शिकायती टट्टू
(व्यंग्य रचना)
अरुण चन्द्र रॉय
लोकतंत्र का चरित्र बदल रहा है. जनता जाग गई है और यही है असली समस्या. जनता हो गई है शिकायती टट्टू. हर चीज़ में शिकायत. हर बात में शिकायत. ठीक है कि हर एक वोट जरुरी है लेकिन अब देश के हर व्यक्ति की सुविधा और जरुरत का ख्याल तो रखा नहीं जा सकता ना. लोग पीछे पड़ गए हैं कि सेवा का अधिकार अधिनियम पास हो गया है तो सब काम समय पर होना चाहिए. लेकिन यदि सब काम समय पर होना ही होता तो अधिनियम की क्या जरुरत थी.
जनता को शिकायत करने की आदत है, तो आदत है सरकार की भी कान में तेल डाल सोने की. डंका बजा बजा के जनता सरकार को जगाना चाह रही थी लेकिन हुआ क्या? उदाहरण के तौर पर जनता छोटी छोटी बातों पर शिकायत करने लगती है. अब सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दुकान पर यदि चीनी नहीं मिले तो शिकायत, दाना छोटा हो जाये तो शिकायत. अरे भाई ! सरकार कोई हंसी खेल थोड़े ही है! सरकार है, इसे देश को चलाना है. अब सरकार चीनी के दाने पर नियंत्रण रखें या दाम पर. दाम पर नियंत्रण रखती हैं तो सरकार अल्पमत में आ जाती है. बड़े बड़े घाघ बैठे हैं … सरकार में … जो देश की मिठास पर कब्ज़ा जमाये हुए हैं. दाना के बड़े छोटे होने को तो संभाला भी जा सकता है, लेकिन जनता से जरुरत तो पांच साल में एक बार ही पड़ती है. उसे तो अंत में मना ही लिया जाता है.
शिकायती टट्टू तो हो गई जनता लेकिन स्मृति दोष भी तो है. जिस चौखट से दुत्कारे जाते हैं, वहीँ दुम दबाये, दुम हिलाते पहुँच जाते हैं. अब पिछली बार साइकिल के पहिये से बाँध जनता को कितना घसीटा गया था तो जनता ने भी पाला बदल लिया. जब पांच साल तक हाथी के पैरो के नीचे कुचलने के बाद फिर से उसी साइकिल के पहिये से बंधना पड़ गया. अब क्या हक़ है जनता को शिकायत करने का. कमल के दलदल में फंसे, या हाथ की ओर से झन्नाटेदार थप्पड़ खाए... विकल्प सब एक जैसे हों तो बेचारी जनता भी क्या करें.. शिकायती टट्टू होकर उसे तो बोझ ही ढोना है... महंगाई का, भ्रष्टाचार का, गुंडा राज का, पुलिसिया रौब का. और यह सूची तो अंतहीन है.
आज कल एक शिकायत और है कि क्रिकेट के मैच फिक्स होने लगे हैं. लेकिन कोई पूछे इनसे कि क्या छक्का चौका देखने में क्या इससे आनंद कम हो जाता है. क्रिकेटर क्या हैं... रेस में दौड़ने वाले घोड़े से ना तो कम हैं, न अधिक. घोड़े के दौड़ने से जो जोश और उन्माद आता है क्रिकेट के मैदान में भी वही आनंद आता है इन दिनों. परदे के पीछे देखने की क्या जरुरत पड़ गई है जनता को. मैच देखो. विज्ञापन देखो, क्रिकेटर के विज्ञापन वाले उत्पाद खरीदो. खुश रहो. मैच को ऐसे देखो जैसे फिल्म देखते हो. डाइरेक्टर कहीं और होता है और किरदार तो बस किरदार होता है. इसमें क्या और कैसे शिकायत. आज कल जनता के हितैषी भी बहुत हो गए हैं. आधी जनता तो कभी रेल पर चढ़ती नहीं है उसके किराये पर जंग हो जाती है बेचारे मंत्री शहीद हो जाते हैं. शिकायती जनता विस्मित है.
जनता को थक तो जाना ही है एक दिन. जैसे थक गए हैं टूजी घोटाले, लोकपाल, सी डब्लू जी आदि आदि की ख़बरें पढ़कर, सुनकर, एक दिन ये शिकायती टट्टू भी थक जायेंगे. कब तक, कितनी जल्दी, ये देखने वाली बात होगी.
वाह भाई वाह भाई वाह भाई वाह ।
जवाब देंहटाएंसत्य कहा।
जवाब देंहटाएंटट्टू बनी शिकायती, जनता खाए जान ।
जवाब देंहटाएंधोखे की टट्टी करे, समुचित सकल निदान ।
सैकिल से रगड़ी गई, ताकी हाथी दाँत ।
गन्ने सा चूसी गई, फिर से वही जमात ।
झापड़ पहले खा चुकी, कमलनाल का मोह ।
दलदल से बचती फिरी, फँसी अँधेरी खोह ।
अब मैदानी पटकथा, छक्कों की बरसात ।
छक के देखें भद्रजन, छक्के लिखते जात ।।
रविकर जी अदभुद टिप्पणी... मन प्रसन्न हो गया...
हटाएंरची उत्कृष्ट |
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच की दृष्ट --
पलटो पृष्ट ||
बुधवारीय चर्चामंच
charchamanch.blogspot.com
आप कह रहे हैं तो आगे से शिकायत भी नहीं करेंगे !!
जवाब देंहटाएंसंतोष जी सरकार तो यही चाहती है...
हटाएंअब शिकायत पर भी टैक्स लगना चाहिए.
जवाब देंहटाएंअगले बज़ट में हो जाये तो आश्चर्य नहीं !
हटाएंab shikayat ham janta ka adhikar jo hai, bus usi ka farz ada karte hain chunav ke baad..lekin agar shikayat na kare to phir to Ram raj baithe triloka ho jaayega..
जवाब देंहटाएंbadiya prastuti..aabhar!
सत्य का विकृत रूप ही व्यंग का आकार ग्रहण करता है । आपके व्यंगात्मक आलेख से जो तथ्य ऊभर कर सामने आते हैं, उन पर यदि सकारात्मक रूप से विचार किया जाए तो जनता एवं सरकार की स्थिति हम सब के कृत्यों की ही देन है । जब भी किसी ने system को असंतुलित करने का प्रयास किया है, उसे सफलता नही मिली है । मेरी दृष्टि में पहले की तुलना में अभी काफी परिवर्तन हुआ है एवं आशा करता हूँ कि लोगों की मानसिकता भी बदलेगी । इस आलेख को पढ़ते समय डॉ. धर्मवीर भारती जी के "सूरज का सातवाँ घोड़" की कुछ पक्तिया उद्धृत कर रहा हूँ जो इस संदर्भ में सार्थक सिद्ध होंगी ।
जवाब देंहटाएं"पर कोई न कोई चीज़ ऐसी है जिसने हमेशा अँधेरे को चीरकर आगे बढ़ने, समाज-व्यवस्था को बदलने और मानवता के सहज मूल्यों को पुनः स्थापित करने की ताकत और प्रेरणा दी है। चाहे उसे आत्मा कह लो, चाहे कुछ और। और विश्वास, साहस, सत्य के प्रति निष्ठा, उस प्रकाशवाही आत्मा को उसी तरह आगे ले चलते हैं जैसे सात घोड़े सूर्य को आगे बढ़ा ले चलते हैं।’
आलेख अच्छा लगा । धन्यवाद ।
प्रेम जी व्यंग्य लेखन में यह पहला प्रयास था और आपकी टिप्पणी से अभिभूत हो गया हूं... लिखने की प्रेरणा मिली है...
हटाएंअच्छा व्यंग्य है!
जवाब देंहटाएंलोकतंत्र के बदलते चरित्र को आपने बहुत अच्छी तरह से पकड़ा है। हम तो टट्टू ही हैं जो अनावश्यक बोझ ढ़ोते रहते हैं, चाहे वह शिकायत करने का ही क्यों न हो।
जवाब देंहटाएंSARTHAK V SUNDAR PRASTUTI .AABHAR .
जवाब देंहटाएंMISSION LONDON-AB HOCKEY KI JAY बोल
बहुत खूब क्या बात है सोलह आने सही,
जवाब देंहटाएंbilkul sahi.
जवाब देंहटाएंअगर जनता शिकायत नहीं करेगी तो सरकार बदलेगी कैसे ..... जनता अपना काम करती है और सरकार तो काम करती ही नहीं ... बढ़िया व्यंग ...
जवाब देंहटाएंशिकायत ही सुधार लाती है
जवाब देंहटाएंबढ़िया व्यंग्य ..
kalamdan.blogspot.in
व्यंग्य का विषय अच्छा है लेकिन अभी कसावट की आवश्यकता है। प्रयास जारी रखें।
जवाब देंहटाएंअजीत जी.. ठीक कह रही हैं आप... पद्य लिखना अभी शुरू किया है.. कोशिश करूँगा कि लेखन में कसावट ला सकू...
हटाएंजहां खून में उबाल है,वहां शिकायतों का सिलसिला बंद हो चुका है। नतीज़ाः जनता गद्दी पर और सत्तारुढ़ सड़क पर!
जवाब देंहटाएंखूब जम कर क्लास ले ली
जवाब देंहटाएंbahot achcha likhe.....
जवाब देंहटाएंतीखा कटाक्ष....बढ़िया व्यंग्य ...
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक व्यंग...जनता शिकायत भी न करे तो क्या करे...
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