गुरुवार, 24 मई 2012

दिल्ली

164323_156157637769910_100001270242605_331280_1205394_nसब पाठक गणों को  अनामिका का नमस्कार  ! दिनकरजी के साहित्यिक जीवन सफ़र में विद्रोहात्मक कविताओं की शुरुआत क्यों कर हुई आईये जानते हैं इसके पीछे की घटनाएं...

पिछले पोस्ट के लिंक

१. देवता हैं नहीं २.  नाचो हे, नाचो, नटवर ३. बालिका से वधू ४. तूफ़ान ५.  अनल - किरीट ६. कवि की मृत्यु ७. दिगम्बरी 8. ओ द्विधाग्रस्त शार्दूल, बोल !

दिनकरजी जीवन दर्पण -९

दिनकरजी खुद से ही सवाल करते हैं -

जिससे निशि खोजती तारे जलाकर,

उसी का कर रहा अभिसार हूँ मैं.

जनम कर सौ बार मर चुका लेकिन

अगम का पा सका क्या पार हूँ मैं ?

दिनकरजी के जीवन में यह विरोधाभास क्यूँ आया, इसकी ठीक व्याख्या नहीं मिलती. गांधीजी की आन्दोलन-सम्बन्धी दुविधा से वे कुपित थे. आन्दोलन छेड़े जाने के पक्ष में उन्होंने विद्रोहात्मक कविता लिखी थी जिसके कारण सरकार को उन्हें चेतावनी देनी पड़ी थी. सन बयालीस का आन्दोलन जब दबने लगा तब उन्होंने 'आग की भीख' नामक वह ज्वलंत कविता छपवाई जिसमे समरलग्न   भारत की विवशता और तड़प का बड़ा ही आकुल आख्यान मिलता है -

बेचैन  हैं  हवाएं,   हर   ओर   बेकली  है

कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है

मंझधार है,  भवर  है  या पास है किनारा

या नाश आ रहा या सौभाग्य का सितारा ?

तमवेधिनी  किरण  का  संधान मांगता हूँ,

ध्रुव की कठिन घडी में पहचान मांगता हूँ.

आगे  पहाड़  को  पा  धारा  रुकी  हुई  है,

बलपुंज  केसरी  की  ग्रीवा  झुकी  हुई  है

निर्वाक  है  हिमालय,  गंगा  डरी  हुई  है.

निस्तब्धता निशा की दिन में  भरी हुई है.

पंचास्य-नाद भीषण विकराल  मांगता हूँ.

जड़ता विनाश का फिर भूचाल मांगता हूँ.

गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे,

इस जांच की घडी में निष्ठा कड़ी, अचल दे.

हम  दे   चुके  लहू हैं, तू  देवता  विभा  दे,

अपने अनल-विशिख से आकाश जगमगा दे.

उन्मोद   बेकली   का   उत्थान  मांगता  हूँ,

विस्फोट    मांगता  हूँ,   तूफ़ान  मांगता हूँ.

१९४३ में देश जिस पीड़ा से छटपटा रहा था, इस कविता में उसका पूरा खाका उतर आया है. किन्तु इस दर्द को वही कवि लिख सकता था जिसकी नाडी के तार देश की छाती से लगे हों.

फिर उनकी वह कविता छपी जिसमे इन्होने सत्याग्रहियों को यह आश्वासन दिया था कि उनकी विजय समीप है. लक्ष्य के पास आकर थककर बैठ जाना वीरों का काम नहीं होता -

यह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल, दूर नहीं है,

थककर बैठ  गए क्या भाई ,  मंजिल दूर नहीं है.

अपनी हड्डी  की  मशाल से ह्रदय चीरते तम का.

सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश निर्मम का.

एक खेय है शेष, किसी विधि पार उसे कर जाओ,

वह देखो, उस पार चमकता है मंदिर प्रियतम का.

आकर  इतने  पास  फिरे  वह सच्चा शूर नहीं है,

थककर  बैठ गए  क्या भाई,  मंजिल दूर नहीं है.

(सामधेनी)

देश जितनी कुर्बानियां कर चुका था, उन्हें दिनकरजी ने इस कविता में यथेष्ट माना था और  उन्होंने यह आशा प्रकट की थी कि भगवान् भारत की और अधिक परीक्षा नहीं लेंगे. अचरज की बात है कि यह भविष्यवाणी भी सच ही निकली.

दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुन्य प्रकाश तुम्हारा

लिखा जा चुका अनल - अक्षरों में इतिहास तुम्हारा.

जिस मिटटी  ने लहू  पिया  वह फूल  खिलाएगी ही ,

अम्बर  पर  धन  बन  छायेगा  ही उच्छ वास  तुम्हारा,

और  अधिक  ले  जांच,  देवता  इतना  क्रूर   नहीं  है.

थककर  बैठ   गए  क्या  भाई,  मंजिल  दूर  नहीं  है.

(सामधेनी)

१९४५ में ही उन्होंने 'दिल्ली और मास्को' नामक वह विख्यात कविता लिखी जिसमे मास्को की वन्दना उसी निष्ठा  और श्रद्धा के साथ की गयी, जिससे हिन्दू काशिधाम और मुसलमान मक्काशरीफ़ की करते हैं.  साथ ही अप्रत्यक्ष रूप से साम्यवादियों पर कुछ थोड़ा आक्षेप है कि उन्होंने सन बयालीश की क्रांति का साथ क्यों नहीं दिया. यह कविता दिनकरजी के उस समय के राजनीतिक विचारों की कुंजी है. वे साम्यवाद की प्रशंसा करते हैं, मास्को को 'लाल भवानी' कहकर पुकारते हैं और देश-देश में घटित होने वाली साम्यवादी क्रांतियों का स्वागत करते हैं. यह कविता ठीक उसी शैली में है जिसमें नयी दिल्ली की रचना की गयी थी, बल्कि आरंभिक पंक्तियों में भाषा और भाव का संयोग देखते ही बनता है.

जय   विधायिके  अमर  क्रांति की,  अरुण  देश  की रानी !

जवाकुसुम-धारिणी, जग-तारिणी, जय नव शिवे ! भवानी !

अरुण विश्व की काली, जय हो ,

लाल  सितारोंवाली,  जय  हो,

दलित, बुभुक्शु, विश्नुन  मनुज की

शिखा  रूद्र,   मतवाली  जय  हो,

जगज्योती, जय-जय, भविष्य की राह दिखाने वाली !

जय समत्व की शिखे, मनुज की प्रथम विजय की लाली !

भरे प्राण में आग, भयानक विप्लव का मद ढाले !

देश-देश  में  घूम  रहे  तेरे  सैनिक   मतवाले !

छीन-भिन्न हो रहीं मनुजता के बंधन की कड़ियाँ !

देश-देश में बरस रहीं आजादी की फुलझड़ियाँ !

किन्तु दिल्ली की याद आते ही कवि के हृदय पर चोट लगती है कि जो लोग मास्को की  वीरता के इतने प्रशंसक  हैं, वे दिल्ली के सत्याग्रहियों का साथ क्यों नहीं देते ?

एक देश है जहाँ विषमता

से अच्छी हो रही गुलामी,

जहाँ मनुज पहले स्वतंत्रता

से हो रहा साम्य का कामी.

चिल्लाते हैं 'विश्व ! विश्व !' कह जहाँ चतुर नर ज्ञानी,

बुद्धि -भीरु सकते न डाल जलते स्वदेश पर पानी !

जहाँ मास्को के रणधीरों के गुण गाये जाते,

दिल्ली के रुध्राक्त वीर को देख लोग सकुचाते !

दिनकरजी का मत था कि राष्ट्रीय स्वाधीनता की प्राप्ति किये बिना साम्यवादी समाज की रचना नहीं हो सकती, क्यूंकि गुलामी के नीचे केवल भारत का गौरव ही दबा हुआ नहीं है, उसकी आर्थिक समृद्धि भी उसी पहाड़ के नीचे है -

नगपति के पड़ में जब तक है बंधी हुई जंजीर,

तोड़ सकेगा कौन विषमता का प्रस्तर-प्राचीर ?

दिल्ली के नीचे मर्दित अभिमान नहीं केवल है,

दबा हुआ शत-लक्ष नरों का अन्न-वस्त्र, धन बल है !

दबी   हुई इसके  नीचे भारत  की लाल  भवानी,

जो तोड़े  यह  दुर्ग  वही  है समता  का अभिमानी .

क्रमशः

प्रस्तुत है दिनकरजी की हुंकार देती एक और रचना दिल्ली -

दिल्ली

यह कैसे चांदनी अमा के मलिन तमिस्त्र गगन में

कूक रही क्यों नियति व्यंग्य से इस गोधुली-लगन में ?

मरघट  में  तू  साज  रही  दिल्ली !   कैसे   श्रृंगार ?

यह बहार  का स्वांग अरि, इस उजड़े हुए चमन में !

इस उजाड़, निर्जन खंडहर में,

छिन-भिन्न उजड़े इस घर में,

तुझे  रूप  सजने  की  सूझी

मेरे   सत्यानाश   प्रहर  में !

डाल-डाल   पर  छेड़ रही कोयल मर्सिया तराना

और तुझे सूझा इस दम ही उत्सव हाय, मनाना;

हम धोते हैं गाव इधर सतलज के शीतल जल से,

उधर तुझे भाता है इनपर नमक  हाय, छिडकाना ?

महल कहाँ ? बस, हमें सहारा

केवल फूस-फांस, तृणदल का,

अन्न नहीं,  अवलंब  प्राण को

गम, आंसू  या  गंगाजल  का,

यह विहगों का झुण्ड लक्ष्य है

आजीवन बधिकों के फल का,

मरने  पर  भी  हमें  कफ़न है

माता  शैव्या  के  अंचल  का !

गुलंची निष्ठुर फेंक रहा कलियों को तोड़ अनल में,

कुछ सागर के पार और कुछ रावी-सतलज-जल में,

हम मिटते जा रहे, न ज्यों, अपना कोई भगवान् !

यह अलका छवि कौन भला देखेगा इस हलचल में.

बिखरी लत, आंसू छलके हैं,

देख, वन्दिनी हैं बिलखाती,

अश्रु  पोंछने  हम  जाते  हैं.

दिल्ली ! आह ! कलम रुक जाती !

अरि  विवश हैं,  कहो,  करें क्या ?

पैरों  में  जंजीर  हाय,  हाथों

में  हैं  कड़ियाँ  कस  जातीं !

और कहें क्या ? धरा न धंसती,

हुन्करता न गगन संघाती !

सुत की निष्ठुर बलि चढ़ जाती !

तड़प-तड़प हम कहो करें क्या ?

'बहै न हाथ, दहै रिसि छाती',

अंतर ही अंतर घुलते हैं,

'भा कुठार कुंठित रिपु घाती !'

अपनी गर्दन रेत-रेत असी की तीखी धारों पर

राजहंस  बलिदान  चढाते  माँ  के हुंकारों पर  !

पगली ! देख, जरा कैसे मर-मिटने की तैयारी ?

जादू चलेगा न धुन के पक्के इन बंजारों पर !

तू वैभव-मद में इठलाती

परकीया सी सैन चलाती,

री ब्रिटेन की दासी ! किसको

इन आँखों पर है ललचाती ?

हमने देखा यहीं पांडू-वीरों का कीर्ति-प्रसार,

वैभव का सुख -स्वप्न, कला का महा स्वप्न अभिसार

यही कभी अपनी रानी थी, तू ऐसे मत भूल,

अकबर, शाहजहाँ ने जिसका किया स्वयं श्रृंगार !

तू न ऐंठ मदमाती दिल्ली !

मत फिर यों  इतराती दिल्ली !

अविदित नहीं हमें तेरी

कितनी कठोर है छाती दिल्ली !

...........

(हुंकार )

12 टिप्‍पणियां:

  1. बढ़िया प्रस्तुति ।

    आभार ।।

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  2. बहुत बढिया. शानदार प्रस्तुति।

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  3. अनामिका जी ...सार्थक प्रयास है आपका ....इसे आज आराम से पंक्ति दर पंक्ति पढूंगी ....!!!
    बहुत आभार ...!!

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  4. दिनकर जी के व्यक्तिव और कृतित्व से परिचय कराता यह आलेख एक अनमोल रत्न है इस ब्लॉगजगत के लिए।

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  5. दिनकर के कृतित्व एवं व्यक्तित्व पर प्रकाश डालती बेहतरीन प्रस्तुति है अनामिका जी ! काश आज के इन मेरुदंडहीन नेताओं के युग में दिनकर जी जैसा देशप्रेम की अलख जगाने वाला ओजस्वी कवि होता तो देश की तस्वीर कुछ अलग ही होती ! इसने बढ़िया प्रस्तुति के लिए आभार आपका !

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  6. बहुत सुन्दर प्रस्तुति है आपकी अनामिकाजी ...आभार !कितना सही कहा है साधनाजी ने ...

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  7. दिनकर जी के संघर्षमय जीवन और समय की विसंगतियों से जूझती प्रखर मेधा काव्य में कैसे मुखर हो उठी है इसका सुन्दर निदर्शन कर रही हैं आप .परिस्थितियाँ आज भी विषम हैं ,दिल्ली का दिल आज भी शान्त नहीं हैं .आप दिनकर की याद दिला कर
    जो देश दे रही हैं बहुत सामयिक है .

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  8. दिनकर जी को पढकर यादें ताजा हो गई बहुत हि बढिया लगा पढ़ कर

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