बुधवार, 18 अप्रैल 2012

कितनी नावों में कितनी बार - अज्ञेय


कितनी नावों में कितनी बार - अज्ञेय



कितनी दूरियों से कितनी बार
कितनी डगमग नावों में बैठ कर
मैं तुम्हारी ओर आया हूं
ओ मेरी छोटी-सी ज्योति !
कभी कुहासे में तुम्हें न देखता भी
पर कुहासे की ही छोटी-सी रुपहली झलमल में
पहचानता हुआ तुम्हारा ही प्रभा-मंडल।

कितनी बार मैं,
धीर, आश्वस्त, अक्लान्त –-
ओ मेरे अनबुझे सत्य ! कितनी बार ...
और कितनी बार कितने जगमग जहाज
मुझे खींच कर ले गए हैं कितनी दूर
किन पराए देशों की बेदर्द हवाओं में
जहां नंगे अंधेरों को
और भी उघाड़ता रहता है
एक नंगा, तीखा, निर्मम प्रकाश –-
जिस में कोई प्रभा-मंडल नहीं बनते
केवल चौंधियाते हैं, तथ्य, तथ्य -– तथ्य –-
सत्य नहीं, अन्तहीन सच्चाइयां –-
कितनी बार मुझे
खिन्न, विकल, संत्रस्त –-
कितनी बार !

16 टिप्‍पणियां:

  1. ब्बहुत सुन्दर रचना!...सुन्दर प्रस्तुति!

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  2. किन पराए देशों की बेदर्द हवाओं में
    जहां नंगे अंधेरों को
    और भी उघाड़ता रहता है
    एक नंगा, तीखा, निर्मम प्रकाश –-
    bahut sudar rachna ......padhwane ke liye dhanyavad .....manoj jee....

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  3. सच्ची शान्ति अन्ततः अपने आपसे, अपनी अन्तःज्योति से मिल कर ही मिलती है जब कोई प्रश्न प्रश्न नही रहता कोई भटकाव नही रहता । पर यही सबसे कठिन कार्य है । अज्ञेय जी की यह अनुपम कविता भी एक महासागर समेटे है अर्थों का । अर्थ जो भी हो पर पढ कर अच्छा लगा । धन्यवाद ।

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  4. अज्ञेय की कवितायें एक साथ बहुत से अर्थ जगा जती हैं !

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  5. बड़े जहाज़ सारे के सारे
    काले कोसों ले जाते हैं
    जादू की जगमग दुनिया में.

    पर जब भी लौटा हूँ
    अपने घर
    काम आई छोटी डोंगी भर.

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  6. बहुत गम्भीर है ये कविता ।मैं इयं जेनेरेशन के होते हुए भी मुझे बहुत अच्छा लगा पढ़कर। धन्यवाद

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