लीजिये जी आ गया वृहस्पतिवार और मैं अनामिका आप सब को नमन करते हुए फिर से प्रस्तुत हूँ|
अब तक हमने रामधारी सिंह दिनकर जी के जीवन दर्पण के प्रथम अंक में उनके जन्म और उनके व्यक्तित्व के बारे में जाना और दूसरे अंक (नाचो हे, नाचो, नटवर) में उनके स्वाभाव और जीवनोपार्जन संबन्धित उतर-चढ़ाव को पढ़ा, तीसरे अंक बालिका से वधू में दिनकर जी में क्रोध और भावुकता दोनों का मिश्रण था को पढ़ा ....अब आपके समक्ष रामधारी सिंह 'दिनकर' जी के जीवन-सफ़र के कुछ और रंगों के साथ...
दिनकर जी -जीवन दर्पण -भाग –4
दिनकर जी परिहास-रसिक भी थे और हाजिरजवाब भी.
जब वे वारसा (पोलैंड) गए, वहां वारसा विश्वविद्यालय में कवि सम्मलेन भी हुआ था. इस सम्मेलन में इंग्लैण्ड के कवि श्री लारी ली ने एक कविता पढ़ी जिसका शीर्षक 'बोम्बे अरायिवल' था, और जिसमे अंग्रेजों के पहले पहल भारत आने का उल्लेख था. श्री ली ने दिनकर जी की ओर हास्यमिश्रित संकेत में देखा ही था कि दिनकर जी बोल उठे - "मिस्टर ली, अब दूसरी कविता आप 'बॉम्बे-डिपारचर' पर लिखिए, क्योंकि अँगरेज़ भरत से जा चुके हैं.
सुनते ही अट्टहास छा गया और पोलिश श्रोता तालियाँ पीटने लगे.
जब दिनकरजी कुछ बीमार थे. एक दिन उनकी मुलाक़ात भारत के प्रसिद्द वैध प. शिव शर्मा से हुई और शर्माजी ने इच्छा प्रकट की कि दिनकरजी आयुर्वेद के अनुसार अपनी चिकित्सा कराएं. दिनकर जी बोले - लेकिन शर्माजी, मेरा विचार है कि भैंस बीमार पड़े तो वैद्य को बुलाना चाहिए, चिड़िया बीमार पड़े तो होम्योपैथिक इलाज ठीक रहेगा; मगर आदमी के लिए तो बस एलोपैथी ही ठीक है." लेकिन पुत्र रामसेवक की बीमारी में उन्हें बारी-बारी से एलोपैथी, वैद्य और होम्योपैथी के दरवाजे का माथा टेकना पड़ा था.
एक और कहानी सरस्वती में छपी थी जो काफी मजेदार है. दिनकर जी जिस गाँव के हैं, उसके पास बारो नामक एक दूसरा गाँव है जो बेवकूफी के लिए उतना ही मशहूर है जितना उत्तर प्रदेश का भुइगांव. कहते हैं बारो के किसान एक बार खेत से कौओं को भगाते-भगाते दूसरे गांवे तक चले गए और वहां के लोगों से लड़ने पर अमादा हो गए कि अपने कौओं को तुम क्यों नहीं रोकते ? वे हमारी मकई खा जाते हैं.
ऐसा ही एक बदनाम परगना बेतिया (चंपारण जिला ) में भी पड़ता है, जिसका नाम मझुआ है एक बार दिनकर जी कि नियुक्ति बेतिया में हुई. थोड़े दिनों के बाद ही उनके मित्रों ने एक ग़ज़ल लिखी जिसमे यह कहा गया था कि वैसे आप आदमी तो खूब हैं, लेकिन आपकी बातचीत और चाल-ढाल से आपके वतन कि बू आती है अर्थात बारो की बेवकूफी आपमें है. ग़ज़ल जोड़ने वाले मित्र मझुआ के थे, दिनकर जी ने ग़ज़ल की पीठ पर फ़ौरन यह रुबाई लिख दी -
यह ठीक है, बारो के वे हौआ चले गए,
जो हांकते थे रात दिन कौआ चले गए,
पूछा जो चितरगुप्त से, बारो का क्या हुआ ?
बोला कि सभी लोग मझुआ चले गए.
रुबाई जब दोस्तों को मिली, वे कटकर रह गए.
कभी कभी लोग उन्हें अहंकारी समझ लेते थे, किन्तु उनके सभी मित्र जानते हैं कि उनका स्वाभिमान अहंकार की सीमा से काफी दूर था. रुई भी दबते दबते एक ऐसी जगह पहुँच जाती है जहाँ वह और दबाई नहीं जा सकती. श्री भगवतीचरण वर्मा ने शायद सच ही लिखा है - संघर्षों ने दिनकर को कठोर बना दिया.
वर्माजी की यह उक्ति भी बड़ी ही सटीक है कि दिनकर के सबल व्यक्तित्व के कारण उनका रस क्षेत्र सुस्पष्ट हो जाता है. जैसे पंतजी को देखते ही
कोमलता और संयम का प्रभाव उत्पन्न होता है, वैसे ही दिनकर के दर्शन मात्र से पौरुष और प्रभुत्व की याद आती है.
स्वभाव से दिनकर ईमानदार थे. पहली नज़र में वे किसीको भी अविश्वसनीय नहीं मानते, किन्तु धोखा खाने पर वे अपनी पीड़ा छिपाते भी नहीं थे. उनमे वह नकली विनम्रता नहीं थी, जो सबको खुश रखकर चलनेवालों में होती है; न उनमे व्यवहार कुशलता इस हद तक पहुँच पायी थी कि हृदय को रोक रखने की शक्ति पैदा हो गयी हो जो एक प्रौढ़, अनुभवी व्यक्ति में बहुत अस्वाभाविक न होती. उनके स्वभाव की जो झांकी श्री भगवतीचरण वर्मा ने अंकित की है - कलाकार की हैसियत से दिनकर को मैं सबसे अधिक स्पष्ट और ईमानदार पाता हूँ. दिनकर अपनी भावनाओं की सीमा छोड़ने को कहीं भी तैयार नहीं, कहीं भी आरोपित विश्वासों एवं मान्यताओं का सहारा दिनकर ने नहीं लिया, दिनकर को तो संघर्षों से जैसे मोह था.
क्रमशः
दिनकर जी की सृजनशील लेखनी से निकले कुछ और छटपटाते से पल उनके शब्दों में...
तूफ़ान
मेरे भीतर का ईश्वर,
विकराल क्रोध है ऊसर, अनजोती जमीन
पर तांडव का त्यौहार रचाने वाला !
मेरे भीतर का ईश्वर,
है मेरे मन के स्वर्ग-लोक की नींव हिला
मेरे भीतर भूकंप मचानेवाला
मेरे भीतर का ईश्वर,
है अग्नि चंड मैं उनके भीतर जलता है !
मेरे भीतर का ईश्वर,
है घन घमंड, अम्बर का उद्वेलित समुद्र,
मेघों को, जानें, हांक कहाँ से लाता है !
मेरे भीतर का ईश्वर,
है नामहीन, एकाकी, अभिशापित विहंग
जो हृदय-व्योम में चिल्लाता, मंडराता है !
मेरे भीतर का ईश्वर,,
है जोर-जोर से पटक रहा मेरे मस्तक को पत्थर पर !
मेरे भीतर का ईश्वर,
यह महाधीर चतुरंग प्रभंजन वेगवान
मेरे मन के निर्जन, अकूल, आश्रयविहीन
उत्तप्त प्रान्त से ज्वालायें भड़काता है !
भीतर उर के मुद्रित कपाट,
बाहर-बाहर वह प्रलय-केतु फहराता है !
नामांकन
सिन्धु-तट की बालुका पर जब लिखा मैंने तुम्हारा नाम,
याद है, तुम हंस पड़ी थीं, 'क्या तमाशा है !
लिख रहे हो इस तरह तन्मय
कि जैसे लिख रहे होवो शिला पर !
मानती हूँ, यह मधुर अंकन अमरता पा सकेगा !
वायु की क्या बात ? इसको सिन्धु भी न मिटा सकेगा !'
और तब से नाम मैंने है लिखा ऐसे
कि, सचमुच, सिन्धु की लहरें न उसको पाएंगी !
फूल में सौरभ, तुम्हारा नाम मेरे गीत में है !
विश्व में यह गीत फैलेगा !
अजन्मा पीढियां सुख से
तुम्हारे नाम को दुहरायेंगी !
(सीपी और शंख)
बहुत सुंदर अनामिका जी...............
जवाब देंहटाएंदिनकर जी को जानना बहुत अच्छा लग रहा है....अगले अंक के इंतज़ार में...
शुक्रिया...
अनु
अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंAnamika ji,
जवाब देंहटाएंYou deserve special kudo from my side for posting two poems namely "Toofan" and "Namankan' composed by Ramdhari Singh Dinkar.His expression, diction and deep insight into the historical and religious knowledge acted as a light-House for me.
At present, Hindi font is not activated in my computer.Hope you will not take amiss of it for making comments in English. Thanks.
achci lagi ......
जवाब देंहटाएंbahut badhiyaa prastuti!....
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अनामिकाजी ....दिनकर जी के विषय में आपसे बहुत सुन्दर जानकारी मिली ...अगले लेख की प्रतीक्षा रहेगी
जवाब देंहटाएंशुक्रवारीय चर्चा-मंच पर
जवाब देंहटाएंआप की उत्कृष्ट प्रस्तुति ।
charchamanch.blogspot.com
दिनकर जी से मिलना सुखद चल रहा है…………आभार्।
जवाब देंहटाएंबहुत बेहतरीन....
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
एक बेहतरीन श्रृंखला की शुरुआत की है आपने। दिनकर जी के जीवन के कई ऐसे पहलु थे जिनसे हमारा परिचय न था। इन पोस्टों के माध्यम से हम जान पा रहे हैं। आभार आपका अनामिका जी।
जवाब देंहटाएंदिनकर जी के विषय में जानना बहुत सुखद है !
जवाब देंहटाएंदिनकर जी के बारे में यह संस्मरण बहुत ही रोचक है ! उनकी हाजिरजवाबी के उद्धरण बहुत अच्छे लगे और रचनाएं तो दोनों ही अनमोल हैं ! इतनी सार्थक प्रस्तुति के लिये आपका आभार !
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