सभी
गुणीजनों को अनामिका का
सादर नमन ! आप सब की प्रतिक्रियाओं और रूचि ने मेरा जो मनोबल बढाया उसके लिए आप सब
की आभारी हूँ और अब दिनकर जी के जीवन
के आगे के सफ़र को विस्तार देती हूँ ...
दिनकर जी -जीवन दर्पण -भाग –5
हिंदी कविता के छायावादोत्तर युग की सबसे बड़ी घटना दिनकर
और बच्चन का आविर्भाव थी. जब खड़ी बोली अन्ततोगत्वा कविता की भाषा बन गयी, हिंदी कविता में वह कोमलता नहीं थी, जो तीन सौ वर्ष की साधना से ब्रजभाषा, मैथिलि आदि का जन्मसिद्ध अधिकार था. यह अपरिहार्य था, इस पर आंसू बहाने की कोई आवश्यकता नहीं थी. खड़ी बोली को
पहले युग की हिंदी कविता (तब गद्य साहित्य था ही नहीं) के मुकाबले में बिलकुल
दूसरा ही कहीं अधिक गौरवपूर्ण भाग अदा करना था. पर हिंदी के कवि तथा साहित्यकार
कहाँ तक इस नए युग की मांग के लिए तैयार थे, यह संदिग्ध है.
छायावाद युग के कवि प्राचीन हिंदी कविता के उक्त
गुण को फिर से प्राप्त करने में समर्थ हुए. पर किन मूल्यों पर ? छायावाद बारीक कातने में भटक गया, काव्य रसिक जनता उससे उदास होने लगी. निराशा के कुछ कारण ये
थे कि जनता स्वाधीनता संग्राम में जूझ रही थी, किन्तु छायावादी
कवि कल्पना से किलोलें कर रहे थे; जनता तो
पूंजीवादी और उसके सबसे विकसित रूप ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध आशा, उत्साह और कर्मठता के लिए प्रेरणा खोज रही थी और छायावादी
कवि आंसू ढार-ढारकर रहस्यवाद, विषद, रोगग्रस्त प्रेम, विरह और निराशा
के गीत गा रहे थे. आलोचक छायावादी काव्य से उतने निराश नहीं थे, किन्तु जनता और काव्य के बीच जो सम्बन्ध होना चाहिए, उसका निर्वाह सिर्फ उन कवियों की कवितायें कर रही थीं जिनका
प्रधान स्वर राष्ट्रीय था. "छायावादी युग में पाठकों के
बीच हिंदी कविता की बहुत कुछ प्रतिष्ठा राष्ट्रीय कविताओं ने रखी".
दिनकर का उदय उस धारा में हुआ जो भारतेंदु, मैथिलीशरण, रामनरेश त्रिपाठी, सुभद्राकुमारी चौहान, माखनलाल
चतुर्वेदी और बाल कृष्ण शर्मा नवीन से होकर बहती आ रही थी. बच्चन उस धारा से निकले, जो पन्त और महादेवी, विशेषतः महादेवी, में दृष्टिगोचर
हुई थी. दिनकर व बच्चन दोनों ही कवि उर्दू काव्य से प्रभावित थे. बच्चन के गीतों
में प्रेमसर्वस्व ग़ज़ल की खूबियों ने झलक
मारी और दिनकर में हाली चकबस्त और इकबाल की तेजस्विता और
एहिकता जगमगा उठी. दिनकर की रसग्राहिणी
शिराएँ संस्कृत और बंगला से भी संपृक्त थीं. अतएव एक ओर जहाँ उनमे कालिदास
और रवीन्द्र का प्रभाव पहुंचा वहां दूसरी ओर क़ाज़ी नजरूल इस्लाम का आक्रामक और
संक्रामक गर्जन और सिंहनाद भी उनकी आवाज़ की त्रिवेणी में आ मिला. नजरूल, जोश और दिनकर भारत की क्रन्तिकारी कविता के वृहत्त्रायी के
कवि हैं और इन तीनों कवियों का स्वर बहुत कुछ समान रहा है. तीनों में ढूंढनेवाले
को एक ही तरह की कमियां मिलेंगी, ऐसी कमियां जो
युग तथा ये कवि जिस वर्ग से आये, उसे देखते हुए
अनिवार्य थीं. जब दिनकर पूर्ण रूप से उदित हुए, नजरूल की
अग्निवीणा मौन हो रही थी. पर जोश चहक-महक रहे थे. जोश जब पहले-पहल दिनकर जी से
मिले, उन्होंने बेसाख्ता एक रुबाई कही जो 'दिनकर और उनकी काव्य कृतियाँ ' नामक ग्रन्थ में संचित है. वह रुबाई है -
हिंद में लाजवाब हैं दोनों
शायरे-इन्कलाब हैं दोनों,
देखने में अगरचे ज़र्रे हैं,
वाकई आफताब हैं दोनों !
दिनकर और बच्चन में आविर्भाव को एक महान घटना कहा जा सकता है, क्योंकि इन दोनों कवियों के आविर्भूत होते ही काव्यरसिक जनता
में खड़ी बोली की कविता के लिए जो उत्साह उमड़ पड़ा, वह पहले कभी नहीं
जगा था. इसके साथ साथ हिंदी कविता कुछ काव्यमोदी लोगों की संपत्तिमात्र न रहकर
जनता में उतर आई और जनता अपनी बारी में उसमे उतर गयी.
सन 1935 ई. में पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी ने पटना जाकर यह
घोषणा की कि यदि दिनकर जी अफ्रीका में जन्मे होते तो उनसे मिलने को मैं अफ्रीका भी
चला जाता. छायावाद के तत्कालीन एक अग्रणी कवि प. जनार्दनप्रसाद झा द्विज ने अपनी 'चरित्र-रेखा' नामक पुस्तक में
लिखा, "ऐसे बहुत से पाठक
हैं जो दिनकर की कवितायें पढ़कर और कुछ पढना आवश्यक नहीं समझते !" हिमालय, नयी दिल्ली, तांडव, दिगम्बरी, हाहाकार, विपथगा और अनल- किरीट, ये कवितायें अपने
समय में जनता को बेतरह झकझोरती
थीं. यही नहीं बल्कि उन्हें सुनकर बड़े बड़े राष्ट्रीय नेता सभाओं में फूट-फूटकर
रोने लगते थे और बूढ़े भी सभाओं में खड़े हो जाते थे.
हिंदी में राष्ट्रीय कवितायें उच्च कोटि की होती आई थीं. आजादी की लडाई में लगे हुए
बलिदानी भारत की जो वीरता, स्वाभिमान, अधीरता और आक्रोश
दिनकर जी में आकर प्रकट हुए, कला में उसका
विस्फोट इससे पहले उतने जोर से हिंदी में नहीं हुआ था. उदय के साथ ही दिनकरजी का
स्थान हिंदी के क्रांतिकारी कवियों में बन गया और काव्य लोभी जनता उनके प्रत्येक
स्वर को अपने कंठ में बसाने लगी थी.
क्रमशः
प्रस्तुत है ऐसी ही कविताओं में से एक कविता अनल किरीट -
अनल किरीट
लेना अनल - किरीट भाल
पर ओ आशिक होनेवाले
कालकूट पहले पी लेना, सुधा बीज बोनेवाले
१
धरकर चरण विजित श्रृंगों पर झंडा वही उड़ाते हैं,
अपनी ही उँगली पर
जो खंजर की जंग छुडाते हैं.
पड़ी समय से होड़, खींच मत तलवों से
कांटे रुककर,
फूंक-फूंक चलती न जवानी चोटों से बचकर , झुककर.
नींद कहाँ उनकी
आँखों में जो धुन के मतवाले हैं ?
गति की तृषा और
बढती, पड़ते पग में जब छले हैं.
जागरूक की जाय निश्चित है, हार चुके सोने वाले,
लेना अनल-किरीट भाल पर ओ आशिक होनेवाले.
२
जिन्हें देखकर डोल गयी हिम्मत दिलेर मर्दानों की
उन मौजों पर चली जा रही किश्ती कुछ दीवानों की.
बेफिक्री का समाँ
कि तूफाँ में भी एक तराना है,
दांतों उँगली धरे
खड़ा अचरज से भरा ज़माना है.
अभय बैठ ज्वालामुखियों पर अपना मन्त्र जगाते हैं.
ये हैं वे, जिनके जादू पानी में
आग लगाते हैं.
रूह जरा पहचान रखें इनकी
जादू टोनेवाले,
लेना अनल-किरीट भाल पर ओ आशिक होनेवाले.
३
तीनों लोक चकित
सुनते हैं, घर घर यही
कहानी है,
खेल रही नेजों पर चढ़कर रस से भरी
जवानी है.
भू संभले, हो सजग स्वर्ग, यह दोनों की नादानी है,
मिटटी का नूतन
पुतला यह अल्हड है, अभिमानी है.
अचरज नहीं, खींच ईंटें यह सुरपुर को बर्बाद करे,
अचरज नहीं, लूट जन्नत वीरानों को आबाद करे.
तेरी आस लगा बैठे हैं , पा-पाकर खोनेवाले,
लेना अनल-किरीट भाल पर ओ आशिक होनेवाले.
४
संभले जग, खिलवाड़ नहीं अच्छा चढ़ते-से पानी से,
याद हिमालय को, भिड़ना कितना है
कठिन जवानी से.
ओ मदहोश ! बुरा फल हल शूरों के शोणित पीने का,
देना होगा तुम्हें एक दिन गिन-गिन मोल पसीने का .
कल होगा इन्साफ, यहाँ किसने क्या
किस्मत पायी है,
अभी नींद से जाग रहा युग, यह पहली अंगडाई है.
मंजिल दूर नहीं अपनी दुख का बोझा ढोनेवाले
लेना अनल-किरीट भाल पर ओ आशिक होनेवाले.
(हुंकार)
*** *** ***
पिछले पोस्ट के लिंक
वाह क्या बात है!!! ज्ञानवर्द्धक प्रस्तुति...आभार
जवाब देंहटाएंअनामिका जी,
जवाब देंहटाएंदिनकार जी के साहित्य पर आपकी अटूट आस्था हम सबको भी उनसे प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जोड़ देती है एवं आपका पोस्ट सुधी पाठकवृंद के लिए पुनरावृति का कार्य कर देता है । कविता को दिनकर का सबसे बड़ा योगदान तो यही माना जा सकता है कि उन्होंने आम आदमी को कविता के नजदीक लाने का काम किया । जहां बड़े कवियों की कविताएं विश्वविद्यालयों में अपनी श्रेष्ठता पर इठलाती हैं, वहीं दिनकर की कविताएं आम आदमी के घरों में शोभती हैं । उसके दिल और दिमाग में आज भी छायी हुई है । दिनकर पर अक्सर कवि सम्मेलनों और मुशायरों का मंचीय कवि होने का तोहमत लगाया जाता है, लेकिन एक सच्चाई तो यह भी है कि मंच से ही सही कविता को जनता तक पहुंचाने का जो काम दिनकर ने किया, उसकी तुलना शायद सिर्फ़ बच्चन से ही की जा सकती है। जनाक्रोश को नये व प्राचीन संदर्भों में पिरो कर देश और भाषा की अमिट सेवा करने वाले दिनकर कभी भी भुलाए नहीं जा पाएंगे और अपनी रचनाओं द्वारा हमें उत्साहित करते रहंगे। मेरी दृष्टि में दिनकर जी को पढ़ना देश की संस्कृति एवं सभ्यता को पढ़ना है । अनुरोध है कि आप इस क्रम को निरंतर बनाए रखें ताकि हम सबको उनके जीवन से जुड़े कुछ अनछुए पहलुओं से साक्षात्कार हो सके । धन्यवाद ।
प्रेम सरोवर जी आपका इस प्रकार प्रोत्साहन बहुत ऊर्जा प्रदान करता है. सच मानिए आपकी टिप्पणी का इंतज़ार रहता है. जिस बार नहीं आती, बहुत मायूसी सी होती है. आप सब का यह स्नेह और अनुरोध को मैं कैसे विस्मृत कर सकती हूँ. आभार इस श्रृंखला के ज़रिये जुड़े रहने के लिए.
हटाएंअमानिका जी,
हटाएंमुझे भी आपके पोस्ट का इंतजार रहता है>
अमूमन मैं मेल से भेजी गई टिप्प्णियों को ब्लॉग पर प्रकाशित नहीं करता, उसे मैं व्यक्तिगत विचार मानता हूं।
जवाब देंहटाएंपर जब विचार एक प्रमाण-पत्र हो तो सार्वजनिक करना बनता है।
ब्लॉग जगत में कुछ हैं जो प्रमाण-पत्र बांटते हैं, लोगो बांटते हैं, ब्लॉग लिखने पढ़ने का तरीक़ा सुझाते हैं ... पर कुछ लोगों के विचार इन सब से ऊपर होते हैं। गिरिजेश जी भी ऐसे ही एक ब्लॉगर हैं जो अपनी राह चलते हैं, दूसरों को राह भी दिखाते हैं यदा-कदा, खास कर जो देखना-मानना चाहे। कुछ इसी तरह .. राह पकड़ तू एक चलाचल पा जाएगा मधुशाला।
आज सुबह-सुबह मेल में उनकी यह टिप्पणी थी।
@ अनामिका जी सच मानिए यह एक टिप्पणी सौ टिप्पणियों पर भारी है, या सौ टिप्पणियों के समान है। कम से कम मेरे लिए। आप कभी कभी हतोत्साहित होती थीं, कि इतनी मेहनत करती हूं, कोई आता ही नहीं ... यह आपके लिए है ...
**
eg
7:46 am (1 घंटे पहले)
मुझे
मनोज जी! इस शृंखला की मुझे अब प्रतीक्षा रहने लगी है।
इस मंच से प्रकाशित समस्त रचनाओं को पढ़ता हूँ और आप के शांत तापस कर्म
से अभिभूत होता हूँ लेकिन इस शृंखला ने मुझे मेल करने को बाध्य किया है।
प्रस्तोता तक मेरा आभार पहुँचाइयेगा।
'ब्रिह्त्रायी' को ठीक कर दीजिये।
सादर,
गिरिजेश
मनोज जी कृतार्थ किया आपने मुझे गिरिजेश जी की टिप्पणी यहाँ पोस्ट करके.सच कहा आपने यह एक टिप्पणी सौ टिप्पणियों पर भारी है, या सौ टिप्पणियों के समान है। अब लगता है मेरी मेहनत रंग ला रही है और लिखने वाले को जब इतना प्रोत्साहन मिले, इतना प्यार मिले और उसके लेखन की अगली कड़ी का जब इंतजार किया जाता हो तो निराशा के पाँव तो उखड़ेंगे ही बल्कि इसके बावजूद वो और अधिक जोश और ख़ुशी से इस साहित्य सेवा के लिए लग जाएगा.
हटाएं@ गिरिजेश जी
बेशक आपको इस श्रृंखला ने टिप्पणी करने के लिए बाध्य किया हो, लेकिन मेरे लिए यह आपकी एक टिप्पणी बहुत बड़ा पुरूस्कार है और बता नहीं सकती कि कितना संबल मिला है आज मेरे मनोबल को. आभारी तो मुझे होना चाहिए. वैसे ये सच है कि जब तक कोई टिप्पणी नहीं देगा तो कैसे जाना जाएगा कि हमारा कर्म किसी को कितना अभिभूत कर पा रहा है, लेकिन आज आपकी टिप्पणी ने सारी शंकाओं को निराधार कर दिया है.
शब्द संशोधन कर दिया गया है.
आभार.
अच्छा लेख है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर और जानकारी भरा लेख ... अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंबधाई स्वीकारें ।।
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति |
हटाएंशुक्रवारीय चर्चा मंच पर ||
सादर
सच मे बहुत सुन्दर और जानकारी परक श्रंखला चल रही है।
जवाब देंहटाएंदिनकर जी को राष्ट्र कवि होने का सम्मान ऐसे ही नहीं मिल गया था उनके काव्य की प्रखर धार, उनका तेजस्वी व्यक्तित्व और ओजपूर्ण काव्यपाठ जिसने भी देखा सुना उनका मुरीद हो गया ! मेरे सौभाग्य से यह प्रसाद मुझे भी मिला १९६८ में जब दिल्ली के मावलंकर हाउस में कविवर सुमित्रानंदन पन्त के अभिनन्दन समारोह में तत्कालीन सभी नामचीन साहित्यकार एकत्रित हुए ! दिनकर जी भी उस समारोह में उपस्थित थे ! आपने बहुत ही अच्छी श्रंखला आरम्भ की है ! आभार आपका !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंबहुत मेहनत से तैयार किया गया ...बहुत ही सार्थक ...ज्ञानवर्धक आलेख .....बहुत ही उपयोगी श्रंखला ...अनामिका जी ....बहुत बधाई एवं शुभकामनायें ....
जवाब देंहटाएंकाश,केवल शृंगार का विरह-मिलन रोने-गानेवाले हमारे कवि लोग दिनकर से कुछ सीख ले पाते !अनामिका जी ,आप कोशिश करे जाइये कुछ तो जागेंगे ही .
जवाब देंहटाएंदिनकर ने उर्वशी लिखा था - 'मैं नहीं स्वर्ग लोक से आई, इस भू तल को ही स्वर्ग बनाने आई" अनल केर्रित में इस लक्ष्य को पाने का सिद्धांत उद्घोषित हुआ है.उह सिद्धांत कोरी आदर्शवादिता नहीं कर्म और पुरुषार्थ के बल पर अर्जित होगा. तभी तो कहतें हैं - " रे रोक युद्धिष्ठिर को न यहाँ जाने दो उनको स्वर्ग धीर. पर फिर हमें गांडीव गदा लौटा दे अर्जुन भीम वीर.".ओज के कवि दिनकर को नमन. अनामिका जी आपको भी प्रन्नाम, दिनकर साहित्य से रूबरू करने के लिए.
जवाब देंहटाएंअनामिका जी बहुत ही ज्ञान वर्धक था आपका लेख ....धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंकल होगा इन्साफ, यहाँ किसने क्या किस्मत पायी है,
जवाब देंहटाएंअभी नींद से जाग रहा युग, यह पहली अंगडाई है.
मंजिल दूर नहीं अपनी दुख का बोझा ढोनेवाले
लेना अनल-किरीट भाल पर ओ आशिक होनेवाले.
दिनकर जी के शब्द बहुत प्रेरणादायी हैं, अनामिका जी, इस सार्थक श्रंखला के लिये आभार!
दिनकर जी को स्कूल में पढ़ा था ..आज आपके ब्लॉग के माध्यम उनसे सबंधित ज्ञानवर्द्धक जानकारी पढ़कर वे दिन याद आने लगी... बहुत बढ़िया सार्थक पहल के लिए आभार ...
जवाब देंहटाएंदिनकर जी के बारे में एक बहुत ज्ञानवर्धक आलेख...आभार
जवाब देंहटाएंItna badhiya likhtee hain aap ki tippanee ke liye mere paas alfaaz nahee hote!
जवाब देंहटाएंरोचक....!!!
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