शनिवार, 1 अक्टूबर 2011

नया नाटक


नाट्य साहित्य – नया नाटक 

 मनोज कुमार

हिंदी का नया नाटककार पश्चिम के नाट्य प्रयोगों से बहुत ही प्रभावित हुए। ब्रेख्ट के महाकाव्यात्मक रंगमंच, बेकेट के ‘अब्सर्ड’ (विसंगत) नाट्य लेखन की शैली, अस्तित्ववादी चेतना के नाटक की संवेदना और शिल्प ने इन पर बहुत प्रभाव डाला। प्रभाव क्या कई बार तो यह अनुकरण मात्र लगता है।  ऐसा प्रतीत होता है कि अपनी मूलभूमि की  समकालीनता को समझने का प्रयास ही नहीं किया जा रहा है।  भारतीय यथार्थ के संदर्भ में ये नाटक बहुत अजनबी लगने लगते हैं। अपनी जमीन की संस्कृति से मानों कोई संबंध ही नहीं है। बस ऐसा लगता है कि पाश्चात्य रंग प्रयोगों का अनुकरण ही लक्ष्य हो, इससे शैली शिल्प के स्तर पर अभूतपूर्व प्रयोग किए जाने लगे। फिर भी प्रस्तुतिकरण के स्तर पर हिंदी नाटक बहुत समृद्ध हुआ।

इस काल में हिंदी के नये नाटककार और रंग निर्देशक समकालीन पश्चिमी रंग प्रयोग विज्ञान से बहुत कुछ सीख कर उसे हिंदी नाट्य सृजन और प्रस्तुतियों में अधिकाधिक अपनाने लगे। इन्हें बर्तोल ब्रेख्ट के आक्रोश गर्भित रंगमंच (Angry theatre) और महाकाव्यात्मक रंग-प्रयोग (Epic theatre) आयनेस्को और बेकेट के विसंगत रंग-प्रयोग (Absurd theatre) काफ़ी प्रभावित करते रहे। उस समय का नाटककार, साहित्यकार और नागरिक जिस तरह का अंतर्द्वन्द्व महसूस कर रहा था, उसकी अभिव्यक्ति में पश्चिम की ये रंग-शैलियां बहुत ही सहायक सिद्ध हुईं। एक ओर सामाजिक खिंचाव और दूसरी ओर दिशाहीनता के कारण अंतर्द्वन्द्व था। इस अंतर्द्वन्द्व को नाट्यबद्ध करने के लिए नाटककार को पश्चिम के अस्तित्ववादी दर्शन से भे प्रेरणा मिली।

नया नाटक अस्तित्ववादी दर्शन की वैचारिक पृष्ठभूमि में रचा गया है। इस दार्शनिक चिंतन की दो कोटियां हैं –
  1. धर्ममूलक अस्तित्ववाद (Religious existendialoism)
धर्ममूलक अस्तित्ववाद के प्रवर्तक किर्केगाद थे। इस विचारधारा के अनुसार मनुष्य के जीवन में आज व्यर्थ-बोध समा गया है। इस व्यर्थता-बोध के मूल में आतंक भरा मन मनस्ताप (Anxiety) है। इस आतंक के मूल में नैराश्य है। इस नैराश्य के मूल में धर्मिक विश्वास का बीज अंतर्निहित है।

  1. अनीश्वर मूलक अस्तित्ववाद
अनीश्वर मूलक अस्तिववाद के प्रवर्तक सार्त्र थे। सार्त्र ने किर्केगाद के अस्तित्ववादी सूत्र के केवल अंतिम शब्द को बदल दिया है। उसने धार्मिक विश्वास की जगह पर व्यक्ति स्वातंत्र्य को रख दिया है। उसने यह माना है कि चुनाव करने की स्वतंत्रता मनुष्य जाति की एक दुखद नियति है। स्वतंत्रता मानव प्रकृति का सहज रूप है। चुनने में स्वतंत्र होना उसकी जीवोचित प्रकृति भी है और आंतरिक संकट को जन्म देने वाली नियति भी है। उसकी इस स्वतंत्र इच्छा शक्ति पर तकनीकी उपकरणों और निरर्थक सिद्ध हो गए प्रचलित सभी आदर्शवादी दर्शनों के आयाचित दबाव ने अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है।

जगदीशचन्द्र माथु और मोहन राकेश संवेदना की नई भूमि पर नए प्रयोग शिल्प के द्वारा नाट्य-लेखन की नया रूप देना शुरु किया। यहीं से नए नाटक लिखने का दौर शुरु हुआ। माथुर जी का ‘कोणार्क’ और राकेश जी का ‘लहरों का राजहंस’ और ‘आषाढ़ का एक दिन’ हिन्दी नया नाटक आधुनिक रूप में परिलक्षित हुए हैं। विगत नाट्य-परंपरा से भिन्न संवेदना और शिल्प के नाटक आज़ादी के बाद के वर्षों में भी न सिर्फ़ विकसित होते रहे बल्कि आंतरिकता के जटिल संसार को प्रतिबद्धता के साथ स्थापित करने के कारण गंभीर सर्जनात्मक नाट्य सर्जन से आभासित भी होते रहे। समय के साथ नये नाटक की सृजनशीलता बाह्य यथार्थ के स्थान पर आंतरिक यथार्थ को रूपायित करने की चेष्टा करने लगी। व्यक्ति के गहरे अंतर्द्वन्द्व, उलझाव और भटकाव के माध्यम से वर्तमान जीवन के यथार्थ को अभिव्यक्ति प्रदान की गई। लोक-ग्राह्यता की तुलना में व्यक्तिगत विशेषता को अधिक महत्व दिया गया। अस्तित्व की खोज के नाम पर मनुष्य के आचरण, व्यवहार या क्रियाओं का एक ऐसा गड्ड-मड्ड संसार प्रस्तुत किया गया, जो दिशाहीन होने की व्याकुलता की ही संवेदना भरता है।

उल्लेखनीय नाम –

उपेन्द्रनाथ अश्क : पैंतरे (1952), अंजो दीदी (1954), अंधी गली (1954), बड़े खिलाड़ी
विष्णु प्रभाकर : डॉक्टर, अब और नहीं, युगे-युगे क्रांति
धर्मवीर भारती : अंधा युग (1955),
डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल : अंधा कुआं (1955), मादा कैक्टस (1959), सुंदर रस (1959), तीन आंखों वाली मछली (1960), सूखा सरोवर (1960), रक्त कमल (1962), रातरानी (1962), दर्पन (1963), सूर्यमुख (1968), कलंकी (1969), मिस्टर अभिमन्यु (1971), करफ़्यू (1972), राम की लड़ाई, नरसिंह कथा, एक सत्य हरिश्चन्द्र आदि।
मोहन राकेश : आषाढ़ का एक दिन (1958), लहरों के राजहंस (1963), आधे अधूरे (1969)।
सुरेन्द्र वर्मा : द्रोपदी (1970), सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक, सेतुबंध, आठवां सर्ग, छोटे सैयद बड़े सैयद
‘अज्ञेय’ : उत्तर प्रियदर्शी
ललित सहगल : हत्या एक आकार की
बृजमोहन शाह : त्रिशंकु, शह पे मात
डॉ. शंकर शेष : एक और द्रोणाचार्य, घरौंदा    , खजुराहो का शिल्पी, फंदी, बंधन अपने-अपने
रेवतीशरण शर्मा : राजा बलि की नई कथा, अपनी धरती,
दया प्रकाश सिन्हा : कथा एक कंस की, इतिहास चक्र
गिरिराज किशोर : नरमेध, प्रजा ही रहने दो,
सुशील कुमार सिंह : सिंहासन खाली है
मुद्राराक्षस : मरजीवा, तेंदुआ, तिलचट्टा, योर्स फ़ेथफुली, गुफ़ाएं, संतोला,
रमेश बख्शी : वामाचार
मन्नू भंडारी : बिना दीवारों के घर
नरेश मेहता : सुबह के घंटे. खंडित यात्राएं
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना : बकरी, लड़ाई, कल भात आएगा, अब ग़रीबी हटाओ
मृदला गर्ग : एक और अजनबी
कमलेश्वर : अधूरी आवाज़
अमृत राय : चिंदियों की एक झालर
भीष्म साहनी : हानुश, कबिरा खड़ा बाज़ार में
नरेन्द्र कोहली : शंबूक की हत्या,
मणिमधुकर : इकतारे की आंख, बुलबुल सराय, खेला पोलमपुर
शरद जोशी : एक था गधा उर्फ़ अलादाद खां, अंधों का हाथी

9 टिप्‍पणियां:

  1. नटी साहित्य पर विस्तृत जानकारी देता लेख अच्छा लगा ..

    जवाब देंहटाएं
  2. वृस्तित जानकारी के लिए आप बधाई के पात्र हैं

    जवाब देंहटाएं
  3. " इस काल में हिंदी के नये नाटककार और रंग निर्देशक समकालीन पश्चिमी रंग प्रयोग विज्ञान से बहुत कुछ सीख कर उसे हिंदी नाट्य सृजन और प्रस्तुतियों में अधिकाधिक अपनाने लगे है ..."

    सहमत हूँ ...बढ़िया समीक्षा अभिव्यक्ति ... आभार

    जवाब देंहटाएं
  4. इतने सुन्दर से विस्तारपूर्वक जानकारी देने के लिए आभार आपका

    जवाब देंहटाएं
  5. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  6. मनोज कुमार जी ,.नमस्कार,
    आपका यह पोस्ट ज्ञानवर्धक है किंतु जहाँ तक नुझे ज्ञात है - हिंदी साहित्य की कोई भी विधा ऐसी नही है जो पाश्चात्य साहित्य से प्रभावित न हुई हो । हमारे साहित्यकारों ने कविता लिखा ,गद्य-विधा की शुरूआत की , संस्मरण लिखा , रिपोर्ताज लिखा इत्यादि लेकिन इनकी पृष्ठभूमि में पाश्चात्य साहित्य ही अपना विशिष्ट स्थान अक्षुण्ण बनाए रखा है । मैं भी आपके विचारों से पूर्णर्तया सहमत हूँ कि हिंदी साहित्य की समस्त विधाएं पश्चिम साहित्य की देन हैं- विशेषकर समीक्षा । समीक्षा सिद्धांत एवं आलोचना का उत्त्तराधिकारी वही बन सकता है जो लांजाँइस का Principle of Literary Criticism का अध्ययन पूरी तरह से किया हो अन्यथा समीक्षा एक ठकुरसुहाती बात की तरह हमारे सामने आती रहेगी । किसी भी समीक्षक को इस विधा मे प्रवेश करने के पूर्व अपने बारे में विस्तृत जानकारी देना अनिवार्य सा लगता है कि वह इस योग्य है अथवा नही । इस पर चर्चा जारी रहेगी । पोस्ट अच्छा लगा । धन्यवाद ।

    जवाब देंहटाएं
  7. मनोज कुमार जी ,.नमस्कार,
    आपका यह पोस्ट ज्ञानवर्धक है किंतु जहाँ तक नुझे ज्ञात है - हिंदी साहित्य की कोई भी विधा ऐसी नही है जो पाश्चात्य साहित्य से प्रभावित न हुई हो । हमारे साहित्यकारों ने कविता लिखा ,गद्य-विधा की शुरूआत की , संस्मरण लिखा , रिपोर्ताज लिखा इत्यादि लेकिन इनकी पृष्ठभूमि में पाश्चात्य साहित्य ही अपना विशिष्ट स्थान अक्षुण्ण बनाए रखा है । मैं भी आपके विचारों से पूर्णर्तया सहमत हूँ कि हिंदी साहित्य की समस्त विधाएं पश्चिम साहित्य की देन हैं- विशेषकर समीक्षा । समीक्षा सिद्धांत एवं आलोचना का उत्त्तराधिकारी वही बन सकता है जो लांजाँइस का Principle of Literary Criticism का अध्ययन पूरी तरह से किया हो अन्यथा समीक्षा एक ठकुरसुहाती बात की तरह हमारे सामने आती रहेगी । किसी भी समीक्षक को इस विधा मे प्रवेश करने के पूर्व अपने बारे में विस्तृत जानकारी देना अनिवार्य सा लगता है कि वह इस योग्य है अथवा नही । इस पर चर्चा जारी रहेगी । पोस्ट अच्छा लगा । धन्यवाद ।

    जवाब देंहटाएं
  8. Manoj Kumar Jee . Thank you so much for this great information. Keep it up. आपका यह पोस्ट ज्ञानवर्धक है . Plz to be continue .................

    जवाब देंहटाएं

आप अपने सुझाव और मूल्यांकन से हमारा मार्गदर्शन करें