ठूंठमनोज कुमार |
कल रात वर्षा हुई ख़ूब हुई ज़ोर-ज़ोर से मूसलाधार मेरे घर के सामने की सड़क बेलेवेडियर रोड के किनारे एक बड़ा पेड़ था तन कर खड़ा।
गिर पड़ा बेचारा! असहाय सा। कुछ देर बाद ... उसके तने काट दिए गए सड़क साफ़ हो गई आवाजाही बहाल हो गई सड़क के किनारे बच रहा ठूंठ बस! |
शनिवार, 31 जुलाई 2010
ठूंठ (एक कविता, मनोज कुमार)
आज का विचार :: अनुकरणीय
आज का विचार::अनुकरणीय |
अच्छा वक्ता तो कोई भी बन सकता है, परन्तु दूसरों के लिए अनुकरणीय श्रेष्ठ जीवन कितने लोग जीते हैं। |
शुक्रवार, 30 जुलाई 2010
उदात्त काव्य भाषा के माध्यम से प्रकृति का अनुकरण है :: काव्य लक्षण-14 (पाश्चात्य काव्यशास्त्र-2)
उदात्त काव्यभाषा के माध्यम से प्रकृति का अनुकरण है::काव्य लक्षण-14 (पाश्चात्य काव्यशास्त्र-2) |
यूनानी काव्यशास्त्र में अरस्तू के बाद जो सबसे आदर के साथ याद किए जाते हई वो हैं लांजाइनस। उन्होंने “पोरिइप्सुस” की रचना की थी। इसका अर्थ है काव्य में उदात्त तत्व। उनका मानना है कि काव्य का प्राण-तत्व है उसका उदात्त तत्व।
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आज का विचार :: सहन
आज का विचार :: सहन |
जब आप यह महसूस करते हैं कि आपको बहुत सहन करना पड़ रहा है, तो इसका अर्थ है कि आप अभी भी सहन करने का प्रयास कर रहे हैं। |
गुरुवार, 29 जुलाई 2010
काव्य भाषा के माध्यम से प्रकृति का अनुकरण है :: काव्य लक्षण-13 (पाश्चात्य काव्यशास्त्र-1)
काव्य भाषा के माध्यम से प्रकृति का अनुकरण है::काव्य लक्षण-13 (पाश्चात्य काव्यशास्त्र-1) |
पाश्चात्य काव्यशास्त्र की शुरुआत प्लेटो से होती है। प्लेटो का काल है 427 ई.पूर्व से 347 ई.पूर्व का। हालाकि प्लेटो ने काव्य की परिभाषा देने की कोशिश नहीं की पर इस पर विवेचना अवश्य किया। उनके मतानुसार काव्य प्रकृति का अनुकरण है और प्रकृति सत्य का अनुकरण। प्लेटो की विवेचना में अनुकरण का अनुकरण है। इस तरह यह सत्य से दूर हो जाता है। अरस्तु ने भी काव्य की परिभाषा नहीं की, किन्तु जो विचार व्यक्त किए उसके आधार पर काव्य लक्षण का निर्धारण किया जा सकता है।
प्लेटो के शिष्य थे अरस्तु। उन्होंने अपने ही गुरु के विचारों का तर्कों के आधार पर खंडन किया। उन्हें लगा कि प्लेटो की विवेचना में अनुकरण का अनुकरण है। इस तरह यह सत्य से दूर हो जाता है। अरस्तु ने भी काव्य की परिभाषा नहीं की, किन्तु जो विचार व्यक्त किए उसके आधार पर काव्य लक्षण का निर्धारण किया जा सकता है।
अरस्तु का मानना था कि काव्य एक कला है। कवि अनुकर्ता है। उनके अनुसार यह अनुकरण नकल न होकर पुनर्सृजन है। काव्य प्रकृति का अनुकरण है। यह अनुकरण सृजनात्मक प्रेरणा का अनुक्रम या सिलसिला है। इस प्रकार अरस्तु के अनुसार काव्य लक्षण का निर्धारण इस प्रकार होता है, “काव्य भाषा के माध्यम से प्रकृति का अनुकरण है।”डॉ. नगेन्द्र का भी यही मानना था कि काव्य भाषा के माध्यम से प्रकृति का अनुकरण है। आधुनिक शब्दावली में अगर कहें तो “काव्य भाषा के माध्यम से अनुभूति और कल्पना द्वारा जीवन का पुनःसृजन है।”(चित्र : आभार गूगल खोज) |
आज का विचार :: संयम
आज का विचार::संयम |
संयम संस्कृति का मूल है। विलासिता निर्बलता और चाटुकारिता के वातावरण में न तो संस्कृति का उद्भव होता है और न विकास। – काका कालेलकर |
बुधवार, 28 जुलाई 2010
काव्य लक्षण – 12 :: रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्
काव्य लक्षण – 12 :: रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम् |
शुरु से ही यह विवाद चला आ रहा था कि काव्य शब्द में होता है या अर्थ में अथवा शब्द और अर्थ दोनों में। इस विवाद का ध्यान रखते हुए पंडितराज ने कहा कि काव्य शब्द में होता है। रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्अर्थात् रमणीयतार्थ प्रतिपादक शब्द काव्य है। रसगंगाधर में पंडितराज ने तीन काव्य लक्षणों को प्रस्तुत किया है। ये हैं सामान्य, परिष्कृत और फलित। सामान्य लक्षण के अनुसार रमणीय (सुंदर, मनोहर) अर्थ का प्रतिपादक शब्द ही काव्य है। पंडितराज के शब्द की विशेषता थोड़ा अलग है। प्रायः भाषा के सभी शब्द अर्थ प्रतिपादक होते हैं, निरर्थक शब्दों का भाषा में कोई स्थान नहीं होता। सामान्य भाषा के शब्दों के प्रतिपाद्य अर्थ से काव्य का प्रतिपाद्य अर्थ भिन्न होता है। जिसे पंडितराज रमणीय कहते हैं। सामान्य शब्द या भाषा-शब्द तो सामान्य अर्थ का ही प्रतिपादन करते हैं। किन्तु काव्य-भाषा के शब्द एक चमत्कारी आह्लाद् की सृष्टि करते हैं। यानी भाषा-शब्दों के सामान्यतः प्रतिपाद्य अर्थ काव्य के रमणीय अर्थ के बीच होते हैं। अर्थ या तो सूक्ष्म होते हैं या स्थूल। दोनों ही अर्थ में रमणीयार्थ प्रतिपादन निहित है। किन्तु पंडितराज का मानना है कि रमणीय वस्तु हमारे ज्ञान से काव्यानुभूति में आकर आह्लाद् की सृष्टि करते हैं। इसलिए रमणीय अर्थ का धरातल स्थूल या भौतिक नहीं है, बल्कि यह सूक्ष्म या मानसिक है। ज्ञान गोचरता तो मानसिक धरतल पर ही हो सकती है। इसलिए रमणीय काव्यार्थ शुद्ध मानसिक धरातल पर ही प्राप्त होता है। “रमयणीयता च लोकोत्तराल्हादजनक ज्ञान गोचरता।” पंडितराज के अनुसार काव्यार्थ की रमणीयता विषयगत (वस्तुपरक/Objective) और विषयिगत (आत्मपरक/Subjective), दोनों है। काव्य का आह्लाद् लौकिक नहीं लोकोत्तर है, यानी लोक का परिष्कृत आनंद है। लोकोत्तर आनंद में चमत्कार है। यह चमत्कार कौतूहल नहीं है काव्यानुभूति की अपूर्वता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पंडितराज के अनुसार काव्य लक्षण “चमत्कारी आह्लाद् से पूर्ण रमणीय अर्थों के प्रतिपादक शब्द काव्य हैं।” और यह आत्मपरक है। यह आत्मपरकता सहृदयमूलक है, कविमूलक नहीं। भारतीय काव्य-विवेचन का प्रतिमान है – सहृदय या सामाजिक। यह सहृदय बाहरी व्यक्ति न होकर भीतरी व्यक्ति है – काव्य से अभिन्न। आचार्य विश्वनाथ रस को काव्य की आत्मा मानते हैं। पंडितराज ने रस के स्थान पर रमणीयता शब्द का प्रयोग किया है। यह विश्वनाथ के दृष्टिकोण की सीधी अस्वीकृति है। केवल रसादि-ध्वनि ही काव्य की अत्मा नहीं है। ध्वनि सिद्धांत के अनुसार रस-ध्वनि के अलावा वस्तु-ध्वनि और अलंकार-ध्वनि भी है। रस-ध्वनि भावनात्मक आनंद, वस्तु-ध्वनि बौद्धिक आनंद और अलंकार-ध्वनि कल्पनात्मक आनंद प्रदान करती है। गजानन माधव मुक्तिबोध ने यह मत प्रस्तुत किया कि गली के अंधेरे में उगे पौधे में भी सौंदर्य होता है – पतझड़ के वृक्षों में भी एक तरह का सौंदर्य होता है। बौद्धिक अनुभूतियों से प्राप्त सौंदर्य की चरम परिणति रसात्मक नहीं होती, चैन तोड़ने वाली होती है। हर संघर्ष का अपना सौंदर्य होता है। पंडितराज का काव्य लक्षण आपनी व्यापकता के कारण आज भी ग्राह्य है। उनकी रमणीयता की अर्थ सीमा बहुत खुला क्षेत्र देती है। सभी ललित कलाओं का सौंदर्य इसमें आ जाता है। चित्र, मूर्ति, वास्तु, काव्य, संगीत ये सारी कलाएं रमणीय अर्थ देती हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि आज भी पंडितराज का काव्य लक्षण नकारने की चीज़ नहीं है, नए युग के संदर्भ में विचार करने की चीज़ है। |
आज का विचार :: छुटकारा
आज का विचार :: छुटकारा |
अपने शत्रुओं से छुटकारा पाने का सबसे अच्छा उपाय यह है कि उन्हें अपना मित्र बना लीजिए। |
मंगलवार, 27 जुलाई 2010
काव्य लक्षण – 11 :: गुणवदलंकृतं च वाक्यमेव काव्यम्
काव्य लक्षण – 11::गुणवदलंकृतं च वाक्यमेव काव्यम् |
आचार्य राजशेखर के बारे में आप पढ चुके हैं। (लिंक यहां है) आचार्य राजशेखर ने अपने ग्रंथ काव्य-मीमांसा में काव्य के लिए कहा है - गुणवदलंकृतं च वाक्यमेव काव्यम्!अर्थात् गुणों और अलंकारों से युक्त वाक्य का नाम काव्य है। उनका यह मानना था कि काव्य में अतिशयोक्ति का समावेश हो सकता है। उनके अनुसार अतिशयोक्तिपूर्ण होने से न तो कोई काव्य त्याज्य होता है न ही असत्य! इस कथन के पीछे उनका तर्क यह था कि काव्य में जो अतिशयोक्ति होती है उसका समर्थन शास्त्र और लोक दोनों करते हैं। काव्य में श्रृंगार भी होता है। इसके रसात्मक अभिव्यक्ति में, खास कर पुरुष-नारी के मिलन के वर्णन को कुछ लोग अश्लील मानते हैं। इस विषय पर आचार्य राजशेखर का कहना था कि काव्य में जीवन की समग्रता को अभिव्यक्ति दी जाती है। तो उसमें संयोग कैसे वर्जित रहेगा! कलावाद की दृष्टि से यदि देखेण तो श्लील-अश्लील का विवाद ही नहीं होना चाहिए। |
आज का विचार :: प्यार
सोमवार, 26 जुलाई 2010
ई-मेल से संदेश का प्रेषण
ई – मेल एकाउन्ट कैसे तैयार करें
काव्यशास्त्र – 25 :: आचार्य रूपगोस्वामी और आचार्य केशव मिश्र
काव्यशास्त्र – 25
::
आचार्य रूपगोस्वामी
और
आचार्य केशव मिश्र
आचार्य परशुराम राय
आचार्य रूपगोस्वामी
आचार्य रूपगोस्वामी का काल पन्द्रहवीं शताब्दी का अन्त और सोलहवीं शताब्दी माना जाता है। आचार्य रूपगोस्वामी के एक और भाई थे जिनक नाम सनातन गोस्वामी था। दोनों भाई चैतन्य महाप्रभु के शिष्य थे। चैतन्य महाप्रभु की इच्छा के अनुसार दोनों भाई बंगाल छोड़कर वृन्दावन आकर बस गए। आचार्य जीव गोस्वामी, जो उक्त दोनों आचार्यों के भतीजे थे, वे भी इनके साथ हो लिए। ये तीनों उद्भट विद्वान और वैष्णव सम्प्रदाय के प्रसिधद्ध आचार्य थे।
आचार्य जीवगोस्वामी के एक ग्रंथ 'लघुतोषिणी' (आचार्य सनातनगोस्वामी द्वारा भागवत महापुराण पर विरचित टीका का संक्षिप्त रूप) में आचार्य रूपगोस्वामी द्वारा विरचित सत्रह ग्रंथों के नाम दिए गए हैं। इनमें आठ विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं हंसदूत, उद्धवसन्देश, विदग्धमाधव, ललितमाधव, दानकेलिकौमुदी, भक्तिरसामृतसिन्धु, उज्जवलनीलमणि और नाटक चन्द्रिका। इनमें से प्रथम दो काव्य हैं, बाद के दो नाटक, पाँचवा भाणिका और अन्तिम तीन काव्यशास्त्र से सम्बन्धित ग्रंथ हैं। जिसके कारण आचार्य रूपगोस्वामी भारतीय काव्यशास्त्र के इतिहास में हमेशा याद किए जाएँगें।
'भक्तिरसामृतसिन्धु' और 'उज्जवलनीलमणि' दोनों में रसों का निरूपण किया गया है। भक्तिरसामृतसिन्धु में चार विभाग हैं - पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण। प्रत्येक विभाग लहरियों में विभक्त है। इसमें भक्ति रस को रसराज कहा गया है। 'पूर्व' विद्या में भक्ति का स्वरूप, लक्षण (परिभाषा) आदि का निरूपण है। 'दक्षिण' विभाग में भक्ति रस के विभाव अनुभाव, व्यभिचारीभाव तथा स्थायीभावों का विवेचन है। 'पश्चिम' विभाग में भक्ति रस के विभिन्न भेदों का प्रतिपादन किया गया हैं। 'उत्तर' विभाग में अन्य रसों का निरूपण पाया जाता है। दूसरा ग्रंथ 'उज्जवलनीलमणि' 'भक्तिरसामृतसिन्धु' का पूरक है और इसमें मधुर शृंगार का प्रतिपादन है। 'नाटकचन्द्रिका' आचार्य भरतकृत 'नाटयशास्त्र'और आचार्य शिंगभूपालकृत 'रसार्णवसुधाकर' के आधार पर लिखा गया नाटयशास्त्र का ग्रंथ है।
'भक्तिरसामृतसिन्धु' और 'उज्जवलनीलमणि' पर इनके भतीजे आचार्य जीवगोस्वामी द्वारा क्रमश: 'दुर्गमसंगिनी' और 'लोचनरोचनी' नामक टीकाएँ लिखी गयीं हैं।
आचार्य केशव मिश्र
आचार्य केशव मिश्र का काल भी सोलहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध है और ये दिल्ली के निवासी थे। इन्होंने कांगड़ा नरेश माणिक्यचन्द्र के अनुरोध पर 'अलंकारशेखर' नामक ग्रंथ की रचना की। राजा माणिक्यचन्द्र महाराज धर्मचन्द्र के पुत्र थे और 1563 ई0 में काँगड़ा की गद्दी पर बैठे। इनका शासन-काल दस वर्षों तक ही रहा।
'अलंकारशेखर' में कारिकाएँ हैं और उन पर वृत्ति भी स्वयं आचार्य केशव मिश्र ने लिखी है। यह आठ रत्नों में विभक्त है। प्रथम रत्न में काव्य का लक्षण, द्वितीय में रीति, तृतीय में शब्द शक्ति, चतुर्थ में पद दोष, पंचम में वाक्य दोष, षष्ठ में अर्थदोष, सप्तम में शब्दगुण, अर्थगुण, दोषों का गुणभाव और अष्टम रत्न में अलंकार तथा रूपक (नाटक) आदि विषयों का प्रतिपादन किया गया है।
आचार्य ने लिखा है कि इन्होंने 'अलंकारशेखर' ग्रंथ की रचना भगवान शौद्धोदनि द्वारा विरचित किसी काव्यशास्त्र विषयक ग्रंथ के आधार पर की है। लेकिन अब तक भगवान शौद्धोदनि और उनके द्वारा विरचित किसी ग्रंथ का पता नहीं चल पाया है।
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आज का विचार :: शान्ति
रविवार, 25 जुलाई 2010
काव्य लक्षण – 10 :: वाक्यं रसात्मकं काव्यम्
काव्य लक्षण – 10::वाक्यं रसात्मकं काव्यम् |
आचार्य विश्वनाथ के बारे में आप पढ चुके हैं (लिंक यहां है)। इनका ग्रंथ 'साहित्यदर्पण' काव्यशास्त्र का बड़ा ही प्रसिद्ध और लोकप्रिय ग्रंथ है। वे रसवादी आचार्य हैं। काव्य लक्षण की परिभाषा करते हुए उन्होंने कहा था, “ वाक्यं रसात्मकं काव्यम्”। अर्थात् रसयुक्त वाक्य काव्य है। आचार्य विश्वनाथ ने ’काव्यत्व’ के लिए ’रसत्व’ का आधार ग्रहण किया। उनके अनुसार गुण, अलंकार, वक्रोक्ति, ध्वनि आदि सभी रस के पोषक हैं। आचार्य विश्वनाथ का मानना था कि रसात्मक वाक्य में शब्द और अर्थ दोनों समाहित हैं। रसात्मक एक कठिन अवधारणा है। इसे समझना सहज नहीं है। आचार्य विश्वनाथ ने भामह के “शब्दार्थौ सहितौ काव्यम” के स्थान पर “ वाक्यं रसात्मकं काव्यम्” का प्रयोग किया। वाक्य में काव्य शरीर तथा रसात्मक में काव्य की आत्मा समाहित है। रसात्मकता के आधार पर प्रतिपादित काव्य लक्षण की इस परिभाषा के आधार पर हम कह सकते हैं कि काव्यात्मा और काव्यात्मकता दोनों में रस का महत्व है। |
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आज का विचार :: विराम
शनिवार, 24 जुलाई 2010
काव्य लक्षण – 9 :: तद्दोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृति पुनः क्वापि
काव्य लक्षण – 9 :: तद्दोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृति पुनः क्वापि |
आचार्य मम्मट ने काव्य-प्रकाश में काव्य लक्षण की चर्चा करते हुए कहा हैतद्दोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृति पुनः क्वापिअर्थात दोष रहित, गुणसहित और कभी-कभार अनलंकृत शब्द और अर्थमयी रचना काव्य है। इस परिभाषा में हम पाते हैं कि इसमें दोषों के अभाव और गुणों के भाव को प्रधानता दी गई है। इसमें अलंकारों को बहुत आवश्यक नहीं माना गया है। आचार्य विश्वनाथ ने मम्मट के इस मत की आलोचना की है। उन्होंने कहा कि श्रेष्ठ से श्रेष्ठ कविताओं में कभी-कभार दोष तो निकल ही आता है। और जब दोष निकल आता है तो उसे हम कविता की श्रेणी से थोड़े ही हटा देते हैं। इस प्रकार “दोष रहित”, काव्य का एक नकारात्मक लक्षण है। इसके अलावा अलंकार कविता के लिए ज़रूरी नहीं है यह तो मम्मट ने कहा पर न ही रस का संकेत दिया और न ही ध्वनि या वक्रोक्ति का। उनकी परिभाषा में केवल गुण का संकेत है। इसके बावज़ूद भी मम्मट का काव्य लक्षण काफी प्रसिद्ध रहा। इसका प्रमुख कारण था इसका काफी सरल होना। हालाकि इसमें मौलिकता कम और समझौता अधिक है। वे अलंकारवादियों को भी ख़ुश रखना चाहते थे साथ ही गुणवादियों को भी। साथ ही साथ वे रस और ध्वनिवादियों का भी विरोध नहीं करते। |
शुक्रवार, 23 जुलाई 2010
काव्य लक्षण-8 :: वक्रतामय कवि-कौशलयुक्त मर्मस्पर्शी शब्दार्थ काव्य है
काव्य लक्षण-8
वक्रतामय कवि-कौशलयुक्त मर्मस्पर्शी शब्दार्थ काव्य है
आचार्य कुन्तक ने आनन्दवर्धन और अभिनवगुप्त द्वारा प्रतिपादित काव्य दर्शन की व्याख्या करते हुए कहा कि “वक्रोक्ति” ही काव्य का व्यापक गुण है। यही काव्य की आत्मा है।
उनका मानना था कि कवि कर्म सामान्य आदमी के रास्ते से अलग है। कवि की शब्दाववली वक्र हो, तो उसमें कल्पना की उड़ान भरने के लिए काफी जगह होती है। आचार्य कुन्तक ने वक्रता को सुरूचि सम्पन्न व्यक्ति के द्वारा किसी बात को कहने का विशेष गुण माना। उन्होंने वक्रोक्तिजीवितम् में काव्य के लक्षण की चर्चा करते हुए कहा –
शब्दार्थौ सहितौ वक्र कवि व्यापारशालिनि।
बन्धे व्यवस्थितौ काव्यं तद्विदाह्लादकारिणी।।
इसमें काव्य के भाव पक्ष की व्याख्या की गई है। इसे समझने के लिए हमें वक्रोक्ति को समझना होगा। आचार्य कुन्तक का मानना था,
“वक्रतामय कवि-कौशलयुक्त मर्मस्पर्शी शब्दार्थ काव्य है।”
वक्रोक्ति से तात्पर्य यह है कि किसी विशेष अर्थ को अभिव्यक्त करने के लिए भाषा में अनेक शब्द होते हैं, किन्तु कवि उसी शब्द का प्रयोग करता है जो उस अर्थ-विशेष को व्यक्त करने में सबसे ज्यादा समर्थ हो।
आचार्य कुन्तक का मानना था कि काव्यार्थ सहृदय होता है। अर्थ और ध्वनित शब्द दोनों ही काव्य के अलंकार्य हैं, ये स्वयं अलंकार नहीं है। अलंकार तो काव्य की शोभा बाहर से बढ़ाते हैं। अलंकार शब्द और अर्थ दोनों को अलंकृत कर सकते हैं। जो रचना अलंकृत होगी उसका सौंदर्य अद्भुत होगा। कुन्तक वक्रोक्ति से अभिव्यंजना के सौन्दर्य का अर्थ लेते हैं। काव्य में जिस विषय का वर्णन किया जा रहा है, वक्रोक्ति, उसमें नवदीप्ति उत्पन्न कर सकता है।
आचार्य कुंतक का मानना था कि वक्रोक्ति अभिव्यंजना की सीमा का अतिक्रमण कर जाती है। कुन्तक ने काव्य के वर्ण्य-पक्ष पर कम बल दिया और अभिव्यंजन पक्ष पर विशेष बल दिया। यही कारण है कि उनकी वक्रोक्ति विषय की अवधारणा बहुत ज्यादा प्रसिद्धि नहीं पा सकी ।
बुधवार, 21 जुलाई 2010
काव्य लक्षण- 7 :: काव्य की आत्मा - ध्वनि
काव्य लक्षण- 7::काव्य की आत्मा – ध्वनि |
अलंकारवादी आचार्यों ने काव्य के लक्षण के संबंध में चर्चा करते हुए काव्य के शरीर पक्ष की चर्चा की। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि उन्होंने काव्य के बाहरी सौन्दर्य को ही प्रधानता दी। इसके परिणामस्वरूप ऐसा प्रतीत होता है कि काव्य के आंतरिक सौन्दर्य की कहीं न कहीं उपेक्षा हुई। वे काव्य के अन्य लक्षण रस, रीति, गुण को भी अलंकार के माध्यम से ही समझाते रहे। नवीं शताब्दी में अचार्य आनन्दवर्धन ने काव्य लक्षण की एक नई व्याख्या प्रस्तुत की। उन्होंने अब तक स्थापित परंपराओं का विरोध किया। उनके इस वैचारिक क्रांति का दस्तावेज़ है “ध्वन्यालोक” ग्रंथ। उनके मतानुसार काव्य की आत्मा ध्वनि है। उन्होंने कहा कि अलंकार और अलंकार्य अलग-अलग हैं। उन्होंने रस को भी काफ़ी महत्व दिया। इस प्रकार उनके द्वारा एक नए ढ़ंग से काव्य लक्षण की परंपरा शुरु हुई। |
पिछले भाग |
मंगलवार, 20 जुलाई 2010
ननु शब्दार्थौ काव्यम
ननु शब्दार्थौ काव्यमकाव्य लक्षण |
आचार्य भामह ने कहा था “शब्दार्थौ सहितौ काव्यम”। तब से यह विवाद चलता रहा कि काव्य शब्द में है या अर्थ में या दोनों में। इस विवाद कि एक निर्णयात्मक मोड़ दिया आचार्य रुद्रट ने। उन्होंने काव्य का लक्षण करते हुए कहा, ”ननु शब्दार्थौ काव्यम”। अर्थात शब्दार्थ निश्चय ही काव्य है। यह विवाद आगे भी चलता रहा। हेमचन्द्र, विद्यानाथ, वाग्भट्ट, जयदेव, भोज आदि शब्दार्थ के सौंदर्य को काव्य मानते रहे। हां यह स्पष्ट था कि ये सभी भामह और मम्मट के काव्य लक्षण को थोड़े बहुत फेर-बदल के साथ प्रस्तुत करते रहे। बाद में अग्निपुराणकार ने कहा, “ध्वनि, वर्ण, पद और वाक्य का ही नाम वाँगमय है जिसके अंतर्गत शास्त्र, इतिहास तथा काव्य का समावेश होता है। किन्तु अमिधा के कारण काव्य शास्त्र और इतिहास से अलग होता है। काव्य लक्षण को उन्होंने पारिभाषित करते हुए कहा, “जिस वाक्य समूह में अलंकार स्पष्ट रूप से प्रदर्शित हों तथा जो गुणों से युक्त और दोषों से मुक्त हो उसे काव्य कहते हैं।” |
सोमवार, 19 जुलाई 2010
काव्यशास्त्र – 24 :: आचार्य शारदातनय,आचार्य शिंगभूपाल और आचार्य भानुदत्त
काव्यशास्त्र – 24 :: आचार्य शारदातनय,आचार्य शिंगभूपाल और आचार्य भानुदत्त
आचार्य परशुराम राय
आचार्य शारदातनय का काल 13वीं शताब्दी माना जाता है। इनके वास्तविक नाम का पता नहीं है। हो सकता है कि इनकी माँ का नाम शारदा रहा हो और उसी के आधार पर ये अपने को शारदातनय के रूप में कहने और लिखने लगे हों तथा यही नाम प्रसिद्ध हो गया हो। सन् 1320ई0 के लगभग आचार्य शिङ्गभूपाल हुए हैं जिनके विषय में आगे लिखा जाएगा। इन्होंने अपने ग्रंथ 'रसार्णवसुधाकर'में आचार्य शारदातनय के मतों का उल्लेख किया है। अतएव इनका काल उसके पहले निश्चित होता है।
आचार्य शारदातनय, नाट्यशास्त्र के आचार्य हैं और इन्होंने 'भावप्रकाशन' नामक ग्रंथ लिखा है जिसमें कुल दस अधिकार (अध्याय) हैं। इनमें क्रमश: भाव, रसस्वरूप, रसभेद, नायक-नायिका निरूपण, नायिकाभेद, शब्दार्थसम्बन्ध, नाटयेतिहास, दशरूपक, नृत्यभेद एवं नाट्य-प्रयोगों का प्रतिपादन किया हैं इस ग्रंथ में आचार्य भोज के 'शृंगारप्रकाश' तथा आचार्य मम्मट द्वारा विरचित'काव्यप्रकाश' से अनेक उद्धरण मिलते हैं।
आचार्य शिंगभूपाल भी नाट्यशास्त्र के आचार्य हैं। अपने ग्रंथ 'रसार्णवसुधाकर' नामक ग्रंथ के अंत में पुष्पिका में अपना परिचय देते हुए लिखते हैं:-
'श्रीमदान्ध्रमण्डलाधीश्वरप्रतिगण्डभैरवश्रीअन्नप्रोतनरेन्द्रनन्दनभुजबलभीमश्रीशिङ्गभूपालविरचिते रसार्णवसुधाकरनाम्नि नाट्यलङ्कारे रञ्जकोल्लासो नाम प्रथमो विलास:।
उक्त कथन से लगता है कि ये आंध्र के राजा अन्नप्रोत की संतान और आंध्र मण्डल के अधीश्वर थे। ये अपने को शूद्र लिखते हैं। 'रसार्णवसुधाकर' के आरम्भ में अपने वंश आदि का उल्लेख करते हुए इन्होंने जो विवरण दिया है उससे पता चलता है कि ये 'रेचल्ला' वंश में उत्पन्न हुए। इनके छ: पुत्र थे तथा इनका शासन विन्ध्याचल से लेकर श्रीबोल पर्वत के मध्य भाग तक फैला हुआ था। इनकी राजधानी 'राजाचल' थी।
'रसार्णवसुधाकर' में कुल तीन उल्लास हैं - रञ्जकोल्लास, रसिकोल्लास और भावोल्लास। प्रथम उल्लास में नायक-नायिका विवेचन, दूसरे में इसका निरूपण तथा तीसरे में रूपकों (नाटकों) के वस्तुविन्यास का विस्तार से प्रतिपादन मिलता है। आचार्य शिंगभूपाल की भाषा सरल और सुबोध है। इसके अतिरिक्त संगीतनाट्य के आचार्य शार्गदेव द्वारा विरचित 'संगीतरत्नाकर' पर इन्होंने'संगीतसुधाकर' नामक टीका भी लिखी है।
14वीं शताब्दी में ही आचार्य भानुदत्त का काल आता है और ये मिथिला के निवासी थे। इनके पिता का नाम गणेश्वर था, जो मंत्री थे। धर्मशास्त्र एक ग्रंथ 'विवादरत्नाकर' मिलता है जिसके प्रणेता आचार्य चण्डेश्वर हैं। इन्होंने भी अपने पिता का नाम गणेश्वर बताया है। अतएव लगता है कि आचार्य भानुदत्त और आचार्य चण्डेश्वर दोनों भाई-भाई थे। ऐसा उल्लेख मिलता है कि आचार्य चण्डेश्वर 1315ई0 में अपना तुलादान करवाया था। 1428ई0 में आचार्य गोपाल ने आचार्य भानुदत्त की पुस्तक 'रसमञ्जरी' पर 'विकास' नामक टीका लिखी। अतएव निर्विवाद रूप से आचार्य भानुदत्त का काल 14वीं शताब्दी माना जा सकता है। 'रसमञ्जरी' के अन्तिम श्लोक में अपना परिचय देते हुए इन्होंने इस प्रकार लिखा है:-
तातो यस्य गणेश्वर: कविकुलालङ्कारचूडामणि:।
देशो यस्य विदेहभू: सुरसरित्कल्लोलकिमीरिता॥
आचार्य भानुदत्त के तीन ग्रंथ मिलते हैं - रसमञ्जरी, रसतरङ्गिणी और गीतगौरीपति। 'रसमञ्जरी'काव्यशास्त्र की पुस्तक है। 'रसतरङ्गिणी' रसमञ्जरी का ही संक्षिप्त रूप में लिखा गया ग्रंथ है और'गीतगौरीपति' आचार्य जयदेवकृत 'गीतगोविन्द' की भाँति गीतिकाव्य है।
रविवार, 18 जुलाई 2010
काव्यशब्दोsयं गुणालंकार संस्कृतयोः शब्दार्थयोर्वर्तर्ते।
काव्य शब्द में है या अर्थ मे? भामह ने तो कहा था “शब्दार्थो सहितौ काव्यम”। आचार्य वामन को इससे कोई आपत्ति नहीं थी। परन्तु उनके मन में यह प्रश्न तो था ही कि क्या सामान्य शब्द और अर्थ ही काव्य हैं? वामन का मनना था कि शब्दालंकार और अर्थालंकार से युक्त काव्य शब्दार्थ काव्य है। अपने काव्यालंकार सूत्र में उन्होंने कहा था काव्यशब्दोsयं गुणालंकार संस्कृतयोः शब्दार्थयोर्वर्तर्ते। वचनोsत्र गृह्यते। हालाकि वे यह मानते थे कि अलंकार तत्व के कारण ही काव्य ग्राह्य होता है, किन्तु वे “सौंदर्यमलंकारः” की भी बात करते हैं। उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम पाते हैं कि वामन ने काव्य की ग्राह्यता को सौंदर्य से जोड़ दिया। वामन के अनुसार दोष-रहित, सगुण, सालंकार शब्दार्थ काव्य है। विद्वानों का मानना है कि वामन न तो काव्य का शास्त्रीय लक्षण ही कर पाए न अलंकारवादियों की कतार में बैठ सके। जहां एक तरफ़ रसवादी गुण का संबंध रस से जोड़ते हैं वहीं दूसरी तरफ़ वामन गुण का संबंध अर्थ और शब्द से जोड़ते हैं। कुल मिलाकर देखा जाए तो वामन ने दण्डी के मार्ग को नए ढ़ंग से विस्तार दिया और अलंकार से आगे गुण की चर्चा की। |
शनिवार, 17 जुलाई 2010
शरीरं तावदिष्टार्थ व्यवछिन्ना पदावली
आचार्य दण्डी की चर्चा इस ब्लॉग पर आप पढ़ चुके हैं। यदि नहीं पढ़ा तो (यहां) क्लिक कीजिए। आचार्य दण्डी का मत है कि
“शरीरं तावदिष्टार्थ व्यवछिन्ना पदावली”।
शब्दों के समूह से पदावली बनती है। दण्डी के अनुसार शब्दों का वह समूह जो सरसता से भरा हो और कवि-प्रतिभा से युक्त सुंदर पदावली से अलग किया हो, को काव्य-शरीर कहा जा सकता है। उन्होंने काव्य-शरीर पर विचार किया। उनके अनुसार जिन पदों में वाक्यत्व की योग्यता हो उन्हें काव्य कहा जा सकता है। साथ ही पदावली ईष्टार्थ युक्त होना चाहिए। इसमें योग्यता के अलावा आकांक्षा और आसक्ति जैसी विशेषतएं भी होनी चाहिए। तभी काव्य के अर्थ में चमत्कार की सृष्टि होगी। दण्डी के इस कथन में अलंकार के साथ रस की अपेक्शा भी है। किन्तु उनका रस भावात्मक आनंद के लिए न होकर अलंकार के चमत्कार से उत्पन्न आनंद के लिए है। दण्डी के अनुसार सभी अलंकारों का उद्देश्य रस की सृष्टि करना है। वे काव्यानंद के लिए शब्दालंकार-अर्थालंकार के साथ रसवद अलंकार को भी शामिल करते हैं। उनके अनुसार शब्द-अर्थ-रस-सौंदर्य के मेल से बनी विशिष्ट पदावली ही काव्य है।
अदम गोंडवी
१- काजू भुने प्लेट में , व्हिस्की ग्लास में
२- घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है