शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010

बदलते परिवेश में अनुवादकों की भूमिका

बदलते परिवेश में अनुवादकों की भूमिका मनोज कुमार
 

जहां एक ओर पिछले कुछ दशकों में सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में अभूतपूर्व बदलाव आया है वहीं दूसरी ओर हिंदी के ज़रिए एक वैश्‍विक क्रांति का आगाज़ हुआ है। न सिर्फ हिंदीतर भाषी बल्कि विदेशी भी यह समझ चुके है कि अगर आम भारतीयों को कोई संदेश देना है तो हिंदी को माध्यम बनाना ही होगा।  आज अनुवाद एक व्यापक विषय बन गया। पूरे विश्‍व में तेज़ी से बदलाव आ रहा है। अत: बदलते परिवेश में अनुवाद के संदर्भ में अनेक बिंदुओं का विकास अब ज़रूरी हो गया है। इसमें अनुवादकों की भूमिका काफी बढ़ जाती है।

आज बाज़ारवाद के असर में हिंदी भाषा के बदलते रूप से कौन नहीं परिचित है। यह एक व्यवसायिक हिंदी का रूप इख़्तियार कर चुकी है। इसका चौतरफा विस्तार हो रहा है। इसके फलस्वरूप हिंदी ने इस घोर व्‍यावसायिक युग में संचार की तमाम प्रतिस्‍पर्धाओं को लाँघ अपनी गरिमामयी उपस्थिति भी दर्ज कराई । जिसका रोजमर्रा की जिंदगी में कोई खास उपयोग नहीं है वह प्रायः आम लोगों के लिए कोई विशेष महत्‍व नहीं रखती। मशीनी युग के भाग-दौड़ में वही चीज स्‍वागतेय है जिसका सीधा और तीव्र प्रभाव पड़ता हो। परिवर्तन ही एक मात्र शाश्‍वत है। हिंदी को भी रूढिवादिता एवं परंपरावादिता से बाहर निकल कर दैनिक जीवन की छोटी-बड़ी सभी आवश्‍यकताओं की पूर्ति के लिए बाजार के मान-दंड पर खड़ा होना पड़ा है। इस हिंदी का सौन्दर्य अलंकारों से नहीं साधारनीकरण से है। आज अनेक विदेशी उत्‍पादों के विज्ञापन भारत में हिंदी में किए जाते हैं ऐसी हिंदी में जो आम आदमी से लेकर खास आदमी तक पर प्रभाव डाल सके। फलत: हिंदी के ज़रिए रोजगार के नए-नए अवसरों का समावेश हुआ है।

हालांकि साहित्‍य के अलावे ज्ञान-विज्ञान के अनेक क्षेत्रों में भी हिंदी का इतिहास कमजोर नहीं रहा है, अपितु ज्ञान-विज्ञान का हस्‍तांतरण मजबूत भाषा की विशेषता रही है। आज की तारीख में चिकित्‍सा, अभियंत्रण, पारिस्थितिकी, अर्थशास्‍त्र से लेकर विभिन्‍न भाषाओं से साहित्‍य का हिंदी में अनुवाद करने वालों की भारी मांग है। यह पूर्णतः अनुवादक पर निर्भर करता है कि वह जिस भाषा से और जिस भाषा में अनुवाद कर रहा है उन भाषाओं पर उसका कितना अधिकार है और इन भाषाओं की अनुभूतियों में वह कितनी तारतम्‍यता कायम रख सकता है। एक सफल अनुवादक वही होता है जो अनुदित कृति में भी मूल कृति की नैसर्गिक अनुभूतियों को अपरिवर्तित रखे। अनुवाद करते समय स्रोत भाषा की रचना के परिवेश और प्रसंग को समझकर ही अनुवादक को लक्ष्य भाषा में अनुवाद करना चाहिए। अपने किसी आत्मीय को बहुत दिनों के बाद देखकर अगर कोई पश्‍चिम के देशों का विदेशी कहे “You came as sunlight” तो इसका अनुवाद हिंदी में “तुम सूर्यप्रकाश की तरह आए” के स्थान पर “तुम्हारे आने से बड़ी खुशी हुई” सही होगा।

कार्यालयों में अनुवाद का प्रयोग एक विशेष प्रयोजन के लिए होता है। राजभाषा हिंदी के ज़रिए हमारा प्रयास भारत के सभी प्रांतों, अंचलों और जनपदों के बीच सौहार्द्र, सौमनस्य व परस्पर स्नेह से एक सूत्र में बांधने का होना चाहिए। राजभाषा के प्रयोग का अधिकाधिक अवसर तभी मिलेगा जब उसमें सभी भारतीय भाषाओं के शब्दों का सहज समावेश हो। अनुवाद और अनुवादक की सार्थकता तभी है जब प्रवाहमय भाषा का प्रयोग होगा। भाषा में सदैव नए प्रयोग चलते रहते हैं। हिंदी भाषा में भी बाज़ारवाद, वैश्‍वीकरण, भौगोलीकरण एवं भूमंडलीकरण के कारण कई नए प्रयोग हो रहें हैं। अनुवादकों को इस बात का ख़ास ख़्याल रखना चाहिए। उन्हें इन परिवर्तनों को अपनी सहज प्रवृत्ति के रूप में ढ़ालना चाहिए। सहज प्रवृत्ति से सहज भाषा निर्मित होती है। सहज भाषा ही सर्वग्राह्य होगी। अनुवादकों को यह ध्यान रखना चाहिए कि हिंदी भाषा को इतना बोझिल और कृतिम न बना दिया जाए कि इसकी सहजता नष्ट होने लगे। प्रचलित और सबकी समझ में आने वाली व्यवहार-कुशल हिंदी ही सर्वग्राह्य हो सकती है। सरकारी कार्यालयों में साहित्यिक और व्याकरण सम्मत हिंदी का आग्रह रख हम इसका विकास नहीं कर सकेंगे। यहां की शब्दावली में न तो भावनाओं का प्रवाह होता है न विचारों की प्रबलता। यहां मात्र माध्यम बनने की नियति होती है। अनासक्त तटस्थता यहां के अनुवाद का मूलमंत्र है।

अनुवाद करते समय स्रोत भाषा की रचना के परिवेश और प्रसंग को समझकर ही अनुवादक को लक्ष्य भाषा में अनुवाद करना चाहिए।!

अत: परिवर्तन के इस दौर में अनुवादकों की भूमिका काफी चुनौतीपूर्ण है। अनुवाद में स्रोत भाषा के अर्थ या संदेश का लक्ष्य भाषा में सम्प्रेषण ही मुख्य बात है। समरूपता की दृष्टि से दो भाषाओं में संरचनात्मक अंतर स्वाभाविक है। अनुवाद में स्रोत भाषा में कही गई बात को लक्ष्य भाषा में व्यक्त करने के लिए लक्ष्य भाषा के समतुल्य शब्द, भाव और कथ्य ही अनुवादक का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए। एक भाषा के पाठ की भाषिक व्यवस्था का दूसरी भाषा की भाषिक प्रतीक व्यवस्था में रूपांतरण अनुवाद कहलाता है। स्रोत भाषा से लक्ष्य भाषा में अंतरण समतुल्यता के आधार पर किया जाता है। समतुल्यता के सिद्धांत के सार्थक निर्वाह के बिना सफल अनुवाद संभव नहीं होता। प्रत्येक भाषा का प्रत्येक शब्द अपने-आप में एक प्रतीक होता है और वह एक विशिष्ट प्रकार का आशय अथवा अर्थ ध्वनित करता है। सिद्धांतत: दो प्रतीक एक जैसे अर्थ के वाहक नहीं होते। अंग्रेजी में ‘वाटर’ और ‘एलीफैंट’ के लिए क्रमश: ‘पानी’ और ‘हाथी’ समान्य पर्याय हैं। किंतु क्रमश: नीर, अंबु या तुरंग, गज आदि शब्दों को अंग्रेजी शब्दों के सामान्य पर्याय के रूप में ग्रहण नहीं किया जा सकता क्योंकि इन शब्दों की अपनी-अपनी अर्थ ध्वनियां हैं। अनुवादक को लक्ष्य और स्रोत दोनों ही भाषाओं में शास्त्रीय दृष्टि से पारंगत एवं सृजनात्मक दृष्टि से सक्षम होना चाहिए। तभी उसे दोनों भाषाओं के शब्दों और मुहाबरों का ज्ञान हो सकता है। एक ही भाव लिए बहुत समानार्थी शब्द मिल सकते हैं पर वे भिन्न- भिन्न स्थियों को सूचित करते हैं। अत: उनका प्रयोग बहुत सोच-समझ कर करना होता है। मुहाबरों का अनुवाद नहीं हो सकता। अनुवादकों को लक्ष्य भाषा में वैसे ही अर्थ देने वाले मुहावरे ढ़ूंढ़ने होंगे। ‘किसी की आंख का नूर हँ’ का अनुवाद “the light of one’s eye” न होकर “the apple of one’s eye” होगा।

भाषा न कठिन होती है न सरल, सहज या असहज। कैसा भी कठिन शब्द निरंतर प्रयोग के बाद सहज हो जाता है और अपना बन जाता है। अनुवादक को भाषा की सरलता और जटिलता से ऊपर उठकर सहज भाषा में अनुवाद करना चाहिए। जब अनुवादक सहज भाषा में काम करने लग जाता है तो वह सर्जक हो जाता है। आज अनुवाद का क्षेत्र काफी बढ़ गया है। आज अनुवाद न तो घटिया किस्म का रोजगार रहा और न कामचलाऊ चीज़। आज वह विभिन्न भाषाओं के विस्तार का संसाधन बन गया है। आज विश्‍व का एक दूसरे से परिचय अनुवाद के परिचयपत्र के माध्यम से हो रहा है। अनुवाद आज सांस्कृतिक साहित्यिक राजदूत की भूमिका निभाता है।

हिंदी आज विविध रूपों में प्रयोग की जाती है। इस विविधता में सौंदर्य भी है, शक्ति भी है। अब यही विविधता अनुवादों की दुरुहता के कारण आम आदमी की उपेक्षा करने लगे तो वह कुरूपता और दुर्बलता का प्रतीक बन जाएगी। अत: अनुवादकों को संस्कृत के भारी-भरकम शब्दों के उपयोग से बचना चाहिए। लंबे वाक्यों को दो या दो से अधिक छोटे वाक्यों में बदलकर लिखना चाहिए। संसार में लगभग तीन हज़ार भाषाएं लिखी जाती हैं। इन भाषाओं में उपलब्ध सभी प्रकार के ज्ञान को एक-दूसरे तक पहुँचाने का माध्यम अनुवाद है। अनुवाद एक भाषा को दूसरी भाषा में लिख देना मात्र नहीं है। यह वह विधा है जिसमें अनुदित रचना स्वतंत्र एवं मौलिक लगे। वह सार्थक और मूल रचना के समग्र अर्थ में होना चाहिए। अत: अर्थ की परिशुद्धता अनुवाद का मूल मंत्र है।

आज साहित्य, तकनीकी तथा संचार के क्षेत्र में अनुवाद का कार्य हो रहा है और इन क्षेत्रों में अनुवाद का चरित्र और सम्प्रेषणनीयता का मापदंड भिन्न है और अनुवादकों का भी. जहाँ साहित्यिक अनुवाद में भाव को सम्प्रेषण करना होता है उसकी पृष्ठभूमि, भावभूमि और विम्ब संरचना के साथ, वही तकनीकी अनुवाद में तथ्य को अनुवाद करना मुख्य लक्ष्य होता है. आज संचार के क्षेत्र में हिंदी एवं स्थानीय भाषाओँ में काफी अनुवाद हो रहा है खास तौर पर विज्ञापन ने अनुवाद को नई दिशा दी है.  इसमें अनुवाद का लक्ष्य भाषिक ग्राहकों को लुभाना होता है, उनके ह्रदय तक पहुचना होता है, बाज़ार का सृजन करना होता है. ऐसे में जहाँ साहित्य के अनुवाद के लिए अनुवादक को साहित्यानुरागी होना चाहिए, वही तकनीकी अनुवाद के लिए तकनीकी ज्ञान का होना ए़क  आवश्यकता  है.  वही विज्ञापन के अनुवाद में भाशा की समझ के साथ साथ बाज़ार की समझ भी जरुरी है.

उत्कृष्ट अनुवादक वही है जो स्रोत और लक्ष्य भाषा के सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भों का भी ध्यान रखे। समाज जिस अर्थ में किसी शब्द का प्रयोग करता है अनुवादक को भी उसी अर्थ में उस शब्द का प्रयोग करना चाहिए। स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा दो समानान्तर रेखाएं हैं। उनकी परस्पर दूरी को कम करने का प्रयास अनुवाद है। अनुवादकों को अपनी भाषा में देशी, प्रांतीय और सहज शब्दों को लेना चाहिए तभी हिंदी और हिंदीतर भाषाईयों के बीच की दूरी कम होगी।

आज अनुवाद न तो घटिया किस्म का रोजगार रहा और न कामचलाऊ चीज़। आज वह विभिन्न भाषाओं के विस्तार का संसाधन बन गया है। आज विश्‍व का एक दूसरे से परिचय अनुवाद के परिचयपत्र के माध्यम से हो रहा है। अनुवाद आज सांस्कृतिक साहित्यिक राजदूत की भूमिका निभाता है।

14 टिप्‍पणियां:

  1. आपके इस बेहतरीन ब्लाग का प्रसंशक बन रहा हूँ आज से ...आपको हार्दिक शुभकामनायें !

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  2. बहुत ही उपयोगी आलेख है क्योंकि कल ही एक पंजाबी पुस्तक का अनुवाद शुरू करने जा रही हूँ। काम आयेगा। आपके आलेख बहुत ग्यानवर्द्धक होते हैं धन्यवाद्

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  3. आपके लिखा एक सौ एक प्रतिशत सही----------------------- पर भारत जैसे अन्नत विकास की संभावना वाले देश में क्या आज भी अंग्रेजी कार्यशैली का जिन्न बेखोप भारतीय अर्थव्यस्था,सामाजिक मूल्यों को निगलने में नहीं लगा है तथा ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यावस्था को बाजार व्यावस्था के नाम पर कोल्ड स्टोर्स में पनाह देने का संकल्प स्थाईतौर पर ले रखा है।
    भारत भर में अनुवादकों के माध्यम से हर प्रदेश के पास नागरिकों तक सही भाषा के द्वारा सुविधाऐं, नीतियाँ , पहुँचाना बहुत हितकर हो सकता है।

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  4. बहुत अच्छी जानकारी दी है ..अनुवादकों को बहुत सहायता मिलेगी ...हिंदी भाषा सहज होनी चाहिए जिससे उसकी ग्राह्यता बनी रहे ...उत्तम लेख

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  5. अनुवादक इस आलेख से पूर्व "अनसन्ग हीरो" हुआ करते थे.. आपने उनके महत्व को पहचाना... अनुवाद का सबसे अच्छा उदाहरण टैगोर जी की "गीतन्गलि" है.. जिसे अन्ग्रेजी, हिन्दी और बाग्ला में लिखा गया है... हर अनुवदक को इसे कम से कम दो भाषाओं मे पढ्ना चाहिये... आपने सही कहा है कि... "ऐसे में जहाँ साहित्य के अनुवाद के लिए अनुवादक को साहित्यानुरागी होना चाहिए, वही तकनीकी अनुवाद के लिए तकनीकी ज्ञान का होना ए़क आवश्यकता है. वही विज्ञापन के अनुवाद में भाशा की समझ के साथ साथ बाज़ार की समझ भी जरुरी है. उत्कृष्ट अनुवादक वही है जो स्रोत और लक्ष्य भाषा के सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भों का भी ध्यान रखे।" बढिया आलेख के लिये बधाई...

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  6. आपने लिखा हैः"जहाँ साहित्यिक अनुवाद में भाव का सम्प्रेषण करना होता है उसकी पृष्ठभूमि, भावभूमि और विम्ब संरचना के साथ, वही तकनीकी अनुवाद में तथ्य को अनुवाद करना मुख्य लक्ष्य होता है."भावयुक्त अनुवाद की कोई ज़रूरत नहीं है। सही अनुवाद वही है,जिसे पुनः स्त्रोत भाषा में अनुवाद करने को कहा जाए,तो वही शब्द और अर्थ प्राप्त हो जाएं,जो मूल रूप में थे। किसी भी सामग्री का एकाधिक भाषा में भावपूर्ण अनुवाद करा कर देख लीजिए। एक क्षण आएगा जब कवि की मूल भावना ही गायब हो जाएगी और केवल अनुवादक का भाव रह जाएगा। और फिर,क्या तकनीकी अनुवाद से भाव संप्रेषित नहीं होता?

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  7. क्षमासहित,इस ओर ध्यानाकर्षण करना है कि आलेख में कई विरोधाभास रह गए हैं। एक ओर तो यह स्वीकार किया गया है कि हर शब्द की अपनी-अपनी अर्थ ध्वनियां होती हैं। दूसरी तरफ आपने यह भी लिखा है कि साहित्यिक और व्याकरण सम्मत हिंदी का आग्रह रख हम इसका विकास नहीं कर सकेंगे। आपने यहां तक लिखा है कि सरकारी अनुवाद में न तो भावनाओं का प्रवाह होता है न विचारों की प्रबलता।

    जब अनुवादक स्त्रोतगत सामग्री से बंधा होता है तो उसकी भावना और विचारों के लिए स्थान ही कहां बचता है? सहज भाषा के नाम पर रिक्शे-तांगेवालों की शैली से ही हिंदी का कल्याण नहीं होगा। आपने यह भी स्वीकार किया है कि स्वयं में कुछ भी कठिन नहीं होता,बल्कि शब्द प्रयोग-सापेक्ष होते हैं। फिर,क्या गलत है कि राजभाषा वाले समझते हैं कि एक दिन उनकी शैली भी सर्वग्राह्य हो जाएगी?

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  8. ये आलेख ज्ञानबर्धक रहा है.

    इस आलेख के आभार.

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  9. बहुत ही सुन्‍दर लेखन, अक्षरश: सत्‍य,आभार इस बेहतरीन प्रस्‍तुति के लिये ।


    मेरे ब्‍लाग पर आपका प्रोत्‍साहन सदैव उत्‍साहित करता है ।

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  10. बहुत बढ़िया और महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हुई! धन्यवाद !

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  11. आज से हम भी इस ब्लोग के प्रशंसक बने। बढ़िया लेख

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