युद्ध-विराम – अज्ञेय
नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है।
अब भी
ये रौंदे हुए खेत
हमारी अवरुद्ध जिजीविषा के
सहमे हुए साक्षी हैं ;
अब भी
ये दलदल में फँसी हुई मौत की
मशीनें
उन के अमानवी लोभ के
कुण्ठित, अशमित प्रेत :
अब भी
हमारे देवदारु-वनों की छाहों में
पहाड़ी खोहों में
चट्टानों की ओट में
वनैली खूँखार आँखें
घात में बैठी हैं :
अब भी
दूर अध-दिखती ऊँचाइयों पर
जमे हैं गिद्ध
प्रतीक्षा के बोझ से
गरदनें झुकाये हुए।
नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है :
इस अनोखी रंगशाला में
नाटक का अन्तराल मानो
समय है सिनेमा का :
कितनी रील ?
कितनी क़िस्तें ?
कितनी मोहलत ?
कितनी देर
जलते गाँवों की चिरायँध के बदले
तम्बाक़ू के धुएँ का सहारा ?
कितनी देर
चाय और वाह-वाही की
चिकनी सहलाहट में
रुकेगा कारवाँ हमारा ?
नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है :
हिम-चोटियों पर छाये हुए बादल
केवल परदा हैं –--
विराम है, पर वहाँ राम नहीं हैं :
सिंचाई की नहरों के टूटे हुए
कगारों पर
बाँस की टट्टियाँ धोखे की हैं :
भूख को मिटाने के मानवी दायित्व का
स्वीकार नहीं,
मिटाने की भूख की लोलुप फुफकार ही
उन के पार है।
बन्दूक के कुन्दे से
हल के हत्थे की छुअन
हमें अब भी अधिक चिकनी लगती,
संगीन की धार से
हल के फाल की चमक
अब भी अधिक शीतल,
और हम मान लेते कि उधर भी
मानव मानव था और है,
उधर भी बच्चे किलकते और नारियाँ
दुलराती हैं,
उधर भी मेहनत की सूखी रोटी की बरकत
लूट की बोरियों से अधिक है ---
पर
अभी कुछ नहीं बदला है
क्योंकि उधर का निज़ाम
अभी उधर के किसान को
नहीं देता
आज़ादी
आत्मनिर्णय
आराम
ईमानदारी का अधिकार !
नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है :
कुछ नहीं रुका है।
अब भी हमारी धरती पर
बैर की जलती पगडण्डियाँ दिख जाती
हैं,
अब भी हमारे आकाश पर
धुएँ की रेखाएँ अन्धी
चुनौती लिख जाती हैं :
अभी कुछ नहीं चुका है।
देश के जन-जन का
यह स्नेह और विश्वास
जो हमें बताता है
कि हम भारत के लाल हैं ---
वही हमें यह भी याद दिलाता है
कि हमीं इस पुण्य-भू के
क्षिति-सीमान्त के धीर, दृढ़व्रती
दिक्पाल हैं।
हमें बल दो, देशवासियो,
क्यों कि तुम बल हो :
तेज दो, जो तेज्स हो,
ओज दो, जो ओज्स हो,
क्षमा दो, सहिष्णुता दो, तप दो
हमें ज्योति दो, देशवासियो,
हमें कर्म-कौशल दो :
क्यों कि अभी कुछ नहीं बदला है,
अभी कुछ नहीं बदला है ...
*** *** ***
हमें बल दो, देशवासियो,
जवाब देंहटाएंक्यों कि तुम बल हो :
तेज दो, जो तेज्स हो,
ओज दो, जो ओज्स हो,
क्षमा दो, सहिष्णुता दो, तप दो
हमें ज्योति दो, देशवासियो,
हमें कर्म-कौशल दो :
क्यों कि अभी कुछ नहीं बदला है,
अभी कुछ नहीं बदला है ...
अद्भुत रचना पढ़वाने के लिए आभार
वाकई ..अभी कहाँ कुछ बदला है .
जवाब देंहटाएंबेहद प्रभावशाली रचना.
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबुधवारीय चर्चा-मंच पर |
charchamanch.blogspot.com
नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है :
जवाब देंहटाएंइस अनोखी रंगशाला में
नाटक का अन्तराल मानो
समय है सिनेमा का :
कितनी रील ?
कितनी क़िस्तें ?
कितनी मोहलत ?
प्रयोगशील कवि के रूप में प्रसिद्धि पाने वाले अज्ञेय काव्य के परम्परागत बंधनों से मुक्त एक ऐसा माध्यम स्थिर करने के लिए प्रयोग किए,जो नई परिस्थितियों, नवीनतम अनुभूतियों तथा नये विचारों को महत्त्वपूर्ण ढंग से अभिव्यक्त कर सके ।
अज्ञेय जी ने जहाँ कविता के वर्ण्य विषय में नये प्रयोग किए वहीं शिल्प के क्षेत्र में उनके प्रयोग युगान्तरकारी सिद्ध हुए । उनका काव्य विविधताओं का मिश्रण है । उनके काव्य में व्यक्ति और समाज, प्रेम एवं दर्शन, विज्ञान एवं संवेदना, यातना बोध एवं विद्रोह, प्रकृति एवं मानव तथा बुद्धि एवं हृदय का साहचर्य दिखाई देता है । उनकी कविताएँ आधुनिक युग का दर्पण मानी जाती है। यही कारण है कि हिन्दी काव्य धारा में अज्ञेय जी का व्यक्तित्व आज भी समालोचकों की दृष्टि में अज्ञेय ही प्रतीत होता है । आपके द्वारा प्रस्तुत कविता "युद्ध विराम" अज्ञेय जी के मानसिक, साहित्यिक एवं वैचारिक फलक को अपनी पूर्ण समग्रता में उदभाषित करता है। इस कविता की प्रस्तुति के लिए आपका विशेष आभार- धन्यवाद सहित।
इन सिद्धस्त मानयोगियों की रचनाएँ पर टिपण्णी मुझे नहीं करने आती है शिर्फ़ श्रद्धावनत होता हूँ ,कुछ ढूंढ़ता हूँ ,स्वयं को सहेजता हूँ ......आभार
जवाब देंहटाएंआज भी प्रासंगिक पहले से कहीं ज्यादा .आभार मनोज जी .
जवाब देंहटाएंआज भी हाँ अब भी उतनी ही प्रासंगिक है यह रचना जितनी कल थी .
फिर भी भारत की विकास दर रोज़ बढे जाए है .
बुधवार, 2 मई 2012
" ईश्वर खो गया है " - टिप्पणियों पर प्रतिवेदन..!
http://veerubhai1947.blogspot.in/
लम्बी तान के ,सोना चर्बी खोना
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/2012/05/blog-post_02.html
Is kavita ki hindi byakha dalo plz
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