प्रस्तुत भाग में कवि आज भी आम जीवन में चलने वाले कुरुक्षेत्र से चिंतित है ...
धर्म का दीपक , दया का दीप ,
कब जलेगा ,कब जलेगा , विश्व में भगवान ?
कब सुकोमल ज्योति से अभिसिक्त
हो , सरस होंगे जली - सूखी रसा के प्राण ?
है बहुत बरसी धरित्री पर अमृत की धार ,
पर नहीं अब तक सुशीतल हो सका संसार ।
भोग - लिप्सा आज भी लहरा रही उद्दाम ,
बह रही असहाय नर की भावना निष्काम ।
भीष्म हों अथवा युधिष्ठिर या कि हों भगवान ,
बुद्ध हों कि अशोक , गांधी हों कि ईसु महान ;
सिर झुका सबको , सभी को श्रेष्ठ निज से मान ,
मात्र वाचिक ही उन्हे देता हुआ सम्मान ,
दग्ध कर पर को , स्वयं भी भोगता दुख - दाह ,
जा रहा मानव चला अब भी पुरानी राह ।
अपहरण , शोषण वही , कुत्सित वही अभियान ,
खोजना चढ़ दूसरों के भस्म पर उत्थान ;
शील से सुलझा न सकना आपसी व्यवहार ,
दौड़ना रह - रह उठा उन्माद की तलवार ।
द्रोह से अब भी वही अनुराग
प्राण में अब भी वही फुँकार भरता नाग ।
पूर्व युग सा आज का जीवन नहीं लाचार ,
आ चुका है दूर द्वापर से बहुत संसार ;
यह समय विज्ञान का , सब भांति पूर्ण , समर्थ ;
खुल गए हैं गूढ संसृति के अमित गुरु अर्थ ।
चीरता तम को , संभाले बुद्धि की पतवार
आ गया है ज्योति की नव भूमि में संसार ।
आज की दुनिया विचित्र , नवीन ;
प्रकृति पर सर्वत्र है , विजयी पुरुष आसीन ।
हैं बंधे नर के करों में वारी , विद्युत ,भाप ,
हुक्म पर चढ़ता उतरता है पवन का ताप ।
है नहीं बाकी कहीं व्यवधान ,
लांघ सकता नर सरित , गिरि , सिंधु एक समान ।
सीस पर आदेश कर अवधार्य ,
प्रकृति के सब तत्त्व करते हैं मनुज के कार्य ।
मानते हैं हुक्म मानव का महा वरुणेश,
और करता शब्दगुण अंबर वहन संदेश ।
नव्य नर की मुष्टि में विकराल
हैं सिमटते जा रहे प्रत्येक क्षण दिक्काल ।
यह प्रगति निस्सीम ! नर का यह अपूर्व विकास !
चरण तल भूगोल ! मुट्ठी में निखिल आकाश !
किन्तु है बढ़ता गया मस्तिष्क ही नि:शेष ,
छूट कर पीछे गया है रह हृदय का देश ;
नर मानता नित्य नूतन बुद्धि का त्योहार ,
प्राण में करते दुखी हो देवता चीत्कार ।
चाहिए उनको न केवल ज्ञान
देवता हैं मांगते कुछ स्नेह, कुछ बलिदान ;
मोम -सी कोई मुलायम चीज ,
ताप पा कर जो उठे मन में पसीज - पसीज ;
प्राण के झुलसे विपिन में फूल कुछ सुकुमार ;
ज्ञान के मरू में सुकोमल भावना की धार ;
चाँदनी की रागनि , कुछ भोर की मुसकान ;
नींद में भूली हुई बहती नदी का गान;
रंग में घुलता हुआ खिलती कली का राज़ ;
पत्तियों पर गूँजती कुछ ओस की आवाज़ ;
आंसुओं में दर्द की गलती हुई तस्वीर ;
फूल की , रस में बसी - भीगी हुई जंजीर ।
धूम , कोलाहल , थकावट धूल के उस पार ,
शीत जल से पूर्ण कोई मंदगामी धार ;
वृक्ष के नीचे जहां मन को मिले विश्राम ,
आदमी काटे जहां कुछ छुट्टियाँ , कुछ शाम ।
कर्म - संकुल लोक - जीवन से समय कुछ छीन ,
हो जहां पर बैठ नर कुछ पल स्वयं में लीन ।
फूल - सा एकांत में उर खोलने के हेतु
शाम को दिन की कमाई तोलने के हेतु ।
ले चुकी सुख - भाग समुचित से अधिक है देह ,
देवता हैं मांगते मन के लिए लघु गेह ।
क्रमश:
बहुत सुन्दर-
जवाब देंहटाएंआभार ||
बहुत सुंदर प्रस्तुति दी.........
जवाब देंहटाएंवक्त लगता है मगर समझ कर आनंदित होती हूँ...
सादर.
वाह अति उत्तम रचना
जवाब देंहटाएंजीवन का कुरुक्षेत्र ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर. आभार.
छात्र के रूप में कुरुक्षेत्र पढ़ी थी... फिर से पढना अच्छा लगा...
जवाब देंहटाएंहै बहुत बरसी धरित्री पर अमृत की धार ,
जवाब देंहटाएंपर नहीं अब तक सुशीतल हो सका संसार ।
भोग - लिप्सा आज भी लहरा रही उद्दाम ,
बह रही असहाय नर की भावना निष्काम ।
यह हर युग की त्रासदी रही है ...बहुत सुन्दर वर्णन !!!!
jiwan ka path padhati bahut bahut sunder margdarshan deti kriti ki prastuti k liye bahut aabhari hun.
जवाब देंहटाएंवाह बहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंRash kaun sa hai धर्म का दीपक, दया का दीप,
जवाब देंहटाएंकब जलेगा,कब जलेगा, विश्व में भगवान?
पढ़ा, अच्छा लगा..
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