सरकारी स्कूल नक्सली नहीं परिवर्तनकारी पैदा करते हैं
अच्छा हुआ कि श्री श्री रविशंकर जी ने यह बयान दिया कि सरकारी स्कूल नक्सली पैदा करते हैं. कम से कम सरकारी स्कूल बनाम पब्लिक स्कूल की एक बहस तो शुरू होगी. इस विषय पर मेरा अध्यनन कुछ नहीं है लेकिन सरकारी स्कूल, कालेज और विश्वविद्यालय से पढ़ कर निकला हूं तो थोडा अहम् को ठेस तो लगा ही है.
पब्लिक स्कूल की अवधारणा
इतिहास का तो नहीं पता लेकिन मुझे लगता है कि पब्लिक स्कूल की अवधारणा भारत में अंग्रेज़ों के आने के बाद शुरू हुई है. कहीं पढ़ रहा था कि भारत में जातीय और धार्मिक विद्वेष पहले उतना नहीं था, यह तो अंग्रेज़ों ने आकर पैदा किया. उनके हित साधन के लिए, यानी भारत पर शासन करने के लिए भारतीय समाज में दो वर्ग पैदा करना ज़रुरी था, एक जो शासन करे और एक जिस पर शासन चले. शासक वर्ग को तब तक अलग नहीं किया जा सकता था जब तक कि उनके बच्चे को समाज से अलग न हों और वहीं से शुरू हुई अलग स्कूल की जरुरत. यहीं पडी थी पब्लिक स्कूल की नींव. देश आज़ाद तो हुआ लेकिन मानसिकता नहीं बदली. सो चलते रहे इस तरह के स्कूल. आर्थिक उदारीकरण के बाद समाज में यह खाई और बढ़ी और स्कूल बन गए स्टेटस सिम्बल. पब्लिक स्कूल बन गए बाज़ार. बाज़ार का नियम है एक उत्पाद तब तक नहीं चल सकता जब तक कि उसके प्रतिस्पर्धी उत्पाद को निकृष्ट न दिखाया जाय. बाज़ार में होड़ होना ज़रुरी है. यही होड़ आज अपने चरम पर है जो बेहतर पढाई के नाम पर मध्यवर्गीय भारतीय समाज की जेब काट रहा है.
भारत में विद्यालय
भारत एक विशाल देश है. अधिकाश लोगों को भारत के भौगोलिक, सामाजिक और आर्थिक विषमता और व्यापकता का आभास ही नहीं है. सरकारी आकड़ों को मान लें, तो भी अभी देश के आधे गाँव में चार घंटे बिजली नहीं पहुची है. सौ लोगों तक की आबादी वाले मोहल्ले तक सड़क पहुचने के लक्ष्य से काफी दूर है अपनी सरकार. ऐसे में स्कूल तक कितनी पहुंच होगी देश के नौनिहालों की, यह सहज सोचा और महसूस किया जा सकता है. देश में अभी लगभग सात लाख प्राथमिक विद्यालय हैं. लेकिन एक बच्चे को 1 से 3 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है प्राथमिक विद्यालय तक पहुचने के लिए. माध्यमिक विद्यालय तक यह दूरी और बढ़ जाती है. कालेज के लिए तो यह दूरी 25 से 50 किलोमीटर तक भी हो जाती है. जिन लोगों का कभी गाँव या सुदूर गाँव से पाला नहीं पड़ा है वे सोच भी नहीं सकते हैं कि बिना भवन और शिक्षक के कैसे स्कूल चलते हैं. यह तो है देश में शिक्षा की दयनीय तस्वीर. लेकिन हर दयनीय व्यक्ति नक्सली है, यह नहीं हो सकता.
सरकारी स्कूल बनाम पब्लिक स्कूल
देश में तीन तरह के विद्यालय हैं. एक खास सरकारी. एक पब्लिक स्कूल और एक बड़ा तबका स्कूल का सरकारी स्कूल को बदनाम करते हुए बिना मान्यता के चलते हैं. ऐसे स्कूलों की संख्या बड़ी तादाद में है. खैर यह एक अलग मुद्दा है. 52वे राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण आकडे के अनुसार देश में उच्च विद्यालय में लगभग 86 % बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं और शेष 14 % पब्लिक स्कूलों में, जिसमे असंगठित रूप से चल रहे पब्लिक स्कूल भी शामिल हैं. सरकारी स्कूल भी तीन तरह के हैं. एक केंद्रीय विद्यालय, जिसमे अधिकांशतः शहरी, सरकारी कर्मचारियों के बच्चे पढ़ते हैं. दूसरे सुदूर क्षेत्र में अवस्थित नवोदय विद्यालय और तीसरे देश के विभिन राज्यों में चलते प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च विद्यालय. गौरतलब है कि इन तीनो विद्यालयों का परीक्षा परिणाम लगातार तथाकथित पब्लिक स्कूलों को पीछे छोड़ रहा है.
एक अध्ययन के अनुसार 2001 से 2011 तक की अवधि में जवाहर नवोदय विद्यालय (जो कि एक सरकारी स्कूल ही है) में दसवी की परीक्षा में सफलता के परिणाम में लगातार सुधार हुआ है और 2001 में 87% पास परिणाम की तुलना में 2011 में पास हुए विद्यार्थियों की प्रतिशतता बढ़ कर 97.5% हो गई है. जबकि पब्लिक स्कूलों की पास प्रतिशतता 2011 में 92 प्रतिशत रही है. केंद्रीय विद्यालयों का औसत भी पब्लिक स्कूलों की तुलना में बेहतर ही है. भारतीय प्रसाशनिक सेवा अधिकारीयों पर किये गए एक अध्यनन के अनुसार 73% आई ए एस अधिकारी ग्रामीण पृष्टभूमि से होते हैं और सरकारी स्कूलों से पढ़े होते हैं.
जीवन में उपलब्धिया
एक पुस्तक "डाइवर्सिटी एंड चेंज़ इन माडर्न इण्डिया - एंटोनी ऍफ़ हीथ और रोज़र जेफरी (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस) " के अनुसार भारत में सफल जीवन जीने वाले लोग आम तौर ग्रामीण पृष्ठभूमि से आते हैं और उनमे परिवर्तन करने और नेतृत्व क्षमता अधिक होती है. देश में बदलाव लाने वालों की अगली कतार में वे हैं जिनका संघर्ष अधिक रहा है. ऐसे लोगों की सूची में देश के बड़े वैज्ञानिको, खिलाडियों, शिक्षाविदो के नाम हैं जिन्होंने आधुनिक भारत की नीव रखी है. भूतपूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम का नाम भी इसमें शामिल है. एक शोधपत्र "एक्सेस, सटिस्फैक्शन एंड फ्यूचर : अंडर ग्रैज़ुएट एजुकेशन इन इण्डिया - आर वर्मा " में स्पष्ट उल्लेख है कि सरकारी स्कूलों और खुद पढ़ कर आये छात्र में रचनात्मकता और नवोंन्मेषण तुलनात्मक रूप से अधिक होती है और वे अपने जीवन को नए नज़रिए से देखते हैं तथा नए समाधान के लिए उत्त्प्रेरक का काम करते हैं. इसके अतिरिक्त सरकारी स्कूल से सैकड़ों ड्रॉप आउट बच्चे ऐसे हैं जो कुशल, अर्धकुशल कामगार के रूप में देश के आर्थिक विकास में अपना योगदान कर रहे हैं. क्या श्रम का योगदान आर्थिक विकास के चित्र से हटा दिया जायेगा ?
ऐसे में, श्री श्री रविशंकर से आग्रह है,
आप कभी भारत के उन गाँव, कस्बो की यात्रा करें, सरकारी स्कूलों में एक दिन बिताएं, जहाँ बच्चे सूरज, चाँद, खेत खलिहान, फसल, तालाब, पोखर से सीखते हुए बड़े होते हैं. जीवन जीने की कला उनमे प्राकृतिक रूप से आती है. वे नक्सल नहीं होते. वे परिवर्तनगामी होते हैं.
सरकारी स्कूल – यानी असरकारी स्कूल!
बेहतरीन आलेख!
जवाब देंहटाएंअरुण जी, जब से इस विषय के बारे में सुना, मन तो कुलबुला रहा था कुछ लिखने को, पर किन्हीं कारणों से लिख न पाया। सच कहता हूं, अगर लिखा भी होता तो इससे अच्छा लिख नहीं पाता। दिल से निकली बात है, और सीधे दिल पर असर करती है।
जवाब देंहटाएंमनोज जी धन्यवाद. आपके प्रोत्साहन से ही लिखना संभव हो पा रहा है...
हटाएंआँखें खोलने में सक्षम आलेख
जवाब देंहटाएंbilkul sahi bat manoj jee....
जवाब देंहटाएंआप कौन से सरकारी स्कूल, कालेज और महाविद्यालय से पढकर निकले हैं? क्या आप इनका नाम बतायेंगे?
जवाब देंहटाएंब्लॉग संचालक होने के नाते पहले तो मैं ही बता दूं,
हटाएं१. मगरदही प्राइमरी स्कूल, समस्तीपुर
२. ब्रह्मपुरा मिडल स्कूल, मुज़फ़्फ़रपुर
२. ज़िला स्कूल मुज़फ़्फ़रपुर,
३. लंगट सिंह महाविद्यालय, मुज़फ़्फ़रपुर,
४. बिहार विश्वविद्यालय, मुज़फ़्फ़रपुर
इसमें गांव के गुरुजी का स्कूल नहीं जोड़ा है, क्योंकि उसका कोई नाम नहीं था, बस गुरुजी के नाम से चलता था।
अब श्रीमान जी आप अपने बारे में भी कुछ बताएंगे।
बहुत अच्छे।आपकी रचना मैं आपके नाम के साथ अपने ब्लॉग(hpsla.org) पर प्राकशित कर रहा हूँ?
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार नरेश जी
हटाएंअनुराग जी पढाई का ब्यौरा निम्नानुसार है...
जवाब देंहटाएंप्राथमिक विद्यालय, ग्राम रामपुर, मधुबनी, बिहार - कक्षा १ से ५
लक्ष्मीश्वर सिंह उच्च विद्यालय, सरसों पाहि, मधुबनी, बिहार (मेरे गाँव से आठ किलोमीटर दूर)- कक्षा ६ से १०
पी के राय मेरोरियल कालेज, धनबाद, बिहार (अब झारखण्ड) (तत्कालीन घर से २५ किलोमीटर) - कक्षा ११ से बी ए
विनोबा भावे विश्वविद्यालय, हजारीबाग, झारखण्ड एम ए
ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय - एम बी ए
अपने बारे में भी कुछ बताएं और यह पूछने का आशय भी !
अरुण चन्द्र रॉय
अनूप शुक्ल जी की इसी विषय पर लिखी गयी पोस्ट पर दिया गया कमेन्ट ही यहाँ पर दे रहा हूँ..
जवाब देंहटाएंहमें तो आज भी नहीं भूलता काठ की तख्ती पर खडिया के घोल से सरकंडे की कलम की वो लिखाई.. वो पहाड़े.. वो प्रार्थनाएं और वो कवितायें.. अपन तो उसी “आर्ट ऑफ लिविंग” में आजतक जी रहे हैं..
सरकारी स्कूल की दुर्दशा तो स्व. श्रीलाल शुक्ल से बेहतर कोई बयान ही नहीं कर सकता, लेकिन दुर्दशा नक्सलवाद की ओर ले जा रही है और फाइव-स्टार स्कूल वहाँ गैर-नक्सलियों की मैन्युफैक्चरिंग करेंगे..ये बात तो हाजमोला खाकर भी हजम नहीं होने वाली…
मेरे पड़ोस का एक बच्चा मुझसे हिन्दी की एक कविता पढ़ने आया जिसे करने का होम-वर्क उसे अंग्रेज़ी में लिखकर दिया गया था.. Write a poem of Sumitra Nandan Pant. बच्चा मेरे पास आकर बोला कि अंकल मुझे “सुमित्रा नंदन की पैंट” वाली कविता हिन्दी में लिखनी है!!
आज समझ में आया कि बड़ा होकर सुमित्रा नंदन की वही पतलून पहनकर वो बच्चा नक्सलियों का सफाया करेगा.
सलिल जी... आपकी टिप्पणी के बिना न मेरी पोस्ट पूरी होती है न लेख.... जहाँ मैं अपनी बात ख़त्म करता हूं वहां से आप पोस्ट को आगे बढ़ाते हैं...
हटाएंशिक्षा की स्तरीय विवेचना ने सम्पूर्ण भारत का रेखा चित्र तैयार कर दिया है
जवाब देंहटाएंगहन विवेचना और सत्य को रेखांकित करता प्रभावशाली आलेख...
जवाब देंहटाएंजाने किस भावावेश में या योजना में श्री श्री ने चकित करने वाला बयान दिया...
यह आलेख उन तक पहुचे वे पढ़ें देखें तुलना करें और विचारें....
सादर।
एक सार्थक आलेख पर आपको हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंसच्चाई यह है कि सरकारी स्कूल भले ही नक्सली बनाते हों पर वे हत्यारे तैयार नहीं करते, और हत्यारे बनने से बेहतर है कि नक्सली बन लिया जाए। आज की पीढी को न जाने क्या हो गया है,किसी को कुछ समझ में नही आ रहा है । हिंदी की तो चर्चा ही मत कीजिए, अंग्रेजी में भी जब उनसे पूछा जाता है कि तुम अंग्रेजी माध्यम से पढ़ते हो फिर भी शुद्ध अंग्रेजी न बोल सकते हो न लिख सकते हो। इस पर एक छात्र ने कहा कि अंकल आप पुराने जमाने के विद्यार्थी हो एवं हम सब Structural English पढ़ते हैं ।
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट से एक अनछुए जीवंत समस्या से साक्षात्कार हुआ । धन्यवाद ।
सरकारी स्कूल – यानी असरकारी स्कूल!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लिखा।
हम भी लिखे थे श्री श्री जी की बात पर आर्ट ऑफ़ लिविंग और टाट पट्टी वाले स्कूल
सार्थक लेख .... प्राथमिक शिक्षा तो मैंने भी सरकारी स्कूल में ही ली है ...
जवाब देंहटाएंआप कभी भारत के उन गाँव, कस्बो की यात्रा करें, सरकारी स्कूलों में एक दिन बिताएं, जहाँ बच्चे सूरज, चाँद, खेत खलिहान, फसल, तालाब, पोखर से सीखते हुए बड़े होते हैं. जीवन जीने की कला उनमे प्राकृतिक रूप से आती है. वे नक्सल नहीं होते. वे परिवर्तनगामी होते हैं.
जवाब देंहटाएंhum kisi ek line se kisi pure ghatana kram ko na to samajha pate na hi samajha pate sath hi sandarbh bhi spasht nahin hota .
THE GREAT MAN SHRI RAVISHANKAR JI SHOULD NOT SAY SUCH LINES BEACAUSE IT CAN HURT SOMEONE AS PER HIS THOUGHT AND DESIRE.WITHOUT REFERENCE AND PRESENCE IT COMES IN DIFFERENT FORM.
bahut prabhaav shali aalekh. ab sarkari school se naksali bante hain kahne vaalon ke muh band ho layenge.
जवाब देंहटाएंअक्षरश: सही कहा है आपने ... सार्थकता लिए हुए सटीक लेखन ...आभार ।
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही कहा है..बहुत सुन्दर विश्लेषण..बहुत सार्थक और सारगर्भित आलेख..
जवाब देंहटाएंसार्थक विश्लेषण ...
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