बुधवार, 19 अक्टूबर 2011

अंक – 5 - हिन्दी के पाणिनि – आचार्य किशोरीदास वाजपेयी


अंक – 5

हिन्दी के पाणिनि – आचार्य किशोरीदास वाजपेयी

आचार्य परशुराम राय

पिछले चार अंकों में आचार्य किशोरीदास वाजपेयी के जीवन के प्रथम उन्मेष (1919-1930) का अवलोकन किया गया। यहाँ से अब उनके जीवन का द्वितीय उन्मेष शुरु होता है। आचार्य जी के जीवन का द्वितीय उन्मेष 1931 से प्रारम्भ होता है। पिछले अंक में हमने देखा कि आचार्य जी अध्यापन कार्य छोड़कर स्वतंत्रता आन्दोलन में कैसे कूद पड़े और पं. कृष्णदत्त पालीवाल के साथ हो लिए।

1931 में लाहौर में रावी नदी के तट पर एक स्वतंत्रता की प्रतिज्ञा की गयी थी। इस प्रतिज्ञा की प्रतियाँ सरकार ने जब्त कर ली थी और उसी वर्ष स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर उस प्रतिज्ञा को दुहराने का निर्णय लिया गया था। उत्तर प्रदेश की प्रान्तीय कांग्रेस, लखनऊ को उस प्रतिज्ञा की कुछ प्रतियों की आवश्यकता थी। पालीवाल साहब हाल ही में जेल से छूटकर आए थे। स्वतंत्रता आन्दोलन का संचालन बड़ी चतुराई से उन्हें करना पड़ रह था। प्रतिज्ञा की प्रतियाँ उनको छोड़कर दूसरा नहीं छाप सकता था। अतएव उनके सैनिक प्रेस में छिपाकर स्वतंत्रता की प्रतिज्ञा की 500 प्रतियाँ छपीं।

अब समस्या थी इन प्रतियों को लखनऊ पहुँचाने की। पालीवाल साहब ने आचार्य जी को उन्हें लखनऊ पहुँचाने का काम सौंपा। आचार्य जी की आर्थिक स्थिति बहुत ही खराब थी। नौकरी छूट चुकी थी। ढाई साल का पुत्र चि. मधुसूदन, गर्भवती पत्नी, ऊपर से कर्ज। जोखिम भरा काम था। यदि पकड़े जाते, तो जेल हो जाती और जेल होती, तो पत्नी के प्रसव आदि की व्यवस्था और देख-रेख करना कठिन हो जाता। ऐसी विषम परिस्थिति में भी आचार्य जी ने मातृभूमि के प्रति अपने दायित्व से पिंड छुड़ाने की बात सोची तक नहीं। इसी बीच उन्हें काव्य-प्रवेशिका नामक एक पुस्तक लिखने का काम मिला 15% रायल्टी पर और पचास रुपये अग्रिम मिल गए। अतएव पत्नी को पचास रुपये देकर उन्होंने प्रतिज्ञा की प्रतियाँ कपड़े में लपेट तकिया की तरह विस्तर में बाँधीं और लखनऊ के लिए निकल पड़े। आने-जाने का किराया पालीवाल साहब ने दे दिया था। इस प्रकार यह काम निर्विघ्न पूरा हुआ और सामग्री नियत स्थान पहुँच गयी।

आचार्य जी ने भगतसिंह दिवस मनाने की एक घटना का बड़े ही मनोरंजक ढंग से उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि टाउन हॉल में (सम्भवतः आगरा में) भगतसिंह दिवस मनाने के लिए लोग जुटे। भाषण शुरु हुआ। आचार्य जी का भाषण चल रहा था कि अचानक एक धमाका हुआ। भगदड़ मच गयी और कई कांग्रेसी पकड़े गए। लेकिन जाँच के बाद पता चला कि फर्श पर किसी ने पटाखा रख दिया था, जो दबने के कारण फट गया था। अतएव सभी लोग छोड़ दिए गए।

इसी बीच गान्धी-इर्विन पैक्ट हुआ। इसकी एक शर्त के अनुसार जिन्हें नौकरी से निकाल दिया गया था, उन्हें बहाल कर दिया गया और आचार्य जी को भी इसका लाभ मिला। वे पुनः हरिद्वार जाकर अध्यापन में जुट गए। तबतक आचार्य जी की पुत्री चि.सावित्री गोद में आ चुकी थी। इसके बाद अध्यापन के बाद शेष समय को आचार्य जी ने समाज सुधार के कामों में लगाना प्रारम्भ किया। उनके तीर्थ के सुधार सम्बन्धी कार्यों से तीर्थ के पुरोहित और पंडे लोग नाराज हो गए। बाद में उन्होंने हरिजन उद्धार के लिए हरिजन सेवक संघ बनाया और दो वर्षों तक उसकी जिला-कमेटी के मंत्री के रूप में काम किया। वे कहते हैं कि इससे अतिसनातनी लोग उनसे काफी नाराज हुए।

इसके बाद 1938 में कुम्भ मेला लगना था। आचार्य जी ने निरंजनी, निर्वाणी आदि अखाड़ों के नागा साधुओं के विरुद्ध एक आन्दोलन छेड़ दिया कि वे मेले में नंगे स्नान करने न उतरें। कम से कम एक लंगोटी वे अवश्य पहनें। इसका बड़ा विरोध हुआ। अच्छी सोच-समझ रखने वाले भी आगे आने को तैयार नहीं थे। आर्यसमाजियों ने इसे सनातनी लोगों का आपसी मामला कहकर किनारा कस लिया। कांग्रेसी लोग तटस्थ बने रहे। केवल राजर्षि टंडन जी एवं पं.जवाहरलाल नेहरू आदि नेताओं ने पत्र लिखे, जिन्हें आचार्य जी ने प्रकाशित करवाया। धीरे-धीरे आन्दोलन ने इतना जोर पकड़ा कि नागा समाज में भी इस पर विचार-विमर्श होने लगा। परन्तु ऐसे साधुओं की संख्या बहुत कम थी। किन्तु उन साधुओं की संख्या अधिक थी, जो इस प्रथा को छोड़ने के लिए कत्तई तैयार नहीं थे। वे तलवारें और भाले चमचमाने में लग गए। टंडन जी, नेहरू जी आदि के पत्र प्रकाशित हो जाने से कांग्रेस के तटस्थ होने के बावजूद लोगों में चर्चा थी कि कांग्रेस ही यह सब कुछ करा रही है और सत्याग्रह करने के लिए दस-पाँच हजार कांग्रेस के स्वयंसेवक आ रहे हैं। आचार्य जी लिखते हैं कि इससे थोड़ी उन्हें राहत थी, फिर भी बहुत सावधान होकर रहना पड़ता था।

मेले का समय जैसे-जैसे करीब आता गया लोगों में बेचैनी बढ़ने लगी। अन्त में आचार्य जी के एक सहपाठी और अखाड़े के अच्छे विद्वान और राष्ट्रवादी नागा साधु स्वामी चन्द्रशेखर गिरि एक दिन उनसे मिले और समझाए कि वे इस आन्दोलन को बन्द कर दें। क्योंकि इससे मेला खराब होगा, खून-खराबा भी हो सकता है। इस प्रकार की अत्यंत रूढ़ प्रथाएँ इतनी आसानी से नहीं उड़ाई जा सकतीं। आचार्य जी ने स्वामी जी की बात मानकर समचार पत्रों में आन्दोलन या विरोध प्रदर्शन न करने की सूचना छपवा दी। जिसके परिणाम स्वरूप वातावरण बिलकुल शान्त हो गया। सभी ने राहत की साँस ली, आचार्य जी ने भी।

इस अंक में बस इतना ही।

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7 टिप्‍पणियां:

  1. आचार्य जी ने काफ़ी समझदारी दिखाई !

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  2. आचार्य जी के बारे में अच्छी जानकारी मिल रही है ..

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  3. आप कहते रहिये आचार्य जी!! हम मनोयोग से सुन रहे हैं!!

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  4. ज्ञानवर्धक आलेख... संग्रह कर रहा हूं...

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