रविवार, 31 अक्टूबर 2010

कहानी ऐसे बनी-१०::चच्चा के तन ई बधना देखा और बधना के तन चच्चा देखे थे।

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

रूपांतर :: मनोज कुमार

अब क्या बताएं.... इतने दिन हो गए शहर का धुंआ खाते पर दिल है कि मानता नहीं.... अब भी सरपट दौड़ जाता है  गाँव की ओर। हां, गाँव की बात ही कुछ और है। मनमोहक हरियाली, लज्जा का आवरण ओढ़े महिलाएं, मिलनसार बुजुर्ग, छैल छबीले युवक मंडली... मतलब एक अलग तरह क अल्हड़पन होता है, गाँव के परिवेश में। यहाँ शहर में तो एक छोटा-सा का घर होता है, एक रसोई पकाने का कोना और एक ही गुशलखाना। और उसी में स्त्री-पुरुष सब लाइन लगाए रहते हैं। एक अन्दर है तो दूसरा बाहर से दरवाजा पीट रहा है। और अपने गाँव में देखो कितनी आजादी रहती है।

अब उसी दिन की बात लीजिये न। हम बहुत दिनों बाद गए थे अपने गाँव। अब तो बताने में थोड़ा संकोच भी हो रहा है। एकदम सुबह-सुबह.... नीले गगन के तले... सुबह के पांच बजे... हाथ में लोटा... लोटा में पानी गाछी की ओर चले। अच्छा गाँव की एक और खासियत है। शहर में भले कोई शुभ कार्य में भी साथ ना दे मगर गाँव में गाछी जाने के समय भी आपको दो-चार साथी मिल ही जायेंगे। हमें भी मिल गए। और बहुत दिनों बाद गए थे सो हाल-समाचार पूछते-पाछते बढ़ चले गाछी की ओर। दोनों तरफ़ लहलहाते खेत और बीच मे एकदम संकड़ी पगडंडी। उसी पर हम लोग बिल्कुल रेल-गाड़ी के डब्बे की तरह लाइन से चले जा रहे थे। उधर से अब्दुल चाचा गाछी से निपट कर लौट रहे थे। इसबार कमर थोड़ी झुक गई है। चश्मा की एक डंडी की जगह सुतली बाँध कर कान पर चढ़ाए हुए हैं लेकिन बूढी आँखों में अब भी पुराना स्नेह चमक रहा है। माटी का बधना (एक प्रकार का लोटा जिसमे पानी निकलने के लिए टोटी लगी होती है) पकड़े हुए कमजोर हाथ काँप रहा था। आमना-सामना हुआ... दुआ-सलाम भी। लेकिन सुबह के समय ज्यादा देर तो ठहराव नहीं हो सकता है न सो आगे बढ़ने लगे। लेकिन पतली पगडंडी पर क्रोसिंग कैसे हो ? हम तो किसी तरह साइड कटा के निकल लिए... लेकिन पीछे और भी लोग थे और इधर संभाल-संभाल कर कदम उठाते और रखते अब्दुल चच्चा। एक-दो लड़के तो निकल लिए पर गनेसिया पता नहीं कैसे टकरा गया? अब्दुल चाचा को तो रामभरोस ने संभाल लिया लेकिन उनके हाथ से बधना छूट गया। बधना बेचारा पगडंडी पर ऐसे चारो खाने चित्त गिरा की दुबारा उठ नहीं पाया। बेचारे का इहलीला समाप्त होय गया। लेकिन यह क्या... दुर्घटना के शिकार बधना को जमीन पकड़े देख अब्दुल चाचा रामभरोस का हाथ झटक धम्म से खेत में ही बैठ गए... और लगे रोने। मेरा तो कलेजा मुंह को आ गया.... ये अब्दुल चाचा को क्या हो गया... ? झट से पीछे मुड़ के गए उनके पास। चाचा तो एकदम कलेजा पीट-पीट कर आठ-आठ आंसू रो रहे थे। हम पूछे क्या हुआ चाचा ?

चाचा चिग्घारते हुए बोले, "रे बाबू रे बाबू.... हमारा बधना चला गया रे....! दस बरस से हमारे साथ था...! अपना-पराया सब साथ छोड़ दिया.... पर ई बधना अभी तक निबाह रहा था.... ई गनेसिया हमारे बधना की जिन्दगी छीन लिया रे बेटा.... अब हम क्या लेकर रहेंगे रे बाबू... ! ई रमभरोसिया.... रे तू हमको काहे बचाया... मरने देता हमको गिर कर.... हमारे बधना को तो बचा लेता रे मुद्दैय्या.... अब हम क्या लेकर रहेंगे रे बाप!''

हमने देखा हे भगवान! .... अब्दुल चाचा तो ऐसा विलाप कर रहे हैं मानों बधना नहीं चच्ची हो। फिर भी हम अपना गीता-ज्ञान बघारने लगे। उको समझाए। "क्या चाचा आप भी इतना समझदार होकर इअस मामूली बधना के लिए रो रहे हैं...? इन चीजों का तो आना-जाना लगा रहता है। अभी आपको कुछ हो जाता तो?"

चाचा आंसू से तर-बतर घिघियाते हुए बोले, "मर जाने दो हमें... अब बधना बिना भी क्या जीना.... !"

हम बोले, "अरे चच्चा ! बधना का क्या है, एक गया दूसरा आएगा...। चलिए अभी कारी पंडित से नया बधना आपको ख़रीद देते हैं। रोइए मत।"

इस पर अब्दुल चाचा अपना आंसू पोछते हुए बोले, "न रे बेटा.... बात नया बधना का नहीं है। नया तो मिलिए जाएगा। पर हमरा वो बधना तो नहीं ही मिलेगा न। उसकी बात जुदा थी। वह हमारा सब कुछ देखा हुआ था... हम उसका देखे हुए थे। अब तो जो दूसरा आएगा... वह भी हमरा सब कुछ देख लेगा और पता नहीं इअस बधना जैसे पचा के रखेगा कि हमारा तन देख कर समूचे गाँव मे चुगली कर देगा...!"

हम्म्म्म.... अब हमारी समझ में आया कि चाचा फजूल का नहीं रो रहे थे। बात में तो दम था। हमारे पीछे लड़का लोग "चाचा के तन बधना देखा... बधना के तन चाचा!" कह-कह के ताली पीट कर हंस रहा था। हम सब को डांटे। सब चुप हुए। फिर चाचा को किसी तरह सांत्वना दिला कर गाँव का रास्ता पकराए।

तभी लखना कहने लगा, "बूढा सठिया गया है। बधना के लिए भी कोई ऐसे रोता है ???”

हम उसको समझाए, "धुर्र बुरबक! समझा नहीं... चाचा के तन ई बधना देखा और बधना के तन चच्चा देखे थे। मतलब चाचा बधना के लिए नहीं रो रहे थे। बधना तो सच में फिर से आ जाएगा.... मगर क्या पता वो भी इसी बधने की तरह वफादार होगा? इस बधने पर जो उनका विश्वास था उसके लिए रो रहे थे चाचा। सच ही तो  कह रहे थे चाचा कि अब तो जो नया आएगा वह भी चाचा का सबकुछ देखेगा... लेकिन क्या पता कि उसी पुराने बधने की तरह भरोसेमंद होगा... ?”

तब सब लड़कों के समझ मे आयी चाचा की बात। और उसी दिन से ये कहाबत भी बन गयी।

नए के प्रति अंदेशा और पुराने वफादार के प्रति विश्वास व्यक्त करने के लिए, लोग अक्सर इस कहावत का प्रयोग करते हैं।

11 टिप्‍पणियां:

  1. करन जी सच कहू.. वो देशी भाषा में ये सीरीज बहुत जमता है.. इसमें थोडा अर्तीफीसीअल सा लगता है.. फिर भी रोचक और सारगर्भित !

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  2. अब्दुल चाचा कैसे न रोते। गावों में अभी एक्सचेंज ऑफर शुरू नहीं हुआ न!

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  3. रोचक प्रसंग...पढ़कर कुछ प्रेरणा भी मिली।

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  4. अच्छा लगा ये प्रसंग. शुक्रिया पढाने के लिए.

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  5. बधना का वद्ध ना करना चाहिए था... सही माने में वो लंगोटिया यार था चचा का!! अच्छा लगा!

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  6. बहुत ही बढि़या प्रस्‍तुत‍ि ।

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