नाटक साहित्य
विसंगत नाटक
नया नाटक के बाद की धारा विसंगत नाटक की है। नये नाटक में लोक ग्राह्यता की तुलना में व्यक्तिगत विशेषता को ज़्यादा महत्व दिया गया। नये नाटककार का व्यक्ति चरित्र के आंतरिक द्वन्द्वों और उलझनों को चित्रित करने की ओर झुकाव अधिक था। कुछ नाटककारों ने समाज की समस्या और व्यक्ति के आंतरिक उल्झनों को जोड़ने का प्रयास भी किया। उदाहरण के लिए हम जगदीश चन्द्र माथुर के ‘कोणार्क’ और धर्मवीर भारती के ‘अन्धा युग’ को ले सकते हैं। किन्तु आगे के नाटककार विसंगत के ढ़र्रे पर अस्तित्वखोजी व्यक्ति चरित्रों की दिशाहीन क्रियाओं को प्रस्तुत करने के नए-नए प्रयोग करने में लग गए। इन नाटककारों ने मनुष्य के आचरण, व्यवहार या अभिव्यक्तियों का एक ऐसा गड्ड-मड्ड संसार प्रस्तुत किया है, जो दिशाहीन होने की व्याकुलता की ही संवेदना भरता है। जीवन के किसी सकारात्मक प्रवाह का संकेत नहीं देता है। मूल्यहीनता की दिशाहीन दुनिया में भटकने के लिए ही दर्शक को छोड़ दिया जाता है। अस्तित्व की खोज किसी सार्थक क्रांति के तहत नहीं की गई है। नाटककार की नाट्य सृष्टि ऐसी लगती है, जैसे हर स्तर पर स्तब्ध विवशता का बोध ही आज के मनुष्य की नियति है।
पश्चिम में बेकट का “वेटिंग फॉर द गोदो” एब्सर्ड नाटक के रूप में काफ़ी चर्चित हुआ था। इस तरह के नाटक में जीवन की विसंगतियों, अंधविश्वासों, ऊल-जलूल प्रसंगों को प्रदर्शित कर जीवन को ग्रस्त करने वाली दिशाहीनता का गहरा अहसास कराया जाता है।
हिंदी में भुवनेश्वर के “ऊसर” और “तांबे के कीड़े” एकांकियों में देखने को मिलता है। विपिन कुमार अग्रवाल का नाटक “कूड़े का पीपा”, “लोटन”, “राष्ट्र सम्राट”, “अपने देश में’, “मौत एक कुत्ते की”, बृजमोहन शाह के नाटक “त्रिशंकु”, “शह-ए-मात”, मोहन राकेश के नाटक “मैड डिलाइट”, “छतरियाँ”, मुद्राराक्षस के नाटक “तिलचट्टा”, “मरजीवा”, शरद जोशी के नाटक “अंधों का हाथी”, मणि मधुकर का नाटक “खेला पोलमपुर”, लक्ष्मीकान्त वर्मा कृत : अपना-अपना जूता, ललित सहगल कृत : हत्या एक आकार की, आदि कुछ बहुचर्चित विसंगत नाटक हैं।
नये नाटक के अस्तित्व खोजी चरित्र इसी आंतरिक संकट को मूर्त रूप में सामने लाते हैं। चाहे किर्केगार्द का धार्मिक विश्वास के कारण हो, चाहे सार्त्र के मानव-प्रकृति के स्वातंत्र्य के कारण हो, अस्तित्ववादी दर्शन यह तो मानता ही है कि आज के जीवन में व्यक्ति की अस्मिता का संकट है। अस्तित्ववादी समान रूप से यह मानते हैं कि मानव जीवन के विकास का ढ़ोंग करने वाले सारे आधारों-विज्ञान, तकनीकी विकास, ईश्वर, धर्म और नीति के प्रचलित प्रतिमान, समाज विकास की आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्थाएं आदि से आज के व्यक्ति का विकास जैसे पूरी तरह उठ गया है। वह अपने को एक शून्य में निराधार अनुभव करने लगा है। कटुता और नैराश्य से भरकर, परंपरा से मिले सब प्रकार के आधारों से निरपेक्ष होकर वह एक प्रयोगधर्मी रूप से अस्मिता को खोजना चाहता है। चरित्रों के आचरण का धर्मी प्रयोग रूप किसी भी प्रचलित आदर्श से संचालित न होने के कारण विसंगति-व्यंजक होता है या दिशाहीन सा ज्ञात होता है। इस प्रकार, अस्तित्ववादी दर्शन से प्रेरणा लेकर जो नाट्य सृजन हुआ उसे विसंगत नाटक (एब्सर्ड नाटक) कहा गया। हिंदी का नया नाटक भी इसी वैचारिक पृष्ठभूमि में रचा जाने लगा। आठवें दशक में इस प्रवृत्ति की ओर झुकाव अधिक हुआ।
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद के पश्चिमी जीवन में जो यथार्थ उभर कर सामने आया, उसे अस्तित्ववादी दर्शन के प्रकाश में रचनाकार समझने का प्रयास करने लगे। उन्हें ऐसा लगा कि न ही कहीं कोई कथानक है, न ही कोई नायक है, न व्यवस्था है, न कोई निश्चित मूल्य ही है, न ही आत्म-सम्मान शेष है। यही बोध पश्चिम के प्रयोगधर्मी या विसंगत नाटकों और हिंदी के नए नाटकों में ढ़ाला जाने लगा।
इस बोध ने शैली शिल्प के स्तर पर हिंदी के नए नाटककार को पश्चिम के सभी प्रचलित रंग प्रयोगों से, चाहे वह ब्रेख्ट की महाकाव्यात्मक रंग प्रणाली हो, चाहे व्यक्ति समस्याओं को मूर्तमान करने वाली विसंगत नाटक की रंग पद्धति हो, -- सबसे तत्व ग्रहण कर अपने नाटकों का सृजन करने के लिए प्रेरित किया। ब्रेख्ट की वाद्य, नृत्य, गान भरी अभिनय प्रणाली और विसंगत नाटक की प्रतीकात्मक प्रस्तुतीकरण प्रणाली, दोनों शैलियों को हिंदी के नए नाटककारों मे अपनाया। किसी एक विशेष रंग शैली का ही शुरु से लेकर अंत तक अनुकरण हिन्दी नाटककारों ने नहीं किया। हिन्दी का नया नाटक, इस तरह से अपने ढ़ंग का प्रयोगधर्मी रंगमंच विकसित करने में समर्थ हुआ। फिर भी विसंगत नाटक के शैली शिल्प और संवेदना से वह अधिक प्रभावित हुआ है।
विसंगत नाटक का पतन क्यों?
दशरथ ओझा के अनुसार एब्सर्ड थियेट्रिकल नाट्य-कृतियों में कई ऐसी मूलभूत भूलें थीं, जो उनकी अकाल मृत्यु का कारण बनीं। ऐसे नाटककारों ने जल्दबाज़ी में आकर वैज्ञानिक सिद्धांतों का विरोध किया। एब्सर्ड नाटककारों का मानना था कि मनुष्य और उसका भाग्य सदा बदलता रहता है, और उसमें न तो कोई उद्देश्य होता और न उसका कोई पैटर्न है। ऐसे नाटककार ग़लत विचारों के पोषण में कल्पना शक्ति का दुरुपयोग करते रहे। विसंगत कहानियों के अनुचित प्रयोगों से उन भ्रान्त विचारों की पुष्टि की। उनमें जीवनदायिनी दृष्टि का अभाव था। यह कोई जीवन संदेश देते ही नहीं जिनको स्वीकार अस्वीकार करने का सोचा जा सके। इनका कोई पात्र ऐसा नहीं जिसके साथ सहानुभूति दिखाई जा सके। विचारों की कंगाली, पुनरावृत्ति की अनन्तता, आत्मघाती नाटकीय आविष्करण एब्सर्ड नाटक के विध्वंसक सिद्ध हुए। एब्सर्ड थियेटर की प्रशंसा और प्रसिद्धि का कारण थियेटर की अपनी विशेषताएं नहीं थीं। समय ही ऐसा था कि लोग उस मानसिकता को अंगीकार करने लगे।
इस विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि हालाकि आज के जीवन की संपूर्ण अराजकता का कोलाहल इन नाटकों की संरचना और भाषा में पाया जा सकता है फिर भी ये सभी विसंगतिवादी प्रयोग हमारे सांस्कृतिक-वैचारिक दृष्टिकोण से आरोपित और झूठी बौद्धिक मुद्रा के सैलाब हैं। हमारे देश की स्थिति अभी इतनी पतली और निचुड़ी हुई नहीं है कि हम सब इन अनुकरणात्मक प्रयोगों का साथ दे सकें। भरतीय नाटकों में गहरी हताशा का अंधेरा हमारे जीवनदर्शन के अनुकूल नहीं है। भारतीय दृष्टि में निराशा-पराजय एक संचारी चेतना है। वह स्थायी भाव-संस्कार कभी नहीं रही। स्थायी संस्कार तो आस्था का पुनर्लाभ ही है। जीव के मरने से जीवन नहीं मर जाता। हिन्दी-नाटकों का स्वर अस्तित्ववादी न रह कर सामाजिक परिवर्तन और आस्थावाद का रहा है।
संदर्भ ग्रंथ
१. हिन्दी साहित्य का इतिहास – सं. डॉ. नगेन्द्र, सह सं. डॉ. हरदया, २. डॉ. नगेन्द्र ग्रंथावली – खंड ९, ३. हिन्दी साहित्य उद्भव और विकास – हजारीप्रसाद द्विवेदी, ४. हिन्दी साहित्य का इतिहास – डॉ. श्याम चन्द्र कपूर, ५. हिन्दी साहित्य का इतिहास – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, ६. मोहन राकेश, रंग-शिल्प और प्रदर्शन – डॉ. जयदेव तनेजा, ७. हिन्दी नाटक : उद्भव और विकास – डॉ. दशरथ ओझा, ८. रंग दर्शन – नेमिचन्द्र जैन, ९. कोणार्क – जगदीश चन्द्र माथुर, १०. जयशंकर प्रसाद : रंगदृष्टि नाटक के लिए रंगमंच – महेश आनंद, ११. अन्धेर नगरी में भारतेन्दु के व्यक्तित्व के स र्जनात्मक बिन्दु – गिरिश रस्तोगी, रीडर, हिन्दी विभाग, गोरखपुर विश्व विद्यालय, १२. रंगमंच का सौन्दर्यशास्त्र – देवेन्द्र राज अंकुर, १३. दूसरे नाट्यशास्त्र की खोज - देवेन्द्र राज अंकुर, १४. आधुनिक भारतीय नाट्य-विमर्श – जयदेव तनेजा
नाटक विधा पर
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अध्ययन काल के दौरान पढी गयी नाट्य-विधा संबंधी ज्ञान समय के प्रवाह एवं अप्रयोज्य होने के कारण धीरे-धीरे विस्मृति के कगार पर आने लगी थी किंतु इस विधा के बारे में जब भी आपके पोस्ट पर आता हूँ तो ज्ञान के सारे कपाट स्वत: खुलने लगते हैं एवं आपका पोस्ट मेरे लिए computer के फ्रेश बटन की तरह कार्य करता है । ज्ञान के इस असीम भंडार को चतुर्दिक फैलाने के लिए धन्यवाद । .
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक पोस्ट.
जवाब देंहटाएंऐसा प्रतीत हो रहा है कि मैं किसी कक्षा में बैठकर साहित्य के विद्यार्थी की भांति पढाई कर रहा हूँ!!
जवाब देंहटाएंनाटक विधा पर संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित जानकारी... बहुत बढ़िया...
जवाब देंहटाएंनाटक ही क्यों,जो कुछ भी एब्सर्ड है जीवन में,उसे असामयिक रूप से समाप्त हो ही जाना होता है। हो ही जाना चाहिए।
जवाब देंहटाएंआदरणीय मनोज कुमार जी ,
जवाब देंहटाएंमेरा सविनय अनुरोध है कि इस तरह का पोस्ट अपने पोस्ट पर न करें जिसके बारे में लोगों की जानने और समझने की अभिरूचि न हो । यह मेरा व्यक्तिगत सुझाव है ।. इसे अन्यथा न लें । इस पर आत्म--मंथन करें । इस विधा पर अपनी प्रतिक्रिया देना किसी के लिए बड़ा ही कठिन कार्य है । मेरा सुझाव है कि हमें इससे दूरी बनाए ऱखने की जरूरत है क्योंकि लोग हम सबको नीचा दिखाने की तलाश में एकजुट हो रहें हैं । हो सकता है कि यह संभव नही हो , लेकिन मेरा सुझाव है कि "आँच" और "शिव सरोदय" जैसे पोस्ट का यह अंतिम कड़ी होना चाहिए । सच बात कड़वी लगती है । मन में आया कह दिया .मानना और न मानना दूसरे के उपर है । यह मेरा सुझाव है लेकिन इसके साथ जुड़े उन लोगों का भी सुझाव है जो मेर प्रिय गुरू रहें हैं एवं आज भी गुमनामी की दुनियां में साहित्य -जगत के उच्च पदों पर आसीन हैं ।
"हमको तो मालूम है जन्नत कि हकीकत लेकिन , दिल को बहलाने का गालिब .ये ख्याल अच्छा है ।"
मेरा यह सुझाव मात्र है । इसे मन की आवाज समझिए या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता । Good night..
With due regards..
Prem Sagar Singh ..
इस विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि हालाकि आज के जीवन की संपूर्ण अराजकता का कोलाहल इन नाटकों की संरचना और भाषा में पाया जा सकता है फिर भी ये सभी विसंगतिवादी प्रयोग हमारे सांस्कृतिक-वैचारिक दृष्टिकोण से आरोपित और झूठी बौद्धिक मुद्रा के सैलाब हैं। हमारे देश की स्थिति अभी इतनी पतली और निचुड़ी हुई नहीं है कि हम सब इन अनुकरणात्मक प्रयोगों का साथ दे सकें। भरतीय नाटकों में गहरी हताशा का अंधेरा हमारे जीवनदर्शन के अनुकूल नहीं है। भारतीय दृष्टि में निराशा-पराजय एक संचारी चेतना है। वह स्थायी भाव-संस्कार कभी नहीं रही। स्थायी संस्कार तो आस्था का पुनर्लाभ ही है। जीव के मरने से जीवन नहीं मर जाता। हिन्दी-नाटकों का स्वर अस्तित्ववादी न रह कर सामाजिक परिवर्तन और आस्थावाद का रहा है।
जवाब देंहटाएंजाना तो सबको है ,सबका है .एक शाश्वत प्रक्रिया है लेकिन "मैक पुरुष का प्रयाण "दैहिक "है .प्रोद्योगिक नहीं .हमारे आपके जो दिलों में अपना अंश छोड़ जातें हैं वे जाकर भी कहीं नहीं जातें हैं .अनेकों के दिलों में रहेंगे स्टीव जाब्स .विनम्र श्रृद्धांजलि .सुन्दर विवेचन .भारतीय दृष्टि का सटीक आरोहण और प्रत्यारोप लगाया है आपने एब्सर्ड प्ले पर .मुबारक भाई साहब .आपकी रचना शीलता यूं ही छायी रहे .
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