शनिवार, 24 मार्च 2012

पुस्तक परिचय-22 : हिन्द स्वराज : नव सभ्यता-विमर्श

पुस्तक परिचय-22

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1. व्योमकेश दरवेश, 2. मित्रो मरजानी, 3. धरती धन न अपना, 4. सोने का पिंजर अमेरिका और मैं, 5. अकथ कहानी प्रेम की, 6. संसद से सड़क तक, 7. मुक्तिबोध की कविताएं, 8. जूठन, 9. सूफ़ीमत और सूफ़ी-काव्य, 10. एक कहानी यह भी, 11. आधुनिक भारतीय नाट्य विमर्श, 12. स्मृतियों में रूस13. अन्या से अनन्या 14. सोनामाटी 15. मैला आंचल 16. मछली मरी हुई 17. परीक्षा-गुरू 18. गुडिया भीतर गुड़िया 19. स्मृतियों में रूस 20. अक्षरों के साये 21. कलामे रूमी

 

हिन्द स्वराज : नव सभ्यता-विमर्श

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मनोज कुमार

सन् 1909 में गांधी जी ने “हिंद स्‍वराज्‍य” पुस्‍तक लिखी थी। उन्‍होंने यह पुस्‍तक “किलडोनन कैसल” नामक पानी के जहाज पर लन्दन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए 13 से 22 नवम्बर की अवधि में हाथ से लिखी थी। जब उनका एक हाथ थक जाता था तो दूसरे हाथ से लिखने लगते थे। यह पुस्तक संवाद शैली में लिखी गई है। हिंसक साधनों में विश्‍वास रखने वाले कुछ भारतीय के साथ जो चर्चाएं हुई थी उसी को आधार बनाकर उन्‍होंने यह पुस्‍तक मूलरूप से गुजराती में लिखी थी। 12 और 20 दिसंबर 1909 में ‘इंडियन ओपिनियन’ के दो अंकों में “हिंद स्वराज्य” शीर्षक से गुजराती में यह प्रकाशित हुआ। जनवरी 1910 में इसका पुस्तकाकार रूप प्रकाशित हुआ। बाद में इसका अंग्रेजी में गांधी जी द्वारा और हिंदी में अमृतलाल ठाकोरदास नाणावटी द्वारा अनुवाद हुआ। बाद में स्वराज्य – स्वराज में बदल गया।

लोगों द्वारा अपने आपको समझने की कोशिश और अपने होने का अर्थ की तलाश चलती रहती है। व्यक्ति इससे जूझता रहता है। जब पश्चिमी सभ्यता उत्थान पर थी तब भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद चरम पर था। ऐसी परिस्थिति में अपनी सभ्यता और संस्कृति के अर्थ की तलाश करने में गांधी जी जुटे थे। और इसी तलाश के परिणाम के रूप में “हिन्द स्वराज्य” सामने आता है। माना तो यह जाता है कि गांधी जी को समझना आसान भी है और मुश्किल भी। हिंद स्‍वराज्‍य गांधीवाद को समझने की कुंजी है। गांधी जी उन दिनों जो कुछ भी कर रहे थे, वह इस छोटी सी किताब में बीजरूप में है। गांधी जी को ठीक से समझने के लिए इस किताब को बार बार पढ़ना चाहिए।

IMG_3630दरअसल यह पाश्चात्य आधुनिक सभ्यता की समीक्षा है। साथ ही उसको स्वीकार करने पर प्रश्नचिह्न भी है। इसमें भारतीय आत्मा को स्वराज, स्वदेशी, सत्याग्रह और सर्वोदय की सहायता से रेखांकित किया गया है। इस पुस्तक का प्रखर उपनिवेश-विरोधी तेवर सौ साल बाद आज और भी प्रासंगिक हो उठा है। नव उपनिवेशवाद से जूझने के संकल्प को लगातार दृढ़तर करती ऐसी दूसरी कृति दूर-दूर तक नज़र नहीं आती। इस पुस्तक के शती पर बहुत सी किताबें सामने आईं। वीरेन्द्र कुमार बरनवाल ने भी “हिन्द स्वराज : नव सभ्यता-विमर्श” नाम से एक पुस्तक लिखी है। इस सप्ताह हम इसी पुस्तक से आपका परिचय कराने जा रहे हैं।

श्री बरनवाल ने काफ़ी खोजबीन कर यह पुस्तक लिखी है। उन्होंने गांधी जी की मनोभूमि को गहराई में जाकर पकड़ने का प्रयत्न किया है। अपने खोज को निष्कर्ष देते हुए कहते हैं, “‘हिन्द स्वराज’ का मतलब गांधी।” और यहीं से शुरू हुआ लेखक का “पुरोवाक्‌” इस नोट के साथ खतम होता है कि “‘हिन्द स्वराज्य’ का अक्षर-अक्षर गांधी जी ने अपने हृदय के ख़ून से लिखा है।” लेखक इस पुस्तक में यह भी बताता चलता है कि “पिछले सौ सालों में हम उल्टी दिशा में इतना आगे निकल गए हैं कि हमें उनका रास्ता प्रतिगामी और नितान्त अव्यावहारिक लगता है।” इसलिए वह सलाह देता है कि “हिन्द स्वराज को न तो पवित्र पाठ के रूप में पढ़ाजाए और न ही इसे ध्वस्त करने के पूर्वाग्रह के साथ, बल्कि इसे सजग सम्यक्‌ विवेक के साथ आलोचनात्मक दृष्टि से पढ़ना चाहिए।” इसी दृष्टि से लेखक ने इस पुस्तक में उस पुस्तक पर विमर्श किया है जो स्वयं ही विमर्श के लिए मानक पुस्तक है। इस पुस्तक के महत्व को बताने के लिए इतना बताना काफ़ी है कि गांधी जी ने अप्रैल 1910 में यह पुस्तक टॉल्सटॉय को समर्पित की तो उन्होंने जवाब में गांधी जी को लिखा था, “मैंने तुम्हारी पुस्तक बहुत रुचि के साथ पढी। तुमने जो सत्याग्रह के सवाल पर चर्चा की है यह सवाल भारत के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं बल्कि पूरी मानवता के लिए महत्वपूर्ण है”।

बरनवाल जी ने इस पुस्तक की पृष्ठभूमि की विस्तार से चर्चा की है। गांधी जी के ऊपर सबसे ज़्यादा प्रभाव लियो टालस्टॉय का था। उन्ही दिनों गांधीजी ने लियो टालस्टॉय की पुस्तक “दि किंगडम ऑफ गॉड इज विदिन यू” पढ़ी थी। इस पुस्तक ने उनके मन को मथ डाला। टालस्टॉय का मत था कि नैतिक सिद्धांतों का हमें दैनिक जीवन में प्रयोग करना चाहिए। गांधीजी ने इस आदर्श को जीवन में प्रयोग करने की ठान ली। इसके अलावा रस्किन और थोरो का भी गांधी पर गहरा प्रभाव था।

बरनवाल जी बताते हैं कि “हिन्द स्वराज” मूलतः सभ्यता विमर्श है। मशीनी सभ्‍यता ने जिस तरह पृथ्वी के पर्यावरण को नष्‍ट किया है उसका परिणाम आज सामने है। आर्थिक साम्राज्‍यवाद ने विश्‍व में गैर बराबरी को और भी बढ़ाया है जिसके कारण विश्‍व में हिंसा का आतंकवाद बढ़ा है। ऐसी स्थिति में, “हिंद स्‍वराज” में जैसी सभ्‍यता व राज्‍य की कल्‍पना की गई है वह सम्‍पूर्ण विश्‍व के सामने विकल्‍प के रूप में है, जिसे आजमाया जाना चाहिए। हिन्द स्वराज’ के द्वारा गांधी जी ने हमें आगाह किया है कि उपनिवेशी मानसिकता या मानसिक उपनिवेशीकरण हमारे लिए बहुत खतरनाक सिद्ध हो सकता है। उन्होंने हिन्द स्वराज के माध्यम से एक ‘भविष्यद्रष्टा’ की तरह पश्चिमी सभ्यता में निहित अशुभ प्रवृतियों का पर्दाफ़ाश किया। इस खंड की चर्चा का निष्कर्ष बरनवाल जी इन शब्दों से करते हैं, “उथली नज़र को ‘हिन्द स्वराज’ का सभ्यता-विमर्श भले ही कुछ क्षण के लिए हिन्दुस्तान-केन्द्रित लगे पर सच्चाई तो ये है कि उस्के विश्वव्यापी और सार्वभौम आयाम हैं जो देश-काल की सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं।”

गांधी जी को लगता था कि हिंसा से हिंदुस्‍तान के दुःखों का इलाज संभव नहीं है। उन्‍हें आत्‍मरक्षा के लिए कोई अलग और ऊंचे प्रकार का शस्‍त्र काम में लाना चाहिए। गांधी जी ने दक्षिण अफ्रिका के सत्‍याग्रह का प्रयोग 1907 में ही शुरू कर दिया था। इसकी सफलता से उनका आत्‍मविश्‍वास बढ़ा था। यह पुस्‍तक द्वेषधर्म की जगह प्रेमधर्म सिखाती है। हिंसा की जगह आत्‍मबलिदान में विश्‍वास रखती है। पशुबल से टक्‍कर लेने के लिए आत्‍मबल खड़ा करती है। गांधी जी का मानना था कि अगर हिंदुस्‍तान अहिंसा का पालन किताब में उल्लिखित भावना के अनुरूप करे तो एक ही दिन में स्‍वराज्‍य आ जाए। हिंदुस्‍तान अगर प्रेम के सिद्धांत को अपने धर्म के एक सक्रिय अंश के रूप में स्‍वीकार करे और उसे अपनी राजनीति में शामिल करे तो तो स्‍वराज स्‍वर्ग से हिंदुस्‍तान की धरती पर उतरेगा। लेकिन उन्हें इस बात का एहसास और दुख था कि ऐसा होना बहुत दूर की बात है।

बरनवाल जी बताते हैं कि इस पुस्तक में गांधी जी ने आध्यात्मिक नैतिकता की सहायता से हमारी अर्थनैतिक और सैनिक कमजोरी को शक्ति में बदल दिया। अहिंसा को हमारी सबसे बड़ी शक्ति बना दी। सत्याग्रह को अस्त्र में बदल दिया। सहनशीलता को सक्रियता में बदल दिया। इस प्रकार शक्तिहीन शक्तिशाली हो गया। गांधी जी को मनोविज्ञान की गहरी समझ थी। वे मानते थे कि विकास और समृद्धि के दूसरे दायरे की तलाश ज़रूरी है। व्यक्ति को आन्तरिक सुख और समृद्धि का क्षेत्र खुद खोजना चाहिए। वह साहित्य, कला या संगीत आदि का क्षेत्र हो या पीड़ित-वंचित की सेवा का हो। इससे अर्जित सुख और संतोष से बढ़कर कोई धन नहीं है।

बरनवाल जी यह बताते हैं कि “गांधी जी के आर्थिक-सामाजिक चिन्तन के केन्द्र में गांव की केन्द्रीयता सदैव बनी रही।” ‘हिन्द स्वराज’ में उन्होंने पाश्चात्य आधुनिकता का विरोध कर हमें यथार्थ को पहचानने का रास्ता दिखाया। ग्राम विकास इसके केन्द्र में है। वैकल्पिक टेक्नॉलोजी के साथ-साथ स्वदेशी और सर्वोदय को महत्व दिया सशक्तिकरण का मार्ग दिखाया। उनके इस मॉडेल के अनुसरण से एक नैतिक, आर्थिक, आध्यात्मिक और शक्तिशाली भारत का निर्माण संभव है।

गांधी जी मूलतः एक संवेदनशील व्यक्ति थे। वे अपने सिद्धांतों की कद्र करने वाले भी थे। उन्होंने पाश्चात्य सभ्यता को, परंपरागत भारत के समर्थक होने के बावजूद भी, अच्छी तरह पढा, समझा और फिर उसका विवेचनात्मक खंडन भी किया। उनके सामने यह बात स्पष्ट थी कि भारतीय-आधुनिकता सीमित होते हुए भी प्रभावी है। वर्तमान आर्थिक विश्वसंकट में गांधी जी की यह पुस्तक विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो उठी है। हालाकि कुछ खास वर्ग के लोग सोचते हैं कि गांधी जी देश को सौ वर्ष पीछे ले जाना चाहते हैं। लेकिन आज भारत हर संकट को पार कर खड़ा है। 1945 में गांधी जी के इस मत को कि देश का संचालन ‘हिंद स्वराज’ के माध्यम से हो, नेहरू जी ने ठुकरा दिया था। नेहरू जी का मानना था कि गांव स्वयं संस्कृतिविहीन और अंधियारे हैं, वे क्या विकास में सहयोग करेंगे। लेकिन आज भी हम पाते हैं की भारत रूपी ईमारत की नींव में गांव और छोटी आमदनी के लोग हैं। गांधी जी का ‘हिंद स्वराज’ इस वैश्वीकरण के दौर में भी तीसरी दुनिया के लिए साम्राज्यवादी सोच का विकल्प प्रस्तुत करता है।

गांधी जी के स्‍वराज के लिए हिंदुस्‍तान न तब तैयार था न आज है। यह आवश्‍यक है कि उस बीज ग्रंथ का हम अध्‍ययन करें। श्री बरनवाल ने गांधी चिन्तन के गहरे अध्ययन के उपरान्त यह पुस्तक लिखी है। अपनी बातों को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने जगह-जगह घटनाओं, विवरणों का ब्यौरा दिया है जिससे पुस्तक के पढ़ने के रुचि बनी रहती है। सत्‍य और अहिंसा के सिद्धांतों के स्‍वीकार में अंत में क्‍या नतीजा आएगा, इसकी तस्‍वीर इस बेजोड़ पुस्‍तक में है।

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पुस्तक का नाम

हिन्द स्वराज : नव सभ्यता-विमर्श

लेखक

वीरेन्द्र कुमार बरनवाल

प्रकाशक

राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड

संस्करण

पहला संस्करण : 2011

मूल्य

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पेज

323

6 टिप्‍पणियां:

  1. 1945 में गांधी जी के इस मत को कि देश का संचालन ‘हिंद स्वराज’ के माध्यम से हो, नेहरू जी ने ठुकरा दिया था। नेहरू जी का मानना था कि गांव स्वयं संस्कृतिविहीन और अंधियारे हैं, वे क्या विकास में सहयोग करेंगे। लेकिन आज भी हम पाते हैं की भारत रूपी ईमारत की नींव में गांव और छोटी आमदनी के लोग हैं। गांधी जी का ‘हिंद स्वराज’ इस वैश्वीकरण के दौर में भी तीसरी दुनिया के लिए साम्राज्यवादी सोच का विकल्प प्रस्तुत करता है।

    आपके द्वारा प्रस्तुत पुस्तक परिचय के रूप में प्रस्तुत "हिन्द स्वराज : नव सभ्यता-विमर् के बारे में अच्छी जानकारी निली । धन्यवाद ।

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  2. “‘हिन्द स्वराज्य’ का अक्षर-अक्षर गांधी जी ने अपने हृदय के ख़ून से लिखा है।”

    ‘हिन्द स्वराज’ में उन्होंने पाश्चात्य आधुनिकता का विरोध कर हमें यथार्थ को पहचानने का रास्ता दिखाया।

    आभार मनोज जी ||

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  3. पुस्तक की बढ़िया चर्चा... गाँधी जी से सम्बंधित विषयों पर आपका अध्यनन विस्तृत हो रहा है...

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  4. इतनी गहन पुस्तक-चर्चा के बाद जिन तथ्यों से अवगत हुआ वो निम्नलिखित हैं:
    १. आपका पुस्तक-प्रेम अतुलनीय है.
    २. आपकी पुस्तक-चर्चा करने का ढंग सतही कदापि नहीं है.. इतनी गहराई से वही लिख सकता है जिसने उस पुस्तक को पैशन (इसकी सही हिन्दी मैं नहीं जानता) के साथ पढ़ा हो..
    ३. आपका गांधी-प्रेम.
    जितनी भक्ति के साथ आप गांधी जी के व्यक्तित्व एवं कृत्तित्व की चर्चा करते हैं, वह आपके बापू के प्रति समर्पण को दर्शाता है.
    /
    पुनश्च:
    आपने जो पुस्तक का छाया-चित्र यहाँ प्रस्तुत किया है, वह निश्चय ही आपके व्यक्तिगत पुस्तकालय का है और इस पुस्तक के नेपथ्य में बापू से सम्बंधित समस्त पुस्तकों का एक दृश्य दिखाई दे रहा है.. आपके इस समर्पण को निर्विवाद रूप से मैं सलाम करता हूँ!!

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  5. सुन्दर पुस्तक परिचय.आभार.

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  6. स्वराज्य हासिल होने के बाद से ही,स्वराज का मुद्दा जब-तब सुर्खियों में आता रहा है किंतु यह आंदोलन का रूप नहीं ले सका है। यह पुस्तक इस बात का संकेत है कि इस देश की मिट्टी से जुड़े लेखकों का अकाल नहीं हुआ है अभी। साहित्य-जगत स्वदेशी का अलख जगाए रखे,यह सिर्फ समय की मांग नहीं है,भविष्य की ज़रूरत भी है। अन्यथा तो तरह-तरह के बेचने वाले और उनके ख़रीदार हैं हीं।

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