प्रस्तुत भाग में विजय के बाद युधिष्ठिर आत्मग्लानि में शर शैया पर लेटे पितामह भीष्म से कह रहे हैं उसका वर्णन कवि ने किया है ...
सब लोग कहेंगे , युधिष्ठिर दंभ से
साधुता का व्रतधारी हुआ ;
अपकर्म में लीन हुआ , जब क्लेश
उसे तप त्याग का भारी हुआ ;
नरमेध में प्रस्तुत तुच्छ सुखों को
निमित्त महा अभिचारी हुआ
करुणा-व्रत पालन में असमर्थ हो
रौरव का अधिकारी हुआ ।
कुछ के अपमान के साथ पितामह ,
विश्व - विनाशक युद्ध को तोलिए ;
इनमें से विघातक पातक कौन
बड़ा है ? रहस्य विचार को खोलिए ;
मुझ दीन, विपणन को देख, दयार्द्र हो
देव ! नहीं निज सत्य से डोलिए ;
नर - नाश का दायी था कौन ? सुयोधन
या कि युधिष्ठिर का दल ? बोलिए ।
हठ पै दृढ़ देख सुयोधन को
मुझको व्रत से डिग जाना था क्या ?
विष की जिस कीच में था वह मग्न
मुझे उसमें गिर जाना था क्या ?
वह खड्ड लिए था खड़ा , इससे
मुझको भी कृपाण उठाना था क्या ?
द्रौपदी के पराभव का बदला
कर देश का नाश चुकाना था क्या ?
मिट जाये समस्त महीतल , क्योंकि
किसी ने किया अपमान किसी का ;
जगती जल जाये कि छूट रहा है
किसी का दाहक वाण किसी का ;
सबके अभिमान उठें बल , क्योंकि
लगा बलने अभिमान किसी का ;
नर हो बली के पशु दौड़ पड़ें
कि उठा बज युद्ध-विषाण किसी का ।
कहिए मत दीप्ति इसे बल की,
यह दारद है , रण का ज्वर है ;
यह दानवता की शिखा है मनुष्य में
राग की आग भयंकर है ;
यह बुद्धि - प्रमाद है, भ्रांति में सत्य को
देख नहीं सकता नर है ;
कुरुवंश में आग लगी , तो उसे
दिखता जलता अपना घर है ।
दुनिया तज देती न क्यों उसको ,
लड़ने लगते जब दो अभिमानी ?
मिटने दे उन्हें जग , आपस में
जिन लोगों ने है मिटने की ही ठानी ;
कुछ सोचे - विचारे बिना रण में
निज रक्त बहा सकता नर दानी ;
पर , हाय , तटस्थ हो डाल नहीं
सकता वह युद्ध की आग में पानी ।
कुरुक्षेत्र का युद्ध समाप्त हुआ ; हम
सात हैं ; कौरव तीन बचे हैं ;
सब लोग मरे ; कुछ पंगु , व्रणी,
विकलांग , विवर्ण , निहीन बचे हैं ;
कुछ भी न किसी को मिला , सब ही
कुछ खो कर ,हो कुछ दीन बचे हैं ;
बस ,एक है पांडव जो कुरुवंश का
राज - सिंहासन छीन बचे हैं ।
यह राज - सिंहासन ही जड़ था
इस युद्ध की , मैं अब जानता हूँ ,
द्रौपदी कच में थी जो लोभ की नागिनी
आज उसे पहचानता हूँ ;
मन के दृग की शुभ ज्योति हरी
इस लोभ ने ही, यह मानता हूँ ;
यह जीता रहा , तो विजेता कहाँ मैं ?
अभी रण दूसरा ठानता हूँ ।
यह होगा महा रण राग के साथ ,
युधिष्ठिर हो विजयी निकलेगा ;
नर - संस्कृति की रण छिन्न लता पर
शांति - सुधा - फल दिव्य फलेगा ,
कुरुक्षेत्र की धूल नहीं इति पंथ की
मानव ऊपर और चलेगा
मनु का यह पुत्र निराश नहीं
नव धर्म - प्रदीप अवश्य जलेगा !
क्रमश:
मन के दृग की शुभ ज्योति हरी
जवाब देंहटाएंइस लोभ ने ही, यह मानता हूँ ;
यह जीता रहा , तो विजेता कहाँ मैं ?
अभी रण दूसरा ठानता हूँ ।
प्रेरक पंक्तियाँ...आभार !
यह होगा महा रण राग के साथ ,
जवाब देंहटाएंयुधिष्ठिर हो विजयी निकलेगा ;
नर - संस्कृति की रण छिन्न लता पर
शांति - सुधा - फल दिव्य फलेगा ,
कुरुक्षेत्र की धूल नहीं इति पंथ की
मानव ऊपर और चलेगा
मनु का यह पुत्र निराश नहीं
नव धर्म - प्रदीप अवश्य जलेगा !
......अंत में धर्मं और सत्य ही विजयी होगा ....बहुत सुन्दर चित्रण !!!
प्रेरक अंश ...बहुत सुन्दर.
जवाब देंहटाएंकुरुषेत्र को फिर से पढना अच्छा लग रहा है... बढ़िया प्रतुतिकरण ...
जवाब देंहटाएंदुनिया तज देती न क्यों उसको ,
जवाब देंहटाएंलड़ने लगते जब दो अभिमानी ?
यह एक ऐसा प्रश्न है जो मेरे मन में भी उठते रहते है।
मन मैल धुले,यदि हो मंथन,क्या खोया हमने क्या पाया
जवाब देंहटाएंइतना भी नहीं,सबके वश का,धर्मराज एक ही बन पाया!
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