पुस्तक चर्चा
‘सीढ़ियों पर धूप में’ ... रघुवीर सहाय
30 दिसंबर पुण्य तिथि पर
30 दिसंबर 1990 को नयी कविता के महत्त्वपूर्ण कवियों में से एक श्री रघुवीर सहाय का निधन हुआ था। उनकी पुण्य तिथि पर 1960 में प्रकाशित उनकी पहली पुस्तक ‘सीढ़ियों पर धूप में’ की चर्चा करते हैं। यह सहाय जी की पहली पुस्तक है जिसमें उनकी कविताएं, कहानियां और वैचारिक टिप्पणियां एक साथ संकलित हैं। इस पुस्तक का संपादन सच्चिदानंद वात्स्यायन अज्ञेय ने किया था। इस पुस्तक की रचनाएं पिछली शताब्दी के साठ के दशक की हैं। वह दौर नये साहित्य के आरंभ का दौर था। सहाय जी नये साहित्य के आरंभकर्त्ताओं में से रहे हैं। इस पुस्तक में दस कहानियां, ग्यारह लेख और अठहत्तर कविताएं हैं।
‘लेखक के चारों ओर’ पुस्तक का लेख खण्ड है जिसमें ‘लेखक की नोट बुक से’ शीर्षक आलेख में लिखते हैं,
“सबसे बड़ा आत्महनन जो किया जा सकता है वह है ‘लिखना’। अब हम कैसे बताएं कि लिखना कितना बड़ा दर्द है, कितना बड़ा त्याग है। बताना मुश्किल है क्योंकि वह कई एक ऐसी वस्तुओं का त्याग है जिन्हें साधारणतया कोई महत्त्व नहीं दिया जाता।”
इस पुस्तक की भूमिका में अज्ञेय जी कहते हैं, “नये हिन्दी के गद्य लेखकों में जिन्हें वास्तव में माडर्न कहा जा सकता है, उनमें रघुवीर सहाय अन्यतम हैं।” समय के बारे में सहाय जी की अवधारणा ‘लेखक की नोट बुक से’ में रखते हुए कहते हैं,
“रचना के लिए किसी-न-किसी रूप में वर्तमान से पलायन आवश्यक है। कोई-कोई ही इस पलायन को सुरुचिपूर्वक निभा पाते हैं, अधिकतर लोग अतीत के गौरव में लौट जाने की भद्दी ग़लती कर बैठते हैं और वह भूल जाते हैं कि वर्तमान से मुक्त होने का प्रयोजन कालातीत होना है, मृत जीवन का भूत बनना नहीं।”
यह एक पुस्तक एक साथ ही एक रचनाकार का पूरा प्रतिनिधित्व करती है और पाठकों को तृप्त भी करती है। उनकी कहानिओं के बारे में इस पुस्तक के संपादक अज्ञेय जी का कहना है, “आधुनिक हिन्दी कहानी के विकास की चर्चा में, यदि ‘आधुनिक’ पर बल दिया जा रहा हो, तो पहले दो-तीन नामों में अवश्यमेव उनका नाम लेना होगा : कदाचित् पहला नाम ही उनका हो सकता है।” उनकी कहानी की चर्चा किसी दूसरे पोस्ट में किया जाएगा, आज कविताओं पर बात करते हैं।
भाषा में सहज प्रवाह उनकी कविता की प्रमुख विशेषता है। सहाय जी की भाषा, आधुनिक हिन्दी के काव्य की दृष्टि से सफल और एक अलग स्वाद रखती है। न्याय और बराबरी के आदर्श को बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर कवि सहाय ने अपनी चेतना में आत्मसात किया। ‘हमने देखा’ शीर्षक कविता में कहते हैं,
जो हैं, वे भी हो जाया करते हैं कम
हैं ख़ास ढ़ंग दुख से ऊपर उठने का
है ख़ास तरह की उनकी अपनी तिकड़म
हम सहते हैं इसलिए कि हम सच्चे हैं
हम जो करते हैं वह ले जाते हैं वे
वे झूठे हैं लेकिन सब से अच्छे हैं
असमानता और अन्याय का प्रतिकार सहाय जी की रचनाओं का संवेदनात्मक उद्देश्य रहा है।
पानी का बिंब रघुवीर सहाय की कविताओं में बार-बार आया है। ‘पानी’ शीर्षक कविता में कहते हैं,
पानी का स्वरूप ही शीतल है
बाग़ में नल से फूटती उजली विपुल धार
कल-कल करता हुआ दूर-दूर तक जल
हरी में सीझता है
मिट्टी में रसता है
देखे से ताप हरता है मन का, दुख बिनसता है।
पानी न सिर्फ़ मनुष्य की पहली ज़रूरत है बल्कि समरसता और समता का प्रतीक भी। ‘आओ जल भरे बरतन’ कविता में कवि की अभिव्यक्ति है,
आओ, जल भरे बरतन में झांकें
सांस से पानी में डोल उठेंगी दोनों छायाएं
चौंक कर हम अलग-अलग हो जायेंगे
जैसे अब, तब भी न मिलायेंगे आंखें, आओ
‘जभी पानी बरसता है’ तो कवि सहाय को कुछ याद आता है। क्या?
जभी पानी बरसता है तभी घर की याद आती है
यह नहीं कि वहां हमारी प्रिया, बिरहिन, धर्मपत्नी है –
यह नहीं कि वहां खुला कुछ है पड़ा जो भीग जाएगा –
बल्कि यह कि वहां सभी कमरों-कुठरियों की दिवालों पर
उठी छत है।
उनके ‘पानी के संस्मरण’ कई हैं,
कौंध : दूर घोर वन में मूसलाधार वृष्टि
दुपहर : घना ताल : ऊपर झुकी आम की डाल
बयार : खिड़की पर खड़े, आ गयी फुहार
रात : उजली रेती के पार; सहसा दिखी
शान्त नदी गहरी
मन में पानी के अनेक संस्मरण हैं।
रघुवीर सहाय उस काव्यतत्व का अन्वेषण करने पर अधिक ज़ोर देते थे जो कला की सौंदर्य परम्परा को आगे बढाता है। उनकी शुरु की कविताओं में भाषा के साथ एक खिलंदड़ापन मिलता है जो संवेदना के साथ बाद में काव्यगत विडंबना के लिए काम आता है। उनकी एक मशहूर कविता ‘दुनिया’ की भाषा में यही क्रीड़ाभाव देखा जा सकता है,
लोग या तो कृपा करते हैं या ख़ुशामद करते हैं
लोग या तो ईर्ष्या करते हैं या चुग़ली खाते हैं
लोग या तो शिष्टाचार करते हैं या खिसियाते हैं
लोग या तो पश्चात्ताप करते हैं या घिघियाते हैं
न कोई तारीफ़ करता है न कोई बुराई करता है
न कोई हंसता है न कोई रोता है
न कोई प्यार करता है न कोई नफ़रत
लोग या तो दया करते हैं या घमण्ड
दुनिया एक फंफुदियायी हुई सी चीज़ हो गयी है।
इसी तरह के भाषिक खिलंदड़ेपन की एक और कविता है जो मध्यमवर्गीय लोगों के बारे में है, ‘सभी लुजलुजे हैं’ जिसमें ऐसे चुने हुए शब्दों का इस्तेमाल किया गया है जो कविता में शायद ही कभी प्रयुक्त हुए हों,
खोंखियाते हैं, किंकियाते हैं, घुन्नाते हैं
चुल्लु में उल्लू हो जाते हैं
मिनमिनाते हैं, कुड़कुड़ाते हैं
सो जाते हैं, बैठ रहते हैं, बुत्ता दे जाते हैं।
भाषा का यह खेल उनकी काव्य यात्रा में गंभीर होते हुए अपने जीवन की बात करते-करते एक और जीवन की बात करने लगता है, कविता ‘मेरा एक जीवन है’ में,
मेरा एक जीवन है
उसमें मेरे प्रिय हैं, मेरे हितैषी हैं, मेरे गुरुजन हैं
उसमें मेरा कोई अन्यतम भी है:
पर मेरा एक और जीवन है
जिसमें मैं अकेला हूं
जिस नगर के गलियारों फुटपाथों मैदानों में घूमा हूं
हंसा-खेला हूं
.....
पर इस हाहाहूती नगरी में अकेला हूं
सहाय जी हाहाहूती नगरी जैसे भाषिक प्रयोग से पूरी पूंजीवादी सभ्यता की चीखपुकार व्यक्त कर देते हैं, इसकी गलाकाट स्पर्धा का पर्दाफ़ाश कर देते हैं। कविता के अंत में वो कहते हैं,
पर मैं फिर भी जिऊंगा
इसी नगरी में रहूंगा
रूखी रोटी खाऊंगा और ठंडा पानी पियूंगा
क्योंकि मेरा एक और जीवन है और उसमें मैं अकेला हूं।
सहाय जी की भाषा संबंधी अन्वेषण के बारे में महेश आलोक के शब्दों में कहें तो, “सहाय निरन्तर शब्दों की रचनात्मक गरमाहट, खरोंच और उसकी आंच को उत्सवधर्मी होने से बचाते हैं और लगभग कविता के लिए अनुपयुक्त हो गये शब्दों की अर्थ सघनता को बहुत हल्के से खोलते हुए एक खास किस्म के गद्यात्मक तेवर को रिटौरिकल मुहावरे में तब्दील कर देते हैं।”
इस पुस्तक की कुछ कविताएं छन्द में भी हैं। हालाकि जिस समय इनका सृजन हुआ तब हिन्दी कविता छन्दमुक्त हो चुकी थी। सहाय जी यह मानते रहे कि कविता को श्रव्य भी होना चाहिए। और इसके लिए छन्द मददगार साबित होता है। ‘स्वागत-सुख’ में लिखा है,
जैसे जैसे यह लिखता हूं, छन्द बदन में नाच रहा है
मन जिस सुख को लिख आया है, फिर फिर उसको बांच रहा है
विह्वलता स्तम्भित होगी यह, रच जायेगा मन में नर्तन
इस से और सरलतर होगा इस स्वागत-सुख का अभिनन्दन।
‘मर्म’ कविता पर छायावाद युग के निराला का प्रभाव स्पष्ट है,
यह रिक्त अर्थ उन्मुक्त छन्द
संस्मरणहीन जैसे सुगन्ध,
यह तेरे मन का कुप्रबन्ध –
यह तो जीवन का मर्म नहीं।
उनकी कविताओं में लय का एक खास स्थान हमेशा रहा। उनके लय के संबंध में दृष्टि उनके इस कथन से मिलती है, “आधुनिक कविता में संसार के नये संगीत का विशेष स्थान है और वह आधुनिक संवेदना का आवश्यक अंग है।”
‘भक्ति है यह’ कविता उदाहरण के तौर पर लेते हैं,
भक्ति है यह
ईश-गुण-गायन नहीं है
यह व्यथा है
यह नहीं दुख की कथा है
यह हमारा कर्म है, कृति है
यही निष्कृति नहीं है
यह हमारा गर्व है
यह साधना है – साध्य विनती है।
रघुवीर सहाय की काव्य भाषा बोलचाल की भाषा है। पर इसी सहजपन में यह जीवन के यथार्थ को, उसके कटु एवं तिक्त अनुभव को पूरी शक्ति के साथ अभिव्यक्त करने में समर्थ है। साथ ही यह देख कर आश्चर्य होता है कि अनेक कविताएं पारंपरिक छंदों के नये उपयोग से निर्मित हैं।