प्रस्तुत भाग में विजय के बाद युधिष्ठिर आत्मग्लानि में शर शैया पर लेटे पितामह भीष्म से कह रहे हैं उसका वर्णन कवि ने किया है ...
अब बाधा कहाँ ? निज भाल पै पांडव
राजकिरीट धरें सुख से ;
डर छोड़ सुयोधन का जग में
सिर ऊंचा किए विहरें सुख से;
जितना सुख चाहें , मिलेगा उन्हें
धन - धान्य से धाम भरें सुख से ;
अब वीर कहाँ जो विरोध करे ?
विधवाओं पै राज करें सुख से ।
सच ही तो पितामह , वीर - वधू
वसुधा विधवा बन रो रही है ;
कर - कंकड़ को कर चूर ललाट से
चिह्न सुहाग का धो रही है ;
यह देखिये जीत की घोर अनीति ,
प्रमत्त पिशाचिनी हो रही है ;
इस दु:खिता के संग ब्याह का साज
समीप चिता के सँजो रही है ।
इस रोती हुई विधवा को उठा
किस भांति गले से लगाऊँगा मैं ?
जिसके पति की न चिता है बुझी
निज अंक में कैसे बिठाऊंगा मैं ?
धन में अनुरक्ति दिखा अवशिष्ट
स्वकीर्ति को भी न गवाऊंगा मैं ।
लड़ने का कलंक लगा सो लगा
अब और इसे न बढ़ाऊंगा मैं ।
धन ही परिणाम है युद्ध का अंतिम
तात , इसे यदि जानता मैं ;
वनवास में जो अपने में छिपी
इस वासना को पहचानता मैं ,
द्रौपदी की तो बात क्या ? कृष्ण का भी
उपदेश नहीं टुक मानता मैं ,
फिर से कहता हूँ पितामह , तो
यह युद्ध कभी नहीं ठानता मैं ।
पर हाय, थी मोहमयी रजनी वह ,
आज का दिव्य प्रभात न था ;
भ्रम की थी कुहा तम-तोम - भरी
तब ज्ञान खिला अवदात न था ;
धन - लोभ उभारता था मुझको ,
वह केवल क्रोध का घात न था ;
सबसे था प्रचंड जो सत्य पितामह ,
हाय , वही मुझे ज्ञात न था ।
जब सैन्य चला , मुझमें न जगा
यह भाव कि मैं कहाँ जा रहा हूँ ;
किस तत्व का मूल्य चुकाने को देश के
नाश को पास बुला रहा हूँ ;
कुरु- कोष है या कच द्रौपदी का
जिससे रण - प्रेरणा पा रहा हूँ
अपमान को धोने चला अथवा
सुख भोगने को ललचा रहा हूँ ।
अपमान का शोध मृषा मिस था ,
सच में , हम चाहते थे सुख पाना ,
फिर एक सुदिव्य सभागृह को
रचवा कुरुराज के जी को जलाना ,
निज लोलुपता को सदा नर चाहता
दर्प की ज्योति के बीच छिपाना ,
लड़ता वह लोभ से , किन्तु , किया
करता प्रतिशोध का झूठ बहाना ।
प्रतिकार था ध्येय , तो पूर्ण हुआ ,
अब चाहिए क्या परितोष हमें ?
कुरु-पक्ष के तीन रथी जो बचे ,
उनके हित शेष न रोष हमें ;
यह माना , प्रचारित हो अरी से
लड़ने नहीं कुछ दोष हमें ;
पर , क्या अघ - बीच न देगा डुबो
कुरु का यह वैभव - कोष हमें ?
आभार दीदी |
जवाब देंहटाएंकालजयी श्रृंखला ||
Is shrinkhala ka intezaar rahta hai!
जवाब देंहटाएंसार्थक प्रस्तुति......
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!...महाभारत काल के अलभ्य दर्शन!...आभार!
जवाब देंहटाएंबढ़िया.
जवाब देंहटाएंaisi hi kuchh sthiti rahi hogi raja ashok ko jo buddham sharnam ho gaye.
जवाब देंहटाएंcheetkar karti, vednapoor rahi yah yudhishther ki prastuti.
इस पछतावे से अब क्या होना है?
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