरे साल में प्रवेश कर गया है और 770 पोस्ट के साथ ब्लॉग जगत में अपनी एक अलग पहचान बना चुका है। मैं सबसे पहले तो इस ब्लॉग की टीम के सदस्यों का आभार प्रकट करना चाहूंगा, जिनके सहयोग के बिना यह संभव न होता। साथ ही इस ब्लॉग के पाठकों का भी, धन्यवाद करना चाहूंगा जो अपने सार्थक और मूल्यवान विचारों से हमे आगे बढ़ते रहने को प्रेरित करते रहे।     मनोज कुमार

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1. व्योमकेश दरवेश, 2. मित्रो मरजानी, 3. धरती धन न अपना, 4. सोने का पिंजर अमेरिका और मैं, 5. अकथ कहानी प्रेम की, 6. संसद से सड़क तक, 7. मुक्तिबोध की कविताएं, 8. जूठन, 9. सूफ़ीमत और सूफ़ी-काव्य, 10. एक कहानी यह भी, 11. आधुनिक भारतीय नाट्य विमर्श, 12. स्मृतियों में रूस13. अन्या से अनन्या 14. सोनामाटी 15. मैला आंचल 16. मछली मरी हुई

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आज के पुस्तक परिचय में हम आपका परिचय कराने जा रहे हैं हिंदी के पहले मौलिक उपन्यास : परीक्षा-गुरू” से। उन्नीसवी शताब्दी के अस्सी के दशक आते-आते तक नाटकों और निबंधों की ओर विशेष झुकाव रहने के बावज़ूद भी बंगला की देखादेखी नए ढंग के उपन्यासों की ओर भी रचनाकारों का ध्यान गया। लाला श्रीनिवास दास ने अंगरेज़ी ढंग का पहला मौलिक उपन्यास लिखा।

यह एक सामाजिक उपन्यास है जो सोद्देश्य लिखा गया है। इसका लक्ष्य समाज की कुरीतियों को सामने लाकर उनका विरोध करना है और आदर्श समाज की रचना का संदेश देना है। कहानी लंबे-लंबे वार्तालाप प्रसंगों से आगे बढ़ती है। कहानी के प्रमुख पात्र लाला मदन मोहन, लाला ब्रजकिशोर, मुंशी चुन्नीलाल और मास्टर शंभुदयाल सौदागर की दुकान में मिलते हैं। उपन्यास यथाक्रम यानी सिलसिलेवार नहीं लिखा गया है। जैसे-जैसे आप इसे पढ़ते जाएंगे, पात्रों के चरित्र से आपका परिचय होता जाएगा। यह विशिष्ट शैली इसकी रोचकता बनाए रखती है। मुंशी चुन्नीलाल पहले ब्रजकिशोर के यहां नौकरी करते थे। उसे लिखना-पढ़ना नहीं आता था। ब्रजकिशोर की संगति में उन्होंने सीखा। पर चालाकी उनकी नियत में रची-बसी थी। इसलिए हमेशा उल्टी-सीधी चालें चला करते थे। ब्रजकिशोर ने पहले समझाया और जब उनकी आदतों में परिवर्तन नहीं आया, तो अपने यहां से उन्हें चलता किया।

लाला मदनमोहन ने चुन्नीलाल को अपने यहां काम पर रख लिया। चुन्नीलाल ने लाला मदनमोहन के स्वभाव को अच्छी तरह से परख लिया। मदनमोहन को चापलूसी और वाहवाही करने वाले लोग बहुत पसंद थे। शरीर का सुख और कम क़ीमत पर अधिक मुनाफ़ा कमाना उनकी चाहत थी। मुंशी चुन्नीलाल उनकी इन कमज़ोरियों का फ़ायदा उठाकर उन्हें खूब लूटता था।

मदनमोहन के पिता अंगरेज़ी पढ़े-लिखे नहीं थे इसलिए मास्टर शंभुदयाल मदनमोहन को अंगरेज़ी पढ़ाने के लिए रखे गए थे। पर मदनमोहन का मन खेलकूद में रमता था। मदनमोहन ने सिफ़ारिश करके शंभुदयाल को मदरसे में नौकरी लगवा दिया। दोनों का एक साथ काफ़ी समय गुज़रता था।

पंडित पुरुषोत्तमदास का मदनमोहन के यहां आना-जाना लगा रहता था। लोगों को सुख और खुश देख इन्हें जलन होती थी। बिना जाने हर बात में टांग अड़ाना इनकी आदत में शुमार था। और भी कई खुशामद करने वाले लोग लाला मदनमोहन के इर्दगिर्द जमे रहते थे। मदनमोहन सब पर विश्वास कर लेते थे।

मदनमोहन की पत्नी एक पतिव्रता स्त्री थी। अपने पति पर क्रोध करना तो उन्होंने सीखा ही नहीं था। उनकी दृष्टि में मदनमोहन एक देवता थे। वे एक कुशल गृहिणी थीं और थोड़े खर्च में घर का सारा प्रबंध कर लेती थीं। कभी-कभार पति को सलाह दे देती थीं, लेकिन अपने विचार थोप नहीं सकती थीं, कभी विवाद नहीं करती थीं। चुन्नीलाल, शंभूदयाल और अन्य स्वार्थी लोगों की स्वार्थपरता से अच्छी तरह वाकिफ़ थीं लेकिन पति की ताबेदारी करना अपना कर्तव्य समझ कर बाट देख रही थी।

ब्रजकिशोर ही एक था जिसपर मदनमोहन की पत्नी को भरोसा था। वह कभी ब्रजकिशोर से आमने-सामने तो नहीं मिलीं लेकिन उसे धर्म भाई मानती थीं। ब्रजकिशोर ग़रीब मां बाप का बेटा था। उसे संसारी सुख भोगने की तृष्णा नहीं थी। जिससे उसका संसार चल सके, बस उतनी ही दौलत की उसे ज़रूरत थी। किसी की दया का बोझ वे अपने सिर पर उठा नहीं सकते थे। मदनमोहन के पिता ने ब्रजकिशोर की पढ़ाई लिखाई का खर्च उठाया था। इस उपकार के बंधन में वे मदनमोहन का साथ देते रहते थे। पर अपनी अमीरी ठाट-बाट में मदनमोहन अच्छे बुरे में फ़र्क़ न कर सका। लोगों ने ब्रजकिशोर के खिलाफ़ उसके कान भर दिए और वह वह उसे कपटी, चुगलखोर, द्वेषी आदि समझने लगा। धीरे-धीरे ब्रजमिशोर ने उनसे किनारा कर लिया।

समय की मार मदनमोहन बुरी तरह से मुसीबतों में फंसते चले गए। क़र्ज़ और अन्य तरह की परेशानियों ने उन्हें कोर्ट कचहरी के चक्कर भी लगाने पर मज़बूर कर दिया। अंत में एक बार फिर से ब्रजकिशोर उनकी मदद को सामने आता है और अंत में सारी मुसीबतों से लाला मदनमोहन को छुटकारा मिलती है।

भारतेन्दु युग के के लेखकों में लाला श्रीनिवास दास का महत्वपूर्ण स्थान है। उनका लिखा परीक्षा-गुरू” एक शिक्षाप्रद उपन्यास है। यह वह समय था जब खड़ी बोली को स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा था। इस उपन्यास में खड़ी बोली के साथ-साथ उन्होंने बोलचाल के शब्द और मुहावरों का अच्छा प्रयोग किया है।

इस पुस्तक में दिल्ली के एक रईस का चित्र उतारा गया है और उसको स्वाभाविक दिखाने के लिए संस्कृत या फ़ारसी अरबी के कठिन-कठिन बनावटी भाषा के बदले दिल्ली के रहने वालों की साधारण बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया गया है। चूंकि यह खड़ी बोली में लिखी जाने वाली हिंदी की आरंभिक अवस्था थी, इसलिए अशुद्धियों का होना अनिवार्य था। उसकी ओर ध्यान दिलाने का हमारा उद्देश्य नहीं है। हमारा यह भी उद्देश्य नहीं है कि इस उपन्यास की हम आलोचनात्मक समीक्षा करें। हम तो बस इस उपन्यास से आपका परिचय भर कराना चाहते थे ताकि आप इस ऐतिहासिक महत्व के उपन्यास को पढ़ें। उस युग के हिसाब से समाज के लिए यह एक बहुत बड़ी देन थी। खड़ी बोली में लिखे गए रोचक कथा के माध्यम से उपन्यास ने सामान्य जनता में हिंदी की लोकप्रियता बढ़ाई।

 

 

 

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पुस्तक का नाम

परीक्षा-गुरू

लेखक

लाला श्रीनिवास दास

प्रकाशक

लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद

संस्करण

2008

मूल्य

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पेज

213

गुरुवार, 26 जनवरी 2012

गणतंत्र दिवस के अवसर पर …

26 जनवरी 1950 को भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने 21 तोपों की सलामी के साथ भरतीय राष्ट्रीय ध्वज को फहराकर भारतीय गणतंत्र के जन्म और धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक राष्ट्र की घोषणा की। आइए इसके कुछ ऐतिहासिक पहलुओं को याद करते चलें। दो दशक पूर्व इसी दिन (26 जनवरी) हमारे देश के तत्कालीन नेताओं, स्वतंत्रता सेनानियों, ने एक सपना करोड़ों देशवासियों के मन में जगाया था।

कलकत्ता अधिवेशन और डोमिनियन स्टेटस का प्रस्ताव

31 दिसंबर 1929 की मध्य रात्रि में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लाहौर सत्र के दौरान राष्ट्र को स्वतंत्र बनाने की जो पहल की गई थी, उसका एक अलग इतिहास है। 1928 में कांग्रेस का अधिवेशन कलकत्ता (कोलकाता) में हुआ था। पं. मोतीलाल नेहरू सभापति थे। इसमें एक सर्वदलीय सम्मेलन भी हुआ। उसके सामने नेहरू कमिटी की रिपोर्ट पेश की गई। साइमन कमीशन भारत पहुंच गया था। इसलिए भारत के सभी दलों को यह साबित करना कि वे एकमत हैं, और भी ज़रूरी हो गया था। इस अधिवेशन में नेहरू रिपोर्ट के डोमिनियन स्टेटस के लक्ष्य को एक शर्त के साथ स्वीकार कर लिया गया।

सम्मेलन में जो प्रस्ताव लाया गया, वह था – बरतानी हुक़ूमत को अविलंब भारत को डोमिनियन स्टेटस (औपनिवेशिक स्वराज्य) दे देना चाहिए। कुछ लोग तो पूर्णस्वराज के सिवा कुछ नहीं मांग करने के पक्षधर थे, फिर भी विचार-विमर्श के बाद यह तय किया गया कि एक वर्ष के भीतर यदि ब्रिटिश गवर्नमेंट डोमिनियन स्टेटस दे देगी तो उसे मंज़ूर कर लिया जाएगा, पर यदि उसने इस मांग को 31 दिसंबर 1929 तक मंज़ूर न किया, तो कांग्रेस अपना ध्येय बदल लेगी, यानी कांग्रेस सविनय अवज्ञा आंदोलन और ‘पूर्ण स्वतंत्रता’ घोषित कर देगी, फिर उसके बाद डोमिनियन स्टेटस मिले भी, तो उसे वह मंज़ूर नहीं करेगी। पं. जवाहरलाल नेहरू और श्री श्रीनिवास आयंगर ने तो इस प्रस्ताव को मान लिया, पर श्री सुभाषचंद्र बोस ने इसका विरोध किया।

1929 तक कांग्रेस के विभिन्न गुट फिर से एक हो चुके थे। वे सक्रिय होने के लिए बेचैन थे। नेतृत्व के लिए वे महात्मा गांधी की ओर देख रहे थे। कांग्रेस के इस अधिवेशन में जब गांधी जी ने खुद एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव लाकर यह स्पष्ट कर दिया कि वे ब्रिटिश शासन को खुली चुनौती देने के लिए जनता का नेतृत्व करने को फिर से तैयार हैं।

लाहौर कांग्रेस अधिवेशन

31 दिसंबर 1929 आ गया। भारत को डोमिनियन स्टेटस नहीं मिला। उस साल का कांग्रेस का अधिवेशन लाहौर में हुआ। लाहौर सत्र की अध्यक्षता पंडित जवाहरलाल नेहरू ने की थी। इस दिन कलकत्ता कांग्रेस की प्रस्तावित अवधि समाप्त हो रही थी, लेकिन ऐसा लग नहीं रहा था कि वाइसराय लॉर्ड इरविन भारत को उपनिवेश राज्य का दर्ज़ा देने वाला हो। 23 दिसंबर को गांधी-इरविन भेंट में संधि-वार्ता भी टूट चुकी थी। वाइसराय ने कांग्रेस की शर्तें मानने से इंकार कर दिया था। लाहौर की उस बैठक में पूर्ण स्वतंत्रता वाला प्रस्ताव गांधी जी ने लाया। उपस्थित स्वतंत्रता सेनानियों ने भारत को अंगरेज़ सरकार के क़ब्ज़े से आज़ाद कराने का संकल्प लेते हुए उस प्रस्ताव को मंज़ूर किया। यह भी निश्चय किया गया कि इसके लिए सत्याग्रह किया जाए। लाहौर की हाड़ कंपा देने वाली ठंड में 31 दिसंबर के अरुणोदय के समय रावी नदी के तट पर आखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस महासमिति ने स्वतंत्र भारत की घोषणा की और आज़ाद हिंद का तिरंगा देश के युवा नेता पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लहराया। लोगों ने “वंदेमातरम्‌” पूरी निष्ठा और उल्लास से झंडावंदन करते हुए गाया। ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ के नारे लगाए गए।

स्वराज्य की घोषणा तो हो गई लेकिन फ़िरंगियों को देश और सत्ता से निकालना अभी बाक़ी था। प्रस्ताव पास हो जाने के बाद यह तय हुआ कि आगे उठाए जाने वाले क़दमों के कार्यक्रम की योजना अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी बनाएगी। मतलब साफ़ था कि यह काम गांधी जी को ही करना था। गांधी जी ने वहीं पूर्णस्वराज्य की प्रतिज्ञा लिख डाली। यह निर्णय हुआ कि किसी सुनिश्चित दिन इस प्रतिज्ञा को सार्वजनिक रूप से पढ़ा जाएगा। पंडित मोतीलाल नेहरू ने सुझाया कि वसंत पंचमी के दिन सुबह दस बजे का मुहूर्त बड़ा ही शुभ है। उस साल (1930) वसंत पंचमी का दिन 26 जनवरी को पड़ता था।

26 जनवरी 1930 को पूरी तरह से देश को स्वतंत्र कराने के लिए पूरे देश में प्रतिज्ञा ली गई। तब से 26 जनवरी हमारे देश के इतिहास की महत्वपूर्ण तारीख़ बन गई। उसी के बाद से यह दिन स्वाधीनता दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। यह प्रतिज्ञा ली गई, “ग़ुलामी सहन करना ईश्वर और देश के प्रति द्रोह है। सल्तनत के मातहत, देश का राजनीतिक-आर्थिक शोषण हुआ है। सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक पतन हुआ है, इसलिए हम प्रण करते हैं कि जब तक पूर्ण स्वराज्य नहीं मिलेगा, तब तक हम इस अधम सत्ता का अहिंसक असहयोग करेंगे और क़ानून का सविनय भंग करेंगे।”

उस दिन पूरे देश में प्रभात फेरी निकाली गई। सभाएं की गईं। प्रतिज्ञा ली गईं। एक नई आशा और उत्तेजना जगी। सबकी आंखें भविष्य और गांधी जी पर टिक गईं। फिर स्वतंत्रता आंदोलन अपने विभिन्न चरणों से गुज़रता हुआ आगे बढ़ता गया। सविनय अवज्ञा आंदोलन, नमक सत्याग्रह, शोलापुर विद्रोह, चटगांव की क्रांति, द्वितीय असहयोग आंदोलन, पूना पैक्ट, लीग का दो राष्ट्र सिद्धांत, भारत सरकार अधिनियम, प्रांतीय सरकारों का गठन, अगस्त प्रस्ताव, क्रिप्स मिशन, भारत छोड़ो आंदोलन, आज़ाद हिंद फ़ौज़ का गठन, वेबेल योजना, कैबिनेट मिशन, प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस, माउंट बेटन योजना आदि चरणों से गुज़रते हुए भारत आज़ाद हुआ।

स्वतंत्र भारत और उसका संविधान

कैबिनेट मिशन योजना के अनुसार स्वतंत्र भारत के संविधान की रचना के लिए 1946 में संविधान सभा का गठन किया गया। भारतीय संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को नई दिल्ली में हुई, जिसमें भरतीय नेताओं के साथ कैबिनेट मिशन ने भाग लिया। इसकी अध्यक्षता डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा ने की थी। बाद में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष बनाए गए। संविधान सभा के अन्य प्रमुख सदस्य थे डॉ. बी.आर. आंबेदकर, टी.टी. कृष्णमाचारी और डॉ. एस. राधाकृष्णन। डॉ. बी.आर. आंबेदकर ड्राफ़्टिंग कमेटी के चेयरमैन थे। पं. जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के रूप में इसमें शामिल हुए।

भारत को एक संविधान देने के विषय में कई चर्चाएं, सिफ़ारिशें और वाद-विवाद किया गया। कई बार संशोधन के बाद भारतीय संविधान को अंतिम रूप दिया गया। भारत का संविधान तैयार करने में इस सभा को तीन वर्ष लगे। इसकी बैठकें 11 अधिवेशनों में 165 दिन हुईं। 21 फरवरी, 1948 को संविधान का प्रारूप तैयार हुआ और अध्यक्ष की हैसियत से डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने 26 नवम्बर 1949 को इस पर हस्ताक्षर किए। 26 जनवरी, 1950 से यह संविधान लागू किया गया। इसके अनुसार भारत एक ‘सर्वप्रभुत्वसंपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य’ बन गया। संविधान के अनुसार नए चुनाव 1952 में हुए। इसके पहले अंतरिम सरकार ही कार्यरत रही।

 

हमारे राष्ट्रीय ध्वज के इतिहास के बारे में जानने के लिए कृपया इस लिंक (तिरंगे का ग़लत इस्तेमाल न करें…!) पर देखें।

बुधवार, 25 जनवरी 2012

अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!

अग्नि पथ ! अग्नि पथ ! अग्नि पथ !

डॉ. हरिबंशराय बच्चन

अग्नि पथ ! अग्नि पथ ! अग्नि पथ !

वृक्ष हों भले खड़े,
हों  घने,  हों बड़े,
एक पत्र-छांह भी मांग मत, मांग मत, मांग मत !
अग्नि पथ ! अग्नि पथ ! अग्नि पथ !

तू न थकेगा कभी!
तू न थमेगा कभी!
तू न मुड़ेगा कभी ! -- कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ !
अग्नि पथ ! अग्नि पथ ! अग्नि पथ !

यह महान दृश्य है ---
चल    रहा  मनुष्य  है
अश्रु-स्वेद-रक्त   से     लथपथ,     लथपथ,   लथपथ !
अग्नि पथ ! अग्नि पथ ! अग्नि पथ !

सोमवार, 23 जनवरी 2012

कुरुक्षेत्र … चतुर्थ सर्ग ..भाग –३ ( रामधारी सिंह ‘दिनकर ‘ )


इन्द्रप्रस्थ का मुकुट - छत्र
                  भारत भर का भूषण था ;
उसे नमन करने में लगता
                 किसे, कौन दूषण था ?
तो भी ग्लानि हुई बहुतों को
                 इस अकलंक नमन से ,
भ्रमित बुद्धि ने की इसकी
               समता अभिमान -दलन  से |
इस पूजन में पड़ी दिखाई
                  उन्हें विवशता अपनी ,
पर के विभव , प्रताप , समुन्नति
                        में परवशता अपनी |
राजसूय का यज्ञ लगा
                      उनको रण के कौशल सा ,
निज विस्तार चाहने वाले
                      चतुर भूप के छल सा |
धर्मराज ! कोई न चाहता
                      अहंकार निज खोना
किसी उच्च सत्ता के सम्मुख
                     सन्मन  से नत होना |
सभी तुम्हारे ध्वज के नीचे
                             आये थे न प्रणय से
कुछ आये थे भक्ति-भाव से
                         कुछ कृपाण के भय से |
मगर भाव जो भी हों सबके
                          एक बात थी मन में
रह सकता था अक्षुण्ण मुकुट का
                         मान न इस वंदन में |
लगा उन्हें , सर पर सबके
                        दासत्व चढा जाता है ,
राजसूय में से कोई
                       साम्राज्य बढ़ा आता है |
किया यज्ञ ने मान विमर्दित
                             अगणित भूपालों का ,
अमित दिग्गजों का ,शूरों का ,
                                बल वैभव वालों का |
सच है सत्कृत किया अतिथि
                            भूपों को तुमने मन से
अनुनय, विनय, शील, समता से ,
                              मंजुल, मिष्ट वचन से |
पर , स्वतंत्रता - मणि का इनसे
                                 मोल न चूक सकता है
मन में सतत दहकने वाला
                                भाव न रुक सकता है |
कोई मंद , मूढमति नृप ही
                          होता तुष्ट  वचन से ,
विजयी की शिष्टता-विनय से ,
                         अरि के आलिंगन से |
चतुर भूप तन से मिल करते
                        शमित शत्रु के भय को ,
किन्तु नहीं पड़ने देते
                   अरि- कर में कभी ह्रदय को |
हुए न प्रशमित भूप
                   प्रणय -उपहार यज्ञ में देकर
लौटे इन्द्रप्रस्थ से वे
                   कुछ भाव  और ही ले कर |
 
क्रमश:
 

रविवार, 22 जनवरी 2012

प्रेरक प्रसंग–20 : चप्पल की मरम्मत

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चप्पल की मरम्मत

प्रस्तुत  कर्ता : मनोज कुमार

DSCN1502बापू साबरमती आश्रम में थे। मीरा बहन ने देखा कि उनकी एक चप्पल टूटी हुई है। वे उसे लेकर आश्रम के फाटक के बाहर बैठने वाले मोची के पास ले गईं। चप्पल मोची को मरम्मत के लिए देकर जब वे लौटीं, तो उन्होंने देखा कि बापू चप्पल को ढूंढ़ रहे हैं। बापू ने मीरा बहन से पूछा, “तुमने क्या मेरी चप्पल कहीं देखा है?”

मीरा बहन ने बताया, “वह मोची के पास है।”

बापू ने व्यंग्य से पूछा, “क्या तुमने मोची के पैसे तय किए हैं या यह उम्मीद कर रही हो कि महात्मा के नाम पर वह मुफ़्त में काम कर देगा?”

मीरा बहन ने बताया, “वह आठ आने लेगा।”

बापू गुस्सा हो गए, “न तो तुम और न तो मैं ही एक पैसा कमाता हूं। फिर यह ख़र्च कौन उठाएगा? चप्पल वापस ले आओ।”

मीरा बहन भाग कर मोची के पास गईं। उसे सारी बातें बताई। चप्पल वापस मांगा। जब मोची को मालूम हुआ कि वह चप्पल बापू की है, तो वह बहुत ख़ुश हुआ। कहने लगा, “अरे! यह चप्पल बापू की है! मेरे लिए यह ख़ुशी की बात है। मैं इस चप्पल को बिना पैसे लिए बना दूंगा।”

“नहीं-नहीं, यह चप्पल वापस कर दो, बापू ने कहा है।”

“नहीं, मैं इसे न दूंगा। इसी बहाने मुझे महात्मा जी की सेवा का एक अवसर मिल रहा है। आप वह मुझसे मत छीनिए।”

मोची चप्पल वापस करने को राज़ी नहीं था। हार कर मीरा बहन ने कहा, “इसकी आज्ञा के लिए तुम्हें अभी मेरे साथ बापू के पास चलना होगा।”

मीरा बहन उस मोची को लेकर बापू के पास आईं। बापू कुछ अंगरेज़ आगंतुक के साथ बैठे थे। मीरा बहन ने बापू को सारी बात बताई। बापू का मूड बदल गया। उन्होंने मीरा बहन की अनदेखी करते हुए मोची से हंस कर कहा, “अगर तुम सचमुच मेरी सेवा करना चहते हो, तो क्यों नहीं मेरे शिक्षक बन जाते और मुझे जूते-चप्पल सीने का काम सिखा देते?”

मोची बेहद ख़ुश हुआ। बापू ने उसे अपनी जगह पर बैठाया और वहीं उसी समय चप्पल की मरम्मत करना सीखने लगे और मेहमानों से बातें भी करते रहे।

***

शनिवार, 21 जनवरी 2012

वीरों का हो कैसा बसंत … ( सुभद्रा कुमारी चौहान )

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जन्म –१९०४
निधन -१९४८
आ रही हिमालय से पुकार
है उदधि गरजता बार बार
प्राची पश्चिम भू नभ अपार;
सब पूछ रहें हैं दिग-दिगन्त
वीरों का हो कैसा बसंत

फूली सरसों ने दिया रंग
मधु लेकर आ पहुंचा अनंग
वधु वसुधा पुलकित अंग अंग;
है वीर देश में किन्तु कंत
वीरों का हो कैसा बसंत

भर रही कोकिला इधर तान
मारू बाजे पर उधर गान
है रंग और रण का विधान;
मिलने को आए आदि अंत
वीरों का हो कैसा बसंत

गलबाहें हों या कृपाण
चलचितवन हो या धनुषबाण
हो रसविलास या दलितत्राण;
अब यही समस्या है दुरंत
वीरों का हो कैसा बसंत

कह दे अतीत अब मौन त्याग
लंके तुझमें क्यों लगी आग
ऐ कुरुक्षेत्र अब जाग जाग;
बतला अपने अनुभव अनंत
वीरों का हो कैसा बसंत

हल्दीघाटी के शिला खण्ड
ऐ दुर्ग सिंहगढ़ के प्रचंड
राणा ताना का कर घमंड;
दो जगा आज स्मृतियां ज्वलंत
वीरों का हो कैसा बसंत

भूषण अथवा कवि चंद नहीं
बिजली भर दे वह छन्द नहीं
है कलम बंधी स्वच्छंद नहीं;
फिर हमें बताए कौन हन्त
वीरों का हो कैसा बसंत

गुरुवार, 19 जनवरी 2012

योगनंद की कथा - अंतिम भाग


                                                      164323_156157637769910_100001270242605_331280_1205394_n

आदरणीय पाठकों को अनामिका का प्रणाम ! पिछले छः अंकों में आपने कथासरित्सागर से शिव-पार्वती जी की कथावररुचि की कथा पाटलिपुत्र (पटना)नगर की कथाउपकोषा की बुद्धिमत्ता और योगनंद की कथा पढ़ी.




पिछले अंक में  वररुचि शास्त्र में प्रवीण होने के बाद अपने गुरु उपाध्याय वर्ष से प्रार्थना करते हैं कि वे गुरु दक्षिणा  के लिए निर्देश करें. उपाध्याय वर्ष गुरु दक्षिणा में एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ मांगते हैं. वररुचि एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ लेने के लिए राजा नन्द के पास पहुँचते हैं जहाँ राजा नन्द की मृत्यु हो चुकी है. इन्द्रदत्त योगसिद्धि से परकाय प्रवेश की विद्या द्वारा मृत राजा के देह में प्रवेश करता है, और वररुचि याचक बन कर एक करोड़ स्वर्णमुद्राएँ प्राप्त करता है. इधर अपार लक्ष्मी के मद ने पूर्वनंद के देह में रहते इन्द्रदत्त (योगनंद) को बावला बना दिया.  योगनंद के मन में वररुचि के लिए मन में मिथ्या शंका घर कर जाती है और वो अपने मंत्री शकटार को एकांत में बुला मंत्री वररुचि को समाप्त करने का आदेश देता है.शकटार बुद्धिमान और ब्राह्मण वररुचि की हत्या कराना उचित नहीं समझता और उसे छिपा देता है. एक बार राजा योगनंद विपत्ति में पड़ जाता है तो उसे उस समय को उचित अवसर जान शकटार वररुचि के जीवित होने का रहस्य खोलता है और वररुचि योगनंद की विपत्ति का समाधान करता है तब योगनंद खुश होकर वररुचि का बड़ा सम्मान करता है और फिर से मंत्री पद पर कार्य करने का अनुरोध करता है. वररुचि उसके दान-सम्मान की उपेक्षा कर के चल दिया.

अब आगे...

योगनंद की कथा



घर पहुंचा तो मुझे देख कर सब रोने लगे . बिलखते हुए मेरे श्वसुर उपवर्ष ने बताया कि राजा के द्वारा मुझे मृत्युदंड देने का समाचार सुन कर उपकोषा ने उसी समय आत्महत्या कर ली थी. फिर मेरी माता का हृदय भी शोक से फट गया.

पत्नी और माता दोनों के ऐसे दारुण निधन का समाचार सुन कर मैं कटे वृक्ष की भांति धरती पर गिर कर मूर्छित हो गया. चेतना लौटी तो मैं पागलों की तरह प्रलाप करने लगा.

आचार्य वर्ष को यह सब पता चला और वे तुरंत आये, और मुझे ढाढस बंधाने लगे. उसके पश्चात मेरा जीवन ही बदल गया. सारा संसार अनित्य प्रतीत होने लगा. मैंने जगत के सारे बंधन तोड़ दिए और तप करने के लिए तपोवन चला गया.

तपोवन में रहते -रहते बहुत दिन बीत गए. एक बार अयोध्या से एक ब्राह्मण तपोवन में आया, तो मैंने उससे योगनंद राजा का हाल पूछा. ब्राह्मण ने कहा - शकटार तो यही चाहता था कि तुम फिर से मंत्री का पद स्वीकार न करो और उसे राजा से बदला लेने का अवसर मिल जाए. तुम्हारे पाटलिपुत्र छोड़ कर चले जाने के कुछ समय पश्चात शकटार की चाणक्य नामक ब्राह्मण से भेंट हो गयी. पहली बार जब वह शकटार को मिला, तो वह धरती खोद रहा था. शकटार के पूछने पर उसने बताया कि कुंशों ने चुभ कर मेरे पाँव में चोट पहुंचाई है, इसलिए इन्हें समूल उखाड़ रहा हूँ.

शकटार ने उससे परिचय प्राप्त किया, अपना  परिचय उसे दिया और फिर उसे राजा नन्द के प्रसाद में त्रयोदशी की तिथि को श्राद्ध में भोजन करने का निमंत्रण दे दिया. उसे यह वचन भी दिया कि भोजन की  दक्षिणा में एक लाख सोने की मोहरें दी जाएँगी, और चाणक्य को ही सर्वोच्च आसन दिया जाएगा.

श्राद्ध का दिन आया. चाणक्य भोजन करने वाले  ब्राह्मणों में सर्वोच्च  स्थान पर बैठ गया. पर सुबंधु नामक ब्राह्मण अपने लिए यह स्थान चाहता था. शकटार ने दोनों ब्राह्मणों के विवाद की बात जा कर राजा नन्द को बताई. नन्द ने  सुबंधु को सर्वोच्च स्थान पर बिठाने का आदेश दिया. शकटार चाणक्य के पास आया और डरते डरते बोला - मेरा कोई अपराध नहीं है - यह कह कर राजाज्ञा की बात चाणक्य को उसने बताई.

सुन कर चाणक्य ने क्रोध से जलते हुए अपनी शिखा खोल कर सात दिन में राजा नन्द का नाश करने की प्रतिज्ञा की.

प्रतिज्ञा कर के चाणक्य वहां से चल पड़ा.  शकटार ने गुप्त रूप से उसे अपने घर में रख लिया. फिर तो शकटार की दी हुई सामग्री से  वह ब्राह्मण एकांत में कृत्य साधने लगा. उस कृत्या के प्रभाव से राजा नन्द दाह ज्वर से सातवें दिन मर गया. शकटार ने उसके पश्चात योगनंद  के पुत्र  हिरण्य गुप्त को भी मरवा दिया और पूर्वनंद के पुत्र चन्द्रगुप्त को राजा बना दिया. तत्पश्चात अपने दिवंगत सौ पुत्रों की स्मृति से दग्ध हृदय वाला वह शकटार भी अब चाणक्य को चन्द्रगुप्त का मंत्री बना कर वन में चला गया.

(आगे की कथा सुनाते हुए वररुचि ने काणभूति से कहा ) - हे काणभूते, उस ब्राह्मण के मुख से शकटार का सारा वृतांत सुन कर मैं और भी खिन्न हो उठा. उसके साथ ही मुझे अपने पूर्वजन्म का स्मरण भी हो गया और मैंने सोचा कि अब मुझे शापमुक्त हो कर शिवधाम पहुँचने का तुरंत जतन  करना चाहिए. इसलिए मैं तुम्हें खोजता हुआ विन्ध्य वन में यहाँ आ पहुंचा और मैंने चोरी से छिप कर भगवान शिव के मुख से सुनी हुई  बृहत्कथा तुम्हें सुनाई. अब मेरा शाप छूट गया है. मैं तो वास्तव में शिव का सेवक पुष्पदंत हूँ. हे काण भूते, तुम यहीं रह कर प्रतीक्षा करो. मेरा साथी माल्यवान जिसने गुणाढ्य के नाम से धरती पर जन्म लिया है, कुछ ही समय में तुम्हारे पास आएगा. उससे  यह बृहत्कथा सुन कर तुम भी शाप मुक्त हो जाओगे. 

यह कह कर वररुचि देह त्याग तथा मोक्ष पाने के लिए बद्रिकाश्रम चल पड़ा.

वररुचि की कथा यहीं समाप्त होती है.और अगले अंक में  शिव जी के दूसरे गण और वररुचि (पुष्पदंत ) के साथी माल्यवान (  गुणाढ्य ) की कथा प्रस्तुत की जाएगी.....तब तक के लिए आज्ञा और नमस्कार!


मंगलवार, 17 जनवरी 2012

भारत और भुखमरी

भारत और भुखमरी

arunpicअरुण चन्द्र रॉय

कुछ माह पूर्व इसी ब्लॉग पर इसी शीर्षक से मेरा एक आलेख प्रकाशित हुआ था. बाद में किसी अखबार ने उसे प्रकाशित कर दिया. ब्लॉग जगत में लोग जिन मुद्दों पर लिखते हैं मुझे भी लग रहा था कि ये क्या मैंने लिख दिया. वास्तव में ब्लॉग जगत एक ऐसी आभासी दुनिया हैं जहाँ से ज़मीनी हक़ीक़त दिखता नहीं शायद. खैर. अभी एक सम्मलेन में प्रधानमंत्री जी ने कहा कि देश में कुपोषण और भुखमरी की हालत शर्मनाक है. हम कई अफ़्रीकी देशों से भी नीचे हैं. लेकिन अफ़सोस कि इतने बड़े मुद्दे को ऐसे ढक दिया गया कि इस पर एक दिन भी चर्चा नहीं हुई. सारी चर्चाएं हाथियों को ढकने पर ही लगी रहीं.

एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार पांच साल के कम के अत्यंत कुपोषित बच्चों की कुल संख्या में से लगभग आधे बच्चे भारत में हैं. विश्व बैंक के मुताबिक दुनिया भर में 146  मिलियन बच्चे कुपोषित हैं और इनमे से लगभग 65 मिलियन बच्चे भारत में हैं. देश में पांच साल से कम के बच्चो में लगभग 46% बच्चो को नियमित भोजन प्राप्त नहीं होता है. एक और अध्ययन के अनुसार लगभग 19 लाख बच्चे जो पैदा तो जीवित होते हैं किन्तु अपना प्रथम जन्मदिन नहीं मना पाते हैं. भारत में प्रत्येक 1000 जीवित पैदा हुए बच्चों में से 32 बच्चे जन्म के कुछ ही माह के बाद कुपोषण का शिकार हो मर जाते हैं. और यह विडम्बनापूर्ण स्थिति केवल अफ़्रीकी देशों में ही है. बच्चो में कुपोषण के मामले में हम हैती, मंगोलिया और वियतनाम जैसे देशो के साथ खड़े हैं.

विश्व के अन्य देशो जहाँ कुपोषण और भुखमरी मौजूद है वह या तो प्रतिकूल प्राकृतिक अवस्था जैसे बाढ़, भूकंप हैं या फिर वे देश युद्ध जैसी परिस्थिति में रह रहे हैं. विडंबना यह है कि ऐसी स्थिति भारत में नहीं है फिर भी देश के आधे बच्चे भूखे रह रहे हैं. यह स्थिति मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, ओड़िसा, बिहार और पूर्वोत्तर राज्यों में अधिक भयावह है. ये वही क्षेत्र हैं जहाँ सरकार की मशीनरी या तो नहीं पहुची है या पहुच कर भी प्रभावी नहीं रही है. राष्ट्रीय स्वस्थ्य सर्वेक्षण में मध्य्रदेश और छतीसगढ़ में बच्चो में कुपोषण की प्रतिशत 60% से भी अधिक है.

आश्चर्य है कि दहाई में जी ड़ी पी में वृद्धि, आर्थिक और सामरिक महाशक्ति का दावा करने वाले देश के प्रधानमंत्री जी को कुपोषण को राष्ट्रीय लज्जा मानना पड़ रहा है और कहना पड़ रहा है कि इस बारे में योजना बनाने की जरुरत है. अब कौन पूछेगा संसद और सरकार से कि इन पैंसठ सालों में सरकार इस बारे में कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठा सकी ? योजना आयोग क्या कर रही थी इन वर्षो में ? चूँकि देश के ये बच्चे ना तो वोट बैंक हैं कि इन पर ध्यान रखा जाए,  न उपजाऊ ज़मीन कि इनके अधिग्रहण के लिए को योजना बने, न ही खनिज खान  कि इनसे राजस्व प्राप्त होगा, या फिर कोई स्पेक्ट्रम भी नहीं हैं ये बच्चे की नीलाम कर दिया जाये कौड़ी के भाव जल्दीबाजी में... !

सोमवार, 16 जनवरी 2012

कुरुक्षेत्र … चतुर्थ सर्ग .. ( भाग – २ ) रामधारी दिनकर सिंह



युगों से विश्व में विष - वायु बहती आ रही थी ,
धरित्री मौन हो दावाग्नि सहती आ रही थी ;
परस्पर वैर - शोधन के लिए तैयार थे सब ,
समर का खोजते कोई बड़ा आधार थे सब |

कहीं था जल रहा कोई किसी की शूरता से |
कहीं था क्षोभ में कोई किसी की क्रूरता से |
कहीं उत्कर्ष ही नृप का नृपों को सालता था
कहीं प्रतिशोध का कोई भुजंगम पालता था |

निभाना पर्थ - वध का चाहता राधेय  था प्रण|
द्रुपद था चाहता गुरु द्रोण से निज वैर - शोधन |
शकुनी को चाह थी , कैसे चुकाए ऋण पिता का ,
मिला दे धूल में किस भांति कुरु-कुल की पताका |

सुयोधन पर न उसका प्रेम था, वह घोर छल था ,
हितू बन कर उसे रखना ज्वलित केवल अनल था
जहाँ भी आग थी जैसी , सुलगती जा रही थी ,
समर में फूट पड़ने के लिए अकुला रही थी |

सुधारों से स्वयं भगवान के जो - जो चिढे थे
नृपति वे क्रुद्ध होकर एक दल में जा मिले थे |
नहीं शिशुपाल के वध से मिटा था मान उनका ,
दुबक कर था रहा धुन्धुंआँ द्विगुण अभिमान उनका|

परस्पर की कलह से , वैर से , हो कर विभाजित 
कभी से दो दलों में हो रहे थे लोग सज्जित |
खड़े थे वे ह्रदय में प्रज्ज्वलित अंगार ले कर ,
धनुज्याँ को चढा कर , म्यान में तलवार ले कर |

था रह गया हलाहल का यदि
                               कोई रूप अधूरा ,
किया युधिष्ठिर , उसे तुम्हारे
                           राजसूय ने पूरा |

इच्छा नर की और , और फल
                          देती उसे नियति है |
फलता विष पीयूष - वृक्ष में ,
                      अकथ प्रकृति की गति है |

तुम्हें बना सम्राट देश का ,
                         राजसूय के द्वारा ,
केशव ने था ऐक्य- सृजन का
                           उचित उपाय विचारा |

सो , परिणाम और कुछ निकला ,
                              भडकी आग भुवन  में |
द्वेष अंकुरित हुआ पराजित
                               राजाओं के मन में |

समझ न पाए वे केशव के
                           सदुद्देश्य निश्छल को |
देखा मात्र उन्होंने बढ़ाते
                             इन्द्रप्रस्थ के बल को |

पूजनीय को पूज्य मानने
                            में जो बाधा - क्रम है ,
वही मनुज का अहंकार है ,
                             वही मनुज का भ्रम है |

क्रमश:

रविवार, 15 जनवरी 2012

प्रेरक प्रसंग-19 : मल परीक्षा – बापू का आश्चर्यजनक प्रयोग

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प्रस्तुत कर्ता : मनोज कुमार

DSCN1514साबरमती आश्रम में ब्रिटेन से आई मेडलिन स्लेड यानी मीरा बहन वहां रहते-रहते बापू की नाक भी बन गईं। उनकी गरुड़-सी नाक उनके चौड़े चेहरे पर बेडौल-सी लगती थी लेकिन उनकी घ्राण-शक्ति बहुत तेज़ थी। बापू गंध के मामले में कच्चे थे। उनकी नाक केवल सांस लेने और चश्मे के टिकाने के काम आती थी। घ्राण अनुभूति के मामले में वे मीरा बहन पर निर्भर हो गए। इस मामले में एक बड़ा ही अद्भुत और रोचक किस्सा है।

एक दिन मीरा बहन हड़बड़ी में नहाकर अपने खुले बालों पर साड़ी का पल्लू ठीक करते निकलीं। अपने साथी सहायक सुमंगल को कहा, “बापू से पहले हम लोगों को वहां पहुंच जाना चाहिए। आप जानते हैं, वे वक़्त के कितने पाबंद हैं।”

आश्रम के बगीचे में पुरुषों के शौचालय के सामने श्याम इंतज़ार करता हुआ खड़ा था। वह एक दलित युवक था। बापू ने दस साल की एक दलित बच्ची को गोद लिया था। श्याम आश्रम में दलित वर्ग का दूसरा सदस्य था। वह पच्चीस साल का था। उसका काला चेहरा चेचक से भरा था। अपनी उम्र से बड़ा दिखता था। उसे अनेक बीमारियां घेरे रहती थीं। कारण का पता ही नहीं चलता। उसकी इन रहस्मय बीमारियों पर से परदा उठाने का जिम्मा बापू ने खुद लिया। वे एक ऐसे डॉक्टर की भूमिका निभाते जो उपचार की प्रचलित विधियों से हट कर अपने प्रयोग करता था। वे कहा करते थे उन्हें ये प्रयोग स्वतंत्रता संघर्ष जितने ही प्रिय थे। इनमें उन्हें वही आनंद मिलता जो स्वतंत्रता संघर्ष में मिलता। किसी बीमार आश्रमवासी की जांच करने और उसका उपचार करने में बापू को जितनी ख़ुशी मिलती ही उतनी शायद ही किसी और काम में मिलती होगी।

बापू अपने पत्राचार का काम खत्म करके टहल रहे थे। टहलते-टहलते वे सहसा रुक गए। अपने साथ टहलने वाले अन्य व्यक्ति से उन्होंने कहा, “मुझे थोड़ी देर की छुट्टी लेनी होगी। एक लड़के के मल की परीक्षा करनी है। … आप लोग चलें, मैं काम पूरा होने के बाद फिर लौटूंगा।”

DSCN1378वे मगनवाड़ी के बाग की तरफ़ मुड़ गए जहां मीरा, सुमंगल और श्याम इंतज़ार कर रहे थे। बापू, श्याम जिसे भाऊ भी कहा जाता था, की बीमारी के कारण का पता लगाने के लिए उसके मल की जांच करने की आश्चर्यजनक क्रिया करने वाले थे। भाऊ पर बापू का प्रयोग चल रहा था। भाऊ को अपच और पेचिश की शिकायत रहती थी। बापू के द्वारा बदल-बदल कर भिन्न-भिन्न खूराक पर उसे रखा जा रहा था। कोई विशेष लाभ न देख उसके मल की परीक्षा यह देखने के लिए की जाने वाली थी कि भोजन का कौन पदार्थ बिना पचा बाहर निकल गया है।

भाऊ का मल ज़मीन पर मलमल के एक कपड़े पर रखा था। उसके मल की जांच शुरू हुई। इस जांच में श्याम सहायक की भूमिका निभा रहा था। बापू पास खड़ी मीरा से कह रहे थे, “ज़रा सोचो मीरा, हमारे कितने ग़रीब देशवासी श्याम की तरह अपच और पेचिश के शिकार होते हैं। साफ़-सफ़ाई और स्वास्थ्य संबंधी शिक्षण ही इसका एक समाधान है। दूसरा समाधान है सस्ती और आसानी से उपलब्ध साग-सब्जी का आहार, जिसे ग़रीब लोग ख़रीद सकते हैं।

भाऊ उस बारीक साफ़ कपड़े को ताने हुए था। बापू एक टहनी से मलमल के कपड़े पर बिखरे श्याम के पीले मल को कुरेद कर जांच कर रहे थे। झुके रहने के कारण उनका गोलाकार, कमानी वाला चश्मा उनकी नाक की नोंक कर फिसल आया। चश्मे को नाक पर ऊपर चढ़ाते हुए उन्होंने कहा, “इसकी और सफ़ाई की ज़रूरत है।” उन्होंने चश्मा उतारकर उसके शीशों को अपनी धोती के छोर से साफ़ किया।

मीरा बहन ने सुमंगल की ओर देख कर सिर हिलाया और शौचालय के दरवाज़े पर रखे पानी के घड़े की ओर इशारा किया। घड़े के किनारे से लंबी मूठ लगा टिन का डिब्बा लटक रहा था। सुमंगल ने उस कपड़े पर पानी गिराना शुरू किया, तो मीरा बेन ने एक चम्मच से मल को मथना और धीरे-धीरे धोना शुरू किया। छन-छन कर गंदा पीला पानी मलमल के कपड़े से नीचे गिरने लगा और कपड़े पर मल का वह भाग रह गया जो अब पानी में घुल कर छन नहीं सकता था। यह सब इसलिए किया जा रहा था ताकि पता चले किए कौन-से खाद्य उसमें हैं जो पच नहीं पाए और इसलिए उन्हें भोजन से काटा जाना चाहिए।

बापू ने फिर से उस कपड़े में रह गए मल के अवशेष को कुरेद-कुरेद कर देखना शुरु किया। मीरा बहन इस क्रिया की एक प्रमुख पात्र थीं। जहां बापू की घ्राणेन्द्रिय प्रायः एकदम निश्चेष्ट थीं, वहां मीरा बहन की घ्राण-शक्ति अत्यंत प्रखर समझी जाती थी। जब कोई खाद्य तत्व पहचान में नहीं आता, कहीं कोई संदेह होता, तो आंखों से निरीक्षण कर रहे बापू मीरा बेन की घ्राण विशेषता का सहारा लेते। बापू मल के उस अवशेष में से कोई रेशा या कोई छोटा टुकड़ा उस सींक पर उठाते और मीरा बहन झुक कर उसे ज़ोरों से सूंघती। बापू जिस टुकड़े या रेशे को पहचान नहीं सकते थे उसे सूंघ कर मीरा बहन बताती थीं कि वह किस मूल खाद्य पदार्थ का विकृत रूप या अवशेष है।

मीरा बहन की घ्राण विशेषता उनका नैसर्गिक गुण तो था ही, पर उन्होंने बचपन से इसपर शान भी चढ़ाया। बचपन से उनकी आदत थी कि सड़े गले फूल पत्ते को सूंघ-सूंघ कर वे उन्हें पहचाना करतीं। अलग-अलग जगह, अलग-अलग पशु-पक्षियों और वनस्पत्तियों की गंध भी अलग-अलग होते हैं। मीरा बहन कई गंधों के मिश्रण में से किसी खास गंध की पहचान कर सकती थीं।

सूरज चमक रहा था। पक्षी कलरव कर रहे थे। श्याम के मल की दुर्गंध चारों ओर फैल रही थी। धूप की गरमी से बदबू तेज होती जा रही थी। बापू और मीरा बहन इन सब से बेखबर अपने काम में मग्न थे।

काफ़ी देर बाद भी सभी खाद्य तत्वों का पता नहीं लगा सका और कुछ के बारे में संदेह रह गया, क्योंकि मल और उसके जल की दुर्गंध इतनी प्रबल थी कि मीरा बहन की घ्राणेन्द्रिय भी उस दुर्गंध के आवरण में छिपी खाद्य-गंधों का अन्वेषण नहीं कर पा रही थी। तब बापू ने निर्देश दिया, “इसे कुछ देर धूप में सूखने दो ताकि मल की गंध उड़ जाए। मीरा की नाक अलग-अलग खाद्य पदार्थों की गंध पहचान सकती है।” बापू का ख्याल था कि सब अवशिष्ट टुकड़ों और रेशों के धूप में सुखा लिए जाने पर मल की दुर्गंध लुप्त हो जागी और विभिन्न खाद्य पदार्थ की गन्ध बनी रह जाएगी जिसके कारण उनकी पहचान की जा सकेगी।

श्याम के कंधे को थपथपाते हुए बापू बोले, “यहीं बैठना और देखना कि कौवे न आएं।” इतना करने के बाद बापू, मीरा बहन और सुमंगल लौट आए। भाऊ के उस मलावशेष के सूख जाने पर वे पुनः वहां गए और सभी खाद्य पदार्थों की गंध पहचानी जा सकी। अब यह स्पष्ट हो चुका था कि भाऊ की पाचन-शक्ति किन खाद्य पदार्थों को पचा सकती है और किन को नहीं। उसे किन खाद्य पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए, इसकी सलाह बापू ने दी। भाऊ का रोग धीरे-धीरे दूर हुआ।

***

शनिवार, 14 जनवरी 2012

पुस्तक परिचय-16 : मछली मरी हुई

पुस्तक परिचय-16

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1. व्योमकेश दरवेश, 2. मित्रो मरजानी, 3. धरती धन न अपना, 4. सोने का पिंजर अमेरिका और मैं, 5. अकथ कहानी प्रेम की, 6. संसद से सड़क तक, 7. मुक्तिबोध की कविताएं, 8. जूठन, 9. सूफ़ीमत और सूफ़ी-काव्य, 10. एक कहानी यह भी, 11. आधुनिक भारतीय नाट्य विमर्श, 12. स्मृतियों में रूस13. अन्या से अनन्या 14. सोनामाटी 15. मैला आंचल
मछली मरी हुई
मनोज कुमार
pratinidhi-kahaniyan-rajkamal-chaudharyसमकालीन हिंदी उपन्यास लेखकों में राजकमल चौधरी का नाम विशिष्ट है। बिहार के सहरसा जिले के महिसी ग्राम में 13 दिसंबर वर्ष 1929 को जन्मे राजकमल चौधरी लंबी उम्र नहीं पा सके। 19 जून 1967 को लंबी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया। मात्र अड़तीस वर्ष के जीवन में उन्होंने जहां एक ओर साठोत्तर हिंदी कविता को एक नई दिशा दी वहीं लगभग दर्जन भर उपन्यासों द्वारा यह प्रमाणित किया है कि उनका रचना संसार न केवल कथ्य के स्तर पर बल्कि शिल्प के स्तर पर भी परंपरागत ढांचे को तोडकर एक नये रूप को दिखाता है। उनके जैसा लेखक किसी विचारधारा विशेष में सीमित रह नहीं सकता है, क्योंकि विचारधारा से अधिक वह मानवीयता के पक्ष पर जोर देते हैं। वह सही मायनों में उत्तर आधुनिक लेखक कहे जा सकते हैं।
राजकमल ने अपने बहुचर्चित उपन्यास “मछली मरी हुई” में नारी विमर्श का मुद्दा जिस तरह उठाया उस पर विवाद और तरह-तरह की चर्चाएं हुईं। आलोचकों ने तो यहां तक कहा कि उनके सभी उपन्यासों की तरह इसमें भी शराब, क़बाब और सैक्स का ही वर्चस्व है। हो सकता है आलोचकों के साहित्यिक मानदंड पर राजकमल का रचना संसार खरा नहीं उतर पाया हो फिर भी उनकी बौद्धिक क्षमता पर संदेह नहीं किया जा सकता है। वे मर्यादाओं और मूल्यों के बंधन में बंधने वाले लेखक कभी नहीं रहे।
इस उपन्यास में उन्होंने कलकत्ता के औद्योगिक और व्यावसायिक जीवन का चित्रण किया है जो अनुभव आधारित है, लेखक अपनी ओर से पुस्तक के शुरू में ही कह देता है कि “उपन्यास में वर्णित सूचनाएं संयोग और कु-अवसर से प्राप्त हुईं हैं, इच्छित अनुभव से नहीं !” पिछली बड़ी लड़ाई के बाद, कलकत्ता शहर में नई पीढ़ी के व्यापारियों की एक जमात नए-से-नया व्यापार करने के लिए चौरंगी, डलहौजी-स्कवायर, महात्मा गाँधी रोड, धर्मतल्ला और पुरानी क्लाइव स्ट्रीट में, अमरीकी शैली के ऊँचे दफ्तरों में बैठ गई थी।
----निर्मल पद्मावत इसी जमात का एक व्यापारी है।
वह इस उपन्यास का मुख्य पात्र है। पूरी कहानी निर्मल के इर्द-गिर्द घूमती है। निर्मल एक अच्छे व्यक्तित्व का स्वामी है और पेशे से बड़ा व्यापारी। वह घूस नहीं देता, दलाली से उसे नफ़रत है। किसी क्लब में या सभा-सोसयटी में शामिल नहीं होता। झूठ बोलना नहीं जानता, शराब नहीं पीता, ताश नहीं खेलता, ... उसका कोई मित्र भी नहीं है।
देश-विदेश घूम लेने के बाद निर्मल कलकत्ता में बस गया है। 30 मंज़िला ‘कल्याणी मेंशन’ में रहता है, बिज़नेस के दांव-पेंच और ख़ुद में पूरी तरह उलझा हुआ। इतनी बड़ी पूँजी और इतने बड़े ‘कल्याणी मैंशन’ का मालिक हो जाने के बाद भी निर्मल काले ‘संगमरमर की मूरत’ बनकर, वहीं का वहीं रुका क्यों रह गया - - यह इस छोटे-से उपन्यास का विषय नहीं है।
कल्याणी निर्मल का पहला प्रेम है। वहीं, वेश्यावृत्ति में पड़ी कल्याणी निर्मल को नकार डॉक्टर रघुवंश से शादी कर लेती है। निर्मल को अस्वीकार करने की कल्याणी के पास एक वजह है, और इसी एक वजह से निर्मल ताउम्र जूझता रहता है। (आप उपन्यास पढ़िए जान जाएंगे)
उपन्यास दिलचस्प है। दिलचस्प इसलिए कि इसका विषय यह भी नहीं है कि उसी कल्याणी मेंशन की उन्तीसवीं मंजिल पर रह रही शीरीं, जो पहले शीरीं मेहता थी, दो साल से शीरीं पद्मावत हो गई है, और उसको, एक साधारण पुरुष की साधारण पत्नी बनकर, जीवित रहने का अधिकार मिला या नहीं, प्रश्न उलझा और अनसुलझा-सा है। शिरीं जिसे बीते हुए का पाछतावा नहीं, आगे होनेवाले की फ़िक्र नहीं और उसके लिए जीने का एकमात्र तरीक़ा रह गया है, वर्तमान को जिए जाना। पहले अंधेरा था, फिर अंधेरा होगा, अभी अगर रोशनी की एक हलकी-सी भी किरण बाक़ी है, तो उसे जी लो। यह किरण ज़िन्दगी है। ... और उसकी ज़िन्दगी भी उपन्यास का विषय नहीं है।
इस उपन्यास में विषय नहीं है, विषय-प्रस्ताव है - - मात्र विषय-प्रस्ताव !
प्रस्ताव देह जनित दुर्बलता विशेषकर स्त्री समलैंगिकता और यौनाचारों में डूब गई हुई स्त्रियों के बारे में है। इस विषय पर हिंदी में, बहुत कम ही लिखा गया है। शीरीं समलैंगिक है। समलैंगिक आचरणों में लिप्त रहकर भी वह समझ नहीं पाती कि क्या कर रही है, और किस मतलब से कर रही है......करती है अवश्य, लेकिन नींद में, नशे में, अनजाने कर लेती है। और, अपने कुसंस्कारों और अंधेपन में जकड़ी हुई, अधिक ‘धार्मिक’ और अधिक संत्रास’ बनी रहती है।
इसके पात्र की तरह यह उपन्यास भी असाधारण है। उपन्यास के ही शब्दों को लें, तो ‘असाधारण बनना, ‘एब्नार्मल’ बनना, अधिक कठिन नहीं है। आदमी शराब की बोतल पीकर असाधारण बन सकता है। दौलत का थोड़ा-सा नशा, यौन-पिपासाओं की थोड़ी-सी उच्छृंखलता, थोड़े-से सामाजिक-अनैतिक कार्य आदमी को ‘एब्नॉर्मल’ बना देते हैं। कठिन है साधारण बनना, कठिन है अपनी जीवन-चर्या को सामान्यता-साधारण में बाँधकर रखना।’’
अपने मनोरोग से जूझते हुए नायक निर्मल एक और सह नायिका प्रिया का बलात्कार कर देता है, जो उसकी पहली प्रेमिका कल्याणी की बेटी है। अपनी मर्दानगी को पाकर निर्मल शीरीं के पास वापस आता है और शीरीं एक मर्द को पाकर, जो उसका पति भी है, कोई पुराना गीत गुनगुनाती है ..
‘‘बरसात हुई। जल भर आया...
सूखी पड़ी नदी में फिर जल भर आया...
नीली मछली मरी हुई,
जी उठी। प्राण में प्यार, प्यार में प्यास,
प्यास से मरी हुई नीली मछली
के लिए
नदी में जल भर आया।
बरसात हुई!’’
इस पुस्तक की समीक्षा करते हुए  MADHAVI SHARMA GULERI ने सही ही कहा है कि हालांकि रजकमल चौधरी की इस प्रसिद्ध कृति “मछली मरी हुई” का कोई विषय नहीं है, या यूँ कहें कि कोई एक विषय नहीं है, फिर भी कहीं भटकाव नहीं दिखता। कल्याणी, डॉक्टर रघुवंश, प्रिया और शीरीं के पात्रों का चित्रण अच्छा है। हो सकता है एक स्वस्थ दृष्टिकोण युक्त पाठक के लिए शायद यह उपन्यास गले के नीचे न उतरे लेकिन मछली मरी हुई उपन्यास आख़िर तक बांधे रखता है। पढ़ते हुए ऐसा नहीं लगता कि इसे 45 साल पहले सोचा, लिखा गया होगा। ताज़ग़ी बरक़रार है। भाषा में सौंदर्य है, और प्रवाह भी। कुल मिलाकर साधारण, सरल लहज़े में असाधारण बात कह देना राजकमल जी के लेखन की ख़ासियत है और यह उपन्यास एक सफल उपन्यास कहा जा सकता है।


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पुस्तक का नाम मछली मरी हुई
लेखक राजकमल चौधरी
प्रकाशक राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड
संस्करण पहला संस्करण : 1994
दूसरा संस्करण : 2009
मूल्य 125
पेज 171