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बुधवार, 13 अक्टूबर 2010

काव्य प्रयोजन आधुनिक काल

काव्य प्रयोजन

आधुनिक काल

मनोज कुमार

आदिकाल और मध्यकाल

पूरा भक्तिकाव्य यह धारना व्यक्त करता है कि

“मानुष प्रेम भय‍उ बैकुंठी”

अर्थात्‌ प्रेम ही जीवन को दिव्य बनाता है। बैर नहीं। प्रेम से ही बैकुंठ की प्राप्ति संभव है।

भक्ति-रस में डूब कर ही लोग महान बन सकते हैं। भक्तिशास्त्र में कहा गया,

“प्रेमा पुमर्थो महान”।

भक्ति काल के साहित्य में यह भाव पुरुषार्थ के रूप में प्रखर रूप से आया। सूफ़ी कवियों ने भी इसे प्रतिस्थापित किया।

निर्गुणपंथी संत कबीरदास ने अंधविश्‍वास, कुरीतियों और रूढ़िवादिता का विरोध किया। विषमताग्रस्त समाज में जागृति पैदा कर लोगों को भक्ति का नया मार्ग दिखाना इनका उद्देश्य था। जिसमें वे काफी हद तक सफल भी हुए। उन्होंने हिंदु-मुस्लिम एकता के प्रयास किए। उन्होंने राम और रहीम के एकत्व पर ज़ोर दिया। उन्होंने दोनों धर्मों की कट्टरता पर समान रूप से फटकार लगाई।

वहीं ‘पद्मावत’ के रचयिता जायसी ने सता शक्ति के अभिमान पर प्रहार किया।

‘रमचरितमानस’ में संत तुलसी दास ने कहा है

“कीरति भनितिभूति भलि सोई।

सुरसरि सम सब कह हित होई॥”

अर्थात्‌ कीर्ति-प्रीति-भनिति का एक ही उद्देश्य है - ‘लोकमंगल की भावना’।

इस प्रकार हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि भक्ति-काव्य का प्रयोजन था लोकमंगल की भावना।

रीतिकाव्य में दरबारी काव्य के मूल्यों का पोषण हुआ। कहा गया,

“सरस राग-रीति-रंग”

इसी धारणा में पूरी तरह डूब जाना उस काल के सामंतों की नियति थी। इस काल में शृंगारिकता, रसिकता और झूठी शास्त्रीयता को कवि लोग पकड़े रहे।

“राधिका कान्ह सुमिरन को बहाने”

कविता का मुख्य प्रयोजन बन गया भोग, केलि-क्रीड़ा, विलास-पूर्ण मनोरंजन। उनका तो लक्ष्य था

तजि तीरथ हरि-राधिका तन दुति कर अनुराग।

जेहि ब्रज केलि निकुंज मग पग-पग होतु प्रयाग॥

नायिका के शरीर से अनुराग करो – यही पूरे रीतिकाल का जीवन दर्शन था। इस काल में शृंगार-रस को रसराज का रूप मिला। यह एक प्रकार से कलाकाल है। इस काल के अधिकांश कवि, बिहारी, देव, मतिराम, घनानंद, आदि रसवाद के पोषक हैं। ये कवि प्रेमी नहीं, रसिक हैं।

नवजागरण काल

इतिहास में एक काल आया पुनर्जागरण का। यह काल सांस्कृतिक नवजागरण का काल है। इस समय में ईश्‍वर की धारणा व्यक्तिगत आस्था तक सीमित हो गई। हमारी इस धारणा में बदलाव नवजागरण की मानसिकता से आया। सांस्कृतिक नवजागरण की प्रक्रिया का उद्भव दो जातीय सांस्कृतियों के टकराने से हुआ। भारत में अंग्रेज़ी हुक़ूमत आ चुकी था। इसका विरोध भी हो रहा था।

सहित्य का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं था। भारतेंदु हरिश्‍चद्र ने ‘कविवचन सुधा’ में स्वदेशी वस्तुओं को व्यवहार में लाने का प्रतिज्ञा-पत्र प्रकाशित किया। यह प्रतिज्ञा-पत्र भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाने योग्य है।

नवजागरण की चेतना बंगाल में आरंभ हुई। फिर यह हिन्दी प्रदेशों में पहुंची। शनैः-शनैः यह राष्ट्रीय सांस्कृतिक रूप धारण करती गई। इस युग के लगभग सभी लेखकों ने अंग्रेज़ों के दमन चक्र का अपने-अपने लेखन में विरोध किया।

विरोध का सर्वाधिक समर्थ माध्यम था नाटक। नटकों ही नहीं सभी तरह की सृजन-ध्वनि में साम्राज्यवादी ताकतों का विरोध स्पष्ट था। इसके अलावा अपसी कलह और वैमनष्व को भी समाप्त करने की चेतना जगाने का इस काल के साहित्य का प्रयोजन था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि इस काल की सृजनात्मक ध्वनि थी सामाजिक धार्मिक सुधार चेतना।

1857 की जन क्रांति विफल हो गई तो इसका दर्द भी रचनाओं में स्पष्ट रूप से आया तथा साथ ही लोकजागरण की चेतना का विकास इस काल के काव्य का प्रयोजन हो गया।

1857 की जन क्रांति के बाद स्वाधीनता संग्राम में प्रसार हुआ। जनता में जागृति आई। सभी तबके के लोग इस आंदोलन का हिस्सा बनने लगे। अतः हम कह सकते हैं कि नवजागरण की चेतना का उद्भव और विकास अंग्रेज़ों की देन नहीं बल्कि हमारी चिंतन परंपरा की ऊर्जा का उग्र विस्फोट है। उस काल की रचनाओं में आंतरिक राष्ट्र ध्वनि कुछ इस प्रकार देखने को मिलते हैं,

“सरबस लिए जात अंग्रेज़”, … “धन विदेश चलि जात” … या “भारतवासी रोए”।

इस प्रकार हम पाते हैं कि नवजागरण काल के काव्य की अंतः ध्वनि अंग्रेज़ी साम्राज्यवादी लूटतंत्र के प्रति विरोध, विक्षोभ, विद्रोह और बग़ावत को व्यक्त करना था।

 

बुधवार, 6 अक्टूबर 2010

काव्य प्रयोजन (भाग-११) मनोविश्‍लेषणवादी चिंतन

काव्य प्रयोजन (भाग-११) मनोविश्‍लेषणवादी चिंतन

पिछली दस पोस्टों मे हमने (१) काव्य-सृजन का उद्देश्य, (लिंक) (२) संस्कृत के आचार्यों के विचार (लिंक), (३)पाश्‍चात्य विद्वानों के विचार (लिंक), (४) नवजागरणकाल और काव्य प्रयोजन (५) नव अभिजात्‍यवाद और काव्य प्रयोजन (लिंक) (६) स्‍वच्‍छंदतावाद और काव्‍य प्रयोजन (लिंक) (७) कला कला के लिए (८) कला जीवन के लिए (लिंक) (९) मूल्य सिद्धांत अय्र (१०) मार्क्सवादी चिंतन की चर्चा की थी। जहां एक ओर संस्कृत के आचार्यों ने कहा था कि लोकमंगल और आनंद, ही कविता का “सकल प्रयोजन मौलिभूत” है, वहीं दूसरी ओर पाश्‍चात्य विचारकों ने लोकमंगलवादी (शिक्षा और ज्ञान) काव्यशास्त्र का समर्थन किया। नवजागरणकाल के साहित्य का प्रयोजन था मानव की संवेदनात्मक ज्ञानात्मक चेतना का विकास और परिष्कार। जबकि नव अभिजात्‍यवादियों का यह मानना था कि साहित्य प्रयोजन में आनंद और नैतिक आदर्शों की शिक्षा को महत्‍व दिया जाना चाहिए। स्वछंदतावादी मानते थे कि कविता हमें आनंद प्रदान करती है। कलावादी का मानना था कि कलात्मक सौंदर्य, स्वाभाविक या प्राकृतिक सौंदर्य से श्रेष्ठ होता है। कला जीवन के लिए है मानने वालोका मत था कि कविता में नैतिक विचारों की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। मूल्य सिद्धांत के अनुसार काव्य का चरम मूल्य है – कलात्मक परितोष और भाव परिष्कार। मार्कसवादियों के अनुसार साहित्य जनता के लिए हो। इसका प्रयोजन तो मानव-कल्याण है। आइए अब पाश्‍चात्य विद्वानों की चर्चा को आगे बढाएं।

फ़्रायड मनोविश्‍लेषण शास्त्री थे। उन्होंने यह प्रतिपादित किया कि अवचेतन और चेतन मन में दमित काम-वासना से अनेक रोग-व्याधियां, मानसिक विक्षेप उठ खड़े होते हैं। इनका शमन उदत्तीकरण या रेचन द्वारा हो सकता है।

अरस्तू के विरेचन सिद्धांत या भाव-परिष्कार को मनोविश्‍लेषणशास्त्र के अंतर्गत उठाया गया। इस सिद्धांत के मानने वालों का कहना था कि काव्य, काम-वासना के रेचन या उदात्तीकरण का माद्ध्यम है। मनोविश्‍लेषण शास्त्रियों ने काव्य प्रयोजन को परिभाषित करते हुए कहा,

“मानव की भावनाओं का उन्नयन-परिष्करण और उदात्तीकरण करना ही काव्य का प्रयोजन है।”

अर्थात्‌ मन के भीतर उत्पन्न हुए विकृतियों से मुक्ति दिलाना और चित्त का शमन ही काव्य का उद्देश्य है। इस सिद्धांत के मानने वालों का कहना था कि सौंदर्य परक काव्य और उद्दाम शृंगार परक क्कव्य-नाटक-उपन्यास के अध्ययन से मनव के मन की काम-भावना परिष्कृत होती है। इसका शमन होता है।

एडलर भी मनोविश्‍लेषणशास्त्री थे। उनका कहना था कि साहित्य ‘ग्रंथियों’ से मुक्ति दिलाने का माध्यम है।

जीवन की जटिलता को अनुभूति की आंच में सहजता से पकाकर पाठक को परोस देना भी साहित्य का एक प्रयोजन कहा जा सकता है।

COMPENSATING FACTORS Imageपश्चिम के एक और मनोविश्‍लेषणवादी हैं कार्ल युंग। उन्होंने तो कविता और मिथक को समक्ष माना। उनका कहना था कि जैसे स्वप्न और मिथक में आदिम काल से संचित मानव के सामूहिक अवचेतन मन और आदिम-बिम्ब का प्रकाशन होता है वैसे ही कविता में भी हमारे आदिम पुरखे बोल रहे होते हैं। युंग का कहना था कि मिथक और कविता, दोनों में अप्रतिहत वेग से प्रवाहित होने वाली जीवनी शक्तिनिबद्ध होकर अपना संयमित और नियंत्रित रूप प्रस्तुत करती है। अब अगर इसका अभाव हो तो मनसिक जीवन का वह तीव्र प्रवाह तो रुक ही जाएगा। अवरुद्ध हो जाएगा। या फिर इसका तीव्र वेग मानसिक जीवन में रोग-अराजकता उत्पन्न कर देगा।

इस प्रकार मनोविश्‍लेषणवादी चिंतन में हम पाते हैं कि काव्य का कम है भावों या विचारों का रेचन या परिष्कार करना।

पश्‍चिम में काव्य प्रयोजन संबंधी अनेक विचारधाराओं का प्रतिपादन हुआ। पर अगर गौर से देखें तो हम पाते हैं कि कुल मिलाकर दो समूह थे, एक आनंदवादी और दूसरा कल्याणकारी। इन दोनों के भीतर काव्य सृजन का प्रयोजन मानव चेतना का विस्तार है। सृजन एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। यह एक सांस्कृतिक प्रक्रिया भी है। रचनाकार इस प्रक्रिया को आगे बढाता है। भावों और विचारों को सम्प्रेषित करता है। इस प्रकार जीवन की जटिलता को अनुभूति की आंच में सहजता से पकाकर पाठक को परोस देना भी साहित्य का एक प्रयोजन कहा जा सकता है।  पर कुल मिलाकर अगर देखा जए तो काव्य का प्रयोजन है भावों और विचारों का सम्प्रेषण तथा सांस्कृतिक चेतना का विस्तार और परिष्कार।

बुधवार, 29 सितंबर 2010

काव्य प्रयोजन (भाग-१०) मार्क्सवादी चिंतन

काव्य प्रयोजन (भाग-१०)

मार्क्सवादी चिंतन

पिछली नौ पोस्टों मे हमने (१) काव्य-सृजन का उद्देश्य, (लिंक) (२) संस्कृत के आचार्यों के विचार (लिंक), (३)पाश्‍चात्य विद्वानों के विचार (लिंक), (४) नवजागरणकाल और काव्य प्रयोजन (५) नव अभिजात्‍यवाद और काव्य प्रयोजन (लिंक) (६) स्‍वच्‍छंदतावाद और काव्‍य प्रयोजन (लिंक) (७) कला कला के लिए (८) कला जीवन के लिए (लिंक) और (९) मूल्य सिद्धांत की चर्चा की थी। जहां एक ओर संस्कृत के आचार्यों ने कहा था कि लोकमंगल और आनंद, ही कविता का “सकल प्रयोजन मौलिभूत” है, वहीं दूसरी ओर पाश्‍चात्य विचारकों ने लोकमंगलवादी (शिक्षा और ज्ञान) काव्यशास्त्र का समर्थन किया। नवजागरणकाल के साहित्य का प्रयोजन था मानव की संवेदनात्मक ज्ञानात्मक चेतना का विकास और परिष्कार। जबकि नव अभिजात्‍यवादियों का यह मानना था कि साहित्य प्रयोजन में आनंद और नैतिक आदर्शों की शिक्षा को महत्‍व दिया जाना चाहिए। स्वछंदतावादी मानते थे कि कविता हमें आनंद प्रदान करती है। कलावादी का मानना था कि कलात्मक सौंदर्य, स्वाभाविक या प्राकृतिक सौंदर्य से श्रेष्ठ होता है। कला जीवन के लिए है मानने वालोका मत था कि कविता में नैतिक विचारों की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। मूल्य सिद्धांत के अनुसार काव्य का चरम मूल्य है – कलात्मक परितोष और भाव परिष्कार। आइए अब पाश्‍चात्य विद्वानों की चर्चा को आगे बढाएं।

मार्क्स ने जिस मूल्य-सिद्धांत की बात की थी, मार्क्सवादी उसके आधार पर साहित्य की विचारधारा, शिल्प और मूल्य-चेतना पर विचार करते हैं। अधिकांश विद्वान जो इस विचारधारा के समर्थक हैं वे साहित्य का अध्ययन द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांतों की सहायता से करते हैं। इस सिद्धांत के अनुयाईयों का मानना है कि सामाजिक और राजनीतिक शक्तियों मे आर्थिक व्यवस्था, वर्ग-संघर्ष का विशेष हाथ होता है। वे यह मानते हैं कि साहित्य रूप या सृजन की साहित्यिक पृष्ठभूमि का अध्ययन, दोनों को आर्थिक-सामाजिक प्रवृत्तियों के आधार पर ही समझा ज सकता है।

मार्क्सवाद साहित्य को भी समाज के परिवर्तन के एक टूल के रूप में मानता है। उनका मानना है कि लोगों में जागरण साहित्य के द्वारा पैदा किया जा सकता है। वे पूंजीवादी और सामंतवादी साहित्य का विरोध करते हैं। मार्क्सवाद ने ‘कला कला के लिए सिद्धांत’ में जो व्यक्तिवाद-भाववाद की चर्चा की गई है, उसका विरोध किया। साहित्य का उद्देश्य परिभाषित करते हुए मार्क्सवादियों का कहना है कि साहित्य का उद्देश्य मनुष्य को प्रबुद्ध सामाजिकता की दृष्टि से सम्पन्न करना होना चाहिए। साथ ही यह अनीति और अनैतिकता के ख़िलाफ़ जागरूकता पैदा करे।

मनुष्य अर्थिक जीवन के अलावा एक प्राणी के रूप में भी जीवन जीता है। साहित्य उसके पूरे जीवन से जुड़ा है। साहित्य के द्वारा मनुष्य की ऐसी भावनाएं प्रतिफलित होती हैं जो उसे प्राणिमात्र से जोड़ती हैं। इसलिए साहित्य विचारधारा मात्र नहीं है। मनुष्य का इंद्रिय-बोध, भावनाएं और आंतरिक प्रेरणाएं भी साहित्य से व्यंजित होती हैं। और साहित्य का यह पक्ष स्थायी होता है।

मार्क्सवाद विचारधारा के समर्थक यह कहते हैं कि साहित्य का उद्देश्य कृति की मूल्य-व्यवस्था पर ध्यान देना है। क्योंकि संघर्षपरक, समाज-सापेक्ष, लोकमंगलकारी मूल्य मानव-समाज को आगे बढाते हैं। इस सिद्धांत के मानने वालों के अनुसार आनंदवादी, रीतिवादी मूल्य मानव को विकृत करते हैं। साहित्य का वास्तविक प्रयोजन तो जीवन-यथार्थ का वास्तविक उद्घाटन है।

काडवेल से लेकर जार्ज लूकाच तक सभी मार्क्सवादी चिंतक काव्य का प्रयोजन मानव-कल्याण की भावना की अभिव्यक्ति मानते रहे हैं। किसी भी रचना के मूल्य और मूल्यांकन में ही उसका प्रयोजन निहित रहता है।

इस प्रकार  हम देखते हैं कि मार्क्सवाद चिंतन में कलावादी मूल्यों से अधिक मानववादी, मनवतावादी, नैतिक उपयोगितावादी या यूं कहें कि सामाजिक मूल्यों का अधिक महत्व दिया गया है। उनके अनुसार साहित्य जनता के लिए हो। इसका प्रयोजन तो मानव-कल्याण है।

बुधवार, 22 सितंबर 2010

काव्य प्रयोजन (भाग-९) मूल्य सिद्धांत

काव्य प्रयोजन (भाग-९)

मूल्य सिद्धांत

पिछली आठ पोस्टों मे हमने (१) काव्य-सृजन का उद्देश्य, (लिंक) (२) संस्कृत के आचार्यों के विचार (लिंक), (३)पाश्‍चात्य विद्वानों के विचार (लिंक), (४) नवजागरणकाल और काव्य प्रयोजन (५) नव अभिजात्‍यवाद और काव्य प्रयोजन (लिंक) (६) स्‍वच्‍छंदतावाद और काव्‍य प्रयोजन (लिंक) (७) कला कला के लिए और (८) कला जीवन के लिए (लिंक) की चर्चा की थी। जहां एक ओर संस्कृत के आचार्यों ने कहा था कि लोकमंगल और आनंद, ही कविता का “सकल प्रयोजन मौलिभूत” है, वहीं दूसरी ओर पाश्‍चात्य विचारकों ने लोकमंगलवादी (शिक्षा और ज्ञान) काव्यशास्त्र का समर्थन किया। नवजागरणकाल के साहित्य का प्रयोजन था मानव की संवेदनात्मक ज्ञानात्मक चेतना का विकास और परिष्कार। जबकि नव अभिजात्‍यवादियों का यह मानना था कि साहित्य प्रयोजन में आनंद और नैतिक आदर्शों की शिक्षा को महत्‍व दिया जाना चाहिए। स्वछंदतावादी मानते थे कि कविता हमें आनंद प्रदान करती है। कलावादी का मानना था कि कलात्मक सौंदर्य, स्वाभाविक या प्राकृतिक सौंदर्य से श्रेष्ठ होता है। कला जीवन के लिए है मानने वालोका मत था कि कविता में नैतिक विचारों की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। आइए अब पाश्‍चात्य विद्वानों की चर्चा को आगे बढाएं।

आई.ए. रिचर्ड्स ने कविता की उपयोगिता की व्याख्या वैज्ञानिक-पद्धति से की। उन्होंने मानवीय मूल्यों से इसे जोड़ा। उनका कहना था,
कविता का लक्ष्य विरुद्धों में सामंजस्य स्थापित करना है।”

कलावादियों के आनंद का विस्तार हो या सौंदर्यवादियों के सौंदर्य की सृष्टि, दोनों ही जीवनानुभूति से अलग नहीं है। कलानुभव भी तो जीवनानुभव ही है। कोई जीवन से अलग तो नहीं। इस आधार पर रिचर्ड्स का कला का प्रयोजन मानवीय मनोयोगों में सामरस्य और संतुलन स्थापित करना है।


रिचर्ड्स काव्य का प्रयोजन “आवेगों की शांति” मानते थे। मतलब आवेगों की संतुष्टि। इस तरह उन्होंने कलावादी दृष्टि का खंडन किया। उनके अनुसार आनंद नाम की कोई वस्तु है ही नहीं। रिचर्ड्स ने मूल्य सिद्धांत की स्थापना की। उनका कहना था काव्य का चरम मूल्य है – कलात्मक परितोष और भाव परिष्कार। कला तो जीवन का ‘पुनः-सृजन’ करती है।


टी.एस. एलियट ने मैथ्यू आर्नल्ड की नैतिकतावाद की आलोचना की। खुद को क्लासिसिष्ट कहते हुए उन्होंने स्वच्छंदतावाद का भी विरोध किया। दरअसल एलियट की दृष्टि रोमांटिक थी। वे मानते थे कि काव्य का प्रयोजन लोक-अभिरुचि को सुधारना है, उसे परिष्कृत करना है। उनका यह भी मानना था कि हर शब्द की अपनी सर्जनात्मकता होती है। साथ ही इसकी आलोचनात्मक मनोवृत्ति भी होती है।


एलियट के अनुसार जहां एक ओर काव्य का उद्देश्य कलाकृतियों का विशदन और रुचि परिष्कार है, वहीं दूसरी ओर इसका उद्देश्य साहित्य का बोध और आस्वाद भी है।

आई.ए. रिचर्ड्स (1893-1979) The Meaning of Meaning (with C. K. Ogden), Science and Poetry (1926), Practical Criticism (1929),

टॉमस स्टर्न्स एलियट (1888-1965) Prufrock (1917), Four Quartets (1943), The Waste Land (1922), In Ash Wednesday(1930), Murder in the Cathedral (1935), The Family Reunion (1939), Eliot of Notes towards the Definition of Culture(1948) The Cocktail Party(1949), The Confidential Clerk (1954), and TheElderStatesman(1959)

बुधवार, 15 सितंबर 2010

काव्य प्रयोजन (भाग-८) कला कला के लिए

काव्य प्रयोजन (भाग-८)

कला जीवन के लिए

पिछली सात पोस्टों मे हमने (१) काव्य-सृजन का उद्देश्य, (लिंक) (२) संस्कृत के आचार्यों के विचार (लिंक), (३) पाश्‍चात्य विद्वानों के विचार (लिंक), (४) नवजागरणकाल और काव्य प्रयोजन (५) नव अभिजात्‍यवाद और काव्य प्रयोजन (लिंक) (६) स्‍वच्‍छंदतावाद और काव्‍य प्रयोजन (लिंक) और (७) कला कला के लिए की चर्चा की थी। जहां एक ओर संस्कृत के आचार्यों ने कहा था कि लोकमंगल और आनंद, ही कविता का “सकल प्रयोजन मौलिभूत” है, वहीं दूसरी ओर पाश्‍चात्य विचारकों ने लोकमंगलवादी (शिक्षा और ज्ञान) काव्यशास्त्र का समर्थन किया। नवजागरणकाल के साहित्य का प्रयोजन था मानव की संवेदनात्मक ज्ञानात्मक चेतना का विकास और परिष्कार। जबकि नव अभिजात्‍यवादियों का यह मानना था कि साहित्य प्रयोजन में आनंद और नैतिक आदर्शों की शिक्षा को महत्‍व दिया जाना चाहिए। स्वछंदतावादी मानते थे कि कविता हमें आनंद प्रदान करती है। कलावादी का मानना था कि कलात्मक सौंदर्य, स्वाभाविक या प्राकृतिक सौंदर्य से श्रेष्ठ होता है। आइए अब पाश्‍चात्य विद्वानों की चर्चा को आगे बढाएं।

कलावादियों का मानना था कि “कला कला के लिए” है। इस सिद्धांत का कुछ विद्वानों ने खंडन किया। इनका कहना था कि कलावाद कुछ नहीं बल्कि पलायनवाद है। ऐसे विचारकों का मानना था कि जिस सिद्धांत का एकमात्र प्रयोजन आनंद की सृष्टि हो वह घटिया भोगवाद का समर्थक सिद्धांत ही माना जाना चाहिए। साथ ही यह भी कहा गया कि यह तो बिल्कुल ही व्यक्तिवाद है या सौंदर्यवाद है। मार्क्सवादियों ने तो कलावाद को “विकृत रूपवाद” तक कह दिया।

अरस्तू से लेकर सर फिलिप सिडनी तक के विचारों में “कला जीवन के लिए” सिद्धान्त की झलक मिलती है। किन्तु मैथ्यू आर्नल्ड (1822-1888) का इस क्षेत्र में विशेष योगदान है। जब रोमान्टिक युग समाप्त हो रहा था उस समय मैथ्यू आर्नल्ड का उदय हुआ। इनका समय विक्टोरियन युग के समकक्ष है। इस समय एक तरफ़ डार्विन अपने सिद्धांत प्रतिपादित कर रहे थे, तो दूसरी तरफ़ मार्क्स के विचार भी लोगों के सामने आ रहे थे। इंगलैंड में बड़ी तेज़ी से औद्योगिक विकास के साथ-साथ नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा था। इसके साथ ही विज्ञानवाद का भी तेज़ी से प्रसार हो रहा था और उसके प्रभाव से सांस्कृतिक मूल्यों में पतन साफ़ दिख रहा था।

इस पृष्ठभूमि में आर्नल्ड ने धर्म की जगह संस्कृति को प्राथमिकता दी। उनकी चिंता सही भी थी। अपनी बात स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा,

“कविता का प्रयोजन जीवन की आलोचना (criticism of life) है।”

जीवन की आलोचना को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा,

कविता में नैतिक विचारों की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। ऐसी कविता जिसमें नैतिक विचारों की उपेक्षा होती है, न सिर्फ़ जीवन-द्रोही है, बल्कि समाज द्रोही भी है।

“जीवन-सौंदर्य के गहन से गहनतर सत्य या यथार्थ का साक्षात्कार ही जीवन की आलोचना है, अर्थात्‌ भीतरी-बाहरी जीवन का समग्रता में अंकन।”

मैथ्यू आर्नल्ड का कहना था कि यह अंकन “काव्य-सत्य” और “काव्य-सौंदर्य” के नियमों के अधीन होना चाहिए। “काव्य-सत्य” से आर्नल्ड का तात्पर्य ‘विषय-वस्तु की मूल्यवत्ता’ से था। वहीं “काव्य-सौंदर्य” का मतलब उनके अनुसार था ‘अभिव्यंजनागत सौंदर्य’।

मैथ्यू आर्नल्ड का कहना था कि जीवन में नैतिक विचारों का महत्व सर्वोपरि है। कविता में नैतिक विचारों की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। ऐसी कविता जिसमें नैतिक विचारों की उपेक्षा होती है, न सिर्फ़ जीवन-द्रोही है, बल्कि समाज द्रोही भी है।

मैथ्यू आर्नल्ड के विचार पूरी तरह से बौद्धिकता और विवेक पर आधारित है। उस समय की ज़रूरत के अनुसार उनकी विचार-दृष्टि उपदेशक की भांति लोगों के सामने आई। वो एक समाज-सुधारक की भूमिका निभाते प्रतीत होते हैं।

हिंदी साहित्य में भी इस तरह के विचारोंवाले कवि-साहित्यकार हुए। बालकृष्ण भट्ट, रामचन्द्र शुक्ल, मैथिली शरण गुप्त, आदि का साहित्य इसी दृष्टीकोण का समर्थन करता है। गुप्तजी ने कहा था,

केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए।

उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए॥

 

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

काव्य प्रयोजन (भाग-७) कला कला के लिए

काव्य प्रयोजन (भाग-७)

 

कला कला के लिए

पिछली छह पोस्टों मे हमने (१) काव्य-सृजन का उद्देश्य, (लिंक) (२) संस्कृत के आचार्यों के विचार (लिंक), (३) पाश्‍चात्य विद्वानों के विचार (लिंक), (४) नवजागरणकाल और काव्य प्रयोजन (५) नव अभिजात्‍यवाद और काव्य प्रयोजन (लिंक) और (६) स्‍वच्‍छंदतावाद और काव्‍य प्रयोजन (लिंक) की चर्चा की थी। जहां एक ओर संस्कृत के आचार्यों ने कहा था कि लोकमंगल और आनंद, ही कविता का “सकल प्रयोजन मौलिभूत” है, वहीं दूसरी ओर पाश्‍चात्य विचारकों ने लोकमंगलवादी (शिक्षा और ज्ञान) काव्यशास्त्र का समर्थन किया।। नवजागरणकाल के साहित्य का प्रयोजन था मानव की संवेदनात्मक ज्ञानात्मक चेतना का विकास और परिष्कार। जबकि नव अभिजात्‍यवादियों का यह मानना था कि साहित्य प्रयोजन में आनंद और नैतिक आदर्शों की शिक्षा को महत्‍व दिया जाना चाहिए। स्वछंदतावादी मानते थे कि कविता हमें आनंद प्रदान करती है। आइए अब पाश्‍चात्य विद्वानों की चर्चा को आगे बढाएं।

उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक में “कला कला के लिए” सिद्धांन्त सामने आया। कुछ हद तक स्वच्छंदतावाद की प्रवृत्ति ही कलावाद का रूप धारण कर सामने आई। इस सिद्धांत को फ्रांस के विक्टर कूजे ने प्रतिपादित किया था। बाद में आस्कर वाइल्ड, ए.सी. ब्रैडले, ए.सी. स्विनबर्न, एडगर ऐलन पो, वाल्टर पेटर आदि कलाकारों ने भी इस सिद्धांत का समर्थन किया।

इस सिद्धांतकारों का मानना था कि काव्यकला की दुनिया स्वायत्त है, ऑटोनोमस है, अर्थात्‌ जो किसी दूसरे के शासन या नियंत्रण में नहीं हो, बल्कि जिस पर अपना ही अधिकार हो। उनका यह भी मानना था कि कला का उद्देश्य धार्मिक या नैतिक नहीं है, बल्कि ख़ुद की पूर्णता की तलाश है। अपने इन विचारों को रखते हुए कलावादियों ने कहा कि कला या काव्यकला को किसी उपयोगितावाद, नैतिकतावाद, सौन्दर्यवाद आदि की कसौटी पर कसना उचित नहीं है।

कलावादियों के अनुसार कला को अगर किसी कसौटी पर परखना ही है तो उसकी कसौटी होनी चाहिए सौंदर्य-चेतना की तृप्ति। उनके अनुसार कला सौंदर्यानुभूति का वाहक है और उसका अपना लक्ष्य आप ही है।

कलावाद एक आंदोलन था। उन्नीसवीं शताब्दी में काव्य और कला की हालत दयनीय थी। इसी हालात की प्रतिक्रिया की उपज था यह आन्दोलन। इस आंदोलन के वाहकों का कहना था कि काव्य और कला की अपनी एक अलग सता है। इसका प्रयोजन आनंद की सृष्टि है।

“POETRY FOR POETRY SAKE!”

अर्थात्‌ अनुभव की स्वतंत्र सत्ता।

“This experience is an end in itself, is worth having on its own account, has an intrisic value.”

अर्थात्‌ काव्य से प्राप्त आनंद की अपनी स्वतंत्र सत्ता है।

इस प्रकार स्वच्छंदतावाद, सौंदर्यवाद और कलावाद तीन अलग-अलग वैचारिक दृष्टिकोण थे। कलावादी का मानना था कि कलात्मक सौंदर्य, स्वाभाविक या प्राकृतिक सौंदर्य से श्रेष्ठ होता है। वाद्लेयर, रेम्बू, मलामें में यह झलक मिलती है।

बिम्बवाद तथा प्रतीकवाद कलावाद के ही विस्तार थे। बाद में बाल्ज़ाक और गाटियार आदि ने रूप-विधान पर बल दिया। धीरे-धीरे “कला कला के लिए” सिद्धांत का विकास हुआ और रूपवाद के अलावा संरचनावाद, नयी समीक्षा, नव-संरचनावाद या उत्तर-संरचनावाद, विनिर्मितिवाद आया।

शनिवार, 4 सितंबर 2010

काव्य प्रयोजन (भाग-6) स्‍वच्‍छंदतावाद और काव्‍य प्रयोजन

काव्य प्रयोजन (भाग-6)

स्‍वच्‍छंदतावाद और काव्‍य प्रयोजन

पिछली पांच पोस्टों मे हमने (१) काव्य-सृजन का उद्देश्य, (लिंक) (२) संस्कृत के आचार्यों के विचार (लिंक), (३) पाश्‍चात्य विद्वानों के विचार (लिंक), (४) नवजागरणकाल और काव्य प्रयोजन (लिंक) और नव अभिजात्‍यवाद और काव्य प्रयोजन (लिंक) की चर्चा की थी। जहां एक ओर संस्कृत के आचार्यों ने कहा था कि लोकमंगल और आनंद, ही कविता का “सकल प्रयोजन मौलिभूत” है, वहीं दूसरी ओर पाश्‍चात्य विचारकों ने लोकमंगलवादी (शिक्षा और ज्ञान) काव्यशास्त्र का समर्थन किया।। नवजागरणकाल के साहित्य का प्रयोजन था मानव की संवेदनात्मक ज्ञानात्मक चेतना का विकास और परिष्कार। जबकि नव अभिजात्‍यवादियों का यह मानना था कि साहित्य प्रयोजन में आनंद और नैतिक आदर्शों की शिक्षा को महत्‍व दिया जाना चाहिए। आइए अब पाश्‍चात्य विद्वानों की चर्चा को आगे बढाएं। 

सोलहवीं सत्रहवीं शताब्‍दी में विकसित नव अभिजात्‍यवाद की विचारधारा के साथ-साथ नव-मानववाद का भी विकास हुआ। इस विचारधार में मानव को विश्‍व के केंद्र में माना गया। इसके अलावा आत्‍मवाद की भी अवधारण सामने आई। रचनाकार आत्‍माभिव्‍यक्ति के लिए अभिप्रेरित हुए।

इसी बीच एक महत्‍वपूर्ण घटना हुई थी ........ औद्योगिक क्रांति। इससे सामंतवादी ढांचे का पतन हुआ था और सामाजिक व्‍यवस्‍था में परिवर्तन आया। इस तरह से प्रसिद्ध फ्रांसीसी क्रांति की नींव तैयार हो चुकी थी। फ्रांसीसी क्रांति का मुख्‍य स्‍वर था समानता, स्‍वतंत्रता और बंधुत्‍व। यही तीन स्‍वर उस समय के साहित्‍य सृजन के प्रयोजन बनकर उभरे।

इस प्रकार काव्‍य प्रयोजन ने एक नया आयाम ग्रहण किया। नव अभिजात्‍यवादी तो नियम और संयम में रूढि़बद्ध थे। पर इस काल में इसका भी विरोध हुआ और स्‍वच्‍छंदतावाद का उदय हुआ। विलियम ब्‍लेक (1757-1827) सैम्‍युअल कॉ‍लरिज (1772-1834) विलियम वर्डसवर्थ (177-1850 ), शैले, कीट्स, बायरन आदि कवि ने इस विद्रोही स्‍वर को आवाज दी। इनके अनुसर काव्‍य सृजन का प्रयोजन था,

“आत्‍म साक्षात्‍कार, आत्‍म सृजन और आत्‍माभिव्‍यक्ति।”

इस तरह स्‍वच्‍छंदतावादियों ने अपने काव्‍य सृजन का प्रमुख उद्देश्‍य मानव की मुक्ति की कामना को माना। जहां इनके पूर्ववर्ती नव अभिजात्‍चादी नियम, संयम संतुलन, तर्क को तरजीह दे रहे थे, वहीं दूसरी ओर स्‍वच्‍छंदतावादी प्रकृति, स्‍वच्‍छंदता, मुक्‍त-अभिव्‍यक्ति, कल्‍पना और भावावेग को अपने सृजन में प्रधानता दे रहे थे।

जीवन में आनंद इनके सृजन का उद्देश्‍य था। आनंद के साथ साथ रहस्‍य, अद्भुत और वैचित्र्य में उनकी रूचि थी। स्‍वच्‍छंदतावादी मानते थे कि सृजन में सुंदर के साथ अद्भुत का संयोग होना चाहिए। यही उनके काव्‍य का प्राण तत्‍व था।

कॉलरिज और वर्डसवर्थ ने काव्‍य में कल्‍पना शक्ति पर बल दिया। वर्डसवर्थ ने ‘लिरिकल बैलेड्स’ में कहा,

“कविता हमें आनंद प्रदान करती है।”

इस प्रकार हम पाते हैं कि पश्चिम का स्‍वच्‍छंदतावाद भारतीय काव्‍यशास्‍त्र के रस-सिद्धांत के बहुत करीब है। हिंदी के आधुनिक आलोचकों में से एक  डॉ. नगेन्‍द्र ने भी माना है कि स्‍वच्‍छंदतावाद का आनंदवाद से घनिष्‍ठ संबंध है।

इस काल के प्रमुख रचनाकारों, शैले, वर्डसवर्थ, कॉलरिज, कीट्स, बायरन की रचनाओं में आनंद का स्‍वर प्रमुखता से दिखाई पड़ता है।

स्वछंदतावादी काव्य समीक्षक डा. नगेंद्र ने ‘रस सिद्धांत’ में कहा भी है कि शैले का मानवता की मुक्ति में अटूट विश्‍वास, वर्डसवर्थ का सर्वात्‍मवाद, कॉलरिज का आत्‍मवाद, कीट्स का सौंदर्य के प्रति उल्‍लासपूर्ण आस्‍था और बायरन का जीवन के प्रति अबाध उत्‍साह, आनंदवाद के ही रूप हैं।

शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

काव्य प्रयोजन (भाग-5) नव अभिजात्‍यवाद

काव्य प्रयोजन (भाग-5)

नव अभिजात्‍यवाद और काव्य प्रयोजन

पिछली चार पोस्टों मे हमने (१) काव्य-सृजन का उद्देश्य, (लिंक) (२) संस्कृत के आचार्यों के विचार (लिंक), (३) पाश्‍चात्य विद्वानों के विचार (लिंक) और (४) नवजागरणकाल और काव्य प्रयोजन (लिंक) की चर्चा की थी। जहां एक ओर संस्कृत के आचार्यों ने कहा था कि लोकमंगल और आनंद, ही कविता का “सकल प्रयोजन मौलिभूत” है, वहीं दूसरी ओर पाश्‍चात्य विचारकों ने लोकमंगलवादी (शिक्षा और ज्ञान) काव्यशास्त्र का समर्थन किया।। नवजागरणकाल के साहित्य का प्रयोजन था मानव की संवेदनात्मक ज्ञानात्मक चेतना का विकास और परिष्कार। आइए अब पाश्‍चात्य विद्वानों की चर्चा को आगे बढाएं।

हमने नवजागरण युग की चर्चा करते हुए पाया कि एक नई चेतना का उदय हुआ। इटली में शुरू हुए इस विचार का धीरे-धीरे फ्रांस, जर्मनी और इंग्‍लैंड तक विस्‍तार हुआ। पुनरूद्धार और प्रत्‍यावर्तन के इस यूरोपीय रेनेसां, व्‍यक्ति को मध्‍ययुगीन बंधनों से मुक्‍त करने का यह आंदोलन, व्‍यक्ति स्‍वतंत्रता की भावना को आगे बढ़ाने का प्रबल केंद्र बना। पर बीतते समय के साथ व्‍यक्ति स्‍वातंत्र्य की भावना अतिवाद में बदल गई। इससे अराजकता फैलने लगी। इसके कारण लोगों का झुकाव अभिजात्‍यवाद की ओर होने लगा। नवअभिजात्‍यवाद के उदय ने साहित्‍य जगत को भी प्रभावित किया।

फ्रांस में अरस्‍तु के सिद्धांत की नई व्‍याख्‍याएं हुई। कार्लीन, रासीन, बुअलो आदि ने नए नियम बनाए। उनका मानना था कि श्रेष्‍ठ कृतियां वही कही जा सकती हैं जिनमें कथा तथा संरचना की गरिमा हो। वे भव्‍यता के साथ साथ संतुलन को भी सृजन का प्रमुख गुण मानते थे।

अठारहवीं शताब्‍दी तक यह नियोक्‍लासिज़्म इंग्‍लैंड भी पहुंच गया। यहां पर नव अभिजात्‍य विचारधारा के प्रमुख प्रवक्‍ता थे डॉ. सैम्‍युअल जॉनसन, जॉन ड्राइडन, अलेक्‍जेंडर पोप, जोसेफ एडिसन। नव अभिजात्‍यवादियों का यह मानना था कि साहित्य प्रयोजन में आनंद और नैतिक आदर्शों की शिक्षा को महत्‍व दिया जाना चाहिए।

बुधवार, 1 सितंबर 2010

काव्य प्रयोजन (भाग-4) नवजागरणकाल की दृष्टि

काव्य प्रयोजन (4)


नवजागरणकाल और काव्य प्रयोजन

पिछली तीन पोस्टों मे हमने (१) काव्य-सृजन का उद्देश्य, (लिंक)(२) संस्कृत के आचार्यों के विचार (लिंक) और (३) पाश्‍चात्य विद्वानों के विचार (लिंक) की चर्चा की थी। जहां एक ओर संस्कृत के आचार्यों ने कहा था कि लोकमंगल और आनंद, ही कविता का “सकल प्रयोजन मौलिभूत” है, वहीं दूसरी ओर पाश्‍चात्य विचारकों ने लोकमंगलवादी (शिक्षा और ज्ञान) काव्यशास्त्र का समर्थन किया।। आइए अब पाश्‍चात्य विद्वानों की चर्चा को आगे बढाएं।

प्लॉटिनस ने दर्शन के आधार पर विवेचना करते हुए कहा कि कविता उस परम चैतन्य तक पहुंचने का सोपान है। उनके अनुसार कविता के प्रयोजन आनंद और परम चेतना के सौंदर्य का साक्षात्कार है।

तीसरी शताब्दी के उत्तरार्द्ध से चौदहवीं शताब्दी के पुर्वार्द्ध तक अंधकार युग माना जाता है। इसके बाद नवजागरणकाल की शुरुआत हुई। यह विश्‍व इतिहास की एक युगान्तरकारी घटना थी। इस काल में साहित्य और कला में एक नई चेतना का प्रादुर्भाव हुआ। बल्कि प्रबल विस्फोट कहना ज़्यादा उचित होगा। धर्मांधता और रूढिवादिता पर प्रहार हुआ और हर चीज़ों की विवेचना और विश्लेषण वैज्ञानिक दृष्टिकोण से किय जाने लगा। नए-नए आविष्कार हुए। धर्म-दर्शन को नए ढ़ंग से परिभाषित किया गया। हर दिशा में क्रांतिकारी परिवर्तन परिलक्षित हुए। नई चेतना का प्रचार व प्रसार हुआ। इसे रेनेसां (Renaissance) या पुनर्जागरण भी कहा जाता है।

नवजागरणकाल में प्राचीन यूनानी-रोमन ज्ञान का पुनरुद्धार हुआ। विज्ञान और तर्क की कसौटी पर वर्तमान की तलाश-परख की गई और रूढ और जर्जर मूल्यों-परम्पराओं का बहिष्कार हुआ। परलोकवाद की जगह इहलौकिक चिंतन को महत्व दिया जाने ल्लगा। धर्मनिरपेक्ष चिंतन का मार्ग प्रशस्त हुआ। एक नई ऊर्जा का संचार हुआ। स्पेंसर, मार्लो और शेक्सपियर सरीखे रचनाकारों का सृजन इसी ऊर्जा से ओत-प्रोत है।

इस काल के साहित्य का प्रयोजन था मानव की संवेदनात्मक ज्ञानात्मक चेतना का विकास और परिष्कार।

मंगलवार, 31 अगस्त 2010

काव्य प्रयोजन (भाग-3) पाश्‍चात्य विद्वानों के विचार

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काव्य प्रयोजन (भाग-3)

पाश्‍चात्य विद्वानों के विचार

पिछले दो पोस्टों मे हमने काव्य-सृजन का उद्देश्य और संस्कृत के आचार्यों के विचार की चर्चा की थी। संस्कृत के आचार्यों ने कहा था कि लोकमंगल और आनंद, यही कविता का “सकल प्रयोजन मौलिभूत” है। आइए अब इसी विषय पर पाश्‍चात्य विद्वानों ने क्या कहा उसकी चर्चा करें।

पश्‍चिम के विद्वानों ने भी समय-समय पर काव्य प्रयोजन पर विचार किया। उन्होंने मनोविज्ञान और मनोविश्लेषण शास्त्र की सहायता से कवि के मन की सृजन प्रक्रिया को समझने का प्रयास किया। इस आधार पर जो दृष्टिकोण सामने आए वो दो प्रकार के थे। एक के अनुसार कला कला के लिए है, तो दूसरे के अनुसार कला जीवन के लिए है।

यूनानी दार्शनिक प्लेटो का काल ई.पू. 427-347 का है। यह समय एथेन्स के पतन का था। इस समय आध्यात्मिक और नैतिक ह्रास में काफ़ी बढोत्तरी हुई। अतः उनकी चिन्ता थी कि कैसे आदर्श राज्य की स्थापना हो और चरित्र निर्माण द्वारा नैतिक मूल्यों की रक्षा कैसे हो? उन्होंने भी लोकमंगल, अर्थात्‌ सत्य और शिव, के आधार पर काव्य के प्रयोजन को देखा। प्लेटो का मानना था कि काव्य का उद्देश्य मानव-प्रकृति में जो महान और शुभ है, नैतिक और न्यायपरायण है, उसका उसका उद्घाटन होना चाहिए। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि प्लेटो ने कला के आनंद सिद्धांत से आगे बढकर लोकमंगल सिद्धांत को महत्वपूर्ण बतया।

अरस्तु (384 ईपू – 322 ईपू) पश्चिमी दर्शनशास्त्र के सबसे महान दार्शनिकों में एक थे। वे भी यूनानी दार्शनिक थे। वे प्लेटो  के शिष्य थे। उन्होंने भी प्लेटो के विचार को स्वीकारा और अपने “काव्यशास्त्र” में काव्य के प्रयोजन  लोकमंगल, अर्थात्‌ सत्य और शिव का प्रतिपादन किया। उनके अनुसार काव्य का प्रयोजन शिक्षा या ज्ञानार्जन और आनंद है। उनका कहना था कि ज्ञान के अर्जन से अत्यंत प्रबल आनंद प्राप्त होता है। अरस्तु के अनुसार इस काव्यानंद का स्वरूप आध्यात्मिक न होकर भौतिक आनंद है। क्योंकि यह आनंद किसी देखी हुई वस्तु को पहचानने का आनंद है। यह वस्तु को देखने के आनंद से अलग है। यह अनुकरणजन्य आनंद है। प्रसिद्ध अंग्रेज़ आलोचक ने इसे “कल्पना का आनंद” कहा। अरस्तु का कहना था कि काव्य में कलात्मक प्रभाव नैतिक भावना का पोषक हो। उनका यह मानना था कि व्यापक अर्थ में काव्य का प्रयोजन है विरेचन अर्थात्‌ भाव-परिष्कार, भाव-उन्नयन। अरस्तु का यह विरेचन सिद्धांत आज भी मान्य है।

पाश्‍चात्य विद्वानों मे जिन्होंने काव्य प्रयोजन पर चर्चा की एक और महत्वपूर्ण नाम है लांजाइनस का। इन्होंने अपने ग्रंथ ‘परिइप्सुस’ में कहा है कि काव्य वाणी का ऐसा वैशिष्ट्य है, चरमोत्कर्ष है, जिससे महान कवियों को जीवन में प्रतिष्ठा और यश मिलता है। कारण यह है कि उसका सृजन, पाठक को मात्र जागृत करने के लिए नहीं होता, बल्कि उसके मन में अह्लाद उत्पन्न करने में सक्षम होता है। उनका मानना था कि महान सृजन महान आत्मा की प्रतिध्वनि है। लांजाइनस ने काव्य में उदात्त-तत्व की बात की थी। उदात्त की शक्ति से पाठक कृति-प्रभाव को ‘आत्मातिक्रमण’ के रूप में ग्रहण करता है। इसमें भी भाव-परिष्कार, भाव-उन्नयन या विरेचन सिद्धांत शामिल है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि पाश्‍चात्य विचारकों ने लोकमंगलवादी (शिक्षा और ज्ञान) काव्यशास्त्र का समर्थन किया। महान काव्य वही है जो सभी को सब कालों मे आनंद प्रदान करे और समय जिसे पुराना न कर सके। इस प्रकार ‘आनंद’ या ‘आत्मातिक्रमण’ ही साहित्य का मुख्य प्रयोजन है। 

सोमवार, 30 अगस्त 2010

काव्य प्रयोजन (भाग-2) संस्कृत के आचार्यों के विचार

image काव्य प्रयोजन (भाग-2)

संस्कृत के आचार्यों के विचार

पिछले पोस्ट काव्य-सृजन का उद्देश्य में हमने यह चर्चा की थी कि सृजन कर्म आनंद का सृजन करे, ऐसा आनंद जो लोकमंगलकारी हो। आनंद और लोकमंगल के अंदर ही बाक़ी सभी प्रयोजन शामिल हैं। आइए अब इसी विषय पर संस्कृत के आचार्यों ने क्या कहा उसकी चर्चा करें।

संस्कृत के रचनाकार अपने सृजन में मंगलाचरण लिखते थे। अपने सृजन के उद्देश्य को वे उसमें ही  स्पष्ट कर देते थे। प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन से पता चलता है कि आचार्यों ने जीवन के सभी पक्षों को काव्य सृजन का उद्देश्य माना है। उन्होंने जीवन में अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष, जिसे पुरुषार्थ चतुष्टय भी कहा जाता है, के सिद्धि की कामना की है। आज के सृजन में मोक्ष, निर्वाण, समाधि, आदि भले ही उतना स्थान न पाता हो,  किन्तु संस्कृत के आचार्यों ने अपने देश काल के संदर्भ को ध्यान में रखते हुए यह कहा कि काव्य अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष का साधन है। आद्याचार्य भरतमुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’ में कहा है,
धर्म्यशस्यमायुष्यं  हितं    बुद्धिविवर्धनम्‌।
लोकोपदेशजननं नाट्यमेतद्‌ भविष्यति॥

इस मत के अलावे काव्य में विलक्षणता, प्रीति एवं कीर्ति को भी स्थान मिलना चाहिए ऐसा भामह का ‘काव्यालंकार’ में कहना है।
धर्मार्थ      काममोक्षेषु        वैचक्षण्यं    कलासु    च।
करोति कीर्ति प्रीतिं च साधु काव्यनिबन्धनम्‌॥

रुद्रट ने पुरुषार्थ चतुष्टय के साथ साथ काव्य में ‘आह्लाद’ को प्रधानता दी। कुन्तक ने भी ‘वक्रोक्ति जीवितम’ में कहा “काव्यबन्धोsभिजातानां हृदयाह्लादकारकः”

वामन तथा भोज के मतानुसार ‘यश’ और ‘आनंद’ ही काव्य का प्रयोजन होना चाहिए। आचार्य विश्‍वनाथ ने भी पुरुषार्थ चतुष्टय को ही काव्य का प्रयोजन माना है।

आचार्य मम्मट ने भरत से लेकर कुन्तक तक सभी के विचारों को शामिल करते हुए ‘काव्यप्रकाश’ में कहा,
काव्यं यशसे अर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये।
सद्यः     परनिर्वृतये     कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे॥

मम्मट की इस सूचि में सबसे पहले आता है ‘यश’। उनका मानना था कि कविता का प्रयोजन कवि को यश दिलाना है। कालीदास से लेकर आज के कवियों तक देखें, तो हम पाते हैं कि सब “यशः प्रार्थी” होने की अभिलाषा रखते हैं।

दूसरा प्रयोजन मम्मट ने ‘धन की प्राप्ति’ माना है। उस ज़माने के कवियों के आश्रयदाता, राजाओं के रूप में भी, हुआ करते थे। वे इनसे धन पाते थे। कई किस्से हमने सुन रखे है, अशर्फ़ी आदि देने-पाने के।

तीसरा प्रयोजन, मम्मट के अनुसार ‘व्यवहार ज्ञान’ है। जीवन के व्यवहार ज्ञान से तुलसी, कबीर, रहीम, निराला, आदि का साहित्य भरा पड़ा है। सृजन हमें जीवन का व्यवहार ज्ञान देता है।

मम्मट ने चौथे प्रयोजन के रूप में “शिवेतरक्षतये” को माना है। अर्थात्‌ अमंगल का नाश होना। हम हनुमान चालीसा से लेकर जितने भी पाठ करते हैं, इसी उद्देश्य से ही तो करते हैं।

पाचवां प्रयोजन मम्मट के अनुसार है, “सद्यः परनिर्वृतये”। अर्थात्‌ दुख का नाश और आनंद की प्राप्ति। रस या आनंद प्राप्ति तो काव्य का काव्य का सर्वस्व काफ़ी बाद के दिनों तक माना जाता रहा। जयशंकर प्रसाद, रामचन्द्र शुक्ल और डॉ. नगेन्द्र भी रस को ही काव्य का सर्वस्व माना। ये तो जब नयी कविता की शुरुआत हुई तो रस सिद्धांत का खण्डन किया गया।

और छठा उद्देश्य मम्मट के अनुसार “कान्तासम्मित उपदेश” है। अर्थात्‌ कविता मीठा-मीठा बोलने वाली स्त्री की तरह लोकहितकारी उपदेश देने वाली होनी चाहिए। गोस्वामी तुलसी दास ने रावण की पत्नी मन्दोदरी का ज़िक्र करते हुए कई बार कान्ता शब्द का प्रयोग किया है। कान्ता वह स्त्री होती है जो पति का हित चाहने वाली होती है। मन्दोदरी रावण को बार-बार समझाती रही कि दूसरे की पत्नी और सम्पत्ति का हरण करने वाले का सर्वनाश हो जाता है, इसलिए सीता को लौटा दिया जाना चाहिए।


इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्यों द्वारा निरूपित काव्य प्रयोजन में यश और अर्थ तो मूलतः कवि को प्राप्त होते हैं, पर बाकी के जो चार उद्देश्य हैं वह तो सहृदय को ही मिलते हैं। कविता हमें सभी क्षेत्रों के प्रति जागरूक बनाए, उसका यह उद्देश्य होना अनिवार्य है।  कुल मिलाकर देखें तो लोकमंगल और आनंद, यही कविता का “सकल प्रयोजन मौलिभूत” है।