सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

पुस्तक परिचय - 4 , सोने का पिंजर ... अमेरिका और मैं ...

ajeet gupta

सोने का पिंजर ... अमेरिका और मैं ...
पिछले कुछ दिनों पूर्व मुझे डा० अजीत गुप्ता जी द्वारा लिखी यह पुस्तक पढने को मिली ... पुस्तक को पढते हुए लग रहा था कि सारी घटनाएँ मेरे सामने ही उपस्थित होती जा रही हैं ..यह पुस्तक उन लोगों को दिग्भ्रमित होने से बचाने  में सहायक हो सकती है जो अमेरिका के प्रति भ्रम पाले हुए हैं .निजी अनुभवों पर लिखी यह एक अनूठी  कृति है .
" अपनी बात " में कथाकार लिखती हैं कि उन्हें आठवें विश्व हिंदी सम्मलेन में भाग लेने के लिए अमेरिका जाने का सुअवसर मिला .. उनको देखने से ज्यादा देश को समझने की चाह थी ...रचनाकार के मन में बहुत सारे प्रश्न थे  कि ऐसा क्या है अमेरिका में जो बच्चे वहाँ जा कर वहीं के हो कर रह जाते हैं ..वहाँ का जीवन श्रेष्ठ मानते हैं ..माता पिता के प्रति अपने कर्तव्य को भूल जाते हैं .वो अपनी बात कहते हुए कहती हैं कि --" मैंने कई ऐसी बूढी आँखें भी देखीं हैं जो लगातार इंतज़ार करती हैं , बस इंतज़ार | मैंने ऐसा बुढ़ापा भी देखा है जो छ: माह अमेरिका और छ: माह भारत रहने पर मजबूर है . वो अपना दर्द किसी को बताते नहीं ..पर उनकी बातों से कुछ बातें बाहर निकल कर आती हैं ..


अजीत जी का मानना है कि -- अमेरिका नि: संदेह सुन्दर और विकसित देश है .. वो हमारी प्रेरणा तो बन सकता है पर घर नहीं ..
पुस्तक का प्रारंभ संवादात्मक शैली से हुआ है .. कथाकार सीधे अमेरिका से संवाद कर रही हैं ..जब वो बच्चों के आग्रह पर अमेरिका जाने के लिए तैयार हुयीं तो उनको वीजा नहीं मिला .. उस दर्द को सशक्त शब्दों में उकेरा है ...२००२ अप्रेल माह से जाने की  चाह पूरी हुई जुलाई २००७ में  जब  उनको अवसर मिला विश्व हिंदी सम्मलेन में भाग लेने का तब ही वो अमेरिका जा पायीं ..ज़मीन से जुड़े कथानकों  से यह पुस्तक और रोचक हो गयी है .. महानगर और गाँव की  पृष्ठभूमि को ले कर लिखी घटना सोचने पर बाध्य करती है ..
अमेरिका जिन बूढ़े माँ बाप को वीजा नहीं देता उसे भी सही बताते लेखिका हुए कहती हैं  -- " मेरे देश की  लाखों बूढी आँखों को तुमसे शिकायत नहीं है , बस वे तो अपने भाग्य को ही दोष देते हैं . वे नहीं जान पाते कि गरीब को धनवान ने सपने दिखाए हैं , और उन सपनों में खो गए हैं उनके लाडले पुत्र . मैं समझ नहीं पाती थी कि तुम क्यों नहीं आने देते हो बूढ़े माँ बापों को तुम्हारे देश में ? लेकिन तुम्हारी धरती पर पैर रखने के बाद जाना कि तुम सही थे .क्या करेंगे वे वहाँ जा कर ? एक ऐसे पिंजरे में कैद हो जायेंगे जिसके दरवाज़े खोलने के बाद भी उनके लिए उड़ने के लिए आकाश नहीं है ...तुम ठीक करते हो उन्हें अपनी धरती पर न आने देने में ही समझदारी है . कम से कम वे यहाँ जी तो रहे हैं वहाँ तो जीते जी मर ही जायेंगे ...
इस पुस्तक में बहुत बारीकी से कई मुद्दों को उठाया है ..जैसे सामाजिक सुरक्षा के नाम पर टैक्स वसूल करना ..बूढ़े माता पिता की  सुरक्षा करना वहाँ की  सरकार का काम है .. भारतीयों से भी यह वसूल किया जाता है पर उनके माता पिता को वहाँ बसने की  इजाज़त नहीं है ... वरना सरकार का कितना नुकसान हो जायेगा ...यहाँ माता पिता क़र्ज़ में डूबे हुए अपनी ज़िंदगी बिताते हैं ..
अमेरिका पहुँच कर होटल में कमरा लेने और भोजन के लिए क्या क्या पापड़ बेलने पड़े वो सब विस्मित करता है ..
पूरी पुस्तक  में भारत और अमेरिका को रोचक अंदाज़ में लिखा है ..अमेरिका की अच्छाइयां हैं तो भारत भी बहुत चीजों में आगे है ..
अपने अमेरिका प्रवास  के अनुभवों को बाँटते हुए यही कहने का प्रयास किया है कि हम भारतीय जिस हीन भावना का शिकार हो जाते हैं  ऐसा कुछ नहीं है अमेरिका में ... वो तो व्यापारी है ..जब तक उसे लाभ मिलेगा वो दूसरे देश के वासियों का इस्तेमाल करेगा ..
इस पुस्तक को पढ़ कर  अमेरिका के प्रति  मन में पाले भ्रम काफी हद तक कम हो सकते हैं ..रोचक शैली में लिखी यह पुस्तक मुझे बहुत पसंद आई ..
पुस्तक का नाम -- सोने का पिंजर .. अमेरिका और मैं
लेखिका --  डा० ( श्रीमती ) अजीत गुप्ता
प्रकाशक --- साहित्य चन्द्रिका प्रकाशन , जयपुर
प्रथम संस्करण -  २००९
मूल्य -- 150 / Rs.
ISBN - 978- 81 -7932-009-9

20 टिप्‍पणियां:

  1. " मैंने कई ऐसी बूढी आँखें भी देखीं हैं जो लगातार इंतज़ार करती हैं , बस इंतज़ार | मैंने ऐसा बुढ़ापा भी देखा है जो छ: माह अमेरिका और छ: माह भारत रहने पर मजबूर है . वो अपना दर्द किसी को बताते नहीं ..पर उनकी बातों से कुछ बातें बाहर निकल कर आती हैं .
    किसी भी रचना का मान उस समय संवेदनशील और.मन को आंदोलित कर जाता है जब वह रचना रचनाकार की निजी अनुभूतियों की उपज होती है । अपनी निजी अनुभूतियों के साथ तादाम्य स्थापित करती हुई पुस्तक " सोने का पिंजर...अमेरिका और मैं " ...की अंतर्वस्तु पढ़ने पर अवश्य अच्छी लगेगी । समय मिला तो इसे पढने की कोशिश करूंगा । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद ।

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  2. संगीताजी,आपका आभार। अपनी ही पुस्‍तक के बारे में क्‍या लिखूं, समझ नहीं आ रहा है। एक बार फिर आपका आभार।

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  3. पुस्तक तो मैंने नहीं पढ़ी है, पर संगीता जी आपने इतनी सरलता से उन भावनाओं की नब्ज़ को रखा है, जिससे उस पुस्तक के सार को समझा जा सकता है - बधाई हो अजीत जी को और आपको

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  4. संस्कृतियों का फर्क जीवन मूल्यों को भी परिवर्तित कर देता है ...
    समीक्षा अच्छी लगी !

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  5. संगीता जी, संभवतः यह आपकी पहली समीक्षा है --- पुस्तक का आपने बहुत ही सुंदर परिचय दिया है। ज़ारी राखिएगा।

    इस पुस्तक के परिचय साथ जो भावनात्मक विवरण है, वह काफ़ी प्रेरित कर रहा है, इसे पढ़ने को। अजित जी तो मझी हुई लेखिका हैं ही, उनके ब्लोग के आलेखों से उनकी लेखन शैली और विविधताओं से परिचित हूं ही। इस पुस्तक के माध्यम से उनके विचारों की जानकारी प्राप्त करने की उत्कंठा बढ़ गई है।

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  6. प्रेम सरोवर जी , अजीत जी , रश्मि जी , वाणी जी और मनोज जी ,

    आप सभी का आभार कि मेरे इस पुस्तक परिचय को पढ़ कर मेरा हौसला बढ़ाया .

    मनोज जी ,

    मुझमें समीक्षा करने की क्षमता नहीं है बस एक प्रयास मात्र है पुस्तक से परिचय कराने का .. और एक विश्वास भी खुद में कि इस तरह से पढ़ी हुयी पुस्तकों से परिचय कराया जा सके .. धन्यवाद देना छोटा लग रहा है पर यह भी न कहूँ तो गुस्ताखी होगी ... इस लिए धन्यवाद :):)

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  7. ऽब तो ये पुस्तक पढने की लालसा जागृत हो गयी है।

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  8. Ajit Gupta ki pustak ki aapne jo sankshipt samiksha ki hai wah kabile tariph hai. Sachmuch apna desh apna desh hota hai wo bat doosre jagah kaha milegi.

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  9. " मैंने कई ऐसी बूढी आँखें भी देखीं हैं जो लगातार इंतज़ार करती हैं , बस इंतज़ार | आपकी कलम से पुस्‍तक का परिचय बहुत सी बातों से परिचित करा गया ...बधाई के साथ आभार ।

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  10. सुन्दर समीक्षा. संगीता जी की समीक्षा है यह अंत तक पता नहीं चला. जब टिप्पणी पर पंहुचा तो जाकर पता चला. किताब के जो संवाद संगीता जी ने उधृत किये हैं वे किताब पढने की लालसा जागते हैं.. अजीत गुप्ता जी को पढता रहा हूं लेकिन इस पुँस्तक के बारे में जानकारी नहीं थी... बहुत बढ़िया... संगीता जी आपकी पहली समीक्षा उत्कृष्ट है...

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  11. बहुत सुन्दर समीक्षा!
    बड़ा ही रुचिकर पुस्तक परिचय!

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  12. सजग और विचारशील लेखिका अजित जी की पुस्तक की विषयवस्तु और उनके दृष्टिकोण का संगीता जी द्वारा दिया गया परिचयात्मक विवेचन पढ़ कर उनके विचार(पुस्तक में)जानने की उत्सुकता होती है .
    दोनों देशों में पर्याप्त संस्कृतिगत,ऐतिहासिक एवं भौगोलिक अंतर हैं.बहुत सी अच्छी बातें वहाँ भी हैं-सीखने लायक ,और कुछ दूसरे प्रकार की अच्छाइयाँ हमारे यहाँ हैं, सिखाने लायक दोनों में ताल-मेल बैठ जाये तो संतोषप्रद परिणाम ज़रूर मिलेंगे.
    वैसे सोने का पिंजर कहलानेवाली वहाँ की स्थितियाँ भी अब बहुत बदल गई हैं.

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  13. वो हमारी प्रेरणा तो बन सकता है पर घर नहीं ..
    Ekdam sach hai.
    Pustak padhne kaa man ho aaya hai.

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  14. वे हमारे बीच एक सम्माननीय ब्लॉगर हैं। उनकी टिप्पणियों से भी उनकी समझ का काफी पता चलता है। जो आप कह रही हैं,उसमें शक का कोई कारण नहीं।

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  15. आपकी इस समीक्षा को पढ़ कर अजीत जी की पुस्तक पढने की जिज्ञासा बढ़ गयी है ! उनके विचारों से परिचय यदा कदा उनके आलेखों के माध्यम से हो जाता है ! वे निश्चित रूप से अत्यंत परिपक्व व सुलझी हुई लेखिका हैं ! अमेरिका के सन्दर्भ में सबके अनुभव एवं विचार भिन्न हो सकते हैं और सबके पास अपने-अपने तर्कों के लिये सुदृढ़ आधार भी होता है ! आपकी समीक्षा बहुत अच्छी लगी ! शुभकामनायें !

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  16. ठीक ही कहा जाता है यदि किसी में काम करने की लगन हो तो उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं.संगीता दी ! ये बेशक आपकी पहली समीक्षा हो परन्तु आपकी लगन साफ़ दिखाई पढ़ रही है.और यह समीक्षा किसी भी मायने में कमतर नहीं लग रही.
    अजीत जी एक अच्छी लेखिका हैं और उनकी पुस्तक में जो भाव हैं उन्हें आपने बहुत ही व्यवस्थित ढंग से दर्शाया है.

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  17. sangeeta ji aapne bahut acchhi sameeksha ki is pustak ki. shayad is se acchhi sameeksha hona mushkil tha. maine to jab dr. ajit ji ki ye pustak padhi thi tabhi se unki mureed ho gayi thi, aur dili ichha thi ki is pustak ke anubhav sab koi padhe aur jane, isi liye is pustak ko maine apne office me bhi kaiyo ko padhne ko diya tha.

    sunder prayas.

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  18. ...यात्रा साहित्य…पढ़ने वाले उत्सुक होने लगे तो भी संकट है कि हर सप्ताह किताब पढ़ने का मन…वैसे ठीक भी होगा पढ़ना…हालांकि मुझे इस किताब को पढ़ने की रुचि नहीं हुई…समीक्षा बढ़िया है…किताब अपने को पसन्द नहीं आई अधिक…माफ़ी चाहूंगा…कड़ा बोलने के लिए…

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  19. संगीता दी आपने पुस्तक और उससे जुडी अजित जी क भावनाओं को बखूबी उकेरा है. बूढ़े माँ बाप का दर्द बच्चों से मिलने कि उनकी इच्छा.. सब कुछ पढ़ कर ऐसा लग रहा है कि मानों सामने ही घट रहा हो. सब कुछ बहुत ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है आपने भी.
    अच्छी लगी समीक्षा. बधाई

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  20. पुस्तक परिचय में यह चौथी समीक्षा संगीता स्वरूप जी द्वारा...इससे पूर्व तीन साहित्यिक पुस्तकों की समीक्षा मनोज जी कर चुके हैं। यह शृंखला अच्छी लग रही है। अजीत गुप्ता जी को मैंने अधिक नहीं पढ़ा है,लेकिन इस पुस्तक की समीक्षा से उन्हें पढ़ने की इच्छा जगी है। अमेरिका और भारत में बहुत सी भिन्नताएं है...समीक्षा से लगता है कि अजीत जी ने यह पुस्तक भावनात्मक शैली में लिखी है...निश्चित ही पुस्तक व्यक्तिगत भावनाओं का संपुट लिए हुए होगी...समीक्षा अच्छी लगी। ...आगे भी ऐसी ही समीक्षाओं का इंतजार रहेगा।

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