पुस्तक परिचय-14
मनोज कुमार
आंचलिकता शब्द अंग्रेज़ी के ‘रिजन’ शब्द के पर्याय रूप में प्रयुक्त हुआ है। अंग्रेज़ी में ‘रिजनल नावेल’ की सुस्थिर परम्परा रही है। अंचल शब्द का अर्थ किसी ऐसे भूखंड, प्रांत या क्षेत्र विशेष है, जिसकी अपनी एक विशेष भौगोलिक स्थिति, संस्कृति, लोकजीवन, भाषा व समस्याएं हों। एक आंचलिक लेखक एक विशेष क्षेत्र पर अधिक ध्यान केंद्रित करता है और इस क्षेत्र और वहां के निवासियों को अपनी कथा का आधार बनाता है। आज हम जिस उपन्यास का परिचय देने जा रहे हैं उसके लेखक श्री विवेकी राय जी का कहना है, “‘सोनामाटी’ की पृष्ठभूमि में पूर्वी उत्तर प्रदेश के दो ज़िलों, गाजीपुर और बलिया, का मध्यवर्ती एक विशिष्ठ अंचल है करइल। इस अंचल का भूगोल तो सत्य है परन्तु इतिहास अर्थात् प्रस्तुत कहानी में प्रयुक्त करइल क्षेत्र के उन गांवों और पात्रों आदि के माध्यम से समकालीन जीवन-संघर्ष को चित्रांकित किया गया है। यह संघर्ष किस सीमा तक एक अंचल का है और कहां तक वह व्यापक राष्ट्रीय जीवन यथार्थ से जुड़ा है, इसका निर्णय तो पाठक ही कर सकता है।”
अंचल विशेष को आधार बनाकर रची जाने वाली औपन्यासिक कृति सहज ही आंचलिक उपन्यास मान ली जाती है। विवेकी राय की कहानियों में उत्तरप्रदेश के गांवों का बड़ा सजीव चित्रण हुआ है। उन्हें ग्रामीण जीवन का कुशल चितेरा कहा जाता है। वे गावों से हमेशा जुड़े रहे। ग़ाज़ीपुर और उसके आसपास के गावों का उन्हें विशद अनुभव है। प्रस्तुत उपन्यास “सोनामाटी” भी गांवों से जुड़ा है। इसमें विस्तृत ग्रामांचल की कहानी है जो ग़ाज़ीपुर और बलिया के बीच फैला है। आज के टूटते-बिखरते गांव का सम्पूर्ण सत्य उन्होंने इस उपन्यास के माध्यम से प्रस्तुत किया है। गांवों में व्याप्त मूल्यहीनता की बात इसमें बहुत ही मार्मिक ढंग से कही गई है। पैसे की संस्कृति से गांव भी अछूता नहीं है। रामरूप उपन्यास का मुख्य पात्र है। वह जीवन-मूल्यों में विश्वास रखता है। लेकिन वह आज के परिवेश में अपने को मज़बूर और कमज़ोर पा रहा है। उसका ससुर हनुमान प्रसाद रावण की भूमिका निभाता है।
इस उपन्यास की एक नारी पात्र है, कोइली। सुग्रीव से उसे प्यार है। कोइली को सुग्रीव चार हजार रुपए में खरीद कर लाया है। वह दगाबाज निकलता है। उसे हनुमान प्रसाद के हवाले कर देता है। हनुमान प्रसाद उससे शादी करना चाहता है। लेकिन उसके घर में कोइली को अनेक यातनाएं सहनी पड़ती हैं। अतः एक रात वह वहां से भाग खड़ी होती है। भागने के क्रम में वह रामरूप से टकराती है। रामरूप उससे पूछता है, “बता, तू कौन है?”
वह बताती है, “आप की ही एक करमजली बेटी ...’’।
वहां से निकल कर वह बढ़ारपुर के रामसुमेर नाम के बूढ़े के पास शरण लेती है। रामरूप अपने अध्यापक मित्र की सहायता से उससे मिलने जाता है तो देखता है कि कोइली को भीतर बंद करके घर में ताला लगाया गया है। जब रामरूप ताला खोलकर उससे मिलता है तब वह उससे कहती है, “अपने ग़रीब बाप के घर जवान हुई तब से हर आदमी हमारे पास ‘खास’ काम के लिए ही आया है मास्टर जी। यहां एकदम एकान्त है। कहिए, सेज लगा दूं, अपने को सौंप दूं? एक बेटी और कर क्या सकती है? यदि सुग्रीव जी की तरह आप भी कहीं और सौदा कर आए हों तो ‘राज सुख भोग’ के लिए उस पांचवें बाबा के पास आपके साथ चलूं?..”
असहाय स्त्री की दयनीय स्थिति व पूरी त्रासदी को बयान करता है यह वक्तव्य।इस उपन्यास में कोइली का अंकन बड़ा ही मर्मस्पर्शी है। वह एक बूढ़े के साथ जुड़ती है, स्वाभिमान की रक्षा के लिए और सारी लालसायें मसलकर रख देती है। उसके अंकन में अत्यन्त आधुनिक संवेदना का स्पर्श मिलता है। सर्वहारा की पहचान तो उसकी पीड़ा है। लेकिन इसमें भी एक बात निश्चित है कि इस वर्ग की स्त्री सबसे पीड़ित होती है। वह समाज की वासना का शिकार भी होती है। हर किसी के द्वारा शोषित और त्रस्त जीवन उसका नसीब हुआ करता है। एक पुरुष सत्तात्मक समाज स्त्री के बारे में कितना नृशंस और अत्याचारी हो सकता है, इसका प्रमाण विवेकी राय जी के इस उपन्यास में मिलता है।
पूर्वी उत्तरप्रदेश के पिछड़े हुए गांव महुआरी में “सोनामाटी” की कथा शुरु होती है। गांव के लोग जहां एक ओर आर्थिक मार सह रहे हैं, वहीं उन्हें सामाजिक उदासी और राजनीतिक उठापटक का समना भी करना पड़ता है। विकास की मृगमरीचिका में जीना उनकी नियति बन चुकी है। गांव का बुद्धिजीवी मास्टर और किसान रामरूप तेजी से बदलते हुई प्रस्थितियों के बीच जिन अंतर्विरोधों के बीच जीवन जीता है, जो पीड़ाएं भोगता है उसको बहुत ही मार्मिकता के साथ इस उपन्यास में दर्शाया गया है। उसकी इन पीड़ाओं में राजनीतिक अंतर्विरोधों की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। रामरूप विरोधी पक्ष जनता पार्टी का प्रचार करता है। उसका साला सत्ताधारी पक्ष कांग्रेस पार्टी का उम्मीदवार है। उसका चुनाव प्रतिनिधि वर्मा, रामरूप के घर में ही रहकर प्रचार कार्य करता है।
एक तरफ़ चुनावी महौल और दूसरी तरफ़ अनेक समस्याओं से घिरा गांव है। “एक तो भीषण गर्मी, दूसरे जीवन के अनेकमुखी संकट-संत्रास। क्रिया-प्रतिक्रिया में हतप्रभ जनता क्या करेगी? अकुला कर कहेगी, जैसे नागनाथ वैसे सांपनाथ। चलो तुम्हीं को सही यह वोट। पिछड़ी और अभावग्रस्त जनता की सबसे बड़ी पहचान वोटों के चलते सिलसिलों और छलावों के बीच यही उभरी है कि वह सब कुछ भूल जाती है।”
प्रजातंत्र की यह चुनावी पद्धति और नेताओं की चुनाव कला पैंतरेबाजी का खूब रोचक वर्णन है इस उपन्यास में। नेताओं के वाक-चातुर्य और कूटनीति को पिछड़ी हुई ग्रामीण ज़िन्दगी झेलती है, भोगती है। वे जो जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के लिए दिन-रात जूझते रहते हैं, संघर्ष करते रहते हैं, वे क्या सही और ग़लत नेताओं का चुनाव कर पाएंगे। राजनीतिक विचारधारा और दल से उनका क्या लेना-देना? दो जून की रोटी मिल जाए किसी तरह वही यथेष्ठ है। इस परिस्थिति में प्रजातांत्रिक चुनाव पद्धति पर ही प्रश्न चिह्न लग जाना स्वाभाविक है। रामरूप सोचता है, “ पूरा लोकतंत्र द्विधाग्रस्त है। … गिरोह में आदमी कितना ख़ुश है। … क्यों उसे ऐसा लग रहा है कि कही कुछ भी स्पष्ट नहीं है, न सिद्धान्त, न नारे और न संकल्प? पूरा राष्ट्र रोगग्रस्त है। चुनाव की औषधि रोग बढ़ा रही है कि घटा रही है, कुछ भी कहना कठिन है।”
गिरोहबाजी आज की राजनीति का यथार्थ है। उपन्यास में रामरूप की प्रतिबद्धताओं के समानान्तर उसका अभिन्न मित्र भारतेन्दु इस गिरोह का सदस्य हो जाता है। वह रामरूप को उसके परिवार से अलग कर रहा है। राजनीति का यह आज का रूप रामरूप को व्यक्ति और समाज दोनों ही स्तरों पर अकेला करता जा रहा है।
“धूर्त राजनीतिज्ञों की काली राजनीति के उद्देश्यों के लिए मानवीयता की बलि चढ़ जाती है। रातोंरात निर्लज्ज दलबदल हो जाता है। किसे उम्मीद थी कि दो शरीर एक प्राण सरीखे रहने वाले भारतेन्दु और रामरूप आमने-सामने दो विरोधी शिविर लगाकर बैठ जाएंगे।”
विवेकी राय जी ने इस उपन्यास के माध्यम से यह दर्शाया है कि आज़ादी के बाद की राजनीति का बिल्कुल ही विघटित रूप गांवों तक पहुंच गया है। व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के आपसी सम्बन्ध के निर्धारण में राजनीति की सक्रिय भूमिका है। आज राजनीति समाज के सामूहिक हित के अपने लक्ष्य से हटती जा रही है। अब उसने स्वार्थी, असत्य, अनैतिक विघटित तत्वों से खुद को जोड़ लिया है। इस तरह वह गिरोह में बदल गई है। गांवों में आज़ादी के बाद का यही विघटित रूप वहां के समाज पर हावी हो रहा है। आंचलिकता जिस ऐतिहासिक चेतना से प्रतिफलित होती है उसमें राजनीति की भूमिका रचनात्मक है। किन्तु “सोनामाटी” में हम जिस राजनीतिक यथार्थ से रू-ब-रू होते हैं, वह आज की राजनीति के अमानवीय हो जाने की गवाही देता है।
लेखक विवेकी राय का गांव की जनता, विशेषकर किसान जनता के दुख-सुख से गहरा सरोकार है। उनके इस गहरे सरोकार के कारण ही “सोनामाटी” की रचना हुई है। गांव की जनता संघर्षशील है। उपन्यास में लेखक का सर्वाधिक ध्यान अंचल विशेष की जन-चेतना को चित्रित करने पर केन्द्रित है। उन्होंने जन-सामान्य के प्रति हार्दिक संवेदना महसूस करते हुए चित्रित किया है। साथ ही साथ करइल अंचल की लोक संस्कृति भी सहज रूप से अंकित होती चलती है। समय और समाज ने एक मास्टर को अकेले जूझते और समझौता करते छोड़ दिया है। यही गाँव के बुद्धिजीवी की नियति है। गाँव के रावण का अंकन बहुत ही सशक्त है। लगता है, राम कहीं हिरा गये ‘राम का हिरा जाना’ मतलब आज रामराज कहीं खो गया है।
एक बैठक में पढ़ जाने लायक किताब है यह। ग्रामीण जीवन की जटिल सच्चाई को उसकी सम्पूर्णता के साथ रचनात्मक स्तर पर प्रस्तुत करना विवेकी राय जैसे कलम के जादूगर से ही संभव है। गहरी निष्ठा और असीम धैर्य के साथ, चकित कर देने वाले संतुलन और सामंजस्य के साथ उन्होंने गांव के विभिन्न पात्रों को चित्रित किया है। इस उपन्यास के शिल्प में गजब की किस्सागोई और व्यंजकता है। भाषा में आंचलिक शब्दों का प्रयोग समाज के मिजाज और उसके विशेष सांस्कृतिक पक्ष को सामने लाता है। यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि इस उपन्यास को पढ़ना एक अंचल, एक समाज, एक देश और एक समय के साथ विचारोत्तेजनाओं के रोमांच के बीच से गुजरना है।
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पुस्तक का नाम | सोना माटी |
लेखक | विवेकी राय |
प्रकाशक | प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफ अली रोड, नई दिल्ली-2 |
संस्करण | 2010 |
मूल्य | |
पेज | 464 |