शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

पुस्तक परिचय-3 धरती धन न अपना

पुस्तक परिचय-3

धरती धन न अपना

IMG_0130_thumb[1]मनोज कुमार

इस सप्ताह एक उपन्यास पढा, “धरती धन न अपना”। इस में उपन्यासकार जगदीश चन्द्र ने पंजाब के दोआब क्षेत्र के दलितों के जीवन की त्रासदी, उत्पीड़न, शोषण, अपमान व वेदना को बड़े ही प्रभावकारी ढंग से चित्रित किया है। उन्होंने दलितों की दयनीय व हीन दशा के लिए जिम्मेदार भारतीय जाति व्यास्था, हिन्दू धर्म व्यवस्था और जन्म-कर्म सिद्धांत के आधारभूत तथ्यों को भी उजागर किया है।

शोषित वर्गों के ऊपर अनेक उपन्यास हिन्दी साहित्य में रचे गए हैं। इन्हीं शोषितों में चमार भी एक जाति है। उनके जीवन को आधार बनाकर संभवतः पहला उपन्यास जगदीश चन्द्र ने लिखा है। जन्म के आधार पर अछूत करार दी गई जातियों के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सरोकारों को इस उपन्यास के द्वारा एक विस्तृत पटल पर चित्रित करके भारतीय हिन्दू धर्म मूल्य व नीति मूल्यों की आलोचना भी की गई है। एक इंसान द्वारा दूसरे इंसान को कुछ धार्मिक किताबों के आधार पर इंसान के दर्ज़े से गिरा देना और उसके मूलभूत अधिकारों को नकार कर पशुवत जीवन के लिए मज़बूर कर देना, और कुछ नहीं बल्कि मानवीय अद्यःपतन है।

इस उपन्यास में कथित चमार जाति के शोषण की त्रासदी को प्रामाणिकता के साथ चित्रित किया गया है। ‘काली’ इस उपन्यास का प्रमुख चरित्र नायक गांव की अभाव ग्रस्त ज़िन्दगी और भूख की त्रासदी से हारकर शहर की ओर भागता है। लेकिन अपनों का मोह और गांव का आकर्षण उसे छह वर्षों के बाद फिर से उसी गांव में खींच लाता है। यहां आकर वह अपना घर बनाना चाहता है। अच्छी ज़िन्दगी जीना चाहता है। ज्ञानो से प्रेम करता है। उसके साथ घर बसाने के सपने पालता है। शहर में रहते हुए तो कुछ सीमा तक उसे समानता और स्वतंत्रता के अनुभव हुए थे। इसके कारण उसकी चेतना विस्तरित हुई। लेकिन उस चेतना को गांव वापस आने पर धक्का लगता है। गांव का माहौल पहले जैसा ही है। गांव अब भी जातिवादी और सामंतवादी प्रवृत्तियों को ढो रहा है। काली का अपनी स्थिति से ऊपर उठने का हर प्रयास सवर्णों को उनके ख़िलाफ़ एक चुनौति लगने लगती है। विकास और प्रगति की ओर उठा उसका हर क़दम जातिवादी, सामंतवादी शोषकों द्वारा रोक दिया जाता है। यहां तक की उसकी अपनी जाति के लोग भी चौधरियों के मोहरे बन उसके राह में खड़े हो जाते हैं। हारकर काली अपनी प्रियतमा ज्ञानो की मृत्यु का दुख झेलकर शहर की ओर फिर पलायन करता है।

जातिगत विभाजन के कारण ये लोग चमादड़ी में रहते हैं और बहिष्कृतों का जीवन जीते हैं। उनका जीवन नर्क से भी बदतर है। चमादड़ी में केवल अभाव, दरिद्रता, अशिक्षा, अंधविश्वास और असुरक्षा का ही साम्राज्य है। जाति श्रेष्ठता के आधार पर स्वर्ण समाज को सबकुछ हासिल है लेकिन उसने कभी इसे बांटने की संस्कृति का निर्माण ही नहीं किया। वे तो दलितों को दास बनाकर रखते हैं। उनका शोषण करते हैं। हर चीज़ से वंचित यह समुदाय सदियों से इसी स्थिति में जीने का आदी रहा है। उसके द्वारा प्रतिकार या विरोध का स्वर भी कभी नहीं उभरा। वह इसे नियति मानकर चुप रहा।

काली, ज्ञानो जैसे पात्रों द्वारा जब कभी इन समुदाय में अपनी अस्तित्व की चेतना का अंकुर जन्म लेता है, तो परंपरावादी सवर्ण समाज शास्त्र ग्रंथों और अन्य साधनों के साथ इस अंकुर को कुचल कर नष्ट कर देता है, ताकि कल को यह हुंकार ही कहीं उनके अस्तित्व के लिए चुनौति न बन जाए।

जब कोई इंसान सारी ज़िन्दगी किसी की ग़ुलामी करते रहने को विवश हो और उसका जीवन हमेशा अभाव से ही ग्रस्त रहे तो विद्रोह का स्वर फूटना तो लाजिमी ही है। काली और ज्ञानो, उपन्यास के प्रमुख पात्रों में अपने अस्तित्व बोध की चेतना है। वे समाज, परिवार और खुद के प्रति अन्याय और शोषण वे बर्दाश्त नहीं कर पाते और जब-तब उनके विरोध का स्वर सुनाई देता है। किन्तु सवर्ण को यह सहा नहीं जाता और इस चेतना को नष्ट करने की सारी कुचालें चली जाती हैं। उनका खुद का दलित समुदाय ही भी अपनी अज्ञानता और अंधविश्वास के कारण उनकी इस उभरती चेतना के नष्ट कर देने का कारण बनता है। जिसकी परिणति ज्ञानो की हत्या, और वह भी अपनी मां और भाई द्वारा, और काली के गांव से पलायन के रूप में होती है। इस परिणति से साबित हो जाता है कि सत्ताधारी वर्ग किसी भी चुनौतिपूर्ण अहसास को झेलने से पहले ही उसके अहसास को ही ध्वस्त कर देने में सक्षम है। इस घटना पर यदि गंभीर चिंतन करें तो यह तो बिलकुल स्पष्ट है कि मानवता को शर्मसार करने वाली संस्कृति और इस तरह की सोच हमारे इर्द-गिर्द ही मौज़ूद है।

इस उपन्यास में भारतीय जाति-व्यवस्था के पीछे छुपे निहित स्वार्थ और षडयंत्र को भी उजागर किया गया है। इंसानों को जातियों के कटघरे में बांटकर किसी एक जाति या वर्ण की श्रेष्ठता को बनाए रखने के प्रयासों की तल्ख़ सच्चाई को सामने लाया गया है। जाति प्रथा को बनाए रखने और निम्न मानी गई जातियों का आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक शोषण करने की एक नीति का एक हिस्सा के रूप में उन्हें न सिर्फ़ सम्पत्ति, सत्ता, शिक्षा और नैसर्गिक सम्पदा के अधिकारों से वंचित रखा जाता है बल्कि सवर्णों के कुएं से पानी तक नहीं लेने दिया जाता। धर्म व परंपराओं की अमानवीय रूढ़ियों का पालन करने वाले सवर्ण दलितों को आर्थिक व सामाजिक अधिकारों से वंचित रखकर अपनी सत्ता को बनाए रखते हैं।

दलित स्त्रियां सवर्ण पुरुषों द्वारा यौन शोषण का शिकार होती हैं। वे आर्थिक रूप से इन्हीं सवर्णों पर निर्भर हैं। हर समय वह असुरक्षित स्थितियों में काम करने को बाध्य हैं। दलित स्त्रियों के यौन शोषण द्वारा चौधरी वर्ग न केवल आनी यौन विकृतियों की तुष्टि करता है बल्कि इससे भी बढ़कर दलित आत्म-सम्मान को कुचलकर उसे मानसिक रूप से पंगु बनाकर अपनी यंत्रणा का वर्चस्व भी स्थापित करता है।

ज़मीन के किसी टुकड़े पर उनका अधिकार नहीं है, यहां तक कि ‘चमादड़ी’ भी गांव की साझी ज़मीन है। बेगारी करने से मना करने पर उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता है। इन तमाम यंत्रणाओं और यौन शोषण का प्रमुख कारण उनकी सामाजिक, आर्थिक स्थिति ही पूर्ण रूप से उत्तरदायी है। इसके साथ-साथ उनके अंदर चेतना का अभाव एवं परस्पर फूट भी कुछ हद तक इसे प्रभावित करता है। दलित समाज इन्हीं अंतर्विरोधों के बीच जीने को बाध्य है। जातिगत भेदभाव और अत्याचार के विरोध में दलित समाज संगठित होकर संघर्ष तो करना चाहता है लेकिन इसके लिए दिशादर्शी विचारधारा और दर्शन के अभाव में भटक जाता है। अपना संघर्ष अधूरा छोड़ कर उसे समझौता करना पड़ता है। यह पराजय उन्हें कचोटती नहीं। यह एक तल्ख़ हक़ीक़त है।

उपन्यास में कुछ ऐसे चरित्र भी हैं जो प्रतीक चरित्र हैं, जैसे डॉक्टर बिशन दास किसी कम्यूनिस्ट का चरित्र है, जो हवाई क्रान्ति के सपने लेता रहता है। जबकि पंडित सन्तराम धार्मिक पाखण्ड व दम्भ के प्रतीक का चरित्र है। वह पाखण्ड भरी बातें तो करता है लेकिन मुसीबत के समय किसी की सहायता नहीं करता। चौधरी हरनाम सिंह प्रतिनिधि चरित्र है जो चमारों पर धौंस जमाना, उनसे बेगार लेना अपना हक़ समझता है।

काली और ज्ञानो दोनों ही उपन्यास में प्रतिनिधि चरित्र हैं। ये दलित वर्ग की आगे बढ़ती हुई संघर्षशील चेतना के प्रतिनिधि चरित्र हैं। लेकिन उनकी तत्कालीन परिस्थितियां ही उनकी नियति की निर्णायक हैं। उन परिस्थितियों में उनका दुखद अंत उनकी नियति है। काली अपनी अन्तिम परिणति में दुखान्त चरित्र है। जीवन में वह अपनी समस्याएं हल नहीं कर पाता। अपने प्रेम की पवित्रता में वह हीर-रांझा से कम नहीं है। सामाजिक अत्याचार के ख़िलाफ़ और प्रेम की सच्चाई के लिए वह ख़ुद का बलिदान कर देता है। ज्ञानो काली से दृढ़ चरित्र है। अपने इरादों की पक्की लड़की है वह। ज्ञानो के दुखान्त के रूप में जगदीश चन्द्र ने सामन्ती मूल्यों वाले समाज में भारतीय नारी के दुखान्त को ही बड़े स्तर पर अभिव्यक्ति दी है। ज्ञानो और काली का दुखान्त चौधरियों के कारण नहीं, वरन चमार समाज के अपने सांस्कृतिक ढांचे के कारण है। दलित समाज का सांस्कृतिक ढांचा भी भीतर से दमनात्मक है। इस सांस्कृतिक दमन का शिकार बनते हैं, उस समाज के सबसे अच्छे लोग, यानि ज्ञानो और काली। किन्तु यह तो मानना ही पड़ेगा कि यह दमनात्मक सांस्कृतिक ढांचा समाज के व्यापक दमनात्मक ढांचे का हिस्सा ही है।

भारतीय समाज-व्यवस्था की तल्ख़ सच्चाइयों और विचारधारात्मक मतभेदों को बहुत ही संवेदनशीलता से उजागर करने के कारण ‘धरती धन न अपना’ में वेदना की अभिव्यक्ति मर्मस्पशी ढंग से हुई है। उपन्यास में जहां एक ओर वेदना की आत्माभिव्यक्ति है तो वहीं दूसरी ओर इस वेदना के कारणों की पड़ताल भी है। यह पड़ताल काफ़ी समझ-बूझ से की गई है। उपन्यास की कथा संगुम्फित और सुगठित है। कथा को रोचक बनाने वाली नाटकीय स्थितियों और कसाव के कारण यह उपन्यास एक सांस में पठनीय है। गैर दलित होकर भी जगदीश चन्द्र द्वारा लिखा गया यह उपन्यास दलित वर्ग का जीवन्त, मार्मिक और प्रामाणिक दस्तावेज़ है और जब तक दलितों का जीवन स्तर सुधर नहीं जाता यह उपन्यास हमें उनकी दशा की ओर ध्यान दिलाता रहेगा।

पुस्‍तक का नाम धरती धन न अपना (उपन्यास)

लेखक : जगदीश चन्द्र

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली

पहला संस्‍करण : 1972 (पुस्तकालय संस्करण)

संस्करण : 2007, 2009

मूल्‍य : 125 रु.  (पेपरबैक्स में)

12 टिप्‍पणियां:

  1. पुस्तक परिचय ऐसी शैली में लिखा है कि बरबस इस उपन्यास को पढने का मन हो उठता है ..
    जानकारी के लिए आभार ..
    एक संशय है कि ..इस उपन्यास के लेखक हैं या लेखिका ..?

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  2. बहुत बढ़िया...मन कर रहा है पढ़ने का. देखते हैं लाइब्रेरी में मिलता है तो.

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    1. हम किन्तु इतना समय नही दे पाते लाइब्रेरी में ।।

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  3. गैर दलित होकर भी जगदीश चन्द्र द्वारा लिखा गया यह उपन्यास दलित वर्ग का जीवन्त, मार्मिक और प्रामाणिक दस्तावेज़ है और जब तक दलितों का जीवन स्तर सुधर नहीं जाता यह उपन्यास हमें उनकी दशा की ओर ध्यान दिलाता रहेगा।

    जगदीश चंद्र द्वारा लिखित उपन्यास " धरती धन न अपना " के मूल भाव को जिस प्रकार से आपने संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किया है, काफी प्रशंसनीय है । बहुत अच्छा लगा । धन्यवाद ।

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  4. बढ़िया समीक्षा. जल्दी ही खरीद कर पढूंगा....

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  5. आपका पुस्तक परिचय का यह वृत्तात्मक अंदाज बहुत अच्छा लगा। जगदीश चंद्र ने हिंदी उपन्यास के क्षेत्र में विशिष्ट स्थान बनाया है। उनके अन्य उपन्यास हैं :आधा पुल, यादों के पहाड़,मुट्ठी भर का घर, कभी न छोड़ें खेत।

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  6. बहुत ही महत्वपूर्ण पुस्तक का जिक्र किया है आपने।

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  7. Bohut he acche upanyas hai.esmai ak bohut Bari Sikh hai ke Insan kisi v jati,dharm ka ho Kavi kisi Ko nicha naihi sochna chaheyai.

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  8. Dharati Dhan na Apna upanyas aadyant prerana denewala hai.Bahut hi rochak aur aakarshak hai.

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