रागानल के बीच पुरुष कंचन - सा जलने वाला
तिमिर-सिंधु में डूब रश्मि की ओर निकलने वाला ,
ऊपर उठने को कर्दम से लड़ता हुआ कमल सा ,
ऊब- डूब करता , उतराता घन में विधु - मण्डल- सा ।
जय हो , अघ के गहन गर्त में गिरे हुये मानव की ,
मनु के सरल , अबोध पुत्र की , पुरुष ज्योति - संभव की ।
हार मान हो गयी न जिसकी किरण तिमिर की दासी ,
न्योछावर उस एक पुरुष पर कोटि - कोटि सन्यासी ।
मही नहीं जीवित है, मिट्टी से डरने वालों से ,
जीवित है वह उसे फूँक सोना करने वालों से ,
ज्वलित देख पंचाग्नि जगत से भाग निकलता योगी ,
धुनि बना कर उसे तापता अनासक्त रसभोगी ।
रश्मि देश की राह यहाँ तम से हो कर जाती है ,
उषा रोज रजनी के सिर पर चढ़ी हुई आती है ,
और कौन है , पड़ा नहीं जो कभी पाप कारा में ?
किसके वसन नहीं भीगे वैतरणी की धारा में ?
अथ से ले इति तक किसका पथ रहा सदा उज्ज्वल है ?
तोड़ न सके तिमिर का बंधन , इतना कौन अबल है ?
सूर्य - सोम दोनों डरते जीवन के पथ पिच्छल से ,
होते ग्रसित , पुन: चलते दोनों हो मुक्त कवल से ।
उठता गिरता शिखर , गर्त , दोनों से पूरित पथ पर ,
कभी विराट चलता मिट्टी पर , कभी पुण्य के रथ पर
करता हुआ विकट रण तम से पापी - पश्चात्तापि ,
किरण देश की ओर चला जा रहा मनुष्य - प्रतापी ।
जब तक है नर की आँखों में शेष व्यथा का पानी ,
जब तक है करती विदग्ध मानव को मलिन कहानी ,
जब तक है अवशिष्ट पुण्य - बल की नर में अभिलाषा ,
तब तक है अक्षुण्ण मनुज में मानवता की आशा ।
पुण्य - पाप दोनों वृन्तों पर यह आशा खिलती है ,
कुरुक्षेत्र के चिता -भस्म के भीतर भी मिलती है ,
जिसने पाया इसे , वही है सात्विक धर्म - प्रणेता ,
सत्सेवक मानव - समाज का , सखा , अग्रणी नेता ।
मिली युधिष्ठिर को यह आशा आखिर रोते - रोते ,
आँसू के जल में अधीर , अंतर को धोते - धोते ,
कर्मभूमि के निकट वैरागी को प्रत्यागत पा कर ,
बोले भीष्म युधिष्ठिर का ही मनोभाव दुहराकर ।
अंत नहीं नर पंथ का , कुरुक्षेत्र की धूल ,
आँसू बरसें , तो यहीं खिले शांति का फूल ।
क्रमश:
सार्थक प्रस्तुति ....!!
जवाब देंहटाएंआभार संगीता जी ...!!
बहुत ही लाभकारी श्रृंखला है यह.
जवाब देंहटाएंIse padhna ek vilakshan anubhav hai!
जवाब देंहटाएंआपकी इस उत्कृष्ठ प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार २२ /५/१२ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी |
जवाब देंहटाएंमही नहीं जीवित है, मिट्टी से डरने वालों से ,
जवाब देंहटाएंजीवित है वह उसे फूँक सोना करने वालों से ,
बहुत प्रेरक पंक्तियाँ ! आभार इस काव्य का पाठ कराने के लिये..
आँसू बरसें , तो यहीं खिले शांति का फूल ।
जवाब देंहटाएंशांति के फूल खिलना बहुत ज़रूरी है, पर पहले पश्चाताप के आंसू तो बहे।
उत्कृष्ट प्रस्तुती .......
जवाब देंहटाएंअंत नहीं नर पंथ का , कुरुक्षेत्र की धूल ,
जवाब देंहटाएंआँसू बरसें , तो यहीं खिले शांति का फूल ।
....एक उत्कृष्ट रचना पढवाने के लिये आभार ...
बहुत बेहतरीन व प्रभावपूर्ण रचना....
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
अति सुन्दर प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंआभार सुन्दर काव्य पठन के लिए...
रागानल के बीच पुरुष कंचन - सा जलने वाला
जवाब देंहटाएंतिमिर-सिंधु में डूब रश्मि की ओर निकलने वाला ,
ऊपर उठने को कर्दम से लड़ता हुआ कमल सा ,
ऊब- डूब करता , उतराता घन में विधु - मण्डल- सा ।
रागानल के बीच पुरुष कंचन - सा जलने वाला
तिमिर-सिंधु में डूब रश्मि की ओर निकलने वाला ,
ऊपर उठने को कर्दम से लड़ता हुआ कमल सा ,
ऊब- डूब करता , उतराता घन में विधु - मण्डल- सा । दिनकर को पढना खुद एक रणभेरी सा है एक आवाहन है हर रचना में .....कृपया यहाँ भी पधारें -
भ्रूण जीवी स्वान
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/2012/05/blog-post_22.html
ram ram bhai .कृपया यहाँ भी पधारें -
मंगलवार, 22 मई 2012
ये बोम्बे मेरी जान (भाग -5)
http://veerubhai1947.blogspot.in/
यह बोम्बे मेरी जान (चौथा भाग )http://veerubhai1947.blogspot.in/
कृपया यहाँ भी पधारें -
दमे में व्यायाम क्यों ?
दमे में व्यायाम क्यों ?
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/2012/05/blog-post_5948.html
बहुत ही बेहतरीन रचना....
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग
विचार बोध पर आपका हार्दिक स्वागत है।
ज्वलित देख पंचाग्नि जगत से भाग निकलता योगी ,
जवाब देंहटाएंधुनि बना कर उसे तापता अनासक्त रसभोगी ।
अथ से ले इति तक किसका पथ रहा सदा उज्ज्वल है ?
तोड़ न सके तिमिर का बंधन , इतना कौन अबल है ?
कुरुक्षेत्र सप्तम सर्ग
रामधारी सिंह दिनकर