शनिवार, 10 मार्च 2012

कुरुक्षेत्र ..... पंचम सर्ग .... भाग - 1 / रामधारी सिंह 'दिनकर '



प्रस्तुत संदर्भ में कवि अपनी कल्पना में युद्ध समाप्त होने के बाद का वर्णन कर रहा है .... कवि के मन की काश्मकश  और विजय हो लौटते युधिस्थिर के मन में चल रहे भावों का प्रस्तुतीकरण है ----
शारदे ! विकल संक्रांति - काल का नर मैं ,
कलिकाल - भाल पर चढ़ा हुआ द्वापर मैं ;
संतप्त विश्व के लिए खोजते  छाया ,
आशा में था इतिहास - लोक तक आया ।
 
पर हाय , यहाँ भी धधक रहा अंबर है ,
उड़ रही पवन में दाहक लोल लहर है ;
कोलाहल-सा आ रहा काल - गह्वर से ,
तांडव का रोर कराल क्षुब्ध सागर से ।
 
संघर्ष -नाद वन- दहन- दारू का भारी ,
विस्फोट वह्नि -गिरि का ज्वलंत भयकारी ;
इन पन्नों से आ रहा विस्र यह क्या है ?
जल रहा कौन ? किसका यह विकत धुआँ है ?
 
भयभीत भूमि के उर  में चुभी शलाका ,
उड़ रही लाल यह किसकी विजय - पताका ?
है नाच रहा वह कौन ध्वंस- असि  धारे ,
रुधिराक्त -गात , जिह्वा लेलिहम्य पसारे ?
 
यह लगा दौड़ने अश्व कि मद मानव का ?
हो रहा यज्ञ या ध्वंस अकारण भव का ?
घट में जिसको  कर रहा खड्ड संचित है ,
वह सरिद्वारि है या नर का शोणित है ?
 
मंडली नृपों की जिन्हें विवश हो ढोती,
यज्ञोपहार हैं या कि मान के मोती ?
कुंडों में यह घृत -वलित हव्य बलता है ?
या अहंकार अपहृत नृप का जलता है ?
 
ऋत्विक पढ़ते हैं वेद कि, ऋचा दहन की ?
प्रशमित करते या ज्वलित वह्नि जीवन की ?
है कपिश धूम प्रतिगान जयी के यश का ?
या धुँधुआता  है क्रोध महीप विवश का ?
 
यह स्वस्ति - पाठ है या नव अनल - प्रदाहन ?
यज्ञान्त -स्नान है या कि रुधिर - अवगाहन ?
सम्राट - भाल पर चढ़ी लाल जो टीका ,
चन्दन है या लोहित प्रतिशोध किसी का ?
 
चल रही खड्ड के साथ कलम भी कवि की,
लिखती प्रशस्ति उन्माद , हुताशन पवि की ।
जय -घोष किए लौटा विद्वेष  समर से
शारदे ! एक दूतिका तुम्हारे घर से -
 
दौड़ी नीराजन - थाल लिए निज कर में ,
पढ़ती स्वागत के श्लोक मनोरम स्वर में ।
आरती सजा फिर लगी नाचने-गाने ,
संहार - देवता पर प्रसून छितराने ।
 
अंचल से पोंछ शरीर , रक्त-माल धो कर
अपरूप रूप से बहुविध  रूप सँजो कर ,
छवि को संवार कर बैठा लिया प्राणों में
कर दिया शौर्य कह अमर उसे गानों में ।
 
हो गया क्षार , जो द्वेष समर में हारा
जो जीत गया , वो पूज्य हुआ अंगारा ।
सच है , जय से जब रूप बदल सकता है ,
वध का कलंक मस्तक से टल सकता है -
 
तब कौन ग्लानि के साथ विजय को तोले ,
दृग -श्रवण मूंदकर अपना हृदय टटोले ?
सोचे कि एक नर की हत्या  यदि अघ है ,
तब वध अनेक  का कैसे कृत्य अनघ है ?
 
रण - रहित काल में वह किससे डरता  है ?
हो अभय क्यों न जिस - तिस का वध करता है ?
जाता क्यों सीमा  भूल समर में आ कर ?
नर - वध करता अधिकार कहाँ से पा कर ?
 
क्रमश:
प्रथम सर्ग --        भाग - १ / भाग -२
द्वितीय  सर्ग  --- भाग -- १ / भाग -- २ / भाग -- ३
तृतीय सर्ग  ---    भाग -- १ /भाग -२
चतुर्थ सर्ग ---- भाग -१    / भाग -२  / भाग - ३ /भाग -४ /भाग - ५ /भाग –6 /भाग –7 /भाग – 8 /भाग - 9

9 टिप्‍पणियां:

  1. मनभावन प्रस्तुति पर बहुत बहुत आभार |

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  2. रण - रहित काल में वह किससे डरता है ?
    हो अभय क्यों न जिस - तिस का वध करता है ?
    जाता क्यों सीमा भूल समर में आ कर ?
    नर - वध करता अधिकार कहाँ से पा कर ? ......bahut achchi prastuti sangeeta jee.

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  3. बहुत ही बेहतरीन और प्रशंसनीय प्रस्तुति....
    शुभकामनाएँ

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  4. अच्छा पढते पढते कुछ सुधार भी अवश्य होगा मेरी लेखनी में....

    आपका आभार संगीता जी.
    सादर.

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  5. hindi sahity kke mahatvpoorn granthon ko blog par prastut karne ka yah prayas sarahniy hai .badhai

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  6. हिन्दी को बढ़ावा देने के आप द्वारा चलाए जा रहे अभियान में, मै भी आप के साथ हूँ!....यहाँ युधिष्ठीर के मन में हो रही उथल-पुथल को सुन्दर शब्दों में व्यक्त किया है आपने....धन्यवाद!

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  7. ऐसे अवसर कवि की कल्पना-शक्ति को चरम ऊंचाई पर ले जाते हैं क्योंकि यहां न किसी का संवाद है,न किसी की दिव्यदृष्टि। सब कुछ बस कवि के हाथ में है।

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