अंक-4
हिन्दी के पाणिनि – आचार्य किशोरीदास वाजपेयी
- आचार्य परशुराम राय
हिन्दी विद्यापीठ में रहते समय आचार्यजी के मन में उत्तमा की परीक्षा देने का विचार उठा। क्योंकि ग्रंथों का अवलोकन हो ही रहा था। उत्तमा के छात्रों की संख्या भी कम थी और वे आचार्य जी से अध्ययन में मदद भी लिया करते थे। उन्होंने यह भी सोचा इसी बहाने ग्रंथों में मन भी बहल जाएगा, क्योंकि पुत्र शोक से व्यथित थे ही। हिन्दी विद्यापीठ की परीक्षाओं में केवल हिन्दी के छात्र ही बैठ सकते थे और आचार्यजी ने पहले से ही विशारद कर रखा था। इसमें कोई तकनीकी कठिनाई नहीं थी। अतएव उन्होंने फार्म भर दिया। परीक्षा के कुछ पहले उन्हें श्री रामाज्ञा द्विवेदी “समीर“ से पता चला कि इस परीक्षा के लिए मौखिक परीक्षक श्री आनन्दी प्रसाद श्रीवास्तव हैं, तो उन्होंने अपना फार्म कार्यालय से लेकर फाड़ दिया। वे सीधे “समीर’ जी के पास गए और सब बता दिया। उनका मानना था कि जब ऐसे लोग परीक्षक होंगे तो इस परीक्षा की क्या इज्जत रहेगी। इस प्रकार वे इस परीक्षा से वंचित रह गए और ना ही उनके मन में फिर कभी इसके लिए इच्छा जगी।
आचार्य जी ने पुनः अध्यापन के क्षेत्र में उतरने का मन बनाया और आपने हिन्दी विद्यापीठ, इलाहाबाद से ही हरिद्वार के एक स्कूल में अध्यापक पद के लिए आवेदन पत्र भेज दिया था। नियुक्ति पत्र भी मिल गया। चालीस रुपये मासिक वेतन था, जिसकी ढाई रुपये की वेतन-वृद्धि के साथ अधिकतम सीमा साठ रुपये थी। आचार्य जी ने इस विद्यालय में 1929 में कार्यभार सँभाला और 1930 में वे स्थाई हो गए। इस प्रकार हरिद्वार में रहने की उनकी इच्छा पूरी हुई। पर उन्हीं दिनों कांग्रेस ने अपना सत्याग्रह (सविनय अवज्ञा) आन्दोलन छेड़ दिया और आचार्य जी भी उस आन्दोलन में कूद पड़े। परिणाम स्वरूप उन्हें अपनी नौकरी और एक माह के वेतन से हाथ धोना पड़ा।
इसके बाद वे खुलकर आन्दोलन में सक्रिय हो गए। इन्हीं दिनों उन्होंने अपनी पुस्तक रस और अलंकार लिखी। इस पुस्तक की विशेषता यह है कि उसमें जितने भी उदाहरण दिए गए थे, वे सभी उन्हीं के द्वारा रचे गए थे और तत्कालीन आन्दोलन को उद्वेलित करनेवाले थे। वे लिखते हैं कि शृंगार और वीभत्स रस के उदाहरण तक राजनैतिक पुट लिए हुए थे। इससे पता चलता है कि आचार्य जी केवल गद्य लेखक ही नहीं, अपितु कवि भी थे। यह पुस्तक हिन्दी रत्नाकर कार्यालय, बम्बई से छपी, पर छपते ही इसे बम्बई सरकार ने तुरन्त जब्त कर लिया। यह पुस्तक पं. मदन मोहन मालवीय को समर्पित की गयी थी। बाद में इस पुस्तक की एक प्रति जब आचार्य जी ने मालवीय जी को भेंट की, तो उन्होंने कहा- बड़ा तेज बघार लगाया है, मिर्चों का। जीरा आदि का बघार देते तो अच्छा रहता। इस पर आचार्य जी ने कहा था कि महाराज, भूतों को भगाने के लिए मिर्चों की धूनी ठीक रहती है। इस पर मालवीय जी मुस्करा दिए। इसी बीच आचार्य जी ने दूसरी पुस्तक साहित्य की उपक्रमणिका लिखी जिसे श्री नाथूराम प्रेमी जी ने रस और अलंकार के जब्त होने के बाद भी छापा।
आचार्य जी का प्रिय रस वीर रस था। उन दिनों वीर रस के दो मासिक पत्र निकलते थे- वीर सन्देश और महारथी। वीर सन्देश आगरा से निकलता था और महारथी दिल्ली से। इन पत्रों के लिए वे बिना कुछ लिए लेख छपने के लिए भेजा करते थे। इस समय की एक घटना का उल्लेख करते हुए आचार्यजी ने लिखा है कि उन्हीं दिनों श्री वियोगी हरि जी की एक पुस्तक वीर सतसई प्रकाशित हुई थी। पर उन्हें कविता की दृष्टि से यह पुस्तक अच्छी नहीं लगी, कुछ दोहों को छोड़कर। अतएव, वीर रस प्रिय होने के बावजूद आचार्यजी ने इस पर कुछ न लिखना ही उचित समझा। हाँ, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पं. चन्द्रबली पाण्डेय नामक एक एम,ए. के छात्र का एक आलोचनात्मक लेख इस पुस्तक पर सरस्वती में प्रकाशित हुआ, जिसमें वीर सतसई के एक दोहे को रद्दी करार दिया गया था। जबकि वह उन कुछ दोहों में से एक था, जिन्हें आचार्य जी सर्वोत्कृष्ट मानते थे। अतएव आचार्य जी ने उस दोहे की अच्छाइयों को खोलकर समझाते हुए एक लेख लिखा और दोहे का अर्थ न समझने के कारण उक्त आलोचक की कुछ निन्दा भी की। यह लेख भी उसी पत्रिका में छपा। बाद में जब आचार्यजी को पता चला कि आलोचक एक एम.ए. का छात्र था, तो उन्हें उसके प्रति प्रयोग किए गए शब्दों पर बड़ा ही पश्चात्ताप हुआ। आचार्यजी अपने कनिष्ठों के प्रति आलोचना में कभी कटु शब्दों का प्रयोग नहीं करते थे। वे लिखते हैं कि इस एक घटना को छोड़कर किसी अपने से छोटे के लिए उन्होंने कभी भी कड़े शब्द प्रयोग नहीं किए।
अपने वरिष्ठों के लिए भी उनके हृदय में सम्मान था और उन लोगों की कृतियों की आलोचना करते समय सधे शब्दों का प्रयोग करते थे। लेकिन कुछ बुजुर्ग साहित्यकारों की उन्होंने कड़ी आलोचनाएँ की हैं, विशेषकर पं. शालग्राम शास्त्री, पं. पद्मसिंह शर्मा, सेठ कन्हैयालाल पोद्दार और बाबू गुलाबराय, एम.ए. की कृतियों की। सम्भवतः अपने वरिष्ठ साहित्यकारों या पूर्ववर्ती आचार्यों के प्रति भी इन विद्वानों का इसी प्रकार का व्यवहार था। यही कारण था कि इन विद्वानों की कृतियों की आलोचना करते समय आचार्य किशोरीदास वाजपेयी का रुख कड़ा हुआ करता था।
1930 में हरिद्वार के विद्यालय से निकाले जाने के बाद आचार्य जी आगरा आ गए और पं. कृष्णदत्त पालीवाल के करबन्दी आन्दोलन में जुट गए। पालीवाल साहब बहुत ही दिलेरी के साथ आन्दोलन में रत थे। आचार्य जी लिखते हैं कि वे प्रान्त के सबसे गरम योद्धा थे। पालीवाल जी की प्रशंसा में आचार्य जी ने निम्नलिखित दोहा तरंगिणी नामक पत्रिका में प्रकाशित करवाया था-
देखी तो मैं गजब की, बिजुरी पालीवाल।
होत गरम अति छनक में, जासों नैनीताल।।
नैनीताल उन दिनों प्रान्तीय अंग्रेजी सरकार की ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करती थी। इसलिए उक्त दोहे में आचार्यजी ने इसका प्रयोग किया है।
आचार्यजी ने अपने जीवन के प्रथम उन्मेष का इस प्रकार अन्त किया है।
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आचार्य किशोरी दास वाजपेयी पर आप द्वारा यह अवदान याद रहेगा !
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बढ़िया प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंहमारी बधाई स्वीकारें ||
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जवाब देंहटाएंसाहित्य समाज का दर्पण तभी बनता है जब रचनाकार अपने परिवेश के प्रति सचेत हो। वह समय राष्ट्रीय आंदोलन को नई गति देने का था। वीररस में ही उस भाव की अभिव्यक्ति हो सकती थी।
जवाब देंहटाएंआचार्य किशोरी दास वाजपेयी के बारे में पहले कभी नहीं पढ़ा था... रोचक पोस्ट !
जवाब देंहटाएंमेरे लिए नई जानकारी रही..आभार.
जवाब देंहटाएंr
जवाब देंहटाएंआ. वाजपेयी जे के बारे में जानकर बहुत प्रसन्नता हो रही है।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी जानकारी,धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंएक नूतन और उपयोगी जानकारी, ऐसे ही आलेख से ब्लॉग जगत की महत्ता बढती है. साहित्य के इस आकशदीप को नमन.
जवाब देंहटाएंसुन्दर जानकारी से भरी हुई पोस्ट ..
जवाब देंहटाएंबस आप यूं ही सुनाते रहें और हम सुनकर मुग्ध होते रहें!! आचार्य किशोरी दास वाजपेयी जी की वन्दना!!
जवाब देंहटाएंआचार्य किशोरीदास वाजपेयी मासिक साहित्यिक पत्रिका मराल के संपादक भी रहे और इस पत्रिका संपादन करते समय भी अपनी सोच शर्तों से कभी समझौता न किया। सचमुच इनका हिंदी को आकार देने में महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है।
जवाब देंहटाएंअच्छा। पढ़ना जारी है…
जवाब देंहटाएंफिलहाल राम विलास शर्मा की आत्मकथा पढ़ रहा हूँ,उसमें भी आचार्य किशोरी दास का ज़िक्र किया गया है.आपने उनके बारे में कई नई जानकारियाँ दी हैं. आभार !
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही कहा आपने त्रिवेदी जी, आचार्य किशोरीदास वाजपेयी जी ने भी डॉ.रामविलास शर्मा की प्रशंसा कई स्थानों पर की है।
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