प्रस्तुत भाग में विजय के बाद युधिष्ठिर आत्मग्लानि में शर शैया पर लेटे पितामह भीष्म से कह रहे हैं उसका वर्णन कवि ने किया है ...
सब शूर सुयोधन - साथ गए
मृतकों से भरा यह देश बचा है ;
मृत वत्सला माँ की पुकार बची ,
युवती विधवाओं का वेश बचा है ;
सुख - शांति गयी , रस राग गया ,
करुणा , दुख - दैन्य अशेष बचा है ;
विजयी के लिए यह भाग्य के हाथ में
क्षार समृद्धि का शेष बचा है ।
रण शांत हुआ ,पर हाय , अभी भी
धारा अवसन्न , दरी हुई है ;
नर - नारियों के मुख देश पे नाश की
छाया सी एक पड़ी हुई है ;
धरती, नभ, दोनों विषण्ण उदासी
गंभीर दिशा में भरी हुई है;
कुछ जान नहीं पड़ता , धरणि यह
जीवित है कि मरी हुई है ।
यह घोर मसान पितामह ! देखिये
प्रेत समृद्धि के आ रहे वे ;
जय - माला पिन्हा कुरुराज को घेर
प्रशस्ति के गीत सुना रहे वे ;
मुरदों के कटे - फटे गात को इंगित
से मुझको दिखला रहे वे ;
सुनिए ये व्यंग निनाद हंसी का
ठठा मुझको ही चिढ़ा रहे वे ।
कहते हैं , युधिष्ठिर , बातें बड़ी बड़ी
साधुता की तू किया करता था ;
उपदेश सभी को सदा तप, त्याग
क्षमा , करुणा का दिया करता था ;
अपना दुख - भाग पराये के दुख: से
दौड़ के बाँट लिया करता था ;
धन - धाम गंवा कर धर्म हेतु
वनों में जा वास किया करता था ।
वह था सच या उसका छल -पूर्ण
विराग , न प्राप्त जिसे बल था ;
जन में करुणा को जगा निज कृत्य से
जो निज जोड़ रहा दल था ;
थी सहिष्णुता या तुझमें प्रतिशोध का
दीपक गुप्त रहा जल था ?
वह धर्म था या कि कदर्यता को
ढकने के निमित्त मृषा छल था ?
जन का मन हाथ में आया जभी ,
नर -नायक पक्ष में आने लगे
करुणा तज जाने लगी तुझको
प्रतिकार के भाव सताने लगे ;
तप -त्याग - विभूषण फेंक के पांडव
सत्य स्वरूप दिखाने लगे ;
मंडराने विनाश लगा नभ में
घन युद्ध के आ गहराने लगे ।
अपने दुख और सुयोधन के सुख
क्या न सदा तुझको खलते थे ?
कुरुराज का देख प्रताप बता , सच
प्राण क्या तेरे नहीं जलते थे ?
तप से ढँक किन्तु , दुरग्नि को पांडव
साधू बने जग को छलते थे ,
मन में थी प्रचंड शिखा प्रतिशोध की
बाहर वे कर को मलते थे ।
जब युद्ध में फूट पड़ी यह आग , तो
कौन सा पाप नहीं किया तूने ?
गुरु के वध के हित झूठ कहा
सिर काट समाधि में ही लिया तूने 1 ;
छल से कुरुराज की जांघ को तोड़
नया रण धर्म चला दिया तूने
अरे पापी , मुमुर्ष मनुष्य के वक्ष को
चीर सहास लहू पिया तू ने ।
अपकर्म किए जिसके हित, अंक में
आज उसे भरता नहीं क्यों है ?
ठुकराता है जीत को क्यों पद से ?
अब द्रोपदी से डरता नहीं क्यों है ?
कुरुराज की भोगी हुई इस सिद्धि को
हर्षित हो वरता नहीं क्यों है ?
कुरुक्षेत्र -विजेता , बता , निज पाँव
सिंहासन पै धरता नहीं क्यों है ?
1--सात्यकि ने समाधिस्थ भूरिश्रवा का मस्तक काट लिया था ।
क्रमश:
आभार ।
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति ।।
सार्थक प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंधारा प्रवाह ..
जवाब देंहटाएंबार-बार पढ़ने वाला महाकाव्य।
जवाब देंहटाएंकुरुक्षेत्र अविस्मरणीय महाकाव्य...आभार!!!
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