प्रेरक प्रसंग–26
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बेटी से नाराज़ बापू
प्रस्तुतकर्ता : मनोज कुमार
11 वर्षीय एक दलित लड़की लक्ष्मी को बापू ने बेटी के रूप में अपनाया था। आश्रम में हर किसी के लिए सूत कताई की न्यूनतम मात्रा तय थी। प्रत्येक शाम की प्रार्थना सभा में दिनभर काते हुए सूत की मात्रा की घोषणा की जाती थी। उसे रजिस्टर में दर्ज़ किया जाता था। एक दिन यह पता लगा कि लक्ष्मी दूसरे के सूत चुराकर अपने काते गए सूत में मिला देती थी।
इस मामले पर बापू के कमरे में बैठक हुई। उस बैठक में आश्रम के प्रबंधक मगनलाल भाई, महादेव देसाई, देवदास गंधी और मीरा बहन उपस्थित थे। बापू नाराज़ से ज़्यादा उदास दिख रहे थे। फिर भी वे संयत थे। उन्होंने गंभीर आवाज़ में कहा, “इस लड़की के लिए हर चीज़ का त्याग कर सकता हूं। स्वराज का खेल गेंद के खेल जैसा है। कभी एक टीम जीतती है, तो कभी दूसरी। किसी की जीत-हार से कोई ख़ुशी या दुख नहीं होता, लेकिन मेरी संतान कोई ग़लत काम करती है, तो मेरा ख़ून सूख जाता है। लक्ष्मी मेरी पहली बेटी है। मैं उसे बहुत प्यार करता हूं। लेकिन वह मुझे निराश करती रही है। मैं सोच नहीं सकता कि वह ऐसा कैसे कर सकती है।”
मगनलाल गांधी ने बापू को सांत्वना देने की कोशिश करते हुए कहा, “बापू वह एक बच्ची है।”
बापू ने कहा, “इसीलिए बात और बुरी है। बड़े लोग अगर बुरा आचरण करें, तो मुझे उतना बुरा नहीं लगेगा। लेकिन बच्चे तो मासूम होते हैं। वे मेरा विश्वास तोड़ते हैं, तो मुझे पीड़ा होती है। लक्ष्मी! इतनी छोटी उम्र में पाप!”
कोई कुछ नहीं बोला। सभी बापू की आंखों में उभरी पीड़ा स्पष्ट देख रहे थे। बापू बोलते रहे, “पहले तो मुझे उसे छड़ी से पीटने का ख्याल आया। फिर मैंने सोचा कि उपवास पर चला जाऊं। लेकिन और विचार करने पर मैंने तय किया कि अगर मैं उपवास पर गया, तो आश्रम में माहौल बिगड़ेगा। इस लड़की के ख़िलाफ़ गुस्सा और भी बढ़ेगा। नहीं, मैं उपवास पर जाने की घोषणा नहीं कर सकता।”
बापू देवदास की तरफ़ मुड़े और बोले, “तुम्हारी बात वह मानती है। उसे यहां ले आओ।”
देवदास के जाने के बाद कमरे में ख़ामोशी छाई रही। वहां का वातावरण बोझिल था। ऐसा लग रहा था कि बापू किसी फैसले पर पहुंच गए हैं। बापू ने कहा, “मैं खुद उससे निबटूंगा। जब तक वह मेरी बात सुनती है और झूठ नहीं बोलती तब तक उम्मीद बाक़ी है। मुझे विश्वास है कि बुरे से बुरे बच्चे को भी अपने जैसा बना सकता हूं। अगर लक्ष्मी अच्छी नहीं बनती, तो मैं कैसे बन पाऊंगा? मुझे उसके तार से अपने तार जोड़ने ही होंगे। अगर वह बुरी बनी रहती है, तो मैं भी अपने हृदय की बुराई से पार नहीं पा सकूंगा।”
देवदास को उस लड़की की बांह पकड़कर ज़बरदस्ती बापू की कुटिया में लाना पड़ा। जब उसे उनके कमरे में लाया गया तब वह बुरी तरह डर गई थी। वह रोते हुए बापू के पैरों पर गिर पड़ी। “मुझे मारो मत। मैं फिर कभी ऐसा नहीं करूंगी।”
बापू ने ठंडी आवाज़ में कहा, “इधर आओ सीधी खड़ी हो जाओ।”
“क्या आप मुझे फिर दूधाभाई के पास भेजेंगे?”
“नहीं, मैं तुम्हें तुम्हारे पिता के पास नहीं भेजूंगा।” बापू ने कहा। उनका चेहरा नरम पड़ रहा था, “लेकिन तुम्हें क़सम खानी होगी कि फिर कभी झूठ नहीं बोलोगी और चोरी भी नहीं करोगी। तुम्हें चुराए गए सूत लौटाने होंगे। हर दिन ढ़ाई हजार।”
लक्ष्मी ने वैसा ही किया।
***
बहुत बहुत बधाई -
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें ||
Prasang waqayee prerak hai!
जवाब देंहटाएंअच्छा है यह प्रसंग!
जवाब देंहटाएंरंगों के पावन पर्व होली की हार्दिक शुभकामनाएँ!
is prasang ko jan kar acchhi jaankari mili. aabhar.
जवाब देंहटाएंयहाँ बापू का कठोर रूप देखने को मिलता है...शायद लक्ष्मी को सुधारने के लिये ही उन्हें ऐसा करना पड़ा, वैसे तो बापू बच्चों को बहुत चाहते थे.
जवाब देंहटाएंबहुत बेहतरीन....
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
प्रेरक प्रसंग
जवाब देंहटाएंसही शिक्षा देता प्रसंग
जवाब देंहटाएंअनुशासित जीवन जीना इतना आसान भी नहीं होता ....कड़े निर्णय ...सख्ती ...तभी इंसान भीड़ काबू में कर सकता है ....
जवाब देंहटाएंप्रेरक प्रसंग...
ye sach hai bachey maar sey nahi pyaar sey baat manatey hai,bahut hi acha ho yadi bachey ka vikas mar-petai sey door prem key vatavaran mein ho,aaj aisey vatavaran ki sakht jarurat hai
जवाब देंहटाएंवाह!
जवाब देंहटाएंआपके इस प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 05-03-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर भी होगी। सूचनार्थ
देवदास के जाने के बाद कमरे में ख़ामोशी छाई रही। वहां का वातावरण बोझिल था। ऐसा लग रहा था कि बापू किसी फैसले पर पहुंच गए हैं। बापू ने कहा, “मैं खुद उससे निबटूंगा। जब तक वह मेरी बात सुनती है और झूठ नहीं बोलती तब तक उम्मीद बाक़ी है। मुझे विश्वास है कि बुरे से बुरे बच्चे को भी अपने जैसा बना सकता हूं। अगर लक्ष्मी अच्छी नहीं बनती, तो मैं कैसे बन पाऊंगा? मुझे उसके तार से अपने तार जोड़ने ही होंगे। अगर वह बुरी बनी रहती है, तो मैं भी अपने हृदय की बुराई से पार नहीं पा सकूंगा।”
जवाब देंहटाएंउपर्युक्त के आलोक में बापू के स्वभाव का परिचय मिलता है । वे "लक्ष्मी" को यह समझाना चाहते थे कि उसे भविष्य में ऐसा कार्य नही करना चाहिए । इसके साथ-साथ मेरे मन में यह विचार कौंधता है कि बापू एक सफल बैरिस्टर (BAR -AT- LAW) थे एवं शायद उनके मन में यह विचार भी आय़ा होगा कि - No one should be condemned unheard because it forms the basic tenets and fabric of principle of Natural justice.. अच्छी जानकारी मिली । धन्यवाद ।
इस प्रसंग से हमलोग भी सीख ले सकते हैं ....सार्थक पोस्ट
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