सभी पाठक-वृन्द को अनामिका का सादर नमस्कार ! लीजिये जी आ गया वृहष्पतिवार और ख़तम हुआ इंतज़ार !
प्रस्तुत हैं दिनकर जी के जीवन के लेखन और संघर्ष की कुछ और बातें....
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१. देवता हैं नहीं २. नाचो हे, नाचो, नटवर ३. बालिका से वधू ४. तूफ़ान ५. अनल - किरीट
दिनकर
जी जीवन दर्पण - भाग - 6
दिनकर जी को जनता का प्यार राष्ट्रीय कविताओं के कारण मिला, सम्मान उन्हें 'कुरुक्षेत्र' महाकाव्य से प्राप्त हुआ और श्रद्धा
के भाजन वे 'संस्कृति
के चार अध्याय' गद्य
ग्रन्थ लिखकर हुए. उनके सुयश के प्रसार में उनके 'रश्मिरथी' खंडकाव्य का भी बड़ा हाथ है जो शहरों
से अधिक ग्रामों में कहीं अधिक उत्साह के साथ पढ़ा जाता है.
एक जगह उन्होंने लिखा है - "सुयश तो मुझे हुंकार से
मिला लेकिन आत्मा मेरी रसवंती में बसती है " ! यह कथन आंशिक रूप से ही
सत्य है, जैसा कि ‘उर्वशी’ लिखकर शुद्ध
कविता के अल्लाह पर ईमान लाने के बाद चीनी आक्रमण के जवाब में उन्होंने 'परशुराम की प्रतीक्षा' लिखी जिसमे गांधीवाद और शुद्ध कविता
दोनों के बुत ढह बह गए. पर उन्हें इसकी परवाह नहीं रही.
'रसवंती' दिनकरजी के श्रृंगार-काव्य अथवा रस गीतों का संग्रह है, जो 'हुंकार' के तुरंत बाद 1940 में निकली थी. उस धारा का पूरा विकास
उनके काव्य 'उर्वशी' से हुआ है. 'उर्वशी' दिनकरजी की काव्यकृतियों में
सर्वोत्तम व सर्वश्रेष्ठ समझी गयी. हिंदी में श्रृंगार काव्य का यह एक बेजोड़ उदाहरण
है. पर प्रश्न है कि क्या श्रृंगार-मयी कविता ही शुद्ध कविता है ?
'हुंकार' की भूमिका में दिनकर के व्यक्तित्व का बिश्लेषण करते हुए बेनीपुरी
जी ने एक सूक्ति कही थी - "अंगारे' जिनपर इन्द्रधनुष खेल रहे हैं "!
'रेणुका' , हुंकार, सामधेनी, कुरुक्षेत्र और रश्मिरथी में दहकते अंगारों का तेज है. इन्द्रधनुषी
रंग रसवंती में छिटका था. उर्वशी में वह मध्यान्ह सूर्य के उभार पर
पहुँच गया है.
दिनकर जी का समस्त जीवन संघर्ष का रहा और इसलिए संघर्ष दिनकर
जी के जीवन का मुख्य भाग बन गया. इन संघर्षों में दिनकर जी को सफलता भी मिली, इसीलिए संघर्ष की कटुता से दिनकरजी का
व्यक्तित्व विशृंखलित और पथभ्रष्ट नहीं हुआ, दिनकरजी के अन्दर की सात्विकता और कल्याण की भावना को ठेस नहीं
पहुंची. लेकिन साथ-साथ यह भी सत्य है कि इन संघर्षों ने दिनकरजी को किसी हद तक
कठोर अवश्य बना दिया था.
जब दिनकर जी संसद में राज्यसभा के सदस्य थे, उन्होंने हिंदी भाषा के लिए लगातार
प्रयत्न किये. पर सफल व्यक्तित्व वाले स्वाभाविक संतुलन को उन्होंने एक क्षण के लिए भी नहीं छोड़ा.
दिनकर जी उन्मुक्त स्वभाव के व्यक्ति हैं - उनका मुख्य गुण
है भावना अभिव्यक्ति. कला का साज-सिंगार उनमे नहीं है. अनुभूति-जनित तीव्र भावना
ही इनका क्षेत्र रहा है. कला का क्षेत्र साज-सिंगार हो सकता है, लेकिन भावना को हमेशा से कला के
प्रमुख स्थान मिला है, भावना ही
तो कला का प्राण है.
......... इसी सबके साथ हमें यह स्वीकार करना ही
पड़ेगा कि दिनकर जी हमारे इस युग के यदि एकमात्र नहीं तो सबसे अधिक प्रतिनिधि कवि
हैं.
लेकिन बहुत अचरज की बात है कि इस कवि के जीवन के सर्वोत्तम दिन और उन दिनों के भी
सर्वोत्तम भाग जरूरतमंद परिवार के लिए रोटी कमाने में निकल गए. दिनकर
जी भी विलाप करते हैं, "साहित्य समझने और लिखने का मुझे समय कब मिला? दिन तो नौकरी में जाता था, हाँ जिस समय अफसर बैडमिन्टन या ताश
खेलते थे, उस समय घर में बंद होकर मैं पंक्तियाँ जोड़ता था. ऐसी अधूरी
कवितायें भी मेरी कापियों में बहुत हैं जिनकी दो-चार पंक्तियाँ ही लिखी जा सकीं, क्यूंकि दफ्तर जाने का समय आ गया और
मैं कविता पूरी न कर सका ! "
पूंजीवादी व्यवस्था के अन्दर कवियों, चिंतकों और कलाकारों का जो बुरा हाल
होता है, जवानी भर दिनकरजी भी उसी बुरे हाल में
रहे. नौकरी की खट-पट, रोटी की
चिंता, भतीजियों और बेटियों के ब्याह के लिए
दर-दर की ठोकरें और हर रोज़ नए अभावों से संघर्ष, यह वह वातावरण नहीं है जिसमे कवि का
आंतरिक व्यक्तित्व खिल सकता हो. फिर भी, दिनकरजी की प्रायः
सभी कवितायें इसी वातावरण में लिखी गयी. यदि आरम्भ से ही जनता का प्यार उन्हें न
मिला होता,
तो इस दमघोंटू वातावरण में उनका
कवि जीवित भी रहता या नहीं इसमें काफी संदेह है. जनता के इसी प्रेम के कारण
दिनकरजी का ह्रदय उस आग से नहीं जला, जो द्वेष करने वालों की ओर से उनपर सदैव बरसाई जाती रही.
क्रमशः
इन्ही मार्मिक हालातों से जूझते हुए कवि मन से निकली एक
पुकार प्रस्तुत है ...
कवि
की मृत्यु
जब गीतकार मर गया, चाँद रोने आया,
चांदनी मचलने लगी कफ़न
बन जाने को
मलयानिल ने शव को कन्धों पर उठा लिया,
वन ने भेजे चन्दन
श्री-खंड जलाने को !
सूरज बोला, यह बड़ी रोशनीवाला था,
मैं भी न जिसे भर सका कभी उजियाली से,
रंग दिया आदमी के भीतर की दुनियां
को,
इस गायक ने अपने गीतों
की लाली से !
बोला बूढा आकाश, ध्यान जब यह धरता,
मुझमे यौवन का नया वेग जम जाता था.
इसके चिंतन में डुबकी
एक लगाते ही,
तन कौन कहे,मन भी मेरा रंग जाता था.
देवों ने कहा, बड़ा सुख था इसके मन की
गहराई में डूबने
और उतराने में.
माया बोली, मैं कई बार थी भूल गयी,
अपने ही गोपन भेद इसे
बतलाने में !
योगी था, बोला सत्य, भागता मैं फिरता,
वह जान बढ़ाये हुए
दौड़ता चलता था,
जब-तब लेता यह पकड़ और हंसने लगता,
धोखा देकर मैं अपना रूप बदलता था !
मर्दों को आई याद
बांकपन की बातें,
बोले, जो हो, आदमी बड़ा अलबेला था.
जिसके आगे तूफ़ान अदब से
झुकते हैं,
उसको भी इसने अहंकार
से झेला था !
नारियां बिलखने लगीं, बांसुरी के भीतर
जादू था कोई अदा बड़ी
मतवाली थी.
गर्जन में भी थी नमी, आग से भरे हुए,
गीतों में भी कुछ चीज रुलाने वाली थी !
वे बड़ी बड़ी आँखें
आंसू से भरी हुई,
पानी में जैसे कमल
डूब उतराता हो,
वह मस्ती में झूमते
हुए उसका आना,
मानो, अपना ही तनय झूमता आता हो !
चिंतन में डूबा हुआ
सरल भोला-भाला,
बालक था, कोई दिव्य पुरुष अवतारी था,
तुम तो कहते हो मर्द, मगर, मन के भीतर,
यह कलावंत हमसे भी
बढ़कर नारी था.
चुपचाप जिन्दगी भर इसने जो जुल्म सहे,
उतना नारी भी कहाँ मौन
हो सकती है ?
आँखों के आंसू मन के
भेद जता जाते,
कुछ सोच समझ जिह्वा चाहे चुप रहती है !
पर, इसे नहीं रोने का भी अवकाश
मिला,
सारा जीवन कट गया आग
सुलगाने में,
आखिर,वह भी सो गया जिन्दगी ने जिसको,
था लगा रखा सोतों
को छेड़ जगाने में !
बेबसी बड़ी उन बेचारों की क्या कहिये ?
चुपचाप जिन्हें जीवन भर जलना होता है,
ऊपर नीचे द्वेषों
के कुंत तने होते,
बचकर उनको बेदाग़ निकलना होता है !
जाओ, कवि, जाओ मिला तुम्हे जो कुछ हमसे
दानी को उसके सिवा
नहीं कुछ मिलता है,
चुन-चुन कर हम तोड़ते
वही टहनी केवल,
जिस पर कोई अपरूप कुसुम आ
खिलता है !
विष के प्याले का मोल और क्या हो सकता ?
प्रेमी तो केवल
मधुर प्रीत ही देता है,
कवि को चाहे संसार
भेंट दे जो, लेकिन,
बदले में वह निष्कपट
गीत ही देता है !
आवरण गिरा, जगती की सीमा शेष हुई,
अब पहुँच नहीं तुम तक इन हा-हाकारों
की,
नीचे की महफ़िल उजड़ गयी, ऊपर कल से
कुछ और चमक उठेगी सभा
सितारों की.
(नील कुसुम)
दिनकर जी उन्मुक्त स्वभाव के व्यक्ति हैं - उनका मुख्य गुण है भावना अभिव्यक्ति. कला का साज-सिंगार उनमे नहीं है. अनुभूति-जनित तीव्र भावना ही इनका क्षेत्र रहा है.
जवाब देंहटाएंदिनकर जी के सम्पूर्ण भावना क्षेत्र को अपने इस पंक्ति में व्यक्त कर दिया ......वैसे उनके जैसा कवि मिलना असंभव है .....!
सही है , उनके जैसा कवि मिलना असंभव है !
जवाब देंहटाएंदिनकर जी की शृंखला अच्छी लगी ... आभार
जवाब देंहटाएंबस ,पढ़ कर मग्न हूँ -कुछ कहने की स्थिति में नहीं ,
जवाब देंहटाएंआभार, अनामिका !
यह श्रंखला मन मुग्ध कर गयी है ! दिनकर जी के बारे में इतनी अच्छी जानकारी उपलब्ध कराने के लिये आपका बहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंअभी कार्यालय में हूं । रात को आपके पोस्ट पर फिर आउंगा । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंदिनकर जी को नमन!
--
आज चार दिनों बाद नेट पर आना हुआ है।
अतः केवल उपस्थिति ही दर्ज करा रहा हूँ!
Guruwaar kaa intezaar rahta hai!
जवाब देंहटाएंराष्ट्रकवि को समर्पित यह श्रृंखला उस महाकवि को सच्ची श्रद्धांजलि है!!
जवाब देंहटाएंराष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जी के जीवन के विभिन्न पहलुओं से इस श्रृंखला के माध्यम से हम परिचित हो रहे हैं। साथ ही जो कविता आप लगाती हैं वह बोनस है।
जवाब देंहटाएंअपने व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में सर्वदा संघर्षशील रहने वाले रामधारी सिंह ‘दिनकर' के काव्य में राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना के साथ-साथ उनकी मानसिक संकल्पना की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है। अपने जीवन काल में अनुभव किए गए समस्याओं के वशीभूत होकर उन्होंने वैयक्तिक ‘मुक्ति' की अपेक्षा सामाजिक समस्याओं के समाधान पर बल दिया है । उन्होंने अपनी कृतियों के माध्यम से व्यक्ति के पुरुषार्थ को सचेत किया है, प्रेरित किया है, जाग्रत किया है, उद्बुद्ध एवं प्रबुद्ध किया है। उनका विश्वास है कि व्यक्ति अपने श्रम, उद्यम एवं कर्म-कौशल से अपना भाग्य बना सकता है, बदल सकता है, जिसे उन्होंने अपने कर्म -कौशल से कर दिखाया एवं जीवन की तमाम जटिलताएं उन्हे विषम परिस्थितियों के सामने झुकने के लिए बाध्य न कर सकी। आपके द्वारा नील कुसुम कविता से अवतरित “कवि की मृत्यु” को बहुत दिनों के बाद पढने का सौभाग्य मिला। इस संबंध में यह उल्लेख करना अप्रासांगिक नही होगा कि ”नील कुसुम” की कविताएँ उनकी काव्य यात्रा की ऐसी आधारशिला है जिस पर वे ‘उर्वशी' जैसी प्रबन्ध रचना का निर्माण कर सके। कुरुक्षेत्र एवं उर्वशी उनके विशेष चर्चित आख्यानकाव्य हैं तथा इन कृतियों में दिनकर ने अपनी गीतात्मक प्रवृत्तियों को जीवन के कतिपय वृहत्तर संदर्भों की ओर मोड़ा। कुरुक्षेत्र में युद्ध एवं शान्ति का संदर्भ एवं प्रसंग है, पर संघर्ष से बचने का समर्थन नहीं है। उनकी मान्यता रही थी कि युद्ध एक तूफान है जो भीषण विनाश करता है पर जब तक समाज में शोषण, दमन, अन्याय मौजूद है तब तक संघर्ष अनिवार्य है जिसे उन्होंने अपनी कतिपय रचनाओं में रेखांकित किया है । इस संग्रहणीय एवं ज्ञानपरक प्रस्तुति के लिए आपका विशेष आभार ।
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्द्धक प्रस्तुति । दिनकर जी के काव्य पर उनकी ही रचित रचना का शीर्षक याद आ जाता है - कलम आज उनकी जय बोल ।
जवाब देंहटाएंविष के प्याले का मोल और क्या हो सकता ?
जवाब देंहटाएंप्रेमी तो केवल मधुर प्रीत ही देता है,
कवि को चाहे संसार भेंट दे जो, लेकिन,
बदले में वह निष्कपट गीत ही देता है !
दिनकर जी द्वारा की गयी कवि की यह परिभाषा कितनी मधुर है...आभार!
सारा जीवन बीता संघर्षों में वह फिर भी कितना सरस रहे .
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंआप सब का आभार.
जवाब देंहटाएंदिनकर जी के जीवन दर्शन व विभिन्न पहलुओं पर ज्ञानपरक प्रस्तुति. इसके आगे भी कुछ अनछुए पहलू सामने आने वाले हैं यह जानकार उत्कंठा और बढ़ गयी है.
जवाब देंहटाएं#श्रद्धांजलि
जवाब देंहटाएंक्या कहा! क्या कहा!
कि 'दिनकर' डूब गया?
दक्षिण के दूर दिशांचल में!
क्या कहा! कि गंगा समा गई?
रामेश्वर के तीरथजल में!
क्या कहा! क्या कहा!
कि नगपति नमित हुआ?
तिरूपति के धनी पहाड़ो पर!
क्या कहा! क्या कहा!
कि उत्तर ठिठक गया?
दक्षिण के ढोल-नगाड़ो पर!
कल ही तो उसका काव्यपाठ
सुनता था सागर शांत पड़ा
तिरुपति का नाद सुना मैंने,
हो गया मुग्ध रह गया खड़ा!
वह मृत्युयाचना तिरुपति में
अपने श्रोता से कर बैठा..
और वहीं कहीं वो समाधिस्थ
"क्या कहते हो कि मर बैठा"-??
यदि यही मिलेगा देवों से
उत्कृष्ट काव्य का पुरस्कार!
तो कौन करेगा धरती पर
ऐसे देवों को नमस्कार!
तो कौन करेगा धरती पर
ऐसे देवों को नमस्कार .....
~ बालकवि वैरागी
("बालकवि वैरागी" द्वारा रचित यह कविता उनके गुरु व पथप्रदर्शक रहे 'दिनकर' जी को समर्पित।)
(संपादन कार्य- द्वारा समीर रिषी कुछ अंश विलोपित किए गए)