पुस्तक परिचय-26
ज़िन्दगीनामा
मनोज कुमार
निर्मल जैन ने कहा था,
“किसी रचना का महत्व और सार्थकता बहुत दूर तक इस बात पर निर्भर रहती है कि रचनाकार ने अपने समय और कथ्य के साथ किस तरह का रिश्ता कायम किया है। ... सरोकार का दायरा सीमित होने पर सार्थक और प्रांसंगिक रचनाएं सामने आती हैं और व्यापक होने पर कालजयी कृतियों का सृजन होता है।”
इस सप्ताह जिस उपन्यास से हम आपका परिचय कराने जा रहे हैं, वह ऐसी ही कालजयी रचना है जिसने उपन्यास के पारंपरिक ढांचे को चुनौती दी है। लेखन को जीवन का पर्याय मानने वाली कृष्णा सोबती जी की क़लम से उतरा यह एक ऐसा उपन्यास है जो सचमुच ज़िन्दगी का पर्याय है – और उसका नाम है ज़िन्दगीनामा। वास्तव में यह उपन्यास पारंपरिक उपन्यास से भिन्न है। इसमें न कोई नायक है, न कोई खलनायक। सिर्फ़ लोग, और लोग, और लोग। यह उपन्यास जीवनानुभव के अनुसार अपना ढाँचा स्वयं बनाता है।
कृष्णा सोबती जी अविभाजित पंजाब मूल की लेखिका हैं। उन्होंने अपनी कहानियों में अविभाजित पंजाब की जीवंत संस्कृति के जो चित्र प्रस्तुत किए हैं, वे इस उपन्यास को प्रेमचन्द के ‘गोदान’, यशपाल के ‘झूठा सच’, अज्ञेय के ‘शेखर : एक जीवनी’, जैनेन्द्र कुमार के ‘त्याग पत्र’, अमृतलाल नगर के ‘बूँद समुद्र’, फणिश्वरनाथ रेणु के ‘मैला आँचल’ और श्रीलाल शुक्ल के ‘राग दरबारी’ की श्रेणी में ला खड़ा करते हैं।
1979 में यह उपन्यास प्रकाशित हुआ। 392 पृष्ठ के इस उपन्यास में विभाजनपूर्व पंजाब के जन-जीवन और संस्कृति का अद्भुत पुनःसृजन किया गया है। लेखिका का अपनी मातृभूमि और संस्कृति से गहरा लगाव है और वह उपन्यास के शुरू में कविता-रूप में पाठक के सामने आता है।
गलबहियों-सी
उमड़ती, मचलती
दूधभरी छातियों-सी
चनाब और जेहलम की धरती
माँ बनी
कुरते के बन्द खोलती
दूध की बूंदें ढरकाने को।
इस उपन्यास में कथा तो कम है, दृश्यों का एक लगातार क्रम है। लेखिका ने डेरा जट्टा गांव की यादों को दृश्य में बांधकर प्रस्तुत किया है। उस गांव में बसे हिन्दू, मुसलमान और सिख समुदाय की ज़िन्दगी के अनेक चित्र सांस्कृतिक बिंबों के ज़रिए प्रस्तुत किया गया है। शाहजी के परिवार को केन्द्र में रखकर प्रेम कथाएं, लोहड़ी, ईद, दशहारा, बैशाखी उत्सव के चित्र और अनेकों कहानियों का संगम है यह उपन्यास। इसके पन्नों में आपको बादशाह और फ़क़ीर, शहंशाह, दरवेश और किसान एक साथ खेतों की मुँडेरों पर खड़े मिलेंगे, एक भीड़ के रूप में। एक भीड़ जो आमजन की भीड है, एक ऐसी भीड़ जो हर काल में, हर गांव में, हर पीढ़ी को सजाए रखती है।
“सतह ज़मीन की अगर एक वसीह फ़र्श से मिसाल दी जाए तो इस पर पहाड़ों को ऐसा समझा जाएगा कि गोया फ़र्श को अपनी जगह रखने के लिए मेखें गाड़ दी हों। आसमानों की हक़ीक़त ख्वा कुछ भी समझी जाए, मगर उसके वजूद और उनकी मज़बूती में किसी को शक नहीं। आसमानों की हर-एक चीज़ अपनी मुकर्रा जगह के अंदर निहायत मज़बूती से क़ायम है।”
इस उपन्यास में गांव के जीवन का हर पहलू जीवंत रूप में चित्रित है। इसे हम सांस्कृतिक-ऐतिहासिक रचना की श्रेणी में रख सकते हैं। पंजाबी प्रभावयुक्त भाषा का इसमें प्रयोग किया गया है। इस महाकाव्यात्मक उपन्यास में कथा-शिल्प अत्यंत सधा हुआ है। इसकी जटिल अंतर्वस्तु की प्रस्तुति के लिए सोबती जी ने बड़े ही सजग, सफल और सौन्दर्यमूलक कथाशिल्प का प्रयोग किया है। यह एक अभिनव प्रयोग है।
“कत्ल-डाका, उधारबंदी, असल-ब्याज और सूदखोरी में जिवियाँ हड़प्प। कर्ज लिया, भू गहने रखी। न टोंबु न कागद। हुई लिखत शाह के हाथ की तो जो जट्ट कहे सो झूठ, जो शाह कहे सो सच्च। पगड़ियों के जोर-जबर के ज़ोर बड़े-बड़े रौब-दाबवाले मुकद्दमे भुगत गए।”
इस उपन्यास में सोबती जी ने पात्रों के चरित्र निरूपण के लिए चरित्र-सृष्टि न करके, पंजाबी समाजिक सांस्कृतिक परिवेश के चित्रण द्वारा चरित्र-सृष्टि की है। इस कारण से डेरा जट्टा गांव ही प्रतीकात्मक चरित्र बन गया है। उन्होंने पंजाब की सांझा संस्कृति, पारिवारिक-सामाजिक-मानवीय संबंधों, आपसी प्रेम, पारस्परिक राग-विराग को ही चरित्र के रूप में उकेरा है। परिवेश के यथार्थ और जीवंत चित्रण के लिए भाषा का उन्होंने सृजनात्मक उपयोग किया है। लोहड़ी, बैशाखी, शादी-ब्याह, मेले-त्योहारों आदि के माध्यम से लोकजीवन की विविध झांकियों को प्रस्तुत किया गया है। इस उपन्यास में शुरू से अंत तक मानवीय नियति के संबंध में एक गहरा और बुनियादी सरोकार का समावेश है। यह सरोकार गहरी पीड़ा से पैदा हुआ प्रतीत होता है,
“कौन जानेगा, कौन समझेगा अपने वतन को छोड़ने और उनसे मुंह मोड़ने के दर्दों की पीड़ा को। झेलम चेनाब बहते रहेंगे इसी धरती पर। लहराते रहेंगे खुली-डुली हवाओं के झोंके इसी धरती पर इसी तरह। हर मौसम में इसी तरह ... फिर हम नहीं होंगे। ...”
इस उपन्यास के ज़रिए कृष्णा सोबती ने बताना चाहा है कि एक बंटवारा एक भूखंड को दो कर दिए जाने की घटना भर नहीं है, एक सांझी संस्कृति को अलग-अलग करने का परिणाम भर नहीं है, बल्कि एक बुनियादी ग़लती है, एक विष-बेल है, जो दोनों टुकड़ों में फलती-फूलती-फैलती है। हमने देखा है, कि धर्म और राजनीतिक दांव-पेंच के कारण एक अखंड संस्कृति को तोड़ने का यह सिलसिला आजतक थमा नहीं है, यह उन दोनों टूटे टुकड़ों को तोड़ ही रहा है।
इतिहास/जो/नहीं है
और इतिहास/जो है
वह नहीं
जो हकूमतों की
तख्तगाहों में
प्रमाणों और सबूतों के साथ
ऐतिहासिक खातों में दर्ज़ कर
सुरक्षित कर दिया जाता है
बल्कि वह जो लोकमानस की
भागीरथी के साथ-साथ
बहता है
पनपता और फैलता है
और जनसामान्य के
सांस्कृतिक पुख्तापन में
ज़िंदा रहता है!
मानवीय स्वातंत्र्य और रूढ़ि का प्रतिरोध कृष्णा सोबती जी के इस उपन्यास की मौलिक विशेषता है। ज़िन्दगीनामा में उन्होंने अपने जीवन से छूटे हुए परिवेश का रोमांटिक चित्रण करके अतीत के प्रति एक प्रकार का नॉस्टेलजिया पैदा किया है, जिसमें दर्द और पीड़ा रची-बसी है। हम कह सकते हैं कि इस उपन्यास के द्वारा उन्होंने हिंदी साहित्य में लीक से हटकर अपनी पगडंडी की ख़ुद तलाश की है।
इसे एक बार ज़रूर पढ़ना चाहिए।
***
पुस्तक का नाम | ज़िन्दगीनामा |
रचनाकार | कृष्णा सोबती |
प्रकाशक | राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली |
संस्करण | 1979 में प्रकाशित, प्रथम संस्करण : 2004, चौथी आवृत्ति : 2010 |
मूल्य | |
पेज | 392 |
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आजकल हमारे मनोभाव टकराने लगे हैं.. पिछले हफ्ते आपने भी उत्साही जी के विषय में लिखा और मैंने भी.. इस हफ्ते आपने जिंदगीनामा की चर्चा की है और मैंने फ्लिप्कार्ट पर ऑर्डर किया है.. अच्छा संयोग है, और अच्छी चर्चा!!
जवाब देंहटाएंअद्भुत संयोग!
हटाएंरात के दस बजे तक एक अन्य पुस्तक परिचय डालने की तैयारी थी। आपको बताया भी था। पर आज सुबह मूड बदल गया।
आपके द्वारा पुस्तकों का परिचय अच्छा लगता है .... पुस्तक की विषय वस्तु से अच्छी तरह परिचित हो जाते हैं .... आभार
जवाब देंहटाएंकौन जानेगा, कौन समझेगा अपने वतन को छोड़ने और उनसे मुंह मोड़ने के दर्दों की पीड़ा को ?
जवाब देंहटाएंबंटवारा एक भूखंड को दो कर दिए जाने की घटना भर नहीं है, एक सांझी संस्कृति को अलग-अलग करने का परिणाम भर नहीं है, बल्कि एक बुनियादी ग़लती है, एक विष-बेल है, जो दोनों टुकड़ों में फलती-फूलती-फैलती है। हमने देखा है, कि धर्म और राजनीतिक दांव-पेंच के कारण एक अखंड संस्कृति को तोड़ने का यह सिलसिला आजतक थमा नहीं है, यह उन दोनों टूटे टुकड़ों को तोड़ ही रहा है।
Nice post.
आपके द्वारा की गयी समीक्षा तो शानदार होती ही है साथ ही पुस्तक और रचनाकार दोनो का परिचय भी हो जाता है…………हार्दिक आभार्।
जवाब देंहटाएंबहुत ही बेहतरीन और प्रशंसनीय प्रस्तुति....
जवाब देंहटाएंइंडिया दर्पण की ओर से शुभकामनाएँ।
बधाई ।।
जवाब देंहटाएंपुस्तक और रचनाकार दोनो का अच्छा परिचय ||
बहुत बहुत शुक्रिया.............
जवाब देंहटाएंविस्तृत समीक्षा.......
सादर
अनु
अच्छी पुस्तक चर्चा.
जवाब देंहटाएंkrishna sobti ke is upanyaas ka shayad laghu roop maine padha hai...sach me itna goodh lekhan hai inka ki har baat ko dil-o-dimag me baithana itna aasaan bhi nahi lekin samajh me aane lage to dilchasp bhi bahut hai aur us samay k samajik parivesh se bakhoobi avgat karati hai. aabhar aapki is pustak parichay ke liye...
जवाब देंहटाएंBahut achha Saransh aapne likha hai
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