शनिवार, 22 अक्टूबर 2011

नुक्कड़ नाटक

नाटक साहित्य

नुक्कड़ नाटक

मनोज कुमार

आज़ादी के बाद जनवादी मंच शिथिल पड़ने लगा। जन नाट्य मंच के रंग-निर्देशक उत्पल दत्त, बलराज साहनी आदि और रंगकर्मी एवं अभिनेता फ़िल्मों में चले गए। इसके परिणामस्वरूप 1960 तक जन नाट्य मंच के रंगमंचीय सांस्कृतिक क्रियाकलाप बंद हो गए। लेकिन जन नाट्य मंच ने जो सामाजिक न्याय की चेतना जगाई थी, वह समाजवादी राजनीतिक संगठनों के विकास के नये-नये रूपों में प्रकट होती रही। देश में भुखमरी, ग़रीबी, शोषण और अन्याय के खिलाफ़ जनता में असंतोष तो था ही विद्रोह के स्वर भी मुखरित होते रहे। हड़ताल और प्रदर्शन भी होता था। इसी चेतना के परिप्रेक्ष्य में बीसवीं सदी के सातवें दशक में नुक्कड़ नाटकों का नया रंग-प्रयोग शुरु हुआ।

शिक्षित-अशिक्षित जनता को जगाने-झकझोरने और सोचने-समझने के लिए नुक्कड़ नाटकों की भूमिका काफ़ी सराहनीय रही। परंपरागत रंगमंचीय प्रस्तुतियों से अलग नुक्कड़ नाटक एक नया रंग प्रयोग था। इस शैली के नाट्य प्रदर्शन के लिए किसी प्रेक्षागृह की ज़रूरत नहीं थी। किसी प्रकार की साज की भी आवश्यकता नहीं थी। रोज़मर्रा की स्थानीय ज़िन्दगी की विडंबनाओं, विसंगतियों और अंतर्विरोधों को सामने रखना इस तरह के नाटकों का लक्ष्य था। अभिनय में शरीक़ होने वाले पात्र जिस वेश में होते उसी वेश में अभिनय में भाग लेते। उनका रंगमंच तो झुग्गी-झोंपड़ी के बीच कोई ख़ाली जगह, क़स्बा या नगर का कोई नुक्कड़ या चौराहा या गांव की चौपाल, स्कूल का मैदान या कॉलेज का लॉन कुछ भी हो जाता था। नुक्कड़ नाटक मंडली के किसी एक अभिनेता की आवाज़ या पुकार पर भीड़ इकट्ठी हो जाती, दर्शक एक घेरा बना देते। नाटक शुरु हो जाता। दर्शकों से घिरा कोई पात्र संवाद शुरु करता। लोगों को लगता अरे! यह तो मेरे बीच का ही कोई पात्र है। वे यह भी महसूस करते कि यह तो हमें भी साझेदारी के लिए यह उत्साहित करता है। दर्शक भीड़े में आते-जाते रहते हैं। इस तरह परंपरागत रंगमंचीय साधन-प्रसाधन और किसी भी साज-सज्जा के बगैर खुले स्थान में सम्पन्न होने वाला नाट्य व्यापार नुक्कड़ नाटक काफ़ी प्रसिद्ध हुआ।

नुक्कड़ नाटक में किसी स्थानीय मुद्दे को लक्ष्य कर नाटक रचे जाते हैं। साथ ही उसे वे व्यापक सामाजिक-राजनीतिक विडम्बनाओं और विसंगतियों पर कटाक्ष करने का आधार बनाते हैं। समसामयिक जीवन की अनुचित अमानवीय और अन्यायपूर्ण घटना को नुक्क्ड़ नाटक के नाटककार केन्द्र बनाकर उस पर कटाक्ष भरी टिप्पणी करते हैं। भाषा हास्य-व्यंग्य की रहने एक नई मानवीय सोच जगाने में क़ामयाबी के साथ-साथ उससे लोगों का मनोरंजन भी होता है। हम देखते हैं कि रोज़ ही कुछ न कुछ बेतुका घटित होते रहता है। कहीं धार्मिक अंधविश्वास के कारण तो कहीं राजनीतिक दाँव-पेच के कारण, कहीं आर्थिक घोटाला तो कहीं अमानुषिक अत्याचार। ये हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं। इसी यथार्थ को नाटकीय ढ़ंग से नाट्यधर्मी प्रस्तुत करते हैं। नुक्कड़ नाटक में जाति-पांति, ऊंच-नीच, सांप्रदायिकता, दहेज, भ्रष्टाचार और हर तरह के शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई गई।

शिल्प का आधार तो लोक नाट्यों की नृत्य गान प्रधान ही होती है, लेकिन उसमें आलोचनात्मक टिप्पणी प्रधान संवाद रहने से इसमें एक नया आयाम जुड़ जाता है। इसे ब्रेख्ट की नाट्य़ प्रदर्शन शैली से लिया गया है। यही इसकी शैली का एक मौलिक पक्ष भी है। सामूहिक गीत की शैली में सामाजिक-राजनीतिक व्यस्था पर टिप्पणी करना वर्तोल ब्रेख्ट के एपिक रंगमंच का एक महत्वपूर्ण अंग है। ब्रेख्ट ने समूहगान की जिस प्रकार से राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था पर आलोचनात्मक टिप्पणी के लिए प्रयोग किया, उसी का अनुकरण नुक्कड़ नाट्य प्रेमियों ने भी अपना लिया। इसीलिए सामान्य लोक-नाटक से नुक्कड़ नाटक अधिक गंभीर और सार्थक रंगकर्म प्रतीत होता है।

भारतीय रंगमंच के क्षेत्र में नुक्कड़ नाटक के रंग प्रयोग का श्रेय बादल सरकार को है। ‘जुलूस’, ‘हत्यारे’, ‘औरत’, ‘मशीन’, आदि प्रसिद्ध नुक्कड़ नाटक हैं। आज तो लगभग सभी प्रमुख नगरोंमें नुकड़ नाटक प्रदर्शित होते हैं। जनता को अपने जीवन परिवेश के प्रति सजग करने में नुक्कड़ नाटकों के प्रदर्शन का योगदान सराहनीय है।

5 टिप्‍पणियां:

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  2. Nukkad natak ke kalakaar vishesh pratibha sampann hote hain.Unke abhinay aur drishya ki gambhirata ko ubharane ke liye prakash aur dhwani vyavastha nahi hoti. Sab kuchh bas haav-bhaav se hi prakat karna hota hai-wo bhi prayah un logon ke saamne jinme unki kala ka parkhi shayad hi koi hota hai.

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  3. अभी पीछे अन्ना हजारे के आंदोलन के दौरान भी ऐसे कई नुक्कड़ नाटकों को देखने का मौक़ा मिला.. एक ऐसी विधा जिसका सम्बन्ध जन-जन से है!!

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  4. नुक्कड़ नाटक की विस्तृत जानकारी के लिए आभार ......!!

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  5. नुक्कड़ नाटकों के बारे में अच्छी जानकारी मिली ... आभार

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