मध्यकालीन भारतधार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-२)मनोज कुमार |
मध्यकालीन भारत - धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-१) |
श्री शंकराचार्य जब उत्तरी भारत में सक्रिय थे उसी समय दक्षिणी भारत में वैष्णव संत अलवार और शैव संत नयनार ने मोक्ष प्राप्ति के लिए भक्ति का रास्ता लोगों को दिखाया। इन लोगों ने मुक्ति के लिए इष्ट देवता के प्रति निष्ठा की शिक्षा दी। उन्होंने भक्ति को मोक्ष का सर्वश्रेष्ठ साधन माना। उन्होंने अपने विचार तमिल में कविताओं एवं छंदों के माध्यम से लोगों के सामने रखे। इनके विचार सर्वसाधारण की समझ में आते थे। शिव और विष्णु के प्रति समर्पित इनके छंद “तिरूमुरई’ और “नलयिराप्रबंधम” में संकलित हैं। ग्यारहवीं शताब्दी में श्री शंकराचार्य के अद्वैतवाद एवं दक्षिण भारतीय भक्तिवाद के विचारों को वैष्णव संत रामानुज ने संयुक्त कर प्रस्तुत किया। उनके इस सफल प्रयास के कारण उन्हें मध्यकालीन भारत के भक्ति आंदोलन का संस्थापक कहा जाता है। उनका जन्म तिरुपति के निकट 12वीं शताब्दी के प्रथम चरण में हुआ था। भक्ति आंदोलन के प्रमुख संतों में आचार्य रामानुज का नाम सर्वोपरि है। आचार्य रामानुज विशिष्टाद्वैतवाद के प्रवर्तक थे। वे सगुण ईश्वर के उपासक थे। उन्होंने विशिष्ट अद्वैतवाद की धारणा प्रतिपादित की। उनका मानना था कि कर्म का रास्ता लोगों को माया में उलझा देता है। इसलिए उसकी मुक्ति संभव नहीं है। इसी तरह ज्ञान का मार्ग उसे इच्छाओं और सम्पत्ति की कामना से मुक्ति दिलाएगा, और यह मुक्ति भी अधूरी है। अत: उनके अनुसार सिर्फ भक्ति के द्वारा ही मोक्ष संभव है। जहां एक ओर वे श्री शंकराचार्य के अद्वैतवाद में विश्वास रखते थे वहीं दूसरी ओर इस मत को ग्रहण करने के लिए व्यक्ति में किसी खास प्रकार की योग्यता होना आवश्यक नहीं मानते थे। संत रामानुज का मानना था कि सर्वोच्च सत्ता की विशेषता उसकी दया में है। उनका कहना था कि मोक्ष परमात्मा की दया से संभव है। उनकी दया प्राप्ति के लिए हमें उनके (ईश्वर के) प्रति अनन्य भक्ति भाव से निष्ठावान होना चाहिए। इस मत के अनुसार ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है। वहीं सृष्टि की रचना करने वाले हैं, पालक है और संहारकर्ता है। जीवात्मा और जड़ जगत ईश्वर के ही भाग है। तीनों ही एक हैं। यह सत्य होते हुए भी उससे अलग है। जीवात्मा ईश्वर भक्ति के द्वारा ही मोक्ष पा सकती है। संत रामानुज के भक्ति आंदोलन के सिद्धांत धार्मिक सुधार तक ही सीमित थे, इसमें समाज सुधार के प्रति रुचि नगण्य थी। बल्कि उनका सिद्धांत वर्ग के बीच अंतर का अनुमोदन करता था। इन दो अलग-अलग वर्ग के व्यक्तियों के लिए मोक्ष प्राप्ति के लिए उन्होंने अलग-अलग मार्ग बताए : भक्ति :- उच्च कुल में जन्मे व्यक्ति के लिए श्रद्धा या निष्ठा के द्वारा मोक्ष प्राप्ति तथा प्रपत्ति :- निम्न कुल में जन्मे व्यक्ति को, उनके अनुसार आत्म समर्पण के द्वारा ही मोक्ष संभव था। हालाकि उच्च जातियों के अधिकारों को उन्होंने क़ायम रखा फिर भी हम यह मान सकते हैं कि उन्होंने निचले तबके के लोगों के लिए मोक्ष का मार्ग प्रशस्त किया, चाहे वह भेद-भाव मूलक आत्म समर्पण द्वारा ही क्यों न बताया गया हो। उस युग में सामाजिक समानता की दिशा में उठाया गया यह पहला महत्वपूर्ण क़दम था। उनके सम्प्रदाय ने लाखों शूद्रों और अछूतों को अपना अनुयायी बनाया। आचार्य रामानुज मानव कल्याण की भावना से ओत-प्रोत, प्रेम और उदारता की महान मूर्ति थे। आचार्य रामानुज ही ऐसे संत थे जिन्होंने छुआछूत की भावनाओं को अलग रखकर निम्र वर्ग के व्यक्ति के लिए ईश्वर भक्ति के निषेध को अनुचित माना। यहां तक कि उन्होंने हरिजनों को ईश्वर भक्ति के लिए मंदिर प्रवेश को भी सही ठहराया। संत निम्बार्काचार्य एवं संत माधवाचार्य उनके समकालीन थे। संत निम्बार्क मराठा क्षेत्र में भक्ति आंदोलन के संस्थापक थे। उन्होंने कृष्ण भक्ति पर बल दिया। उनके विचार काफी क्रंतिकारी थे। वे धार्मिक कर्मकाण्ड (व्रत, उपवास, आदि) में विश्वास नहीं रखते थे। ब्राह्मणों की सर्वोच्चता को उन्होंने नकारा। वे मानते थे कि सिर्फ भक्ति या श्रद्धापूर्ण निष्ठा से ही मोक्ष संभव है। उन्होंने कहा कि जीवन में दु:ख के बाद सुख एवं सुख के बाद दु:ख का क्रम चलता रहता है अत: आदमी जब सुख में रहे तो उसे भगवान को भूलना नहीं चाहिए तथा दु:ख में उसकी निंदा नहीं करनी चाहिए। माधवाचार्य ने कहा कि ईश्वर एवं आत्मा पृथक हैं। वे लक्ष्मी-नारायण के भक्त थे। उनका मानना था कि गुरु की सहायता से एवं ईश्वर के प्रति प्रेम से मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर सकता है। संत रामानुज के अनुयायियों में सबसे महत्वपूर्ण नाम है संत रामानंद। उनका जन्म 14वीं शताब्दी में इलाहाबाद के निकट एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। भक्ति आंदोलन को उत्तरी भारत में लाने का श्रेय उन्हीं को जाता है। यह कहना कदापि ग़लत नहीं होगा कि उत्तरी भारत के भक्ति आंदोलन के वे अगुआ थे। भगवान विष्णु के एक दूसरे अवतार राम उनके आराध्य देव थे एवं उन्होंने राम पंथ को प्रतिपादित किया। उस काल के विचारकों में वे पहले थे जिन्होंने स्पष्ट रूप से और ज़ोरदार ढ़ंग से जातिप्रथा के विरुद्ध एवं स्त्रियों की समानता के लिए आवाज़ उठाई। उन्होंने अपने निकटतम शिष्यों में निम्न जाति के कई लोगों को स्वीकार कया। जिसका सुखद परिणाम यह हुआ कि उनके बाद भी हमें कई धार्मोपदेशक निम्न जाति के भी देखने को मिलते हैं। यह स्थापित प्रथा में एक क्रांतिकारी बदलाव था। संत रामानंद के विचारों ने लोगों के दिमाग में जागृति की लहर पैदा की। संत रामानंद विचार से कट्टरपंथी थे, किन्तु आचार से दयालु और उदार। उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायी दो दलों में बंट गए। एक दल में संत नाभा दास और तुलसी दास जैसे वर्णाश्रम धर्म में विश्वास रखने वाले संत थे तो दूसरे दल में कबीर दास जैसे संत थे जो आडम्बरपूर्ण धार्मिक प्रथाओं का विरोध करते थे। नान्हा, पीपा, धन्ना, साईं दास, रैदास, गुरु नानक आदि उनके अन्य प्रसिद्ध शिष्य हैं। ये सभी रामानंद परंपरा के उदारवादी संत थे। |
गुरुवार, 7 अक्टूबर 2010
मध्यकालीन भारत - धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-२)
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...भावपूर्ण अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत ग्यानवर्द्धक आलेख है। मनोज जी के आलेख सदा प्रभावित करते हैं। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंतुलसी दास और कबीर दास ..रैदास सब रामानंद के अनुयायी थे नहीं पता था ...बहुत ज्ञानवर्द्धक लेख ...आभार
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर और ग्यान्वर्धक पोस्ट.
जवाब देंहटाएंise lekh se so jankaaree milee gyanvardhak rahee.....
जवाब देंहटाएंAabhar .
ise lekh se so jankaaree milee gyanvardhak rahee.....
जवाब देंहटाएंAabhar .
ise lekh se so jankaaree milee gyanvardhak rahee.....
जवाब देंहटाएंAabhar .
bhakti kaal ke bare me mahtvapurn jankariyaan mileen ... guru shishya sambandhon ke naye udaharn bhi jane ... :)
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्द्धक लेख ...आभार
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक आलेख.. बहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत ही ज्ञानवर्धक पोस्ट ...बड़े विस्तार से जानकारी दी है..बिलकुल संग्रहणीय आलेख है.
जवाब देंहटाएंशोधपरक आलेख प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंयह एक सुखद अनुभव है कि जिस वर्ग के कुछ लोग छुआछूत और विशेषाधिकार के हिमायती थे,उसी वर्ग के कुछ अन्य लोग इन सबके विरोधी थे। विकास की यात्रा ऐसे ही आगे बढ़ती है।
जवाब देंहटाएंमध्यकालीन भारत की धार्मिक सहनशीलता पर सुंदर विवेचनात्मक आलेख के सफल प्रस्तुतिकरण के लिए हार्दिक बधाई . एक साहित्यकार की इतिहास -दृष्टि आपके आलेख में साफ़ झलकती है. यह और भी महत्वपूर्ण है कि ब्लॉग पर आप इसे धारावाहिक प्रस्तुत कर रहे है . आभार .
जवाब देंहटाएंबहुत ज्ञानवर्धक लेख । रामानुज जी के बारे में और उनके शिष्यों के बारे में जानकर प्रसन्नता हुई ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही गंभी विवेचना, लेकिन अत्यंत सरल और सुबोध शैली में. देखा यही गया है की विषय की दुरुहता के साथ शैली भी दुरूह हो जाती है लेकिन आपके साथ ऐसा नहीं है. भाषा पर अधिकार और विषय का visheshagy होने के कारण ही यह संभव हो पाया है. आपकी सेवा अत्यंत सराहनीय है. यह नए पाठकों को अरुचिकर भी नहीं लगती. यही इसकी सबसे बड़ी सफलता है. साधुवाद और ढेर सारी बधाईया ..
जवाब देंहटाएंबहुत ही गंभी विवेचना, लेकिन अत्यंत सरल और सुबोध शैली में. देखा यही गया है की विषय की दुरुहता के साथ शैली भी दुरूह हो जाती है लेकिन आपके साथ ऐसा नहीं है. भाषा पर अधिकार और विषय का visheshagy होने के कारण ही यह संभव हो पाया है. आपकी सेवा अत्यंत सराहनीय है. यह नए पाठकों को अरुचिकर भी नहीं लगती. यही इसकी सबसे बड़ी सफलता है. साधुवाद और ढेर सारी बधाईया ..
जवाब देंहटाएंबहुत ही ज्ञानवर्धक पोस्ट ...बड़े विस्तार से जानकारी दी है..बिलकुल संग्रहणीय आलेख है
जवाब देंहटाएंज्ञान वर्धक अच्छेतरीके से लिखा गया लेख |बधाई आशा
जवाब देंहटाएंMAnoj ji
जवाब देंहटाएंyeh lekh kaphi Gyanvardhak hai
jo Shrankla aapne shuru ki hai ise yun hi jari rakhiyega......!
Shuvhkamnayan