सोमवार, 21 मई 2012

कुरुक्षेत्र .... सप्तम सर्ग ... भाग -- 1 / रामधारी सिंह दिनकर



रागानल के बीच पुरुष कंचन - सा जलने वाला 
तिमिर-सिंधु में डूब रश्मि की ओर निकलने वाला , 
ऊपर उठने को कर्दम से लड़ता हुआ कमल सा ,
ऊब- डूब करता , उतराता घन में विधु - मण्डल- सा । 

जय हो , अघ के गहन गर्त में गिरे हुये मानव की , 
मनु के सरल , अबोध पुत्र की , पुरुष ज्योति - संभव की । 
हार मान  हो गयी न जिसकी किरण तिमिर की दासी , 
न्योछावर उस एक पुरुष पर कोटि - कोटि  सन्यासी । 

मही  नहीं जीवित है, मिट्टी से  डरने वालों से , 
जीवित है वह उसे फूँक सोना  करने वालों से , 
ज्वलित देख पंचाग्नि  जगत से भाग निकलता  योगी ,
धुनि  बना कर उसे तापता अनासक्त  रसभोगी । 

रश्मि देश की राह यहाँ तम  से हो कर जाती है ,
उषा रोज  रजनी के सिर  पर चढ़ी हुई  आती है , 
और कौन है , पड़ा नहीं जो कभी पाप कारा में ? 
किसके वसन नहीं भीगे वैतरणी की धारा में ?

अथ से ले इति तक किसका  पथ  रहा सदा उज्ज्वल है ?
तोड़ न सके तिमिर का बंधन , इतना कौन अबल है ? 
सूर्य - सोम  दोनों डरते जीवन के पथ पिच्छल  से , 
होते ग्रसित , पुन: चलते दोनों हो मुक्त कवल से । 

उठता गिरता शिखर , गर्त , दोनों से पूरित पथ पर ,
कभी विराट चलता मिट्टी पर , कभी पुण्य के रथ पर 
करता हुआ विकट रण  तम  से पापी - पश्चात्तापि ,
किरण देश की ओर चला जा रहा  मनुष्य - प्रतापी । 

जब तक है नर की आँखों में शेष  व्यथा का पानी ,
जब तक है करती विदग्ध मानव को मलिन कहानी ,
जब तक है अवशिष्ट पुण्य - बल की नर में अभिलाषा , 
तब तक है अक्षुण्ण मनुज में मानवता की आशा । 

पुण्य - पाप दोनों वृन्तों पर यह आशा  खिलती है , 
कुरुक्षेत्र  के चिता -भस्म  के भीतर भी मिलती है , 
जिसने पाया  इसे , वही है  सात्विक धर्म - प्रणेता , 
सत्सेवक मानव - समाज का , सखा , अग्रणी नेता । 

मिली युधिष्ठिर को  यह आशा  आखिर रोते - रोते ,
आँसू  के जल  में  अधीर , अंतर को धोते  - धोते , 
कर्मभूमि  के निकट  वैरागी को प्रत्यागत पा कर ,
बोले भीष्म युधिष्ठिर का  ही मनोभाव  दुहराकर । 

अंत नहीं नर पंथ का , कुरुक्षेत्र  की धूल ,
आँसू बरसें , तो  यहीं खिले शांति का फूल । 

क्रमश: 


प्रथम सर्ग --        भाग - १ / भाग –२

द्वितीय  सर्ग  --- भाग -- १ / भाग -- २ / भाग -- ३ 

तृतीय सर्ग  ---    भाग -- १ /भाग -२

चतुर्थ सर्ग ---- भाग -१    / भाग -२  / भाग - ३ /भाग -४ /भाग - ५ /भाग –6 




षष्ठ  सर्ग ---- भाग - 1भाग -2 / भाग -3 / भाग -- 4



13 टिप्‍पणियां:

  1. सार्थक प्रस्तुति ....!!
    आभार संगीता जी ...!!

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  2. बहुत ही लाभकारी श्रृंखला है यह.

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  3. आपकी इस उत्कृष्ठ प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार २२ /५/१२ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी |

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  4. मही नहीं जीवित है, मिट्टी से डरने वालों से ,
    जीवित है वह उसे फूँक सोना करने वालों से ,
    बहुत प्रेरक पंक्तियाँ ! आभार इस काव्य का पाठ कराने के लिये..

    जवाब देंहटाएं
  5. आँसू बरसें , तो यहीं खिले शांति का फूल ।
    शांति के फूल खिलना बहुत ज़रूरी है, पर पहले पश्चाताप के आंसू तो बहे।

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  6. अंत नहीं नर पंथ का , कुरुक्षेत्र की धूल ,
    आँसू बरसें , तो यहीं खिले शांति का फूल ।

    ....एक उत्कृष्ट रचना पढवाने के लिये आभार ...

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  7. बहुत बेहतरीन व प्रभावपूर्ण रचना....
    मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।

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  8. अति सुन्दर प्रस्तुति...
    आभार सुन्दर काव्य पठन के लिए...

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  9. रागानल के बीच पुरुष कंचन - सा जलने वाला
    तिमिर-सिंधु में डूब रश्मि की ओर निकलने वाला ,
    ऊपर उठने को कर्दम से लड़ता हुआ कमल सा ,
    ऊब- डूब करता , उतराता घन में विधु - मण्डल- सा ।
    रागानल के बीच पुरुष कंचन - सा जलने वाला
    तिमिर-सिंधु में डूब रश्मि की ओर निकलने वाला ,
    ऊपर उठने को कर्दम से लड़ता हुआ कमल सा ,
    ऊब- डूब करता , उतराता घन में विधु - मण्डल- सा । दिनकर को पढना खुद एक रणभेरी सा है एक आवाहन है हर रचना में .....कृपया यहाँ भी पधारें -
    भ्रूण जीवी स्वान
    http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/2012/05/blog-post_22.html
    ram ram bhai .कृपया यहाँ भी पधारें -
    मंगलवार, 22 मई 2012
    ये बोम्बे मेरी जान (भाग -5)
    http://veerubhai1947.blogspot.in/
    यह बोम्बे मेरी जान (चौथा भाग )http://veerubhai1947.blogspot.in/




    कृपया यहाँ भी पधारें -
    दमे में व्यायाम क्यों ?
    दमे में व्यायाम क्यों ?
    http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/2012/05/blog-post_5948.html

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  10. बहुत ही बेहतरीन रचना....
    मेरे ब्लॉग

    विचार बोध
    पर आपका हार्दिक स्वागत है।

    जवाब देंहटाएं
  11. ज्वलित देख पंचाग्नि जगत से भाग निकलता योगी ,
    धुनि बना कर उसे तापता अनासक्त रसभोगी ।
    अथ से ले इति तक किसका पथ रहा सदा उज्ज्वल है ?
    तोड़ न सके तिमिर का बंधन , इतना कौन अबल है ?

    कुरुक्षेत्र सप्तम सर्ग
    रामधारी सिंह दिनकर

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