पुस्तक परिचय-25
मनोज कुमार
इस सप्ताह आपका परिचय अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय, बंगलुरू के स्रोत केन्द्र में टीचर्स ऑफ इंडिया पोर्टल में हिंदी संपादक, श्री राजेश उत्साही के कविता-संग्रह “वह, जो शेष है” से कराने जा रहे हैं। इस संग्रह में राजेश जी छंदों के जटिल बंधन में न पड़कर छंदमुक्त शिल्प में कविताएं लिखी हैं।
इस संग्रह की कविताएं पढ़ते हुए लगभग सभी जगह कवि की उपस्थिति महसूस तो होती रहती है, पर समग्र रूप से संग्रह पर विचार करते हुए यह कहा जा सकता है कि परिदृश्य में अपनी उपस्थिति की निरंतरता मात्र को बनाए रखने के लिए उन्होंने कविताएं नहीं लिखी हैं। उनका मकसद कुछ और है। कहते हैं :
“पढ़ो
कि कवि
स्वयं भी एक कविता है
बशर्ते कि तुम्हें पढ़ना आता हो!”
इस संग्रह में राजेश जी ने क़रीब दो दर्जन ऐसी कविताओं का समावेश किया है जिनके ताल्लुक़ात सामाजिक सरोकारों से है। वर्तमान हिंदी कविता में ऐसे विषयों पर लिखी कविताओं में “लाउडनेस” लाना एक फैशन सा हो गया है। कई बार तो ये नारेबाजी से अधिक कुछ नहीं लगतीं। लेकिन राजेश जी ने ऐसे शिल्प में इन कविताओं को गढ़ा है कि ये न तो “लाउड’ स्वर में गायी हुई लगती हैं और न मात्र नारेबाजी ही। यह एक सधे हुए कुशल काव्य-शिल्पी का कमाल ही है। “धोबी” कविता को ही लें :
“ठेले, तांगे, रिक्शे वाला
मज़दूर
आप और मैं
तुम और हम
सभी धो लेते हैं अपने कपड़े
धोबी
धोता
कुछ खास लोगों के कपड़े”
इस संग्रह में चार दर्जन (48) कविताएं हैं। राजेश जी ने खुद ही कहा है कि इनका रचना काल 1980 से 2011 तक फैला है। हां, इसमें समाहित कविताओं का क्रम रचना काल के हिसाब से नहीं – विषय-वस्तु के अनुसार है। अर्थात् उन्होंने एक मूड की कविताओं को एक जगह रखने का प्रयास किया है। पहले प्रेम कविताएं हैं, फिर सामाजिक सरोकार की कविताएं और अंत में व्यक्तिगत अनुभवों और अहसासों की कविताएं। हालाकि यह उनका पहला काव्य-संग्रह है, पर सारी-की-सारी कविताएं उनके एक मैच्योर कवि होने का अहसास ही नहीं करातीं बल्कि विश्वास दिलाती हैं।
सामाजिक सरोकार की उनकी कविताएं गहरी करुणा से उपजी ऐसी कविताएं हैं जो मन के भीतरी हिस्से पर देर तक दस्तक देती रहती हैं। ये कविताएं गहरी संवेदनशीलता से लिखी गई हैं और उनके काव्य-व्यक्तित्व को हमारे सामने खोलकर रखती हैं। “वह एक मासूम चिड़िया” को ही लें, वे कहते हैं :
“न वह उड़ सकेगी
ख़्वाबों के आसमान में
न तैर पाएगी
मधुर स्मृतियों के समन्दर में
वह सिर्फ़ काम आएगी
गरम गोश्त के व्यापारियों के”
राजेश जी की प्रेम विषयक कविताएं प्रेम की तन्मयता और उदात्तता की जगह उसका विस्तार ज़्यादा हैं। अन्य बातों की तरह प्रेम का होना भी जीवन की परिस्थितियों पर निर्भर करता है। प्रेम के अनुभवों को साझा करने भर के लिए ये कविताएं नहीं लिखी गई हैं। प्रेम की सूक्तियां लिखने की जगह, इन कविताओं में उससे जुड़े अनुभवों को दर्ज़ करने की उनकी कोशिश नज़र आती हैं। प्रेम संबंधित उनकी कविताएं, आकार में चाहे छोटी हों या बड़ी, अपने विस्तार से पाठकों को अपने में समाहित कर लेती हैं और पाठक निःशब्द उनमें डूबा रहता है।
“मैं भूल
जाना चाहता हूं बोकर
प्रेम के कुछ क्षण
यहां-वहां
ताकि
उदास होने लगूं
जब इस नश्वर दुनिया से
तब जी सकूं
उनके लिए”
“छोकरा” शीर्षक चार कविताएं जीवन के देखे-सुने-भोगे यथार्थ की अभिव्यक्ति हैं जिसे कलात्मक कुशलता से रचकर उन्होंने सार्थक संदेश दिया है –
“उसकी नज़रें ढूंढ़्ती हैं
सिर्फ़ चमड़े के चप्पल-जूते
वाले पैर
ढेर सारे पैर
पैरों पर टिका होता है
उसका अर्थशास्त्र
मां को देने के लिए
बाप को दिलाने के लिए शराब
और अपनी शाम की पिक्चर का बजट”
राजेश जी की भाषा की एक आंतरिक लय है जिसकी व्याप्ति संग्रह में शुरू से अंत तक बनी रहती है। प्रकृति, समाज और जीवन को देखने वाली उनकी एक खास दृष्टि है जो एक साधारण, संघर्षशील, मध्यमवर्गीय चेतना से निर्मित हुई है। सबसे उल्लेखनीय है मध्यमवर्गीय आम लोगों के जीवन की त्रासदी, जो इस पूरे संग्रह के केन्द्र में रहती है, और खुलकर “नीमा” शीर्षक कविता में प्रकट होती है,
“मैंने महसूस किया जैसे
मैं गर्म तवे पर बार-बार गिराई जा रही कोई बूंद हूं”
या
“परम्परा से चली आ रही
तकरार हमारे घर
में भी मैज़ूद थी।”
“वह, जो शेष है” काव्य-संग्रह में राजेश जी मध्यम-जीवन की त्रासदी को उजागर करने के साथ-साथ उसकी प्रकृति, संस्कृति और संघर्ष से भी पाठकों को रू-ब-रू कराते हैं। चक्की, धोबी, छोकरा, औरत, स्त्री, आदि कविताओं से गुज़रते हुए हमें ऐसा लगा कि राजेश जी परोक्ष रूप से ही सही, उन संघर्षों को महसूस करते हैं और उस संघर्ष के साहस के पक्ष में बयान भी देते हैं, जो जीवन के लिए ज़रूरी है :
“पत्थर तोड़ती औरत
उस ठेकेदार का
सिर क्यों नहीं फोड़ देती
जो देखता है उसे गिरी हुई नज़रों से”
पुरुष सत्तात्मक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में स्त्री जीवन की संघर्षशीलता, पराधीनता और विडंबनाओं को राजेश जी ने बड़े सहज भाव से ‘तुम अपने द्वार’, ‘चक्की’, ‘वह औरत’, ‘स्त्री’ और ‘नीमा’ शीर्षक कविताओं के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। सामाजिक रूढ़ियों और मानसिक संकीर्णताओं के बीच स्त्री अस्मिता, सशक्तिकरण, जागरूकता को इन कविताओं में देखा जा सकता है।
कुल मिलाकर यही कहना चाहूंगा कि उनका पहला कविता-संग्रह आम आदमी के जीवन-संघर्ष, असंतोष, विवशता, सामाजिक क्रूरता, जटिलता, सामाजिक असमानता का स्वर मुखरित करते हुए राजेश उत्साही के जनवादी सरोकारों से लैस होकर सामाजिक विषमता के विरुद्ध संघर्ष को आगे बढ़ाता है।
इसे एक बार ज़रूर पढ़ना चाहिए।
पुस्तक का नाम | वह, जो शेष है |
रचनाकार | राजेश उत्साही |
प्रकाशक | ज्योतिपर्व प्रकाशन, नई दिल्ली |
संस्करण | प्रथम संस्करण : 2012 |
मूल्य | |
पेज | 127 |
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सार्थक विषयों पर लिखी गाई सशक्त कवितायेँ हैं राजेश जी कि ....
जवाब देंहटाएंअसरदार ..सुंदर समीक्षा की है आपने मनोज जी ....!!
कवि और समीक्षक दोनों को बधाई एवं शुभकामनायें ...!!
राजेश उत्साही जी की कवितायें सामाजिक पीड़ा से सरोकार रखती हैं ... और लगता है कि सवेद्नाएं समाज के हर वर्ग से जुडी है ...तभी उनकी कविताओं ने उस दर्द को बखूबी उकेरा है ..और एक विरोध की गूंज भी है इसमें ... मनोज जी आपकी समीक्षा बेहद सशक्त है और पाठक को बंधे रखती है...आभार आपका राजेश जी के संकलन " वह जो शेष है " पर समीक्षा यहाँ प्रकाशित करने के लिए ..
जवाब देंहटाएंbahut achchi jankari di apne .
जवाब देंहटाएंवह, जो शेष है के माध्यम से राजेश उत्साही जी के व्यक्तित्व, रयना-धर्मिता आदि से परिचय कराती अच्छी पोस्ट।
जवाब देंहटाएंबहुत ही साधा हुआ परिचय..!
जवाब देंहटाएंमेरा भी काम चल रहा है, इस पुस्तक पर!!
जवाब देंहटाएंइंतजार है।
हटाएंराजेश उत्साही जी की रचनाधर्मिता किसी परिचय की मोहताज नही ये वो खुद सिद्ध करते हैं अब तक उनके लेखन ने सभी को प्रभावित किया है और आज आपकी नज़र से देखने पर उसमे और निखार आ गया है………हार्दिक आभार्।
जवाब देंहटाएंराजेश जी की कवितायें गहन अभिव्यक्ति लिए होती हैं .... बहुत सुंदर परिचय
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मनोज जी इतने महत्वपूर्ण ढंग से मेरे कविता संग्रह की चर्चा करने के लिए। आभार।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सभी टिप्पणीकारों का ।
बढ़िया पुस्तक चर्चा
जवाब देंहटाएंसभी कवितायें जो आपने उद्धृत की हैं मन को गहरे तक छू जाती हैं..राजेश जी को इस पुस्तक के लिये व आपको समीक्षा के लिये बधाई !
जवाब देंहटाएंउत्साही जी से परिचित हूँ लेकिन बस दूर दूर से ही लेकिन उनकी टिप्पणी खरी होती हें और जो खरी होती है वह निष्पक्ष और कुछ देने वाली होती हें. उनके काव्य संग्रह को प्राप्त कर पढ़ने की इच्छा को जल्दी ही पूरी करूंगी.
जवाब देंहटाएंbahut sunder parichay......utsahijee aur unki kavita-sangrah ka......
जवाब देंहटाएंपुस्तक की एक प्रति मेरे पास भी है ... पर व्यस्तता के मारे पढ़ना नहीं हो पाया है अब तक ... पर जब जल्दी ही पढ़ूँगा ! आपका आभार और राजेश जी को हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंवह जो शेष है ...अभी शेष है पढ़ना. पर आपकी समीक्षा से काफी कुछ पढ़ा सा मजा आया. आपको और उत्साही जी को दोनों को ढेरों बधाई.
जवाब देंहटाएंअच्छी किताब पर अच्छी चर्चा.
जवाब देंहटाएंराजेश जी का उत्साह कविता को लेकर बहुत अधिक है.... समय समय पर उनके ब्लॉग पर काव्यानंद प्राप्त करता रहता हूँ.... उनका काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ है ये जानकर अति प्रसन्नता हुई... सुन्दर और बैलेंस समीक्षा...
जवाब देंहटाएंसार्थक समीक्षा!
जवाब देंहटाएंकवि और समीक्षक दोनों को बधाई!
सादर!