औद्योगिक
उत्पादन में कमी गंभीर आर्थिक बीमारी का संकेत
अरुण चंद्र रॉय
वैश्विक अर्थव्यवस्था संकट के दौड़ से
गुजर रही है. विकसित देशों में विकास का डर लगातार नकारात्मक हो रहा है. दुनिया भर
की निगाहें उन विकासशील और गरीब देशों पर टिकी हैं जहाँ दोहन संभव हो सके. कुछ
वर्ष पूर्व भारत भी उन्हीं देशों में से एक था. विकसित देशों की अर्थव्यवस्था के
बिगड़ने का सबसे बड़ा कारण होता है खपत में कमी. मांग में संत्रिप्तता. ऐसे में उनकी
कंपनियों को नए बाज़ार की तलाश होती है. कभी नई प्रोद्योगिकी के नाम पर, तो कभी
विकास के नए सोपान को दिखा कर विकसित देश पहले उन देशों की अर्थव्यवस्था को बाज़ार
के लिए खोलते हैं. भारत में उदारीकरण को इसी घटनाक्रम में देखने की जरुरत है. धीरे
धीरे भारतीय अर्थव्यवस्था के सभी उद्योग और व्यापारिक क्षेत्र निवेश के नाम पर खुले.
लेकिन गत दो दशक में सिवाय शहरीकरण, बाजारीकरण और अंधाधुंध उपभोक्तावाद के अधिक कुछ नहीं हासिल नहीं
हुआ है.
पिछले वित्तीय वर्ष में निर्यात और
आयात की खाई और भी चौड़ी हो गई है. व्यापारिक संतुलन लगातार ख़राब हो रहा है. आम
भाषा में कहें तो विदेशों से हम अधिक खपत करते हैं और हमारे उत्पाद कम मात्रा में
दूसरे देशों में जाते हैं. जहाँ हमारा घरेलू उत्पादन, विनिर्माण में लगातार कमी हो रही वहीँ
हमारा आयात 31% की दर से बढ़ा है (अप्रैल-अक्टूबर 2012 ) जो कि एक चिंता का विषय है. यह
दर्शाता है कि हमारी खपत और मांग विदेशों पर कितनी निर्भर हो गई है. जनवरी 2002 में भारत का व्यापारिक असंतुलन लगभग 2ओ मिलियन अमेरिकी डालर का था जबकि मार्च, 2012 में यह घाटा बढ़ कर 13,906 मिलियन अमेरिकी डालर हो गया है. यह
दर्शाता है कि हमारी आत्मनिर्भरता कम होने की बजाय बढ़ी है. आम आदमी के लिए ये आंकडे
भले ही समझ ना आये लेकिन अंततः भुक्तभोगी वही होता है.
हाल में ही जारी औद्यगिक उत्पादन
सूचकांक (आई आई पी ) के आंकडे बताते हैं कि औद्योगिक उत्पादन पिछले वित्तीय वर्ष
यानि 2011-12 में महज 3.5% की वृद्धि हुई. किसी भी
अर्थव्यवस्था के लिए विनिर्माण, खनन और विद्युत् क्षेत्र का विकास बहुत मायने रखते हैं. भारत जैसे
विकासशील देश के लिए विनिर्माण यानि मैनुफैक्चरिंग क्षेत्र कभी अर्थव्यवस्था का
आधार हुआ करता था. जहाँ विनिर्माण क्षेत्र में लोगों को रोजगार मिलता है वहीँ
अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ आधार भी. अभी अपने देश के आधे गाँव तक बिजली पहुचनी है, विद्युत् क्षेत्र का विकास भी बहुत
महत्वपूर्ण है. किन्तु चिंता की का विषय है कि खनन क्षेत्र में नकारात्मक वृद्धि
हुई है, जबकि विनिर्माण क्षेत्र में विकास की
गति केवल 3.7 % रहा है जो कि औसत जीडीपी के दर
से भी काफी कम है. इस से प्रतीत होता है भारतीय अर्थव्यवस्था के पारंपरिक आधार
खिसक रहे हैं.
Root cause of this erosion, or dying increasing in our GDP and national development
जवाब देंहटाएंis lust of our self development ,instead of national thinking & development.we compare to developed countries but we never talk about those aspects which are necessary for development.only we want to graze the jhugi & jhopadi in light of power . Power not for national aggrandizement...,to demolish the vision and commitments,in place of Orthodox and darkness .There is need to adapt hard decision without bifurcation ,for sake of our country & countrymen .Thanks .
Dear Uday ji. you have rightly said. We have still to define our national priorities. In each and every aspect of economy, we are just following the directions from the developed world and not working on our national aspirations. The growing gap between haves and havenots is the result of the same. India is still a country without power, road, hospital, education, food and shelter... but our priority is mobile phones, formula one etc. etc. Social and economical parity is still a distant dream in the country.
हटाएंएक चिंताजनक स्थिति का तथ्यपरक विश्लेषण!! आभार अरुण जी का!!
जवाब देंहटाएंबहुत बेहतरीन रचना....
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।